शिक्षण संस्थान क्यों आज़ाद हों कृष्ण विहारी लाल पांडेय द्वारा मानवीय विज्ञान में हिंदी पीडीएफ

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शिक्षण संस्थान क्यों आज़ाद हों

कृष्ण विहारी लाल पाण्डेय

शिक्षण संस्थान क्यों आज़ाद हों

कुछ बरस पहले हिंदी उच्चतम न्यायालय के एक फैसले की काफी चर्चा हुई थी । पी.ए. इनामदार बनाम महाराष्ट्र सरकार के प्रकरण में फैसला देते हुए प्रधान न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली उच्चतम न्यायालय की सात सदस्यीय बेंच ने कहा कि ऐसे निजी अल्पसंख्यक तथा गैर अल्पसंख्यक व्यवसायिक महाविद्यालयों में जो सरकार से कोई अनुदान नहीं लेते, सरकारों को प्रवेश में आरक्षण तथा अपना कोटा निर्धारित करने का प्राधिकार नहीं है। सरकार ऐसे महाविद्यालयों को इस बात के लिए विवश भी नहीं कर सकती कि वे ऐसे सरकारी आरक्षण की नीति के तहत कम प्रतिशत अंकों पर प्रवेश दें। स्पष्ट है कि यहां व्यवसायिक पाठ्यक्रमों के में केवल योग्यता के आधार पर प्रवेश पर ध्यान दिया गया है। इसी निर्णय में यह व्यवस्था है कि गैर सरकारी संस्थाएं सरकारी अनुदान प्राप्त नहीं करती हैं वे प्रवेश की अपनी चयन प्रक्रिया अपना सकती हैं, बशर्ते यह स्वच्छ पारदर्शी और शोषण विहीन हो ।
उच्चतम न्यायालय ने ऐसे महाविद्यालयों में प्रवासी यानी n.r.i. भारतीयों के लिए प्रवेश में 15% सीटों के कोटे की अनुमति दी है, जिसका आधार योग्यता होगी , तथा उनसे लिए जाने वाले अधिक शुल्क काव्य समाज के आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के छात्रों के हित में होगा। केंद्र सरकार और विभिन्न राजनीतिक दलों के जनप्रतिनिधियों को यह निर्णय उचित नहीं लगा। केंद्र सरकार के मानव संस्थान विकास मंत्रालय ने राज्य सरकारों और सभी दलों से विचार-विमर्श किया और इसके लिए उचित कानूनी प्रावधान की बात सोची जा रही है।
सरकारी सूत्रों द्वारा इस निर्णय की आलोचना तथा हमला किया था- "हम न्यायपालिका से टकराव नहीं चाहते" जैसी प्रतिक्रिया से क्षुब्ध होकर माननीय प्रधान न्यायाधीश ने सख़्ती से कहा कि "निर्णय को समझे बिना इस तरह की प्रतिक्रिया अनुचित है। यदि सरकार चाहे तो ऐसे महाविद्यालयों में आरक्षण के लिए कानून बना ले या फिर न्यायालयों को खत्म कर दे और आप जैसा चाहे वैसा करें "
इस टिप्पणी को दुर्भाग्यपूर्ण बताते हुए लोकसभा में सांसदों ने कड़ा रुख अपनाते हुए कहा कि "हम विधायिका और न्यायपालिका में टकराव नहीं चाहते, लेकिन न्यायालय वह भी लक्ष्मण रेखा पार नहीं करनी चाहिए ।"
तत्कालीन लोकसभा अध्यक्ष ने कहा था कि "न्यायपालिका की तरह विधायिका के भी अपने अधिकार हैं और विधायिका का सर्वोच्च सदन होने के नाते संसद संविधान के अंतर्गत प्रदत्त अधिकारों के अनुसार कार्य करेगी , हम कानून बनाने का अपना अधिकार नहीं खाएंगे ।
एक ओर न्यायपालिका द्वारा कानून की व्याख्या के आधार पर दिया गया निर्णय है तो दूसरी ओर विधायिका का तथा सरकार का सामाजिक राजनीतिक दृष्टिकोण है।
विधायिका और न्यायपालिका के विवाद में ना भी पढ़ें तो कुछ ऐसे मुद्दे हैं जिनका इस प्रकरण से सीधा संबंध नहीं होने पर भी उनपर प्रसंग कहा ध्यान चला जाता है। आज जब आर्थिक विकास के स्वीकृत मॉडल में सरकारी और निजी क्षेत्र के दिन में राज्य की भूमिका कमजोर होती जा रही हो और निजी करण की शक्तियां बढ़ रही हो तो स्वाभाविक है कि अपनी पूंजी लगाने वाला उद्योग राज्य का कोई हक नहीं चाहेगा और खास तौर से वह जिससे उसकी स्वतंत्रता बाधित होती हो। क्या केवल इस आधार पर कि कोई संस्थान सरकार से कोई आर्थिक सहायता ना लेकर अपनी पूंजी से चलता है , उसे अपने अनुसार सारी प्रक्रिया निर्धारित कर लेने की पूरी क्षमता होनी चाहिए । यह प्रश्न कानूनी दृष्टि से नहीं किया जा रहा है ना उसका संबंध उपर्युक्त न्यायालय निर्णय से है , यह तो नैतिकता सामाजिकता और लोकतंत्र में व्यक्ति और समाज के संबंधों पर एक दृष्टि है। लोक कल्याण की व्यवस्था राज्य का कर्तव्य है और उसके लिए राज्य के अपने उपक्रमों के अलावा निजी क्षेत्र में भी लोक कल्याण की व्यवस्थाओं का प्रावधान किया जाना आवश्यक है । इसीलिए उच्चतम न्यायालय ने अपने निर्णय में कहा है कि यदि सरकार इन व्यवसायिक महाविद्यालय में आरक्षण चाहती है तो उसे इस प्रकार का कानून बनाना चाहिए। यहाँ यह कहना आवश्यक है कि न्यायपालिका और विधायिका में टकराव की स्थिति ना बने। क्योंकि लोकतंत्र में दोनों का महत्व है
आरक्षण के मुद्दे पर काफी समय से समीक्षा की चर्चा होने लगी है ।उसकी विसंगतियों को भी दूर करने की बात हुई है और उसके कारण योग्यता कि सर्वथा अनदेखी ना किए जाने का तर्क भी दिया जा रहा है। यह भी कहा जाने लगा है कि आरक्षण का आधार आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग को बनाया जाना चाहिए। आरक्षण के मुद्दे का सामाजिक आर्थिक और मानवीय पक्ष है और हमारे समाज में लोकतंत्रात्मक मूल्यों की प्रतिष्ठा में इसकी भूमिका सिद्ध हुई है। फिर भी इसके साथ राजनीतिक सोच रहा है यह भी किसी हद तक सही है। यहां आरक्षण के प्रश्न पर बहस नहीं की जा रही है। यह भी माना जा सकता है कि तकनीकी प्रौद्योगिक और इसी तरह के क्षेत्रों में आरक्षण के साथ उचित न्यूनतम योग्यता का भी ध्यान रखा जाए। जिज्ञासा केवल यह है कि क्या इन निजी संस्थाओं की वास्तविक चिंता यह है कि सरकारी कोटे की आरक्षण से वास्तविकता प्राप्त होती है? क्या यह सरकारी अनुदान ना लेने वाले निजी व्यावसायिक महाविद्यालय केवल आरक्षण और सरकारी कोटे से मुक्ति चाहते हैं ?अथवा उनका वास्तविक लक्ष्य प्रवेश और शुल्क निर्धारण में पूरी जनता का है!
साल पूर्व मध्य प्रदेश में इंजीनियरिंग कॉलेजों में सरकारी कॉलेजों के बराबर शुल्क निर्धारण के लिए गठित एक समिति या आयोग ने अपनी सिफारिशें दी थी। सिफारिशों से सहमत ना हो कर इन कालेजों ने धमकी दी थी कि वे अपने यहां प्रथम वर्ष में प्रवेश नहीं देंगे। तब समिति या आयोग ने कहा था कि ऐसी स्थिति में उन महाविद्यालयों की संबद्धता समाप्त कर दी जाएगी। यह बात सभी जानते हैं कि व्यावसायिक पाठ्यक्रमों का शुल्क हजारों रुपए मासिक है। कुछ विशिष्ट संस्थानों के शुल्क अपेक्षाकृत अधिक है। तात्पर्य यह है कि उन विशिष्ट संस्थानों के अलावा जहां उत्कृष्टता विशेषता के संधारण के लिए अधिक शुल्क उचित हो। अन्य महाविद्यालयों में शुल्क की समान दरें होनी चाहिए और वो भी तर्कसंगत। जहां तक अच्छी शिक्षा तथा गुणवत्ता का प्रश्न है तो यह जिज्ञासा स्वाभाविक है कि क्या गुणवत्ता केवल छात्रों की प्रवेश के समय पात्रता पर ही निर्भर है ?यह तो बड़ा और प्रमुख सही प्रमुख पक्ष है ही और उसमें चाहे जैसे अनुग्रह नहीं किए जाने चाहिए । लेकिन उस पात्रता को श्रेष्ठा में परिवर्तित विकसित करने के लिए व्यावसायिक महाविद्यालयों की संरचना की गुणवत्ता भी आवश्यक है।
यह सर्वविदित तथ्य है कि पिछले दशक में निजी व्यवसाय महाविद्यालयों की बाढ़ सी आ गई। इनमें मेडिकल कॉलेजों की संख्या तो बहुत कम रही। क्योंकि उनके लिए निर्धारित शर्तें पूरी करना सरल नहीं है पर इंजीनियरिंग फार्मेसी कंप्यूटर प्रबंधन तथा B.Ed के पाठ्यक्रमों के महाविद्यालय तो नर्सरी में उगाए गए पौधों की तरह पनपे। प्रौद्योगिकी के आज के समय में विशाल जनसंख्या वाले इस देश में लाखों लोगों को तकनीकी और व्यवसायिक शिक्षा प्रदान करने के लिए राज्य सरकारों ने उदारता पूर्वक निजी महाविद्यालयों को मान्यता दी। यह महाविद्यालय किसी नैतिक सामाजिक कर्तव्य बोध गया या उपकार की भावना से प्रेरित होकर नहीं खुले, बल्कि उनमें अत्यंत लाभकारी उद्योग की संभावनाएं देखी गई। इनमें से यदि कुछ संस्थाओं ने प्रतिष्ठा प्राप्त की तो बहुत संख्यक कॉलेज गुणवत्ता की शर्तों को पूरा नहीं कर पाए। लेकिन जिस उद्देश्य से के लिए वे खोले गए , वह अवश्य पूरा होता रहा। क्या इन निजी महाविद्यालयों में व्यावसायिक पाठ्यक्रमों के लिए आज की लगातार आवेष्ठित हो रही प्रौद्योगिकी के साथ चल पाने लायक वंचित अधोसंरचना है? क्या इनके पास नियमित सेवा शर्तों और निर्धारित वेतनमान वाले शिक्षक हैं ? आज के बेरोजगारी के समय में आधे अधूरे भुगतान पर काम करने के लिए मजबूर व्यक्तियों की कमी नहीं है। अन्य उद्योगों और उपक्रमों की तरह शिक्षा के क्षेत्र में भी सरकारी सुविधाओं की अपर्याप्त था तथा गुणवत्ता की गिरावट के कारण निजी क्षेत्र को निवेश के लाभ पर अवसर दिखाई दिए और एलकेजी से लेकर व्यवसायिक महाविद्यालयों की फसलें खड़ी हो गई । कुछ ही समय में इस प्रकार के निवेश में चक्कर बुद्धि का गणित जगने लगा ।सरकार ने आवश्यक तत्वों की कागजी खानापूर्ति करके खुले हाथों अनुमति दी । राजनीतिक प्रताप भी काम आया।
निजी व्यावसायिक महाविद्यालयों में प्रबंधकों का पंचायत कोटा निर्धारित हुआ। जिस पर कैपिटेशन शुल्क का नाम बदलकर निर्धारित शुल्क के अतिरिक्त लाखों रुपए वसूले गए। यह बात अलग है कि हर प्रदेश में इतने अधिक महाविद्यालय खुल गए कि साधारण स्तर वाले कई महाविद्यालयों में स्वीकृत सीटों में से ज्यादातर खाली रहने लगी। व्यापारिक प्रतिष्ठानों के अपने कारखाने और उत्पाद के अतिरंजित विज्ञापनों की तरह व्यवसायिक महाविद्यालयों के विज्ञापनों से अखबार भरे रहते हैं। यह विज्ञापन की आदत करते हैं । उत्कृष्टता गुणवत्ता या बाजार की प्रति यह तर्क कि हम सरकार से अनुदान नहीं लेते, चाहे जिस तरह की स्वतंत्रता नहीं देता, क्योंकि कोई संस्थान समाज में चलता है और उस पर सामाजिक हित के नियंत्रण होते हैं। इस तरह के तर्क पूंजीवादी समाज में बस सभी प्रकार की सुनता की मांग करने वाले व्यक्तिगत समिति की भाषा में आते हैं ।राज्य का कोई भी नियंत्रण उसे गैरकानूनी और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का हनन करने वाला लगता है। अतः होना यह चाहिए कि किसी व्यवसाय को महाविद्यालय को अनुमति या संबद्धता देते समय निर्धारित शर्तों का सख्ती से पालन करवाया जाए ; पर सुनिश्चित किया जाए यह सुनिश्चित किया जाए कि वहां के शिक्षकों को उचित वेतन मान मिले । मन माने शुल्क पर कड़ा प्रतिबंध हो और शिक्षा की गुणवत्ता भी समय-समय पर समीक्षा हो ।लेकिन यह तभी हो सकता है जब सरकार के बाद दृढ़ इच्छा शक्ति हो और राजनीतिक स्वार्थ ना हो। यह होना तो चाहिए लेकिन होता प्रायः नही है। उच्चतम न्यायालय के संदर्भगत निर्णय के परिपेक्ष में आयोजित सर्वदलीय बैठक में यह निर्णय किया गया कि एक समिति बनाई जाए जो तीन क्षेत्रों पर काम करेगी- सामाजिक न्याय का प्रावधान, शिक्षा के व्यापक अधिग्रहण या शिक्षा के व्यापारी करण का निवारण और तीसरा संविधान की धारा 301 में प्रति अल्पसंख्यक के अधिकार की सुरक्षा ।

70 हाथीखाना दतिया