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सामाजिक बदलाव-खुली आँखों सूरज देखने का अनुभव

खुली आँखों सूरज देखने का अनुभव

प्रायः अपने वर्तमान समय की अपेक्षा, गुजरा हुआ समय अधिक अच्छा अधिक सुखद लगता है । कुछ तो स्थितियों की भिन्नता के कारण और कुछ इसलिए कि वर्तमान की भीषनता का अनुभव अधिक तीव्रता के साथ होता है । एक अनुभव से गुजर चुकने की स्थिति है, दूसरी अनुभव करते रहने की स्थिति है। व्यक्ति के जीवन के स्थान पर सामाजिक जीवन की आज के समय में समीक्षा की जाए तो यह स्पष्ट है कि हम पहले चाहे जैसी दशा में रहे हो पर हमारा समय बहुत जटिल और अराजक है । विडंबना यह है कि हम यूं तो लोकतंत्र में रहे हैं नियम कानून सुरक्षा नैतिकता की यहां अनेक संस्थाएं और संस्थान बने हुए हैं, पर हम बेहद असुरक्षित, डरे हुए, वंचित और हिंसा के आतंक में रह रहे हैं। इसी के साथ हम मानसिक और वैचारिक स्तर पर उन नेताओं और प्रतिगामी यात्राओं से फिर जुड़ते जा रहे हैं जिनसे हम आगे निकल आए थे । 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध और बीसवीं शताब्दी के प्रति मार्ग में ज्ञान विचार कला और साहित्य के रूप में हमें काफी संपन्न बनाया। ज्ञान के क्षेत्र में वैज्ञानिक अनुसंधानों के द्वारा और सामाजिक शोध के द्वारा हमें प्रचुर रूप से यह जानने को मिला । अभी तक हमारे लिए अज्ञात था, मनुष्य के कल्याण और उसकी चिंता में अनेक महापुरुष और आंदोलन सामने आए। समीक्षा भी हुई, बदलाव भी हुए, सिद्धांत बिगड़े गए और व्यवहार में भी हलचल और कंपन हुए। जन जागरण ने अभी तक चली आती अनेक परिभाषाएं बदली मान्यताओं को झकझोरा , प्रेरकों को घटित होते दिखाया।

यही समय था जब भौगोलिक और ऐतिहासिक दृष्टि से अनेक अस्मिताऐं बनी ठनी। इसी की नई स्थानीयताओं की भी बनी और वैश्विक बोध भी पनपने फैलने लगा। आधुनिकता बोध ने परंपरा में अनेक प्रयोग जोड़े फिर भी यह निर्माण की प्रक्रिया नहीं थी, मित्र निर्मित भी पूर्णता नहीं, सामाजिक जीवन में भौतिक और मानसिक स्तर पर स्थिति की निर्मिति की पूर्णता होती भी नहीं है और यदि ऐसा होता है तो वह बहुत लंबे समय तक नहीं। क्योंकि स्थिरता मनुष्य की कायल भले ही हो उसका स्वभाव नहीं है और बड़ा बदलाव दिखाई दिया । अभी तक हम जिस दृश्य परिदृश्य को दूर से ही दे या सुन सकते थे अब उसमें शामिल होने लगे। हमारा नाम भी उन नामों के साथ जगह पाने लगा जहां अभी तक हमारा प्रवेश ही नहीं था। लोक शब्द का अर्थ सही और व्यापक साबित होता दिखा। सजातीय शब्दों के समाजों के साथ ही विभिन्न जातीय शब्दों के समाजों की रचना को व्याकरण की सम्मति मिलनी शुरू हुई भले ही इनकारता पूर्वक। संश्लेषण की रासायनिक प्रक्रिया तेज हुई। तर्क या प्रश्न जो अभी तक विश्वास से बुरी तरह आतंकित था, अब कई उलझनों को सुलझाने लगा , समूह बड़े होने लगे लक्षण हैं की जगह बहू लक्ष्मी है बहुत अदाओं के पड़ोस में भी आदान-प्रदान होने लगे । यह सिलसिला अभी चल ही रहा था , क्योंकि समाजों के सफर बहुत लंबे होते हैं। सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक रूप से हम उपलब्धियों के अनेक मिल चुके थे पर यह सिलसिला स्थगित हो गया, भटक गया या पीछे मुड़ गया ।हम नए सिरे से फिर उन्हीं जगहों में घिरने लगे जिससे मुक्ति का संघर्ष अभी तक हुआ था।
इनमें से एक है जातिवाद या बेहतर शब्दों में नव जातिवाद इसका स्वरूप ठीक वैसा ही नहीं है जो पहले था। इसलिए इसे नव जातिवाद का आज हो सकता है ।पहले जातीय विभाजन के आधार पर समाज में प्रतिष्ठा का ऊंच-नीच था और संवैधानिक प्रावधानों और बदलती हुई स्थितियों में बाहरी निषेध कुछ टूटे हैं, गैरकानूनी घोषित हुए हैं ।लेकिन जातीय उभार का नया रूप है- जातियों का संगठन या समान जाति । इस के पनपने की प्रक्रिया अनायास या स्वभाविक नहीं थी, इसे राजनीति और मानसिक शक्तियों ने उकसाया है , डाला है। जातीय समीकरण के आधार पर चुनाव में प्रत्याशियों का चयन होने लगा ।जातियों ने अपने-अपने आदि पुरुष या महापुरुष के लिए अपने पर विशेष निश्चित कर लिए ।अपने संगठनों और सम्मेलनों के द्वारा अपनी जातीय सामूहिक ताकि दबाव बनाने, व क्रिया संश्लेषण की जो प्रक्रिया शुरू हुई थी, उसे इस उभार से बहुत बड़ा आघात लगा। कहा तो यह जाता है कि हमारे जातीय संगठन अन्य जातियों के विरोध में नहीं है ,बल्कि समाज की एक इकाई के रूप में पूरे समाज के प्रति योगदान है। लेकिन व्यवहार में यह जातीय पहचाने सार्वजनिक या सर्व समावेशी कैसे हो सकती हैं ? एक महापुरुष था जो अभी तक पूरे समाज का है, धीरे-धीरे सीमित होने लगता है. खेलों की भूमिका सार्थक कही जाती, अगर उन्होंने जाति के आधार पर हुए सामाजिक अन्याय के विरोध में यह एकता प्रदर्शित की होती जातियों उप जातियों के इन संगठनों से उपजा जातिवाद समाज में एकता बहुत जगाता है ।
दूसरी प्रवृत्ति को धार्मिकता बात कहा जा सकता है । एक रचना की दृष्टि से भले ही यह सही ना हो। यह तो अत्यंत धर्म परायण व्यक्ति अथवा अध्यात्म आदि भी मानता है कि धर्म ईश्वर में आस्था आस्था का अर्थ आडंबर या कर्मकांड नहीं है बल्कि मन आत्मा से उसकी अनुभूति है। अनुभूति का प्रकट रूप भी कुछ ना कुछ होता ही है। इसलिए कुछ बाह्यउपचार भी हो सकता है, लेकिन जब यह शुद्ध आडंबर पाखंड या भावना भी इनका हो जाए तो उसे धर्म के नाम पर गलत आचरण ही कहा जाएगा। कोई भी कहेगा कबीर के प्रश्नों का उत्तर इसीलिए तो कोई नहीं दे पाया।
आधुनिक समय में विज्ञान के कारण कार्यवाहक विचार में तर्क की प्रतिष्ठा अनेक समाज सुधारवादी आंदोलनों ने धार्मिक रूढ़ियों अंधविश्वासों तथा धर्म के नाम पर चल रही कई प्रथाओं की आलोचना की। इस आलोचना का प्रभाव भी पड़ा । लेकिन इधर गत दो-तीन दशकों में नव धार्मिकता बाग का ऐसा हो बार दिखाई दिया जिसके सामने मध्यकाल का भक्ति योग भी छोटा पड़ जाए। इस नव धार्मिकता के प्रदर्शन को भव्यता और चकाचौंध और विराटता के साथ प्रस्तुत करने की आर्थिक क्षमता आज लोगों के पास बढ़ी ही है । इसलिए प्रमुख और धार्मिक उपलक्ष्य के साथ ग्लैमर जुड़ गया भावना की कीमत पर यह बहुत गंभीरता और निश्चलता के साथ किया गया प्रश्न है और उत्तर में भी पूरी इमानदारी की अपेक्षा है कि क्या धार्मिकता के उसके नवोदय में धर्म या अभ्यास की आध्यात्मिकता या विश्वास की मानसिकता है या व्यापारिक? यथार्थ है कि इससे लाभ हो सकता है। इस योजना के रूप में लोगों के भीतर की आवश्यकता को जबरन उकसाना है, गोल बंद करना है। पिछले कुछ समय में इतने धार्मिक स्थल नए रूप में प्रतिष्ठित हुए हैं सादगी और भाव सघनता से मनाए जाने वाले पर्व इवेंट मैनेजमेंट के द्वारा इतने भड़कीले और खर्चीली होने लगे हैं । इनके आधार पर यह माना जा सकता है कि हमारी धार्मिकता बढ़ी है। ऐसा हुआ होता तो उस के माध्यम से हम अधिक सहिष्णु, करुणाशील, बंधुत्व प्रिय, सत्याचरण शील होते । लेकिन ऐसा हुआ कहां धर्म के नाम पर भी वैभव और चमक का बड़ा प्रदर्शन व्यवहारों की चमत्कारों की बाढ़ आ गई । आए दिन टीवी के समाचार चैनल ऐसी घटनाएं दिखाने लगे जिनके पीछे दिव्य चमत्कार देखा गया। राजनीति के लिए धर्म और बताएं जनता में व्याप्त आस्तिकता , उपयोगी साधन सिद्ध हुए। इसका खूब दुरुपयोग हुआ। दुखद बात यह है कि जिन से बुद्धि विवेक और विचार की अपेक्षा हो सकती थी ऐसे ही शिक्षित लोग आर्थिक और धार्मिक नंबरों और आप अंधविश्वासों को बढ़ावा देते मिले। जो बातेँ मनुष्य के मन में थी, अवैध संबंध ना होते हुए भी दे वालों में थी वह तो बेचारी बाहर ही रह गई और कब जा कर बैठी है। इनके लिए नैतिकता का कोई अर्थ होता है ना धर्म का। किसी धार्मिक उपलक्ष के करोड़ों रुपए पानी की तरह बह जाते हैं और इस देश के लाखों लोग चिकित्सा और पोषण के अभाव में कीड़े मकोड़ों की तरह मरते रहते हैं। परमात्मा ऐसा कभी नहीं चाहता। मध्य प्रदेश में लगभग 15,000 ऐसे स्कूल हैं जिनके पास भवन ही नहीं है। दिनाँक 22 अगस्त 2006 के संडे टाइम्स दिल्ली ने केतन तन्ना की लिखी एक रिपोर्ट छापी है, उसमें लिखा है कि हैदराबाद से 30 किलोमीटर दूर वेंकटेश्वर मंदिर के देवता को वीजा बालाजी कहा जाता है। यह विदेश गमन उत्सुक लोगों के वीजा के आवेदन स्वीकृत करा देते हैं । किसी एक निश्चित दिन भी जा के युवा प्रार्थी मंदिर में जाकर प्रार्थना करते हैं, 11 परिक्रमा करते हैं और वीजा मिल जाने पर 108 परिक्रमा करते हैं। विमला पांडे के पुत्र को एक बार वीजा नहीं मिला और उसने यहां मनोकामना की और वीजा मिल गया।

गुजरात में राजकोट के पास देवी जी जीवंतिका का मंदिर है, बच्चों के प्रति प्रेम और ममता की देवी को प्रसाद के रूप में पिज्जा, मिल्क चॉकलेट, पानीपुरी और सैंडविच का प्रसाद लगता है। आम दिनों में भी बच्चों को चॉकलेट का प्रसाद बढ़ता है बटता है।
तमिलनाडु में चेन्नई से 220 किलोमीटर दूर भगवान शिव के पुत्र श्री कोलन जी अय्यर के मंदिर में लोग संपत्ति के विवादों आर्थिक अनियमितताओं हत्या के मामलों और वह के वादों के लिए बाकायदा छपे हुए प्रारूप पर पिटीशन प्रस्तुत करते हैं और उन पर फैसला होता है। आवेदन शुल्क ₹10 है पिटीशन स्वीकृत हो जाने पर फिर शुल्क के रूप में आवेदक के घर से मंदिर तक की दूरी 10 पैसे प्रति किलोमीटर की दर से पैसा लिया जाता है।

पंजाब में विदेश यात्रा के लिए एक मंदिर प्रसिद्ध है यहां विदेश जाने वाले युवा बुजुर्ग और बच्चे हवाई जहाज का खिलौना चढ़ाते हैं और बताया जाता है कि ऐसे प्रसाद चढ़ाने के 1 माह के भीतर व्यक्ति की विदेश यात्रा हो जाती है।

जिसने हमारी जीवन पद्धति , सामाजिक व्यवहार और हमारी संस्कृति को सबसे अधिक प्रभावित किया है । वह नव धनाढ्यबाद है। हो सकता है कि यह शब्द शायद सही ना हो पर इसका आशय यह है जो लोग पिछले समय में काफी तेजी से धन संपन्न हुए हैं। सम्पन्नता ही देश और उसके समाज के लिए अच्छी बात है । यह विकास का सूचक है । विकास असंतुलित होकर कुछ ही लोगों तक सीमित हो जाता है तो उसका लाभ पूरे समाज को नहीं मिल पाता है । इस तरह विषमता तो बढ़ती ही है, साथ ही जिस तरह से नव धनाढ्य इस धन का भोग करते हैं सिर्फ हमारे समाज और हमारी सभ्यता संस्कृति को नष्ट करता है । बल्कि विशाल साधन ही समाज का अपमान भी करता है । भूमंडलीय और उदार और अनेक सरकारी सुविधाओं से समर्थित आज भी आर्थिक व्यवस्था में बाजार का विस्तार हुआ है। व्यापार और उद्योग से तो लोग करोड़पति और अरबपति हुए ही हैं, अन्य स्रोतों से भी ताकतवर और स्ट आचार्यों ने शासकीय संपत्ति तथा राजनीति के द्वारा अकूत धन कमाया है वह कहीं दर्ज नहीं होता है । हम सब बाजार में खड़े हैं इसमें अधिकांश लोग प्रमुख रूप से उपभोक्ता हैं और कुछ प्रमुख रूप से उत्पादक है। यह विश्व बाजार नई नई चीजों की लत लगाकर व्यापक उपभोक्ता वर्ग पैदा कर रहा है। इस उद्योग का संस्कृति में एक बार उपयोग करने की प्रवृत्ति पैदा हो रही है। एक बार का भोग इसके बाद उसे फेंक दो। ताकि वह चीज दुबारा बन सके और उत्पादक के धन में वृद्धि कर सके। हमारी अपनी परंपरा चीजों को भी संबंधों की तरह स्थाई रूप से व्यक्त करने की रही है। यहां तो मिट्टी के बर्तन भी धो पोंछकर बार-बार इस्तेमाल में आते रहे हैं । यह सिर्फ साधनहीनता के कारण नहीं , बल्कि यह चीजों के साथ हमारा लगाव है ।दूसरी बात इस बाजार संस्कृति की यह है कि बाजार में वस्तु बेचते बेचते विक्रेता उतनी ही तत्परता के साथ लाभ की दृष्टि से देह और मन भी बेचने लगते हैं ।यहां ना स्नेह होता है, ना मनुष्यता, नैतिकता होती है, ना पछतावे । यहां सिर्फ पैसा होता है और उसके चारों ओर अपराध, सेक्स, हिंसा, अपहरण, हत्या, बलात्कार, शराब, आतंक, माफिया, मॉल , कंपलेक्स, माता और पिता का पूरा ब्रह्मांड पशुता भी।
इस समाज में वास्तविक कला, साहित्य और संस्कृति का कोई महत्व नहीं। विस्तार, विचार और चिंतन यहां अजनबी हैं । इस बाजार में सब कुछ बिकता है और नकली रूप में भी बिकता है। टोना टोटका ,देव दर्शन, धर्म ,लोक परलोक, किसी बड़े हीरो हीरोइन य्या खिलाड़ी के साथ चाय पीने का गौरव, किसी ऐसे ही बड़े बिकाऊ व्यक्ति से मुलाकात ,इम्तहान के पर्चे , बड़ी नियुक्तियां ,चांद पर भूखंड, भूखी आदिवासी संस्कृति और जो भी आप चाहें । ....और सीन अभी पूरा नहीं हुआ ,इस माया लोक को बहुत शक और सहम कर देखते भीख मांगने के लिए अपंग किए गए बच्चे, भूखे प्यासे कंकाल जैसे कालाहांडी और बोलांगीर, बेघर अकेले बेसहारा लोग जो सिर्फ आंकड़ों में जिंदा है। इस तंत्र ने टेक्नोलॉजी का अपने हित में बहुत ही भद्दा अश्लील और आपराधिक उपयोग किया है। जिससे मीडिया और फिल्मों की कोचिंग में पल रहे युवा अति मानवीय उत्तेजना में ऊपर से कूदकर जान दे देता है। हवाई जहाज या ट्रेन में बस रखे होने का बम रखे होने का झूठा फोन कर देता है, नशे में प्रधानमंत्री के खिलाफ सुरक्षा रेखा को लगता है या अपराध की नई शैली सीखता है ।
तो यह है हमारे वर्तमान के पूरे दृश्य की एक छोटी सी झलक । बस चाहे आशा की किरण कह लीजिए या संयोग, इस अंधेरे में भी हमें कुछ उज्जवल शहरी और प्रदूषण रहित स्थल दिखाई दे जाते हैं। इनका विवेक उनके निर्णयों का उनके व्यवहार का अपहरण नहीं होने देता। हमारा व्यापक लोक अपनी जिजीविषा की सही प्राणवायु पहचान पा रहा है, वरना हमारे अंग्रेजी दा लोगों को तो छोटी-छोटी बातों पर भी प्राणघातक उत्तेजना फैलाने और पथरी जारी करने से फुर्सत नहीं है। क्या शिक्षा अपने किसी मॉडल के द्वारा इस अवांछित का प्रतिरोध और प्रतिकार कर सकती है? अकेले शिक्षकों से यह उम्मीद करना या तो जानबूझकर किया गया मजाक है। यह बताएं कि शिक्षक ने किसी हत्यारे को छात्र जीवन में यह पढ़ाया था कि तुम आगे चलकर अपराधी बनना, यह सिखाने वाला अथवा इस पर नियंत्रण न रख पाने वाला तो हमारा समाज और हमारी शासन व्यवस्था है । अब इसे भौतिकता कह कर कोसने से भी काम नहीं चलेगा, कोई ऐसा प्रारूप तो बनाना ही होगा जो समाज को व्यवस्थित करने में सहायक हो। मैकाले तो चला गया , अब भारतीय हित में उस जैसा कुछ क्यों नहीं हो पा रहा होगा। कैसे जब हमारे कर्णधार या तो किसी गीत पर ही लड़ रहे हैं , क्या इस बात पर कि पाठ्यक्रम में क्या पढ़ाया जाए, बिना इस बात पर चिंता किए की आम जनता क्या चाहती है।

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