रमणिका गुप्ता: अनुवाद की श्रंखला - भाग 5 Neelam Kulshreshtha द्वारा पुस्तक समीक्षाएं में हिंदी पीडीएफ

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रमणिका गुप्ता: अनुवाद की श्रंखला - भाग 5

रमणिका गुप्ता - श्रंखला -5

तेलुगु की स्त्री विमर्श कहानियां

दिल्ली की दामिनी के केस ने सारे देश को जगा दिया था. गुजरात की सरकार ने फ़रवरी 2014 में 181 हेल्पलाइन का शुभारंभ किया था. गुजरात जिसे स्त्रियों के मामले में प्रगतिशील राज्य माना जाता है. अहमदाबाद, जो देश का सर्वश्रेष्ठ शहर है, के एक समाचार पत्र में समाचार है कि कुछ ही महीनों में 13 नवंबर 2014 तक स्त्री हिंसा की 10, 000 कॉल्स आ चुकी हैं जिनमे शहर के पश्चिमी पॉश इलाके से भी कॉल्स मिली हैं. समीक्षा के आरंभ में इस बात का ज़िक्र इसलिए ज़रूरी हो गया है कि समझा जा सके कि औरत अपने हाशिये क्यों उलांघ रही है, क्यों रमणिका जी ने बीड़ा उठाया है कि चालीस भाषाओं की लेखिकायें उन दहकते कारणों को कलम से रेखांकित करे जिनके कारण आधुनिक स्त्री भी हाशिया उलांघ रही है. 

स्त्री देह, दिमाग की नैसर्गिकता व आकांक्षाओं के लिए स्पेस मांगती तेलुगु लेखिकायें मै तेलुगु कहानियों के अनुवाद के लिए जे. एल. रेड्डी व शांता सुंदरी व उनकी टीम को को धन्यवाद देना चाहती हूँ जिनके कारण हमे तेलुगु स्त्री की बेबाक व अपने व्यक्तित्व के लिये स्पष्ट सोच का परिचय मिला. सुदूर कोने में बैठी बहिनों के स्त्री पात्र वही त्रासदी झेल रहे है जो स्त्री विमर्श का समानांतर सृजन सारे विश्व में हो रहा है. यदि इस कलम की बेबाकी व प्रगतिशीलता के कारण ढूँढ़ने हैं तो इसकी जड़ों को तलाशा जाए और लीजिये तेलुगु के' कोठी में धान ''में मिल गए इस बेबाकी के कारण. नारी सोच की उस प्रगति के कारण --जहाँ से वह् प्रगति करते हुए 'अयोनि 'कहानी में खुलकर लिख सकती है. 

इस अंक को भी चार खंडों में सँवारा गया है -कोठी में धान ', खड़ीं फ़सल;सन् 1947 से पहले 'व खड़ीं फसल ;सन् 1947 के बाद 'व 'नई पौध '. भंडारू अच्यमांबा केवल तीस वर्ष तक ज़िन्दा रहने के बावजूद उन्नीसवीं सदी के अंत में स्त्री के लिए ऐसी 'स्त्री सुबोधिनी ''लिख गई जिसका प्रथम पाठ है कि स्त्री शिक्षित होनी चाहिये. ये कहानी कोई उपदेशात्मक बोर कहानी नहीं है बल्कि पति पत्‍‌नी प्रेम से सिंचित एक कथा है कि दूरियों में भी निकटता बनी रहे पत्रों के माध्यम से . ये जब ही होगा जब स्त्री शिक्षित होगी. शास्त्रों का नाम लेकर पंडित समाज को किस तरह बेवकूफ़ बनाते है, इस ओर इशारा करके शिक्षा के मह्त्व को नायिका के पति ने बताया है --''यदि तुम शिक्षित होती तो तुम खुद शास्त्र पड़कर जान सकती थी --उनमें कही ये बात नहीं है कि स्त्रियो को शिक्षा नहीं देनी चाहिये. ''

शांतासुन्दरी जी के संपादकीय के हिसाब से चलम की सूक्ति कि -'स्त्री के पास शरीर है, उसे व्यायाम चाहिये, स्त्री के पास बुद्धि है, उसे विकास चाहिये. स्त्री के पास मन है, उसे अनुभव चहियें. एक सौ दस साल पहले इस सोच का 'भंडारू अच्चमांबा 'श्रीगणेश कर चुकी थी उन्होंने स्त्रियों का इतिहास ग्रन्थ लिखा व सबसे पहले संघ व संगठन की स्थापना की थी. आंध्र प्रदेश में अस्सी के दशक में नारीवाद की अवधारणा स्थापित हुई व नारी वादी रचनाओं की बाढ़ सी आ गई थी. यूनाइटेड नेशंस के सामाजिक परिवर्तन व सन् 1975 को महिला अंतरराष्ट्रीय वर्ष घोषित करने का ये परिणाम था. पहला तूफ़ान कविता से आया. सन् 1990 से ये कहानियों में अभिव्यक्त होने लगा था. 

शातासुंदरी जी के ही अनुसार हर भाषा की तरह तेलुगु की गालियाँ स्त्रियों से जुड़ी होती है. गाली चाहे मर्द को दी जाए, उसकी गलीज भाषा माँ बहिन के बारे में होती है. सन् तीस से चली आ रही समस्याये ज्यों की त्यों है, बस उनका रुप बदला है. कही कही तो उन्ह्ने घिनौना रुप ले लिया है. उलटे नई नई समस्याये भी जुड़ी हैं. घरेलू हिंसा, बलात्कार, हत्या, भ्रूण हत्या, स्त्री का अस्तित्व, अस्मिता, व्यक्तितव -सब कुछ संकट में है. तेलुगू में सहजीवन [लिव इन रिलेशनशिप ]से पैदा बच्चों की व तेज़ाब से किए हमले पर भी कहानियाँ आ चुकी है. तेलुगु लेखिकायें पुरुष लेखन की नक़ल नहीं करतीं प, वे पारिवारिक ढाँचे में बदलाव चाहती है. हारकर बैठने वाली नायिकाये इन कहानियों में नहीं है. अर्चना वर्मा जी ने अपने संपादकीय में सटीक बात कही है जिसका आशय है कि एक बार खोला गया रास्ता ज़रूरी नहीं है कि हमेशा खुला रहे ---लगातार चौकन्ना रहने की जरूरत है. 

जो बात मुझे किसी हिन्दी कहानी में नहीं मिली कि एक ग्रहणी अपने  बच्चों सहित कोई महिला सम्मेलन में सम्मिलित होने जा रही है. जबकि होना ये चाहिये था कि किसी गुजराती कहानी में किसी महिला सम्मेलन या संगठनों का ज़िक्र होना चाहिये था. प्रथम अखिल भारतीय महिला परिषद की स्थापना पूना में सन् 1927में हुई थी जिसमे वड़ोदरा में महारानी चिमनाबाई भी सम्मिलित हुई थी. उन्होंने वड़ोदरा यानि गुजरात में सन् 1928 में अखिल भारतीय महिला परिषद की स्थापना की थी. भारत का तीसरा महिला संगठन भी अहमदाबाद में' ज्योति संघ 'गाँधीजी ने स्थापित किया था. ये तेलुगु कहानी लिखी है सन् 1896 में जन्म लेने वाली कनुपर्ति वरालक्श्मी ने जिनकी मृत्यु 1978 में हुई थी. तो मान लीजिये इन्होंने मध्य वयस में ये कहानी लिखी हो तो भी ये आश्चर्यजनक प्रगतिशीलता की बात है जब वे लिखती है, ''स्वतंत्रता के लिये हम औरतों का संसार कितनी तड़पन अनुभव कर रहा है, यह जानने के लिए आपको हमारे मन में घुसकर देखना होगा. ''

-------  ''आप लोगो को क्या फर्क पड़ता है. क़ानून बनाने और पास करने वाली सभाओ में बहुमत तो आप लोगो का है न. ''

आश्चर्य ये है 100 वर्ष पहले जो बात तेलुगु स्त्री ने समझ ली थी वही बात आज की स्त्री यानि कि मैंने अपनी कहानी 'रिले रेस '[ हिन्दी- हाशिये उलांघती औरत -खंड 2. ]में व्यक्त की है. यानि आज की स्त्री भी उन्ही कर्कश क़ानून के पिंजरे में कैद है क्योंकि बहुमत तो समाज में पुरुषों का है. हाँ, ये ज़रूर है कि इसमे एक प्रगतिशील विचारधारा वाले पुरुष के दर्शन होते हैं जो नायिका के मामा जी को उनके शहर नायिका के आने का तार देकर उसे आश्वस्त करता है. 

' कोठी में धान 'में ही एक कहानी आश्चर्यचकित करती है वह् है 'वह मुस्कराई ''लेखिका वासिरेड्डी सीता देवी अपनी कहानी में'वर्क प्लेस 'पर स्त्री शोषण की बात करती हैं. ये कहानी लेखन के आरंभिक काल की बात है जब तेलुगु स्त्री कलम ने प्रश्न उठाने आरंभ कर दिए थे. ये सब जानते हैं कि अधिकतर स्त्रियां अपनी आय अपने मौज मज़े पर खर्च करती है क्योंकि घर चलाना पुरुषों का काम है  लेकिन जिन्हें घर चलाने के लिये काम करना है वह् बॉस के शोषण से कैसे बच सकती है. ?इन्ही मजबूर स्त्रियों की व्यथा को जो इन भेड़ियों के आगे मुस्कराने को मजबूर है, व्यक्त करती है सन् 1933 में जन्म लेने वाली सीता देवी की कलम ----''फिर भी आप पूछते है -आखिर नौकरी के वास्ते क्या चरित्र बेचना ज़रूरी है ?''

सी. सुजाता की कहानी की नायिका को भी अपनी स्माइल नौकरी के लिए सेल करनी पड़़ती है. वह् कैसी पीड़ा है जो कलम से कहलवा लेती है --''अब मै उसी कमर टूटे कीड़े के घूँघट में हूँ री !यह ऐसी पीड़ा है, जो बाहर दिखाई नहीं देती. ''

जिस भाषा की नींव में इतनी सशक्त सृजनकार है जिन्हें पढ़कर 'खड़ी फ़सल 'या नई पौध 'की रचनाकार बड़ी हुई होंगी तो जाहिर है वे स्त्री जीवन से जुड़े उन पहलुओं पर अपनी कलम रक्खेंगी. जिंन्हें  चर्चित करना बेहद ज़रूरी हो गया है जैसे कि चंद्र्लता अपनी कहानी 'बैलेंस शीट'' में  स्त्री पुरुष के बीच की' बैलेंस शीट को आज तक ढूँढ़ रही है [या हम कह सकते हैं कि हाशिये इसीलिये उलांघे जा रहे है कि समाज को ये 'बैलेंस शीट 'मिलें ]. जिसमे महिलाओ के चारों तरफ खड़ी की गई काँच की दीवारों को चूर चूर करने का साहस है. इस कहानी मे उदाहरण है ऐसी बैंक मैनेजर औरत का ज़िक्र है जो गाँवों में घूमकर बैंक से ऋण लेने के लिये लोगो को प्रोत्साहित करती है. सच में हाशिये उलांघने का साहस रखती है क्योंकि गान्वो में साड़ी पहनकर सायकल चलाई नहीं नई जाती तो सलवार सूट पहनने लगती है. लोग उसे बदचलन कहे तो उसे परवाह नहीं है लेकिन उसके क्षेत्र में सबसे अधिक वसूली होती है. 

चित्रा मुद्‍गल जी ने बरसों पूर्व अपनी कहानी ' दरमियान ' में कामकाजी स्त्री को मासिक धर्म से होने वाली असहजताओ की बात चित्रित करने का दुस्साहस किया था. ये कहानी उससे भी आगे की बात करती है. इस कहानी में दिमाग को सोचने के लिये मजबूर करने वाला व शिक्षित करने वाला संदेश है कि हम समाज का ऎसा वातावरण बनाए जिसमे कोई लड़की रजस्वला होने पर ऑफ़िस या कही भी शर्म से गड़ी एक जगह ना बैठीं रहे बल्कि उसके सहयोगी यहाँ तक कि पुरुष भी उसकी सहायता करे ना कि उसका मजाक उड़ाये.  ये पंक्तियां समाज को बहुत बड़ा संदेश देती है, 'अपने  बच्चों  ---स्त्रियों ---अपने पुरुषों को सिखाना है. शरीर का यह एक सहज धर्म है. इसमे ना अपमान है, न वितृष्णा. न लज्जित होने की कोई बात. ऋतुचक्र का स्त्रियों पर शासन हर क्षण चलता रहता है. ''सच कहूँ तो अपने कथ्य के कारण मुझे ये रचना अविस्मरणीय लगी है. 

हर लड़की के अन्दर छिपी छोटी बच्ची अपने एक अवयब के कारण ही हमेशा शारीरिक या मानसिक दरंदगी का शिकार होती रह्ती है, उसका सारा व्यक्तित्व पंगु होता जाता है या बोनसाई बन जाता है. बहुत खुलकर इस अंग के लिए विमर्श किया है लेखिका ओल्गा ने अपनी कहानी 'अयोनि 'में कि पक्षियों की रजकुमारी के नन्हे नन्हे पैरों व सुकोमल पंखों की कल्पना करने वाली भावुक बच्ची को किस तरह जहरीले नागों द्वारा बाज़ार में पहुंचा दिया जाता है सिर्फ़ एक अंग के कारण. उनकी कलम का आक्रोश है छोटी छोटी बच्चियो को एक अंग भर के लिए उठा ले जाने वाले नागों को छुरे भोंक भोंक कर मार दालिये'. कुप्पिलि पद्मा की' निडर' जिसमे दो देह व्यापार से जुड़ी औरतें इसलिए खुश है कि उन्हें यौन रोग हो गया है और वे खुश हैं कि आधी रात के समय हम औरतें ख़ूब आजादी से घूम फिर रही है '. हमे आजादी मिल गई है. इस कहानी में तिरता दर्द कही गहरे दिल को चीर जाता है. तो इसी प्रदेश की ये तीन रचनाकार औरत से जुड़े सच की हमे बेहद समर्थ रचनाय दे पाई है. सोनाली सिंह की हिंदी कहानी' योनि -कथा', सिर्फ़ एक लड़की की कश्मकश व विचारों की उड़ान है जबकि इन तीन कहानियों में एक जीवट विमर्श इस पर है. 

मै उसका एक और कारण ढूँढ़ पाई हूँ कि जब आंध्र प्रदेश की बेटी नौ बरस की होती है तो एक समारोह किया जाता है जिसमे मामा उसे आधी साड़ी या 'वनि 'देता है, जो प्रतीक है कि तुम्हारे स्कर्ट फ्रॉक पहनने के दिन गए तुम्हारा योंवन आने वाला है और जब वह् रजस्वला हो जाती है तो एक दिन सारा घर बिजली की झालरो से चमचमा जाता है रिश्तेदारों व परिचितों को आमंत्रण दिया जाता है, ''हमारी बेटी पुष्पावती हो गई है, आप आइए. ''

बरसो पहले हम लोग हैदराबाद ही थे जब हमारे रिश्तेदार के यहाँ पड़ौस से ये बुलावा आया था और मेरे सारी शरीर में. झुरझुरी हो उठी थी कि कैसे माँ बाप है जो बेटी के युवा होने का ढिंढोरा पीट रहे है. इसी अंक की लेखिका ओल्गा जी से मैंने प्रश्न किया कि नारी संस्थाये इस समारोह के लिये विद्रोह नहीं कर रही ?, उन्होंने फोन पर बताया, ''सन् 1950 से 1985 तक ये प्रथा कम होने लगी लेकिन आज के धन प्रदर्शन के दौड़ में ये और भी धूमधाम से हो रही है ''. ------तो समाज की ऐसी परंपरा यहाँ की लेखिकाओ को खुलकर लिखने का साहस दे रही है. सोनाली सिंह की कहानी हिन्दी पट्टी में बरसों दबाई जाती रही, बात ये गौरतलब है. जाहिर है स्त्री विमर्श पर सामाजिक प्रभाव तो पड़ता ही है. 

नौकरीपेशा कुँवारी का शोषण अपने ही माँ बाप द्वारा हर प्रदेश में होता है. 'खड़ी फ़सल ;सन् 1947 से पहले 'की सुनन्दा की तेलुगु कहानी'मुखौटा ' में यही बात अभिव्यक्त है. ''पत्थर और प्रवाह ''तेलुगु कथाकार ए. पुष्पांजलि की बेहद रोचक रचना दो विधवा बहिनो के माध्यम से बताती है कि जीवन प्रवाह धर्म को अपनाने से नहीं बल्कि समाज के लिये अपना जीवन उपयोगी बनाने से होता है. यहां शादीशुदा भी वो स्त्रियां ध्यान दें जो शादी के बाद पति की व्यस्त्तता के कारण अपने को धर्म में डुबो कर रख देती हैं लेकिन आत्मिक संतुष्टि ना पाकर जलने भुनने के कारण चुगली व ईर्ष्या करने का का उपहार पा जाती हैं. इस कहानी की खासियत ये है कि इसकी विधवा नायिका करुणा बहुत स्वाभाविक रुप से एक डॉक्टर व बाद में अपने बॉस से अपने शारीरिक संबंधों को लेती है बिना किसी अपराध बोध के. अपने विवाहित बॉस के दिखाये मंगलसूत्र के मोह से अपने को बचा ले जाती है, क्योंकि जानती है इसको अपनाने का अर्थ है किसी का घर तोड़ना ---यही है जीवन प्रवाह और यही है तेलुगु लेखिका की संतुलित जीवन के लिए सधी दृष्टि. . 

इक्कीसवीं सदी की लड़कियों की कहानियाँ हैं तेलुगु में -'शाम का संकट '[केबी. वर्लक्ष्मी ]में माँ अपनी दो अलग विचारधारा वाली लड़कियों को देखकर हतप्रभ है क्यों कि एक मानती है कि दहेज़ देकर बेटी को सुखी किया जा सकता है व दूसरी इसके बिलकुल खिलाफहै. हर सिक्के के दो पहलू होते है इसलिए इस कहानी में  हमारे समाज का आइना दिखाई दे रहा है, दोनों ही बात अपने समय का यथार्थ है. 'सबक 'टी. [सी]बसंता की कथा दो स्त्रियों की है जो दो युवकों की अक्ल ठीक करती है व इंगित करती हैं कि विवाह के समय, सात फेरें लेते समय[सभी पुरुश ] कितने वायदे करते हैं. कथा की नायिका जो सपना देखती है वह् हर चेतनशील स्त्री का प्रयास होता है, हम दोनों अपने बेटों को सज्जन बनायेंगे. कभी किसी की औरत का अपमान ना करे, किसी भी औरत के जीवन का नाश न करने के लिये, बचपन से ही इन्हे पाठ पदायेंगे ---ताकि ये समाज के लिये विष नहीं अमृत बने. 

 

विवाह बाद भी यदि सुख ना मिलें तो तेलुगु स्त्री पति से बगावत करके अलग रह् ना पसंद करती है. गीतांजलि की ''खुला '[खड़ी फ़सल ], मल्लेश्वरी की 'संघर्ष', ती. श्रीवल्लि राधिका की 'तिरसकार' व रुबीना परवीन की 'खुला 'में पत्‍‌नी के पति से अलग होने का ऐलान है. शैली की दृष्टि से अन्तिम कहानी बहुत रोचक ढंग से लिखी गई है. इसकी नायिका फट पड़़ती है -''कल को फ़ातिमा से दिल भर जायेगा तो कोई और औरत ले आयेगा ---मै भी एक ही माँ के पेट से पैदा हुई हूँ ---मै भी हाद मांस की ही बनी बहुत रोचक ढंग से लिखी गई है. इसकी नायिका गुस्से से फट पड़ती है, ''कल को फ़ातिमा से दिल भर जायेगा तो कोई और ले आयेगा ----मै भी एक ही माँ के पेट से पैदा हुई हूँ -----मै भी हाद मांस की बनी हूँ  --जीने की हिम्मत रखती हूँ. ''

आज रूट लेवल एन जी ओ'ज़ स्त्रियों में यही मंत्र फूँकती नजर आती है कि पुरुष व स्त्री एक ही पेट से पैदा होता है. फिर भी ये व्यवस्था स्त्रियों को धूल चटाना चाहती है तो वो पुरुष की खींची हदें पार कर जाती है. च्थांगेटी तुलसी की नायिका की तरह नितांत अकेले होने पर भी ऎसे पुरुष के लिए अपने घर में 'ऐश ट्रे' नहीं रखना चाहती जो युवा उमर में उसका साथ छोड़ गया था.  ये कहानियाँ  सिर्फ़ पति के दगाबाज़ व आक्रामक रुप की कहानी कहती है. 'अजनबी आकाश के नीचे 'यदि विदेश में एन जी ओ'ज़ का सहारा मिल जाए तो माहेज़बीन लेखिका की चारुमति को कोई पति दस तोले के मंगलसूत्र से नहीं खरीद सकता. 

एम. रत्नमाला की कहानी'' पत्नी ' भी नारी उत्थान करने वालो का इतिहास दोहराकर व्यंग करती है आज के समय पर है ------ ' दो सौ साल पहले राजा राममोहन राय जी ने, फिर कदुकूरिव सन् 1848 में वीरेश्लिंगम ने प्रयास किए लेकिन आज भी औरत मनुश्य के रुप में जी पाने में असमर्थ है. कब तक समाज उसे सीता सावित्री बताकर उसका हिस्सा छीनता रहेगा ?''

वर्जीनिया वुल्फ के 'रूम्स वन ओन 'में सत्रहवी शताब्दी की लेखिका दचेज़ के क्रोध से उबलते कथन का उल्लेख है, ''औरतें चमगादड़ों, उल्लूओं की तरह ज़िन्दा रह्ती हैं, पशुओं की तरह खटती हैं और केंचुओ की तरह मरती हैं. ''इसी मशक्कत के बीच नारी चेतना का उदय हुआ है इसलिए  पी. सत्यवती की कहानी में 'मै कौन हूँ ?'में घर गृहस्थी में आकंठ डूबी नायिका अपने खोये हुए 'स्व 'को तलाश करती है. इस प्रतीकात्मक कहानी में बहुत समुचित ढंग से रचा है स्त्री जीवन कि किस तरह से घर सम्भालते सम्भालते स्त्री का अपना व्यक्तितव लोप हो जाता है. तेलुगु कहानी  'सुखांत 'में अब्बूरि छाया देवी ने बहुत सुंदर ढंग से एक ग्रहणी की व्यस्तताओ का वर्णन किया है कि वह् किस तरह जीवन भर भरपूर नींद को तरसती रह जाती है. भरपूर नींद पाना भी चाहे वह् नींद की गोलियों से ही क्यों ना हो एक तरह से हाशिये उलंघना भी है. 

दूसरी तरफ तलाश हो रही है एक गांव की महिला सरपंच की तेलुगु कहानी 'सरपंच कौन है ?'एक प्रतीक कथा है कि भारत के गाँवों में महिला सरपंचों को सिर्फ़ कागजों पर रबर स्तेम्प की तरह प्रमुख बनाया जाता है, उनके दबंग रिश्तेदार पंचायत का काम देखते है और कहानी की नायिका एक सभाग्रह में कोने में दबी सिकुड़ी बैठी हुई वह सरपंच ढूँढ़ पाती है. एक बात बताने के लोभ को संवरण करना ज़रा मुश्किल है. मैंने गुजरात के एक गांव की एक सरपंच पर सत्य कथा लिखी थी ' जगत बा ' उस अनपढ़ औरत ने रबर स्टैंप बनने के लिए इनकार कर दिया था. एक पंच की शिकायत राजधानी पहुँचा दी थी, जो कि इतिहास में पहली बार हुआ था. पुरुष सरपंच एस टी डी बूथ खुलवाते थे व चबूतरा बनवाते थे लेकिन उसने सड़क बनवाई जिससे औरत डिलीवरी के लिए समय से अस्पताल पहुँच सके, स्कूल खुलवाया, पानी का इंतजाम किया. खैर----ऎसे अपवाद कम हैं. जूपाका सुभद्रा की कहानी एक आईना है कि औरत को किस तरह हाशिये उलांघने के अधिकार नहीं दिए जाते जबकि फाइलों पर सत्ता उनके नाम होती है. 

तेलुगु की 'जंगुबाई' कहने में गोपी भग्यलक्श्मी हमे गोंद आदिवासियों की उन परम्पराओ तक ले जाती है जहाँ एक मासूम सी लड़की को जंगल में बने घर में माहवारी के समय 3-4 दिन घर के बाहर रहना पड़ता है. इस जगह पर जब बकरी बँधी जाती है तो शेर बाहर बंधी बकरी को कभी कभी खा जाता है यानि कि लड़की की हैसियत बकरी जैसी ही है. किसी  लड़की को शहर का कोई युवक इस्तमाल कर धोखा दे जाता  है. जंगुबाई में इतना साहस के कि वह् बचपन में हुई शादी को मानने से इनकार कर देती है क्योंकि उसे अपना पति पसंद नहीं है. ये कहानी एक प्रतीक कथा है कि लड़की व बकरी को एक समझने वाले समाज में भी लड़की शेरनी बनकर मनचाहा प्राप्त कर लेती है. 

जाजुला गौरी की कहानी 'धरती की बेटी 'भी विषय से हटकर है. कहानी ' संडास 'एक स्त्री व शौचालय के सन्दर्भ में गहरा विमर्श है जिस शाह्जहाँना ने बहुत महीन बुनावट से व्यक्त किया है, ये बात और है नवविवाहिता नायिका हाशिये कैसे लांघे क्योंकि उसके मायके घर बिकने वाला है, समस्या वही होने वाली है. 

जलंधरा की कहानी 'छाया और यथार्थ ' में सबके यहाँ तक कि माँ के भी मना के बावजूद एक बेहद कुरूप लड़क एक गांव आए एक फ़ोटोग्राफ़र से अपना फ़ोटो खिंचवा लेती है. वह फ़ोटो अपनी कलात्मकता के कारण पुरस्कृत कर दिया जाता है. इसमे बड़ा प्यारा सा संदेश है कि स्त्री अपने वजूद को चाहे वह् कैसा भी हो प्यार व सम्मानित करना सीखे तो क्या नहीं मानदंड स्थापित कर सकती. 

'नई पौध' की दो कहानियाँ 'तिरस्कार '[टी. श्रीवल्ली राधिका ]व 'संघर्ष '[मल्लेश्वरी ]की नायिकायें पति विच्छेद के बाद जीवन संघर्ष के लिए कटिबद्ध नजर आती हैं. इस खंड में सात युवा लेखिकाओं की उपस्थिति भविष्य में तेलुगु लेखन के लिये आश्वस्ति जगाती है. इस अंक की ख़ासियत ये है कि स्त्री पुरुष संबंधों की कहीं भी अश्लील प्रस्तुति नहीं है, स्त्री देह से जुड़े सवालों पर बहुत सुसंस्कृत बहस का बीड़ा उठाया है व उसे चरम पर पहुँचाकर सुझाव भी दिए है. तमाम सुधारकों के प्रयास के दो सौ वर्षो के बावजूद समाज नहीं बदल रहा तो तेलुगु स्त्री कलम स्त्री को प्रेरित करती है कि वह स्वयं अपनी समस्या समझे व जहाँ हाशिये उलांघने हों, उलांघ जाए ----सोच क्या रही है ?

ये ग्यारहवीं पास महिलाओं से लेकर स्त्रीवादी इतिहासकार, समाज सेविका, तेलुगु साहित्य अकादमी की सद्स्य, दिल्ली साहित्य अकादमी के तेलुगु बोर्ड की सद्स्य, प्राध्यापक, प्राचार्य, अध्यापक, चिकित्सक, वकील व मीदियाकर्मियो की कलमे हैं जो तेलुगु स्त्री के जीवन का बेहद प्रामाणिक दस्तावेज प्रस्तुत करती हैं. 

 

समीक्षात्मक पत्रिका --रमणिका फाउंडेशन परियोजना के तहत

कहानी शृंखला

हाशिये उलांघती औरत ;तेलुगु, [सहयोग राशि ;200 रुपये ]

e-mail –kneeli@rediffmail. com