पंद्रह लोगों का भरा पूरा परिवार था, जिस घर में सीमा ब्याहकर आई थी।सुबह पांच बजे से चूल्हा जलता तो दिन के दो बजे तक जलता ही रहता और फिर चार बजे से शाम के खाने की तैयारी शुरू हो जातीं।मायके में भी 10 जनों का भरा पूरा परिवार था तो कोई खास परेशानी नहीं हुई।लेकिन मायके और ससुराल की जिम्मेदारी में फर्क होता है।माँ के दिये संस्कार ही थे कि उसने खुद को ससुराल की जिम्मेदारियों में पूरी तरह झोंक दिया।18 बर्ष की अल्हड़ किशोरी कब जिम्मेदार औरत बन गई पता ही नहीं चला।पति रेलवे में टी सी थे इसलिये ज्यादातर बाहर ही रहते थे।महीने दो महीने में दो चार दिन के लिये घर आते थे।क्योंकि गाँव से रोज ड्यूटी पर जाना मुश्किल था, इसलिये शहर में ही कमरा किराए पर लेकर रहते थे।उसने कहा भी था जब पिछली बार वो गाँव आये थे।"मुझे भी अपने साथ ले चलो न, क्या आपको मेरी याद नहीं आती?"।इस पर उन्होंने उसे बुरी तरह झिड़क दिया था। वह बोले "क्या तुमको यहाँ पर कोई परेशानी है,यहाँ पर सब तो हैं माँ पिताजी ,भैया भाभी,और छोटे भाई बहिन "।इस पर वह ख़ामोश हो गई थी ,कैसे कहती कि "यहाँ सब हैं लेकिन तुम तो नहीं हो"।सुबह मुँह अंधेरे से देर रात गए तक घर के काम में जुटी रहती और रातों को अपनी तन्हाई के साथ अकेले रहती ।लेकिन धीरे धीरे ऐसे जीवन की वह आदि हो गई थी और पति के इंतजार में दिन गिनती रहती थी। जब उसका सोमेश गाँव आता तो वह उन दो चार दिन में ही पूरे महीने की जिंदगी जी लेती थी।जल्दी ही वह गर्भवती हो गई और एक प्यारे से बेटे की माँ बन गई।उसके बाद वह दो बेटियों की भी माँ बन गई और उसके पति का आना जाना इसी प्रकार चलता रहा। उन चार दिनों में उसकी जिंदगी अपने पति के इर्द गिर्द ही घूमती रहती।और घूमे भी क्यों न, हम औरतों को बचपन से ही सिखाया जाता है पुरुष रिश्तों के लिये जीना, चाहे वो पिता हो,पति हो ,भाई हो या बेटा इससे ज्यादा औरतें कुछ सोचती भी नहीं है।उसे याद हैं वो दिन जब वह तीनों बहिनें भाइयों के काम के लिये दौड़ा करती थी।भाईयों के खाना,कपड़े आदि कार्य वह बहिनें खुशी खुशी किया करतीं थी।और जब कभी उसके भाई टिफिन ले जाना भूल जाते तो जैसे ही याद आती वह टिफिन लेकर भाई की साइकिल के पीछे दौड़ा करती थीं।वह तीनों बहिनें भी स्कूल गईं थी लेकिन पांचवी तक पढकर घर पर बैठ गईं क्योंकि उस समय गाँव में पांचवी तक ही स्कूल था।और उस समय लड़कियाँ गाँव से बाहर पढ़ने नहीं जाया करती थीं।लेकिन उसके भाई आगे की पढ़ाई के लिये शहर जाते थे।जब सीमा 18 बर्ष की हुई तो उसकी शादी रमेश से कर दी गई थी।इस नए जीवन में सीमा ने खुद को पूरी तरह ढाल लिया था या यों कहिए पूरी तरह झोंक दिया था।अब उसके तीनों बच्चे धीरे धीरे बड़े हो रहे थे।इधर रमेश जब कभी सीमा के साथ उसके मायके जाता,सीमा की भाभियाँ रमेश से कहतीं "जीजाजी अब तो जीजी को अपने साथ ले जाओ, बच्चे बड़े हो रहे हैं,उनका स्कूल में दाखिला करा दीजिए"।इस बार रमेश के दिमाग में ये बात आ ही गई और वह छोटा सा घर किराए पर लेकर सीमा और बच्चों को अपने साथ शहर ले गया।बच्चों का स्कूल में दाखिला भी करा दिया।सीमा के शहर आने के बाद भी रमेश कई कई दिन 'रात' को घर नहीं आता ।जब सीमा पूछती तो कह देता कि रेलवे में नौकरी करनी है तो बाहर जाना भी पड़ेगा और बाहर रुकना भी पड़ेगा।इस पर सीमा ने कोई प्रतिक्रिया नहीं की।लेकिन एक दिन रमेश शराब के नशे में घर आया तो सीमा ने उसके जूते बगैरह निकाले और नशे की हालत में ही उसके कपड़े आदि बदलवाने लगी।तब उसका बटुआ जमीन में गिर पड़ा ,सीमा ने उसे खोलकर देखा तो उसमें किसी महिला का फोटो था।फिर रात्रि को अन्तरंग क्षणों में पुष्पा पुष्पा नाम लेकर बड़बड़ाने लगा।यह सब देखकर सीमा सकते की सी हालत में थी।उसने रमेश के हाथों को झटक दिया और उससे दूर हो गई, उसकी नींद गायब हो चुकी थी। अब उसे सब बातें समझ आने लगीं थीं। रमेश की बेरुखी उसका कई कई रातों तक घर से बाहर रहना आदि।उसने सुबह उठने पर सोमेश से पूछा कि ये पुष्पा कौन है ? क्या इसीलिये तुम घर नहीं आते हो और आपके बटुए में जो फ़ोटो है वह पुष्पा का ही है।इस पर रमेश बड़ी ही रुखाई से बोला "क्या बकबास करती हो ,एक तो में तुम जैसी गँवार औरत को निभा रहा हूँ और तुम मुझी पर इल्जाम लगा रही हो"।और उसके बाद से वह अब और भी ज्यादा घर से बाहर रहने लगा।सीमा ने अब हालात से समझौता कर लिया था और शिकायतें करना भी बंद कर दिया था। दरअसल रमेश तेज तर्रार और पढ़ा लिखा युवक था, वहीं सीमा सीधी सादी गाँव की घरेलू युवती थी और रमेश से कम पढ़ी लिखी थी।लेकिन रंग रूप में रमेश से कहीं बेहतर थी। रमेश जहाँ साँवला सलोना युवक था, वहीं सीमा गोरे रंग की गाँव की गोरी थी।गाँव का तो रमेश भी था लेकिन उसे शहर की हवा लग गई थी।इसी तरह कुछ वक्त और गुजरा और रमेश ने शहर में ही खुद का घर खरीद लिया और वह उस घर में शिफ्ट हो गए। वक्त गुजरता गया और बच्चे भी अब बड़े हो गए थे।सीमा ने बच्चों की परवरिश में अपने आपको पूरी तरह खफा लिया था।यहाँ तक कि उसके देवर और जेठ के बच्चे भी पढ़ाई के लिये सीमा और रमेश के यहाँ आकर रहने लगे थे।सीमा उनकी भी उसी निश्छल भाव से देखभाल करती जैसे अपने बच्चों की करती। सीमा के धैर्य और कर्तव्यनिष्ठा को देखकर रमेश को अपनी गलतियों का अहसास होने लगा था और वह अपनी गलतियों को सुधारने की कोशिश कर रहा था।सीमा भी रमेश को माफकर उसकी गलतियों को भूलने की कोशिश में लगी थी।औरत को दिल बड़ा करना ही पड़ता है क्योंकि वह घर को बनाये रखना चाहती है।सीमा ने दिल पर पत्थर रखकर रमेश को माफ कर दिया था।कुछ समय गुजर जाने के बाद एक एक करके उसके तीनों बच्चों के विवाह हो गए।घर में बहु आ गई और बेटियाँ ब्याहकर ससुराल चली गईं।सबकुछ ठीक ही था,लेकिन सीमा के मन के किसी कोने में जो खालीपन था, वह कभी न भर सका।लेकिन उसे इस बात का संतोष था कि वह अपना फर्ज ठीक से निभा सकी।कुछ समय ही ठीक से बीता कि रमेश की तबियत खराब रहने लगी।रमेश को दिल की बीमारी थी ,दवाएँ चल रही थीं लेकिन रमेश की तबियत में कोई सुधार नहीं हो रहा था।कुछ महीनों बाद रमेश की तबियत अचानक ज्यादा खराब हो गई ।बेटा अजय और सीमा, रमेश को लेकर अस्पताल को दौड़े लेकिन अस्पताल पँहुचते इससे पहले ही बहुत देर हो चुकी थी।रमेश हमेशा हमेशा के लिये सबको छोड़कर जा चुका था।सीमा तो गम के अथाह सागर में डूब गई थी।अभी अभी तो उसके जीवन में खुशियों का आगाज हुआ था ,फिर ये दुखों का पहाड़ ,शायद दुखों से उसका कोई पुराना नाता है, जो उसे कभी अकेला नहीं छोड़ते।आखिर वक्त सभी घावों को भर देता है,कुछ समय बाद जिंदगी फिर से उसी ढर्रे पर चलने लगी। शुरू शुरू में सब ठीक था,बेटा बहु उसका ख्याल रखते थे ।अब वह कई नाती पोतों की दादी नानी बन गई थी और बच्चों की परवरिश में बहु की मदद कर देती थी।बच्चे बड़े होने लगे और बेटा बहु अपनी गृहस्थी में व्यस्त हो गए।अकेली रह गई तो सीमा और उसकी तनहाइयाँ।अब उसकी तबियत भी खराब रहने लगी थी,जिस कारण वह खुद को नितांत अकेली और असहाय महसूस करने लगी थी।बेटे बहु पोते पोती सभी अपने अपने कामों में व्यस्त थे।किसी के पास उसके लिये समय नहीं था।अब वह घर में फालतू सामान की तरह थी ,जिसे घर के किसी कोने में रख दिया जाता है।रमेश के रहते कम से कम वह घर की मालकिन तो थी,अब तो वह बेटे बहु पर आश्रित थी ,वह जब खाने को देते, जैसा खाने को देते उसी में उसे संतोष करना पड़ता था। उसकी मर्जी, उसकी इच्छा, पसंद, नापसंद से किसी को कुछ लेना देना न था।हालाँकि रमेश की पेंशन घर में आती थी,लेकिन उसने कभी अजय से उसका हिसाब नहीं लिया।क्योंकि पेंशन लाने आदि सभी कार्य अजय ही करता था।जब उसे कहीं जाना होता और पैसों की जरूरत पड़ती तो वह अजय से मांग लिया करती थी।न ही अजय ने खुद से आकर कभी उसके हाथ में पेंशन के पैसे रखे।उनकी जिम्मेदारी तो बस उसे चाय पानी और दो वक्त का खाना देकर पूरी हो जाती थी।उसका जिंदगी से मोह भंग हो गया था, ऐसा कोई नहीं था जिससे वह अपने दिल की बात कह सके। अकेली पड़ी पड़ी अपनी जिंदगी की किताब के पन्ने पलटा करती और खुद ही खुद से बातें किया करती थी।जो औरत इस सृष्टि की रचना करती है, अपनी एक एक सांस देकर खुद से जुड़े सभी रिश्तों को सींचती है ,वो खुद ही तन्हा क्यों रह जाती है? वह तड़फती है अपनों के लिये,वो अपने जिन्हें वह अपनी जिंदगी का अभिन्न अंग मानती है।वह क्यों इतने हृदयहीन हो जाते हैं। जिनसे वह खुद से ज्यादा प्रेम करती है,उनके दिल में क्यों उसके लिये प्रेम का स्थायी अंकुर प्रस्फुटित नहीं होता।कहने को तो वह पांच भाइयों की बहिन थी ,वह भाई जिनके इर्द गिर्द घूमकर अपने आप को भाग्यशाली समझा करती थी।उन्होंने भी शादी, ब्याह ,उत्सव के अलावा कभी उसकी सुध नहीं ली।और जिस घर में उसके बिना तिनका तक नहीं उठता था,उसी घर के किसी कोने में वह एक बेजान सामान की तरह पड़ी रहती है।उससे बात करने वाला उसकी भावनाओं को समझने वाला कोई नहीं है, जिससे वह अपने दिल की बातें करके अपना दिल हल्का कर सके।कभी कभी वह सोचती कि क्या वजूद है उसका, जिस घर में पैदा हुई, पली बढ़ी उस घर से तो उसे पराई अमानत समझकर विदा कर दिया गया।और जिसके साथ बांधकर उसे विदा किया उसने तो कभी दिल से उसे अपनाया ही नहीं ।और जिस औलाद को उसने अपने खून से सींच कर बड़ा किया उसका प्रेम तो तब तक था, जब तक उन्हें उसकी जरूरत थी।क्या एक औरत की अहमियत सिर्फ इतनी ही है।क्यों वह उसी तरह महत्वपूर्ण नहीं होती, जिस तरह एक औरत के लिये उससे जुड़े सभी रिश्ते होते हैं। क्योंकि वह एक औरत है,दोयम दर्जा प्राप्त है उसे।और ये दोयम दर्जा उसका खुद का दिया हुआ है क्योंकि वह खुद से ज्यादा खुद से जुड़े रिश्तों की फ़िक्र करती है।या ये कहिए कि वह आदि से अंत तक दूसरों के लिए जीती है, अपना वजूद खोकर, तो वह बदले में प्यार और सम्मान और देखभाल की अपेक्षा क्यों न करे ?पोती 'रिया' की आवाज सुनकर सीमा की तंद्रा भंग हुई और वह विचारों के भंवरजाल से बाहर आई।क्यों वह बार बार भटककर अतीत की गलियों में पँहुच जाती है, उसे खुद नहीं पता था ?रिया खाने की प्लेट थामे सामने खड़ी थी।रिया-"दादी खाना खा लो"।मन तो हुआ खाना लौटा दे लेकिन वह चाहकर भी ऐसा न कर सकी।क्योंकि उसे बहुत जोरों से भूख लगी थी,फिर ऐसा करना अन्न देवता का अपमान होता। उसने खाने की प्लेट थाम ली,उसकी आँखों में आँसू आ गए।दिन के तीन बजने को हैं ,सुबह की एक कप चाय देकर इन लोगों ने ये नहीं सोचा कि इस बूढ़ी को भी भूख लगी होगी।क्या ये लोग सुबह से बिना खाये ही बैठे हैं ?नहीं इन लोगों ने तो पिज़्ज़ा ,बर्गर कुछ भी खा लिया होगा जो कि ये अक्सर करते हैं।क्या बूढ़े होने पर भूख और इच्छाएँ मर जाती हैं ? ये भी नहीं सोचते कि शुगर की बीमारी है, भूख लगती होगी ,दवाई भी खानी होंगी।बहु तो बहु,बेटा भी कभी ये नहीं पूछता कि तुमने कुछ खाया है या नहीं।ये वही बेटा है, जिसकी, खाने के लिए मिन्नतें किया करती थी,दूध का गिलास लेकर आगे पीछे फिरा करती थी।वही बेटा अपनी पत्नी और बच्चों में इस क़दर व्यस्त है कि भूल गया है कि उसकी एक माँ भी है।जिस औलाद के इर्द गिर्द एक माँ की जिंदगी घूमती है, बूढ़े होने पर वही माँ बाप उसी औलाद के परिवार का हिस्सा नहीं रह जाते,उन्हें तो किसी तरह झेला जाता है।हम औरतें होती ही ऐसी हैं, हमेशा अपना रिमोट कंट्रोल पिता ,भाई ,पति ,पुत्र आदि को सौंपकर खुश होती हैं।वह हमारे लिये जो भी सोंचें वही सही।हमारी अपनी ख़ुशी, मर्जी हमारे लिये कोई मायने नहीं रखती। जिस बेटे के वह हजारों नखरे खुशी खुशी उठाती थीं।उसी बेटे को वह अपनी छोटी से छोटी इच्छा भी नहीं बता सकती।क्योंकि उन्हें साफ़ दिख रहा था कि उनका बेटा अब उनका नहीं रहा।वह अक्सर खुद ही खुद से सवाल करती कि आखिर क्यों एक औरत अपने वजूद को तलासती अपनी तन्हाई के साथ अकेली रह जाती है ?क्यों उसे अपनी ही दुनिया में मुक्कमिल जहाँ नहीं मिलता ?क्यों उसे उसके हिस्से का आसमाँ नहीं मिलता?क्यों ? क्यों ?क्यों ?आखिर क्यों ?