हजारी प्रसाद द्विवेदी -मूल्यों का पुनर्पाठ कृष्ण विहारी लाल पांडेय द्वारा पुस्तक समीक्षाएं में हिंदी पीडीएफ

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हजारी प्रसाद द्विवेदी -मूल्यों का पुनर्पाठ

हजारी प्रसाद द्विवेदी का साहित्यः मूल्यों का पुनर्पाठ डॉ० के.बी.एल.पाण्डेय

साहित्य को व्यापक मानवतावाद और मूल्यवत्ता से जोड़ने वाले तथा मनुष्य को सभी सरोकारों के केन्द्र में रखने वाले हजारी प्रसाद द्विवेदी शुक्लोत्तर युग के ही नहीं पूरे हिन्दी साहित्य के विलक्षण गद्यकार हैं। डॉ० नामवरसिंह जब उन्हें दूसरी परमपरा के उदभव के रूप में देखते हैं तो द्विवेदी जी को पढ़ने का नया सन्दर्भ मिलता है। एक ओर शास्त्र और परंपरा का गहन पाण्डित्य दूसरी ओर आधुनिकता की मूल्यारकता के नये विमर्श की ग्रहणशील गतिशीलता जैसे धुवान्तों से द्विवेदी जी अमिश्र मिया नहीं बनाते बल्कि उनकी सार्थक अनिवार्यताओं का नया रसायन प्रस्तुत करते हैं। उन्होंने समान रचनात्मकता के साथ उपन्यास निबंध और साहित्य की समीक्षात्मक तथा इतिहासपरक वैचारिकी का सृजन किया है।

उनमें आधुनिक समय की व्यापक चेतना की विविधता है, विचार की रूढिमुक्त और निर्भीक जीवंतता है। उनका पांडित्य उन्हें बाँधता नहीं, स्थगित नहीं करता। कालिदास उन्हें जीवन के प्रति प्रवृत्ति के साथ सौन्दर्य और लालित्य की रसपूर्णता देते हैं तो शान्ति निकेतन में गुरूदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर और आचार्य क्षिति मोहन सेन के सान्निध्य में वह वैश्विकता. मानवतावाद और कला तथा साहित्य के प्रति अभिनव दृष्टि पाते हैं। यही दृष्टि उनके पूरे साहित्य को निर्धारित करती है। जगह-जगह के भटकावों से वह फक्कड़ और मस्त होते जाते हैं। उनके उपन्यास, इतिहास. पुराण और संस्कृति का अज्ञातपूर्व कथा रस प्रवाहित करते हैं तो 'अशोक के फूल, कुटज, देवदास कल्पलता, विचार और वितर्क, विचार प्रवाह जैसे निबंध संग्रहों में चिन्तन, अनुभव और दृष्टि सम्पन्नता के प्रतिमान मिलते हैं। वह जब सूर साहित्य, हिन्दी साहित्य का उद्भव और विकास, हिन्दी साहित्य, मध्ययुगीन बोध का स्वरूप आदि ग्रंथों में साहित्य पर समीक्षात्मक तथा ऐतिहासिक विचार करते हैं तो अभी तक प्रचलित अनेक स्थापनाओं का खण्डन कर देते हैं। साहित्य के बारे में दिये गये फैसला को उलट देते हैं, निष्कर्ष निकालने की प्रक्रिया ही बदल देते हैं, वह अपने जीवन और व्यक्तित्व में जितने मौलिक और असाधारण हैं, उतने ही विचार के क्षेत्र में भी है। उनने न तो अमूर्त अवधारणाओं की अस्पष्टता है न सोच की उलझनों का मकडजाला सनने व्यक्ति व्यंजकता है, व्यक्ति परकता और अलगाव नहीं।

उनके अशोक कुटज, देवदारू शिरीष सिर्फ वृक्ष नहीं रह जाते। वे पूरे समाज, पूरी संस्कृति की सनातन समकालीनता के प्रवक्ता बन जाते हैं। वनस्पति के साथ ऐसी रहवर्तिता उसके मानवीकरण से बहुत आगे की चेतना है। मनुष्य के स्वार्थ से विपरीत कुटज के पररार्थभाव और जिजीयषा का वह अभिनन्दन करते हैं। कुटज हृदय से अपराजेय होकर जीता है। वह अपने लिये नहीं जीता सबके लिये जीता है। जीना चाहते हो? कतार पाषाण की भेदकर पाताल की छाती चीरकर अपना भोज्य संग्रह करो, वायुमंडल को चूसकर तूफान को रगड़कर अपना प्राप्य वसूल लो। कुटज का यही उपदेश है। असोया वृक्ष के बहाने द्विवेदी जी संस्कृति पर विचार करने लगते हैं। मानव जाति की दुर्दम निर्मम धारा के बारे में वह कहते हैं कि मनुष्य की जीवन शक्ति बड़ी निर्मम है। वह सभ्यता और संस्कृति के वृथा मोहों को रौंदती चली आ रही है न जाने कितने धर्माचारो विश्वासो उत्सवों और व्रतों को धोती बहाती यह जीवन धारा आगे बढ़ी है।

परंपरा और रूढि, पुरातन और आधुनिकता पर आचार्य द्विवेदी जी की दृष्टि बहुत तार्किक और सार्थक है। प्रायः हर समय का अपना संक्रमण काल भी होता है। एक और पुरातन के मोहपाश होते हैं, दूसरी ओर निरर्थक और असंगत होती जाती स्थितियों में से मुक्ति की आवश्यकता भी महसूस होती है। यह संक्रमण कभी धीरे धीरे घटित होता है और कभी विचार का एक मसविदा उसके घटित होने में वेगपूर्ण उत्प्रेरक सिद्ध होता हैं। द्विवेदी जी शास्त्रों संस्कृत और संस्कृति के गंभीर विद्धान थे उन्हें पर्रा के प्रति आस्था है पर तर्कहीन और अंधी नहीं है। उनमें विचार का उदार खुलापन है जिससे वह पुरातन और नवीन का उचित स्वीकार करते हैं वह पुराविद् हैं पर उनमें कोई रूढ़ि नहीं। लोग अक्सर समझ लेते हैं कि जो हो चुका वह पूर्ण है, सम्पूर्ण शुभ है अपरिवर्तनीय है।

वैसे तो कहा जाता है कि समय परिवर्तनशील है पर पुरातन या परंपरा के संदर्भ में अतीतबद्धता काल को तहरा हुआ मान लेती है। यह अतीतबद्धता बदलाव को अमान्य करती है। नयेान को विजातीय और हेय मानती है। द्विवेदी जी मानते हैं कि हर व्यवस्था में कभी न कभी परिवर्तन तो होता ही है। पुनर्नवा' उपन्यास का पुरगोमिल कहता है-अगर निरन्तर व्यवस्थाओं का संस्कार और परिमार्जन नहीं होता रहेगा तो एक दिन व्यवस्थाएँ तो टूटेगी ही, अपने साथ धर्म को भी तोड़ देंगी। उनमें अपने समय, समाज और अतीत के प्रति आत्मीयता तो है पर मुग्धता नहीं। वह चाहते हैं कि मनुष्य को अपना इष्ट मिले। इसकी प्राप्ति में जो भी बाधक है जिसमें भी परिवर्तन होना चाहिए उसके साथ उनकी निरमान्त असहमति है।

पुराने और नये पर टिप्पणी करते समय वह बहुत स्पष्ट हैं कि मैं ऐसा तो नहीं मानता कि जो कुछ हमारा पुराना है, जो कुछ हमारा विशेष है उससे हम चिपटे पुराने का मोह सब समय पांछनीय ही नहीं होता। बच्चे को गोद में दबाये रहने वाली बंदरिया मनुष्य का आदर्श नहीं बन सकती परन्तु मैं ऐसा भी नहीं सोच सकता कि हम नयी अनुसनित्सा के नशे में चूर होकर अपना सरबस खो दें।'

द्विवेदी जी का विवेक बहुत जाग्रत और तीक्ष्ण है। वह किसी भी रूढ़ि का विवेचन उसके समग्र राप में करते हैं और फिर उसके स्वीकार या अस्वीकार की स्थिति बनती है। वह स्वयं ज्योतिषाचार्य थे। इसलिए लगता है कि ज्योतिष के फलित पर उनका अडिग विश्वास होगा ही, किन्तु जब बाणभट्ट की आत्मकथा की निउनिया किसी ज्योतिषी से बाण के बारे में भविष्यफल पूंछती हैं तो वह कहता है कि यह बड़ा कवि होगा लेकिन कविता करने के दिन से ही उसकी आयु क्षीण होने लगेगी और उसकी कोई भी रचना पूरी नहीं होगी। उससे कहना कि किसी जीवित व्यक्ति पर कविता न लिखे। निउनिया जब इस अनिष्ट की बात बाण को बताती है तो बाण के बहाने द्विवेदी जी इस अन्धविश्वास के विरूद्ध पूरा वक्तत्य दे डालते हैं। एक तर्क वह यही देते हैं कि यावनी ज्योतिष में चन्दमा और शुक्र को स्त्री ग्रह माना गया है जबकि भारतीय विद्या में पुल्लिंग ग्रह है।

रूढ़ियों के साथ समझौता नहीं करते हुए भी द्विवेदी जी का विवेक इस बात पर सजग है कि रूदि और अर्जित सदगुणों में अन्तर है। वह कहते हैं कि पुरानी रूढ़ियों का मै पक्षपाती हूँ परन्तु संयम और निष्ठा पुरानी रूढ़ियों नहीं हैं। वे मनुष्य के दीर्घ अभ्यास से उपलब्ध गुण है और दीर्घ अभ्यास से ही पाये जाते हैं। वह मनुष्य की गरिमा का उद्घोष करते हुए कला साहित्य, ज्ञान, धर्म सबका लक्ष्य मनुष्य का कल्याण मानते हैं। वह अपने समय के सारे प्रश्नों पर विचार करते हुए नये समाधान प्रस्तुत करते हैं। ऐसी ही एक समस्या है हिन्दू मुस्लिम के बीच बढ़ता द्वेष प्रायः उपदेश दिया जाता है कि दोनों धर्मावलम्थियों में सद्भाव होना चाहिए। सद्भाव इस बहुलता के लिए एक मात्र उपाय सोचा जाता है। द्विवेदी जी इन ऊपरी विचारों से भी गहरे उतर कर मूल तक जाते हैं और कहते है कि वस्तुतः हिन्दू मुस्लिम एकता भी साधन है,. साध्य नहीं। साध्य है मनुष्य को सामान्य पशु के स्वार्थी धरातल से ऊपर उठाकर मनुष्यता के आसन पर बैठाना। हिन्दू-मुस्लिम मिलन का उद्देश्य है मनुष्य को औदार्य की दुनिया में ले जाना, मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण को हटाकर परस्पर सहयोग के पवित्र बंधन में बाँधना। मनुष्य का सामूहिक कल्याण ही हमारा लक्ष्य हो सकता है, वही मनुष्य का सर्वोत्तम प्राप्य है।

द्विवेदी जी इसी विवेक और सत्य कहने की निडरता के कारण चीजों की भौतिक तुला जैसी सही तौल कर पाते हैं। तब हम सोचते हैं कि द्विवेदी जी पूरी तरह किस ओरहै तो उन्हें खुद लगता है कि अपने तई वह अनाकिस्ट है- अराजकतावादी! अव्यवस्थावादी!" व्यवस्था उन्हें वही प्रिय है जो मनुष्य का कल्याण करे । इसवो लिए उनका चिन्तन शासन व्यवस्था के क्षेत्र में भी प्रवेश करता है। सामन्ती समाज की व्यवस्थाएँ लोकमंगल की साधक नहीं है। इसलिए उन्हें समाप्त होना चाहिए। सामन्ती हो या और कोई समाज वह शासन तंत्र का एक प्रकार ही नहीं है। उसी के अनुसार लोक या प्रजा का या कुछ लोगों का कल्याण निर्धारित होता है। द्विवेदी जी अपने विषयों, कथाओं, वनस्पतियों संस्कृति आदि के माध्यम से टाइम मशीन द्वारा अतीत में जाते हैं और ठीक उसी उक्त वह वर्तमान में भी बने रहते हैं। एक में जो त्याज्य है दूसरे में उसका विकल्प खुला रहा है। वीरों, राजाओं का युग समाप्त हो गया। अब कहीं आशा है तो प्रजा की संगठित शक्ति में यह सम्पूर्ण भारतीय मानस की एकता का निर्माण है। स्वदेश का मोसल्लम निर्माण है। इसमें लोक जागरण पैदा करने की ऊजा है। वह अशोक वृक्ष को विशाल सामन्त सभ्यता की परिष्कृत रूचि का प्रतीक मानते है जो साधारण प्रजा के परिश्रमों पर पली थी। उसके रक्त के ससार कणों को खाकर बड़ी हुई थी वह सामंतों का तुन्दिल नरपति कह कर उपहास करते हैं। 'लोक का निषेध करते सामंतवाद के विरोध में लोकतंत्र और लोक जागरण का ऐसा समर्थन करके द्विसेदी जी बहुआयामी चिन्तक की भूमिका का निर्वाह करते हैं । वह कहते हैं कि राजधानी राज्य नहीं होती है। जनता ही वास्तविक राज्य होती है और लाखों करोड़ों की उपेक्षा से समृद्ध हुई थीं। वे समंत उजड़ गये, समाज ढह गये और मदनोत्सव की धूमधाम भी मिट गई

सामन्त और प्रजा, अभिजन और जन के बीच द्वन्द्वात्मक सम्बन्धों का विश्लेषण करते हुए द्विवेदी जी स्पष्ट रूप से जन और दलित जन की ओर हैं। वह पुराण और इतिहास के पन्ने खोलते हुए वे सत्य प्रस्तुत करते हैं जहाँ दलित अपना महत्त्व सिद्ध करते हैं। वह तो कहते ही हैं कि 'भारतवर्ष उन करोडों दलित और मूक जनत से अभिन्न है जिन्हें छूने से भी पाप अनुभव किया जाता है। उह दलित स्त्रियों या अधम पात्रों में चरित्र का उदात्त पक्ष दिखाते हैं। 'अनामयदास का पोथा' उपन्यास में रेक्व ऋषि शूद्रबाला जाबाला से उद्वाह करते हैं। मैनसिंह वास्तव में लड़की मैना है जो पुरूष वेष में रहती है। 'चारुचन्द्र लेख उपन्यास में राजा सातवाहन की रक्षा दलित करते हैं। विक्रमादित्य ने शकों को पराजित करने में भिलालों, मुसहरों जैसे दलित आदिवासी जनों की सहायता ली।

जितने विविध आयामों में द्विवेदी जी ने समाज के साथ अपने सरोकार व्यक्त किये हैं, जिस भौतिक स्तर पर उन सरोकारों की व्याख्या की है वह प्राचीन बाड.मय के विद्वान् और संस्कृतज्ञ द्विवेदी जी के मुक्त सोच और निर्विवाद ज्ञान का प्रतीक है । वह मानते कि मनुष्य के कल्याण के साधनों को निर्देशों में बाँध देने की क्षमता किन्हीं आज्ञाओं में नहीं है। यही मुक्त सोच उन्हें देश की चिन्ता करते हुए किसानों की ओर ले जाता है। वह किसान के परिश्रम के सामने किसी भी तथा कथित सिद्धि को छोटा मानते हैं। सिद्धियों को मानना रूढि है। किसान का हृदय बड़ी सिद्धि है। किसानों की शक्ति का गौरव मानते हुए वह स्वीकार करते हैं कि इस वर्ग में अद्भुत देश भक्ति है ।

ऐकान्तिक और व्यक्तिगत तप की लम्बी परम्परा से ऊपर वह सामूहिक कल्याण को मानते हैं। द्विवेजी जी के सोच का ऐसा विस्फार और आत्म का ऐसा विस्तार इसलिए मुग्ध और चकित करता है क्योंकि प्रायः पुरातन के लिखे कहे के अध्येता मान्यताओं में रूढ़ और अप्रासंगिक हो जाते हैं समय उनके लिए ठहर जाता हे लेकिन द्विवेजी कहते हैं कि एकान्त का तप बड़ी नहीं है बेटा ! देखो संसार में कितना कष्ट है।

गनुष्य है तो उसकी भावनाएँ हैं। जो भावनाएँ उसके जीवन के लिए शुभ हैं उनके साथ द्विवेदी जी पूरे समर्थन के साथ खड़े हैं। वे चाहे प्रेम के साथ सम्बन्धित हों चाहे सौन्दर्य से। वर्जनाएँ और दमन इन कोमल भावनाओं को आहत करते हैं।

पुनर्नवा उपन्यास में द्विवेदी जी अपने एक पात्र से कहलवाते हैं कि वह शास्त्र और पुरजनों का बरजना जल जाये जो प्रिय मिलन का निवारण करता है और-को मार डालता है। अनाथदास का पोथा में प्रेम की उन्मुक्त स्वीकृति है। 'चारूचन्द्र लेख में राजा सातवाहन चन्द्रलेखा और मैना में प्रेम का त्रिकोण है।

स्त्री के प्रति प्राय दो अतिवादी धारणाएँ हमारी मान्यताओं में प्रचलित रही हैं। या तो हेय, उपेक्षित भोग्य पदार्थ, दंडनीया अथवा देवी। दोनों धारणाएं उसके स्वाभाविक जीवन का निषेध करती है। पुरूष वर्चस्व ने अपनी भ्रष्टता का अपराधी स्त्री को ही माना है। उसे न व्यक्तित्व मिला न अस्तित्व । द्विवेदी जी देह को हेय या निषिद्ध नहीं मानते, स्त्री की स्वाभाविकता को किसी भी अति में नष्ट होने के वह विरोधी हैं। बाणभट्ट की आत्मकथा में मटिटनी बाण से कहती है कि मैं देवी नहीं हाड़ मास की नारी हैँ। देह केवल दण्ड भोगने के लिए नहीं है। विधाता की सर्वोत्तम कृति है वह ।

द्विवेजी जी जहाँ इन मुद्दों पर विचार करते हुए अपने समय के साथ ही नहीं प्रायः बहुत आगे है वहीं संस्कृति और साहित्य पर उनकी धारणाएँ तो उन्हें सर्वथा रूढ़िमुक्त और नयी तरह परिभाषित करती हैं। जहाँ उनके ही समय में संस्कृति की वही पूर्व निर्मित परिभाषा दुहराई जा रही थी, संस्कृति को देशों और समाजों में विभक्त देखा जा रहा था. भारतीय संस्कृति को विशुद्ध मौलिक और एकल माना जा रहा था वहीं द्विवेजी जी संस्कृति को आदान प्रदान से निर्मित मानते हैं । इसी तरह साहित्य के प्रयोजन के बारे में भी वह मनोरंजन और कलावादिता से आगे मनुष्य के कल्याण -6-

दृष्टि से विचार करते हैं।

वह संस्कृति को द्वीपों में विभाजित परस्पर असंग और मिश्रित नहीं मानते। मैं 1. संस्कृति को किसी देश विशेष या जाति विशेष की मौलिकता नहीं मानता। मेरे विचार से सारे संसार के मनुष्यों की एक सामान्य मानव संस्कृति हो सकती है। देश और जाति की विशुद्ध संस्कृति केवल बात की बात है। सब कुछ में मिलावट है, सब कुछ अविशुद्ध है। शुद्ध है केवल मनुष्य की जिजीविषा । 14 द्विवेजी जी हिन्दू रीति नीति को आर्य और आर्येतर उपादानों का मिश्रण मानते हैं उनके 'अशोक के फूल' निबन्ध में आर्य और आर्येतर जातियों के मेल और संघर्ष के सन्दर्भ हैं । वह सिल्वौं लेवी का वह कथन उद्धृत करते हैं कि संस्कृत भाषा में फूलों, वृक्षों, खेती बागवानी के अधिकतर शब्द आग्नेय भाषा परिवार के हैं।

द्विवेजी जी उस लोक धर्मी परम्परा पर विश्वास करते हैं जिसमें परिवर्तनशील गतिशीलता है वह उस अध्यात्म से आश्वस्त नहीं हैं जिसमें संसार अथवा ऐहिकता का निषेध है। वह इस विचार से असहमत होते हैं वह नहीं मानते कि इस जगत् की समस्त गंदगियों से परे कोई ऐसा परात्पर ब्रह्म है जो शाश्वत है द्विवेजी जी जब लोक के साथ खड़े होकर गरीथी, असमानता और दासता के विरुद्ध आवेश में आते हैं तो मानवता का घोषणा पत्र प्रस्तुत करते हैं । वह मनुष्य की व्यक्तिगल मुक्ति नहीं बल्कि सामाजिक मुक्ति के पक्षधर हैं। उनके अनुसार अगला कदम सामूहिक मुक्ति का है, सब प्रकार के शोषणों से मुक्ति का अगली मानवीय संस्कृति मनुष्य की समता और सामूहिक मुक्ति की भूमिका पर खड़ी होगी 15

वह ऐसी संस्कृति और ऐसे समाज की कामना करते हैं जिसमें किसी तरह के कृत्रिम विभाजन न हों। उन्हें दुःख होता है इस बात से कि इस देश के लोग पीढ़ियों से सिर्फ जाति देखते आ रहे हैं, व्यक्तित्व देखने की न उन्हें आदत है, न परवाह हैं। जाति पाँति को ईश्वरीय विधान मानकर जातिगत शोषण, अपमान और अत्याचार को भी उपयुक्त माना जाता रहा है। द्विवेजी जी कहते हैं कि 'ज़ो ठाकुर जाति विशेष की पूजा ग्रहण करके ही पवित्र रह सकते हैं वे मेरी पूजा नहीं ग्रहण कर सकतें मेरे भगवान हीन और पतितों के भगवान् हैं, धर्म और सम्प्रदाय के ऊपर के भगवान् हैं। उधर प्रेमचन्द सुन्दरता का मेयार बदलने की बात कर रहे थे, सौन्दर्य के कामपरक मानदण्डों की जगह मनुष्यता को उसका निकष मान रहे थे तो द्विवेदी जी भी सौन्दर्य देखने की पारंपरिक दृष्टि में परिवर्तन की आवश्यकता का अनुभव कर रहे थे। वह कहते हैं कि जिस दुनिया में छोटाई और बड़ाई में, धनी और निर्धन में, ज्ञानी और अज्ञानी में आकाश पाताल का अन्तर हो, वह दुनिया बाह्य असुन्दरता के दुह में खड़े होकर आन्तरिक -7-

उपासना नहीं कर सकती। निरन्न, निर्वसन जनता के बीच खड़े होकर आप परियों के सौन्दर्य लोक की कल्पना नहीं कर सकते। द्विवेजी जी की दृष्टि में सौन्दर्य का आधार समाज है। सौन्दर्य बाहुय स्थूल और स्थिर नहीं है। सौन्दर्य की धारणा में परिवर्तन और विकास होता है जो जाति जितनी अधिक सौन्दर्य प्रेमी होगी उसमें उतनी ही अधिक मनुष्यता होगी ।"

व्यापक चिन्ताओं के साहित्यकार के रूप में द्विवेजी जी मनुष्य को ही साहित्य का लक्ष्य मानते हैं। कला न विलास की वस्तु है न जीवन से निरपेक्ष कर्म है। कला गरीबों के लिए है। कला को जीवन और समाज से जोड़ते हुए द्विवेदी जी कलावाद को खारिज करते हैं। वह साहित्य को मनुष्य की दृष्टि से देखते हैं। वह कहते है कि मैं दृढ़तापूर्वक कहना चाहता हूँ कि मनुष्य को अज्ञान, मोह, कुसंस्कार ओर परमुखापेक्षिता से बचाना ही साहित्य का लक्ष्य है। वह अपने उपन्यासों के कथानक पुराणों और प्राचीन आख्यानो से लेते हैं लेकिन उन्हें कथा रस प्रदान करते हुए उन प्रश्नों और विवेचनों से जोड़ते हैं जो भौतिक, यथार्थ और मानवीय हैं, जो संसार से जुड़े हैं तथा आज के समय की चिन्ता से है। वह अपने ललित निबन्धों में भी केवल अतीत का वातावरण निर्मित करके और उससे सम्बन्धित जानकारियाँ देकर नहीं रह जाते वह वहाँ भी वायव्य नहीं रहते. धरातल की ही बात करते हैं।

द्विवेजी जी अपने पूरे रचना कर्म में न किताबी है, न विचार विहीन हैं। उनकी सुचिन्तित वैचारिकता है, मूल्य चिन्ता है, संसार और जीवन के भौतिक पक्ष का आनन्द स्वीकार है और सभी प्रकार के अलगाव तथा दमन का प्रतिकार हैं। त्याज्य का त्याग है तो ग्राह्य का सानन्द ग्रहण है। प्रेम और सौन्दर्य जीवन में वर्जनीय नहीं है। देह हेय नहीं है अर्थात् वह जीवन और जगत् का हार्दिक अभिनन्दन करते हैं । उनकी यह मूल्यवत्ता उनके समीक्षात्मक साहित्य में भी स्पष्ट लक्षित है।

वह अपने से पूर्व चली आ रही शुक्ल जी की अनेक स्थापनाओं को बदल देते हैं। शुक्ल जी ने जिसे वीरगाथाकाल कहकर अन्य साहित्य को साहित्य ही नहीं माना उसे द्विवेदी जी आदिकाल कहकर सिद्धों और नाथों के साहित्य से विकसित मानते हैं। वह भक्ति युग को न तो ग्रियर्सन की तरह बिजली की कौंध की तरह अचानक मानते है, न शुक्ल जी की तरह दासता के पराजय बोध की प्रतिक्रिया वह उसे जातीय चेतना से संदर्भित करते है। शुक्ल जी ने कबीर में काव्यत्व नहीं पाया वहीं कबीर द्विवेदी जी के माध्यम से आज भक्तियुग के ही नहीं पूरी परंपरा के आदि पुरूष माने जाते हैं। शुक्ल जी ने तुलसी की तुलना में सूर को कम महत्त्व दिया। द्विवेजी जी ने समीक्षा की पहली पुस्तक सूरदास पर ही लिखी। यह किसी ईष्ष्या की प्रतिक्रिया नहीं थी बल्कि द्विवेदी जी की उदार वैज्ञानिक चेतना में लोक समाज और व्यापक दृष्टि के आग्रह थे जिन्होंने उन्हें शास्त्रीयता से अलग मूल्य प्रदान किये द्विवेदी जी का आनन्द, फक्कड़पन, मरती तथा मूल्यों और विश्वासों से निर्मित व्यक्तित्व उनके पूरे कृतित्व में दिखाई देता है। व्योमकेश शास्त्री अथवा व्योमकेश दरवेश उनका एक और रूप है। द्विवेदी जी अपने ललित निबंधों, अन्य निबंधों तथा समीक्षात्मक गद्य में विचार और शिल्प के नये प्रतिमान गढ़ते है। वह जब कबीर के कृत्तित्व के साथ उनके व्यक्तित्व का निरूपण करते है. तो कविता के सभी उपकरणों का उपयोग करने लगते हैं। यही उनके द्वारा दूसरी परंपरा का निर्माण है। उनके अस्वीकार निर्भीक हैं और स्वीकार आश्वस्त । बिल्कुल कबीर की तरह। उन्होंने लिखा है-'किसी से भी न डरना, गुरु से भी नहीं, मंत्र से भी नहीं, लोक से भी नहीं, वेद से भी नहीं। वह सभी साहित्यिक मूल्यों के साथ ही मानवीय संवेदना के विराट् आकार और विश्व चेतना के असाधारण प्रवक्ता थे।

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70, हाथीखाना दतिया (म०प्र०)

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