घनश्यामदास पाण्डेय और उनका काव्य कृष्ण विहारी लाल पांडेय द्वारा पुस्तक समीक्षाएं में हिंदी पीडीएफ

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घनश्यामदास पाण्डेय और उनका काव्य

घनश्यामदास पाण्डेय और उनका काव्य

वर्तमान शताब्दी के प्रथमार्द्ध में झांसी जिले और उसके आसपास जो काव्य सक्रियता थी उसके पुरुरस्कर्ताओं में कविवर घनश्याम दास पांडेय का प्रमुख स्थान है। यह दुर्भाग्य का विषय है कि उनका काव्य प्रकाशन के अभाव में हिंदी जगत में उस व्यापक आस्वाद की वस्तु नहीं बन पाया जिसके वह अधिकारी थे। हिंदी साहित्य का इतिहास लेखन प्रवृत्ति परक होने से उसमें कुछ प्रतिनिधि नामों का ही उल्लेख होता रहा और पांडेय जी की तरह अनेक कवियों को व्यापक काव्य धारा के साथ जोड़ने का प्रयास ही नहीं हुआ सबसे बड़ी विडंबना तो यह है कि उनका मूल्यांकन आंचलिक या लोक कवि के रूप में किया गया। समीक्षा के साहित्यिक मानदंडों के आधार पर उनका विमर्श होने की जगह उन पर संस्मरणात्मक या उद्धरणात्मक चर्चाएं होती रही। इस तरह उनके काव्य का यह प्रमुख पक्ष उपेक्षित ही रह गया जहां वह अपनी भाव-संपदा और वैचारिकता में उत्कृष्ट कवि सिद्ध होते हैं।
घनश्यामदास पांडेय का जन्म श्रावण कृष्ण प्रथमा संवत 1943 तदनुसार 17 जुलाई 18 86 ईस्वी को मऊरानीपुर में हुआ था। उनके पूर्वज छत्रसाल की प्रारंभिक राजधानी महेबा के निवासी थे ।छत्रसाल द्वारा छतरपुर नगर की स्थापना होने पर वे यहां आकर रहने लगे और बाद में मऊरानीपुर आकर बस गए। दर्शन और कर्मकांड के विद्वान पंडितों के वंश में उत्पन्न पांडेयजी को शिक्षा का अनुराग स्वाभाविक रूप से प्राप्त हुआ विधिवत शिक्षा के रूप में उन्होंने हिंदी मिडिल, उर्दू मिडिल, संस्कृत प्रथमा, नॉर्मल और मैट्रिकुलेशन परीक्षाएं सदैव प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। उनके अतिरिक्त उनका स्वभाव स्वाध्याय विशद था। अनेक भारतीय भाषाओं के सुधि ज्ञाता थे। संस्कृत वांग्मय के तो सभी पक्षों के वह अधिकारी विद्वान थे। पांडित्य की इसी संपन्नता तथा प्रेरक काव्य रचना के कारण वह आचार्य की संज्ञा से समादृत थे। अनेक अपने समकालीनो में वही ऐसे कवि थे जो बहुविध ज्ञान के शास्त्रीय और आधुनिक पक्षों की गहराइयों में उतरे थे।

उत्तर प्रदेश में अनेक स्थानों में शिक्षक रहने के पश्चात 1914 ईस्वी में त्याग पत्र देकर घर आ गए और कुछ वर्षों तक स्थानीय विद्यालय में प्रधानाध्यापक रहे।

स्वाभिमानी व्यक्तित्व वाले पांडेय जी में सहज द्रवणशीलता, उचित विनम्रता और सौजन्य था किंतु ज्ञानाराधन ने उन्हें स्पष्ट वादी और निश्शंक बना दिया था। अतः लोग उनकी अप्रिय बात को भी सादर मान लेते थे क्योंकि उनका आलोच्य व्यक्ति ना होकर उसका सामान्य अज्ञान होता था।
उन्होंने आत्मकथात्मक वंशावली में लिखा है कि वह 13- 14 वर्ष की अवस्था से ही तुकें जोड़ने लगे थे और 18 वर्ष की अवस्था में तो वह भली-भांति काव्य रचना करने लगे थे । कविता उन्हें सहज सिद्ध थी और वह धारावाहिक रूप से सृजन क्षम थे । उनके पांडित्य और कवित्व से शिक्षा ग्रहण करने वाले तथा उनकी कविताओं और सैरों का समारोहों में गायन वाचन करने वाले शिष्यों का बृहत् समुदाय था जो पांडे मंडल के नाम से विख्यात था। अपने समय के सभी प्रमुख साहित्यकारों मैथिलीशरण गुप्त, मुंशी अजमेरी, स्नेही जी ,अंबिकेश, बृजेश, बिहारी, गंगाधर व्यास ,माहौर आदि से उनका नियमित संपर्क था।सन् 1930 ईस्वी में ओरछा नरेश वीर सिंह देव द्वितीय के सँरक्षण में कुंडेश्वर में आयोजित भीड़ बसंतोत्सव के अवसर पर हुए कवि-सम्मेलन में पुरस्कार निर्णय हेतु उन्हें निर्णायक बनाया गया था। अन्य दो निर्णायक थे रायबहादुर श्याम बिहारी मिश्र और गया प्रसाद शुक्ल सनेही।
अपने प्रतिभाशाली पुत्र ओरछा के राजकवि नरोत्तमदास पांडेय 'मधु' के अल्प वय में करुण निधन के शोक में पंडित घनश्याम दास पांडेय ने भी 1953 में जीवंनान्त कर लिया था । पांडेयजी के काव्य संस्कारों और उनकी अनुभूति की निर्मिति में उनके आनुवांशिक संस्कार और तत्कालीन परिवेश नियामक तत्व थे। अपने परिवार से उन्हें आस्तिकता के संस्कार मिले। तत्कालीन परिवेश ने उन्हें पुनर्जागरणकालीन नैतिक आदर्शवादी तथा राष्ट्रीय चेतना प्रदान की। सामान्य व्यक्ति से अधिक संवेदनशील होने के कारण कवि अपने युगीन घटनाक्रम से तो प्रभावित होता ही है परंतु उन घटनाओं से कवि का अधिक सरोकार होता है जिनमें समाज की जीवनी शक्ति की अधिक परीक्षा होती है, जब समाज की सामूहिक अस्मिता की चिंता संघर्ष का पथ निर्मित करती है। स्वतंत्रता आंदोलन भारतीय जिजीविषा का जीवंत इतिहास है। व्यापक राष्ट्रीय परिपेक्ष में स्वाधीनता संग्राम में इस अंचल का योगदान भी अनूठा रहा है। संपूर्ण देश के समवेत रूप से स्वाधीनता का जो तुमुल राग छेड़ा गया उसका पहला आलाप झांसी की भूमि पर ही लिया गया था। परवर्ती काल में भी स्वतंत्रता के लक्ष्य तक पहुंचने के लिए शांति और क्रांति दोनों मार्गों पर वहां की बलिदानी भावना ने अपने चरण चिन्ह अंकित किए हैं। मऊरानीपुर में 1920 ईस्वी का असहयोग आंदोलन, 1930 का झंडा सत्याग्रह और 1942 ईस्वी का भारत छोड़ो आंदोलन अपनी संघर्ष क्षमता के अनुपम उदाहरण माने गए हैं। पांडेय जी इस हलचल के तटस्थ दर्शक नहीं थे बल्कि स्वाधीनता संग्राम में उनकी सक्रियता सक्रिय संलग्नता थी । पांडेय जी का आरंभिक रचनाकाल द्विवेदी युगीन है । नवजागरण की चेतना के उस काल में राजनीतिक स्वातंत्र के संघर्ष के साथ ही देश में धार्मिक और आर्थिक रूढ़ियों से मुक्ति का प्रयत्न भी हो रहा था। यह चेतना पांडेय जी की कविता का प्रमुख स्वर है । बाद में हिंदी कविता रंग और रूप के अनेक दृश्य परिवर्तनों से गुजरती रही लेकिन बहुत से कवि घनाक्षरी सवैया शैली में अपनी मूल प्रेरणा से जुड़े रहे । सनेही जी के' सु कवि 'ने व्यापक कवि समाज को अभिव्यक्ति का माध्यम दिया था। समस्या पूर्ति की परंपरा अभी चली आ रही थी। खड़ी बोली यानी हिंदी ने काव्य भाषा का स्थान ले लिया था किंतु ब्रज भाषा का प्रयोग भी हो रहा था।

झांसी मऊरानीपुर और छतरपुर में अनेक अवसरों पर साहित्यिक गोष्ठियों और लोक साहित्य के प्रतियोगिता पूर्ण आयोजन होते थे । पांडे जी अपने प्रमुख रचना कर्म के साथ ही इन गतिविधियों में भी सक्रिय थे । उनका रचनाकाल 40-45 बरसों में फैला है ।उनका सृजन परिमान में विपुल और गुणवत्ता में उत्कृष्ट है । काव्य रूपों की दृष्टि से उनकी कृतियों का वर्गीकरण इस प्रकार किया जा सकता है- खंड काव्य -हरदौल चरित्र, झांसी का विभीषण ; लघु आख्यान काव्य- भीष्म प्रतिज्ञा, भीम प्रतिज्ञा, किरातार्जुनीयम्, नरसी मेहता । मुक्तक काव्य -पावस प्रमोद , गांधी गौरव, बाल विवाह विडंबना, छत्रसाल बावनी, जगदंबिका स्तवन,महावीर अष्टक,प्रभातोत्पादक भगवत भजन माला।
इन समस्त कृतियों को मिलाकर जितना परिमाण बनता है उससे कई गुना अधिक उनका प्रकीर्ण काव्य है।जलविहार, झूला तथा अन्य विषयों पर अभिजात काव्य, सम सामयिक राजनैतिक सामाजिक घटनाओं पर सैकड़ों छंद और गीत, व्यंग परक काव्य, समस्या पूतियां, दुर्गा सप्तशती का अनुवाद प्रमुख गैर साहित्य फाग तथा रामलीला के संवादों की विभिन्न क्षेत्रों में रचना ।
पांडेय जी की रचना प्रक्रिया बहुत सहज और द्रुत थी । यह तभी संभव होता है जब कभी अपनी अनुभूति में स्पष्ट और उतकट हो और उसकी कल्पना उर्वर हो। ऐसा सृजन अपने परिपाक बिंदु तक शीघ्र पहुंचकर संप्रेषण का निजी रूप खोज लेता है ।पांडेय जी की सृजनात्मक आशुता और आयाम हीन अजस्रता इस बात से प्रमणित है कि उनकी पांडुलिपियों में शायद ही काट छांट मिले। यह देखा हुआ तथ्य है कि सैर सम्मेलनों के अवसर पर वह और उनके पुत्र 'मधु 'अविराम सैर लिखते जाते थे और जब तक चार लिपिकार उन्हें रजिस्टरों में उतारते थे तब दूसरी सैर तैयार हो जाती थी।
कविवर घनश्यामदास पांडेय के काव्य विषयों के अवलोकन से स्पष्ट है कि उनका अभाव बहुत विशद और व्यापक था। उनका काव्य युगीन घटनाओं, महापुरुषों और अतीत के प्रसंगों से जुड़ा होने पर भी उपलक्ष्य सीमित या तत्काल जीवी नहीं था । उनके संपूर्ण काव्य में विचार की सुदृढ़ भूमिका है , भावों का भव्य स्थापत्य है। जीवन के प्रति उनका दृष्टिकोण विधेयात्मक और कर्मन्यता का है ।देश-प्रेम उनकी मूल संवेदना है। सामाजिक अवमूल्यन के प्रति उनमें मूर्ति भंजक का आवेश है । भोर के पहले प्रहर में जन्मे पांडेय जी की कविता में सूर्याकांक्षा है। कथ्य और शिल्प दोनों स्तरों पर वह पुरुष के कवि हैं ।इसलिए उनकी कविता में एकांतिक श्रृंगार के उपभोगपरख नहीं मिलते । वह जीवन मूल्यों के उपासक कवि हैं। उनकी कविता मैं आज करुणा और आस्था प्रमुख भाव है । यही आस्था अलौकिक आलम्बन के साथ भक्ति बन गई है ।
पांडेय जी की विधायिनी कल्पना ने उनके काव्य को भाव संपन्न बनाया है। एक ही विषय पर उनकी कल्पना अलग-अलग चित्र अंकित करने में सहायक है। वर्षा पर उन्होंने सैकड़ों छंद लिखे हैं और सभी का अपना अलग सौंदर्य है-
धवल बलाकन की भाँत भाँत पाँतन कीतिनहू से लसे दीह दन्तन दतारे से।

धुरक धुरारे छूटे व्योम में लद्दारे तौंनपावस प्रचंड शुण्ड दण्डन पसारे से।।
विप्र घनश्याम भूमि सराबोर करवे कोछोड़े अम्बुधार दान नीर के पनारे से।

माननी के मान भरे वक्षन विदारवे को झूमे मस्त मेंघ यह मतंग मतवारे से ।।
बादल अपने प्रतिद्वंदी सूर्य को बिजली की मशाल लेकर खोज रहे हैं -
बासर बढ़ाए जगताप को बढ़ाएं दीनों घातें कर छोटी करी रातें मार मार के।
सीख लियो मेरो हितों नीर नंदन को प्यारी मेरी भूमि को सतायजी बजार जार के।।
मित्र घनश्याम कर क्रोध मधुबाण चढ़ी देख यह भानु छिपा भारी भीत मार के।।

मानो ललकार ताहि खोजत फिरे हैं मेघ दामिनी की महत मसाल उजयार के।

बादल बैद्यराज की तरह अलग-अलग व्यक्तियो और वस्तुओं को उनकी आवश्यकता अनुसार अलग-अलग रस प्रदान करता है ।
सुभग संजोगिन को देत मकरध्वज हो ज्वालानल देत बिरहीन हिये धाम हो।

सीत रस वायु को मही को हेम गर्भ रस दादूरन हेतु देत संजीवन नाम हो।।
विप्र घनश्याम देत मृत्युंजय वृक्षन को अंबर को अभ्र्क अतीव अभिराम को।
बेलन प्रवाल खासी संखईया जवारो हेतु देत रस वैद्यराज आप घनश्याम हो ।।

हरदौल चरित्र और झांसी का विभीषण इन के प्रसिद्ध खंडकाव्य हैं। वीरता और अश्रुसिक्त करुणा मिश्रित हरदौल के आख्यान उनके इस काव्य में अनुपम कौशल से चित्रित है ।पांडेय जी का हरदौल चरित्र इतना लोकप्रिय हुआ कि अनेक लोगों को कंठस्थ हो गया। जुझार सिंह का अपनी रानी से हरदौल को विश के लिए कहना रानी को ऐसे लगा जैसे- कदली कलेवर में कठिन कुठाराघात पद्मनी के पत्रों पर पतन तुषार का ।
कोमल कुरंगी पर जंगी मृगराज आज ललिता लता पर दौर दावानल झाल का।। विप्र घनश्याम धावा खंजरीट सावक पे फुंकृत फनींद्र फैले फन फुफकार का।
नम्र साल क्यारी पर उपल कठोर जैसे तैसे लगा रानी उर कथन जुझार का।।

झांसी की रानी के सार्थक बलिदान भाव का चित्रण भी बहुत प्रभावपूर्ण है-
सोनित हमारा फैल फैल कर गैल गैल भारत के लालों पर लालियाँ चढ़ाएगा।
होंगी समुतपन्न फिर लक्ष्मियाँ अनेक यहां जिनका निनाद शत्रु आसन हिलाएगा।।
विप्र घनश्याम मेरा बूंद बूंद बीज बन वीरता के वृक्ष वृंद विपुल उगाएगा ।
हो कछु विलंब पर एक नहीं एक दिन मेरा रक्त भारत धरा पै रंग लाएगा ।।
अंग्रेजों के बीच से रानी के निकल जाने के वर्णन में गति की क्षिप्रता का वर्णन अनूठा है -
मुल्क की गुलामी और नमक हरामी इन दोनों ही से लक्ष्मी राजलक्ष्मी सी छली गई।
अंतिम प्रणाम कर झांसी को उसांसी भर साथ कुछ सूरमा के एक थी अली गई ।।विप्र घनश्याम हाँकत ही रहे बातें अरु ताकते रहे कहां कौन-कौन सी गली गई बैरियो की भीड़ थी और हाथ शमशीर थी चीरती फिरंग़ियों को तीर सी चली गई।।
पांडेय जी के समय कवित्त-सवैया की कविता में उक्ति कौशल का बहुत महत्व था पांडेय जी की उक्तियाँ ना तो भाव विरहित चमत्कार उत्पन्न करने के लिए प्रयुक्त हैं, ना वे सुक्तियों के रूप में नीरस नीति निष्कर्ष है ।उनमें कल्पना की नवीन उद्भाव लना और भाव की कलापूर्ण निष्पत्ति है। महाभारत के युद्ध में भीष्म कृष्ण से कहते हैं-
नंद के नहीं हो वसुदेव के नहीं हो आप देवकी के नहीं नहीं जसोदा दुलारे हो।
काहू के नहीं हो सब काहू के वही हो नाथ जहां जहां जात साथ प्रेम से पुकारे हो।। विप्र घनश्याम नहीं शत्रु मित्र भाव तुम्हें पूर्ण कर्मयोगी ज्ञान बारे ध्यान बारे हो।
कौन कहे पारथ के आप तो हमारे नाथ पारथ को पीट दये सामने हमारे हो।।
राम और भरत के मिलन के समय भरत की गरिमा तुला के रूपक से चित्रित है- राम परतंत्र होए तापस बने हैं किंतु
भरत स्वतंत्र रहे तो हूं तपे खोल के।
कानन सिधारे राम शासन पिता की मान भरत फिरे हैं बन आप तनु रोल के।।
विप्र घनश्याम चित्रकूट में मनाए रहे बंधु कों कलंक धोए कीरत को धौल के।
राघव उठे हैं ऊँचे भरत परे हैं भूमि
भारी कौन देखिए तुला पे तौल तौल के ।।
घनश्याम दास पांडे की काव्य चेतना का एक सफल पक्ष उनकी युगीन भाव के प्रति संवेदना है। जहां उनकी कविता के प्दो पक्ष हैं -राष्ट्रीय चेतना परक और सामाजिक विसंगतियों पर आक्रोश भाव। सन 1931 ईस्वी में प्रकाशित "गांधी गौरव" में उन्होंने गांधीजी की प्रशस्ति और मऊरानीपुर के झंडा सत्याग्रह का वर्णन किया है। पांडे जी की राष्ट्रीयता में वीर भाव प्रधान है, यह चेतना उनके गीतों और सैरों में भीवर्णित थे ।इसी प्रकार सामाजिक कुरीतियों ,धार्मिक पाखंड, पूंजीवादी शोषण आदि पर वहाबबहुत प्रगतिशील हैं । इन विसंगतियों के निवारण के लिए वह नीतिशास्त्र की शरण नहीं लेते ना सोच कौन से हृदय परिवर्तन का निवेदन करते हैं। वह पाखंड और अन्याय की पोल खोल कर उसे चुनौती देते हैं। किसी वृद्ध विधुरवव्रत द्वारा तरुणी से पुनः विवाह कर लेने पर उसकी विधवा पुत्री की प्रतिक्रिया कितनी तीखी है -
लाये वृद्ध वाला को विवाह के उछाल भरे देख सुता विधवा ने अश्रु बरसाए हैं ।
वृद्ध समझाने लगा बेटी देख तेरे लिए माता हम लाए हुए तेरे मन भाए हैं ।।
विप्र घनश्याम बोली सुता पिता आपने तो मुझ पर सदैव प्रेम भाव दरर्शाए हैं ।
रोया करती थी मैं अकेली बैठ आज तक मेरे साथ रोने को सहेली भली लाए हैं।।
कविवर पांडेय जी ने लोक विधा के अंतर्गत प्रचुर परिमाण में फगों और सैरों की रचना की है । उनकी फागुन का विषय प्रमुख रूप से भक्ति है। उनकी फ़ागों में विचार और अभिव्यक्ति की सरलता दर्शनीय है -
कब लौं रेहो ई बखरी में- नीव नहीं है जी मैं
दिन ना रात मरम्मत चालू -बसीगत है ई में।
तोऊ दरकन परी रहत है- भीत छला खिड़की में ।
बनी रहो तो लो ,जो लो तुम -मालिक की मरर्जी में ।
कवि घनश्याम एक दिन मिलने- नोटिस रजिस्ट्ररी में ।।
उद्धव प्रसंग की एक फ़ाग में विवश आकुलता मूर्त हो गई है -
हरि बिन और काज सब सर है-ऊधौ जग चक्कर है।
दसरहु हो जेहे बिन उनके- दीपावली उजर है ।
उनके गुण गा गा फागुन में- दृग पिचकारी भर है ।
कवि घनश्याम सकल बृजवासिन- एक बात को डर है ।
कोपे इंद्र कहूं फिर से तो- को गोवर्धन धर है ।।
पांडेय जी के सैर काव्य की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उन्होंने अन्य कुछ कवियों की तरह अपनी उत्कृष्ट काव्य शक्ति से उसे श्रेष्ठ काव्य बना दिया। आभिजात्य और राष्ट्रीयता तथा प्रकृति परक और उसे श्रेष्ठ युगीन संदर्भों पर उनकी सैरें अलग स्थान रखती हैं। सैर सम्मेलन इस अंचल के बहुत रोचक और महत्वपूर्ण काव्य- समारोह होते रहे हैं । गंगाधर व्यास, नाथूराम माहौर और घासीराम व्यास के मंडलों से प्रतियोगिता में घनश्यामदास पांडेय और उनके पुत्र नरोत्तम पांडेय अपने श्रेष्ठ सैर काव्य का परिचय देते रहे हैं । उनका शास्त्र ज्ञान वहां बहुत सहायक था ।
इस तरह घनश्यामदास पांडेय अपनी काव्य चेतना में द्विवेदी युग के कवियों के साथ प्रतिष्ठित हैं। उनका श्रेष्ठ काव्यत्व और उनका अनूठा शिल्पांकन तत्कालीन अनेक कवियों को अधिक्रमित कर जाता है ।वह अपने समय के सार्थक और कवि का सामाजिक दायित्व समझने वाले कवि हैं।
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