अवध बिहारी पाठक-समीक्षा-आलोचना एक और पाठ कृष्ण विहारी लाल पांडेय द्वारा पुस्तक समीक्षाएं में हिंदी पीडीएफ

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अवध बिहारी पाठक-समीक्षा-आलोचना एक और पाठ

आलोचना की जड़ता को तोड़ता विमर्श

-अवध बिहारी पाठक

प्रसिद्ध आलोचक शंभुनाथ ने एक जगह कहा है कि "आलोचना का पहला काम पीछे लौटती सभ्यताओं के छली बिम्बों पर प्रति आक्रमण तेज करते हुए उस साहित्य की पुनः प्रतिष्ठा है जिसमें सभ्यताओं के आगे की दिशा में मानवीय विकास के लिए संघर्ष हो अभी हाल ही में प्रकाशित के.बी.एल. पाण्डेय की कृति "आलोचना एक और पाठ' लगता है कि शंभुनाथ के कथन को मूर्तिमान करती है क्योंकि यह कृति छली बिम्बों को हटाने के लिए संकल्पित है। पांडेय जी की "पुष्प गंध" "ऐसा क्यों होता है" काव्य कृतियों के साथ ही प्रभूत लेखन - संपादन प्रकाशित है।

पुस्तक "आलोचना एक और पाठ' में उन्नीस आलेख हैं जो विभिन्न कवियों, लेखकों एवं साहित्य की प्रवृत्तियों पर केन्द्रित हैं... विवेचित पर पूर्व में बहुत कुछ दूसरे लोगों ने लिख डाला है परंतु पांडेय जी बिना किसी एजेन्डे या पूर्वाग्रह के उन विशिष्टियों में डूबा लगा खोजने को प्रयत्नशील हैं जो या तो एकांगी दृष्टि से देखा गया या अन्देखा रह गया । पांडेय जी ऐसा कुछ ढूँढ रहे हैं जहाँ लोक जीवन का स्पंदन हो, जीवन को जीने का नया हौसला हो, एक संकल्प हो, जिन्दगी और आदमी को भीषणतम परिस्थितियों में भी बनाये रखने का। जाहिर है कि जहां तथाकथित विद्वानों ने साहित्य की तो क्या इतिहास के अंत की घोषणा कर दी हो, वहाँ पांडेय जी का यह प्रयत्न श्लाध्य है। वे छानन में भी एक नाजुक से स्पंदन को फिर से नई हवा दे रहे हैं। प्रथम दृष्ट्या कृति पिष्ट पेषण लग सकती है परन्तु रचना का हर शीर्षक समय और इतिहास के घात प्रतिघातों को सह कर कुछ न कुछ नया सम्पादित करता है। एक उदाहरण से यह बात साफ होगी कि पहाड़ की चोटी पर खड़े चरवाहे को तलहटी में खड़ी गाय का जो रूपाकार दिखाई देता है वह पास से देखने पर भिन्न होता है। ठीक इसी प्रकार रचना और विचार समय सापेक्ष्य हुआ करते हैं, स्थितियां बदली नहीं कि अर्थ बदले. यही कारण है कि "पाठ निर्धारित करने वाले सौंदर्य शास्त्रीय प्रतिमानों के पुनर्पाठ सामने आ रहे हैं" (पू. 14) इस दृष्टि से पांडेय जी की यह कृति सत्य और तथ्य' का महत्वपूर्ण उद्घाटन है। सभी शीर्षकों के इनडिवीजुअलसमेंजाने में विस्तार-भय है। अस्तु कुछ की बानगी देख लेना ठीक रहेगा। पुस्तक के पहले ही अध्याय में यह साफ कर दिया गया है कि कृति का पुनर्पाठ औपचारिक कर्मकांड से अलग एक सहज आवश्यकता विचार के अन्तर्गत लिखा गया है। अस्तु आलोचकीय अपेक्षाएँ इनमें न देखी जावें। सहजता तो सहजता ही है। इसकी आवश्यकता आज भी है और कल भी रहेगी।

दूसरी बात साहित्य की लोकप्रियता की लेखक ने उठाई है आज लेखन की भीड़ है कुछ लोकप्रिय होता है और कुछ अलमारियों में बंद शास्त्रीयता के बोझ से दबा । इस ऊहामक स्थिति में आखिर क्या हो. मानदण्ड क्या हों, पाण्डेय जी ने इस आलेख में दिशा दी कि 'न तो लोकप्रियता साहित्य की मूल्यवत्ता की कीमत पर हो, न साहित्य शास्त्रीय वर्ग का कला विनोद बन कर रह जावे" । बात साफ है कि जीवन को आशावादी स्वर देने वाला साहित्य लोकप्रिय होकर अपनी मूल्यवत्ता ही स्थापित कर सकेगा। लेखक की स्थापना पर आज के सर्जकों को विचार करना चाहिए। लोक कल्याण साहित्य का लक्ष्य है।

आगे आज की कविता पर लेखक ने विचार किया है। अशोक वाजपेयी से लेकर बिल्कुल आज के पवन करण तक (मैं इसमें विनोद कुमार शुक्ल को और जोड़ना चाहूंगा) एक पूरी सूची दी है और उनकी कविता की टोन को बड़ी बारीकी से देखा परखा गया है। निष्कर्ष कि आज की कविता प्रतिरोध की कविता है, और बिल्कुल छोर पर खड़े आदमी के पक्ष में मैं अपनी ओर से कहना चाहूंगा कि अब कवि खुद आज की कविता के बीच खड़ा है। वह सपने कब होंगे पूरे मुक्तिबोध की तरह नहीं पूछता ये पूंछता हताशा से भरा बल्कि दुष्यंत के आवाहन पर "तबियत से पत्थर उछालने" को सन्नद्ध है। पाण्डेय जी भी उन्हीं के साथ हैं, विडम्बनाओं पर शब्दों के पत्थर उछालते हुए। कविता के बाद लेखक ने आज की कहानी पर विचार किया। उनकी मान्यता है कि कहानी अब अतीत नहीं आगे की दिशाओं में संघर्षी प्रस्थान है । वह उसका वर्तमान भी है जहां निरीह, उपेक्षित शोषित जन खड़ा है। कहानी आज झूठ का प्रतिरोध करती है। (पृष्ठ-24) लेखक ने कहानी के पारंपरिक खांचों को अस्वीकार किया है। पुराने से लेकर नए प्रत्यक्षा तक (मैं नीलाक्षी को भी जोड़ता हूँ) के लेखक युगीन विसंगतियों से दो दो हाथ करने

को अपने लेखक के माध्यम से उपस्थित है। मुक्तिबोध को अब तक लोगों के आंतरिक द्वन्द्व एवं समय की विडम्बनाओं से उत्पन्न पीड़ा का कवि कहा है, परन्तु पाण्डेय जी ने उनके समग्र पर प्रकाश डालने की पहली बार में स्थापना की है कि मुक्तिबोध ने समाज ही नहीं "परिवारों में भी खडे बुर्जुआ किस्म के सत्तावाद के दुर्गों को देखा है (पृ. 24) इसी क्रम में निराला के समूचे साहित्य को दृष्टि में रखकर उनके ओज, क्रान्ति की कामना, पाखण्ड, सौन्दर्य बोध एक नये विहान के स्वरों को नए ढंग से देखा है। एक प्रश्न आज भी अनुत्तरित है कि आजाद भारत में अब भी वह तोड़ती पत्थर' की औरत हवेलियों की और ताकने को अभिशप्त है क्यो?

भवानी भाई पर केन्द्रित एक आलेख में उनके सर्वम समभाव प्रवृत्ति के भाव मभीने चित्रों की जहाँ चर्चा है वहीं आजादी के बाद गांधीवादी दर्शन के पराजित होने के हाहाकार की भी । इसी क्रम में पदार्थ और संवेदना के विरल कवि नरेश सक्सेना के विराट संवेदनशील काव्य फलक को देखा है। नरेश का कवि केवल मानवीय नहीं जड़ पदार्थो के प्रति उपजी संवेदना को, मानवीय संवेदना से कमतर नहीं मानता, वह ईटों में भी तरलता के बिम्ब खोज लेता है जिसके बलिदानी सच से आज का काइयां आदमी आंख मिलाने का साहस नहीं कर प्रता, वे "ऐन्द्रिक बिम्बों के विरल कवि हैं"। नरेश सक्सेना के बहाव में लेखक को लकड बग्धा हँस रहा है के कवि देवताले जी याद आ गए। कवि के निर्मम अभिव्यक्ति के तेवरों को कवि ने देखा है। वे यांत्रिकता में विलीन होती करूणा के छीजन से दुखी हैं। लेखक ने स्थापना दी है कि देवताले की कविता "समय गत सच्चाइयों का दस्तावेज और मनुष्य विरोधी व्यवस्था के खिलाफ चुनौती भी है। (प.. 57 ) याद रखा जाना चाहिए कि ऐसे स्थलों पर लेखक की समीक्षा दृष्टि सरलीकृत नहीं हुई बल्कि वह आदमी से जुड़े सरोकारों का साथ देती है जो अभिनव है।

आगे मैत्रेयी के उपन्यास "चाक" और "कही ईसुरी फाग' की बात कही गई है लेखक ने स्वीकार किया है कि लेखिका में समकालीनता वह चाहे सामाजिक हो या राजनीतिक के घटाटोप को कथा विन्यास में ढालने का अद्भुत कौशल है साथ ही अनुभवजन्य बहुलता का विश्लेषण भी। वहां प्रेमिक पात्रों के युग्म हैं, हिंसा है, घृणा है, आदमी की चालाकी है द्वन्द्व है. नैनू की तरह कोमल मन है स्थानीयता की सोंधी गंध है और उसमें पलते बढते राग विरागों की रंगत भी/रचना में नारी जागरण का उद्घोष है यहां स्त्री अपनी दैहिद स्वायत्त्वबचाये रखने की पक्षधर है। लेखक मैत्रेयी द्वारा रेखांकित समकालीन इतिहास और समाज की परतों को पढ़ने में सफल रहा है। मेरा मानना यह है कि लेखिका ने समकालीन चेतना को संभाव्यता दी हो भले ही परन्तु ऐतिहासिक उपन्यासों में जब जब इतिहास की संपृईक्ति है वहां तथ्य गड़बडाई है फलतः यहां भी औपचारिकता को बचाए रखने इतिहास का पुट देने एवं स्थानीयता की लंपट प्रवृत्तियों को व्याख्यायित करने की जिद में ईसुरी के प्रेम का ताजमहल थोड़ा धूसरित हो गया है।

विचारधारा के कारण उपेक्षित रहे बेआवाज होते जा रहे कथाकार वल्लभ सिद्धार्थ की कहानियों और उपन्यास 'कटघरे' की चर्चा करके लेखक ने वल्लभ को नए सिरे से आवाज दी है कि "ठहरो में आ रहा हूँ। लेखक ने वल्लभ की चिन्ता के केन्द्र में आदमी के दर्द को अच्छे से पढ़ा। मानवीयता का हनन वल्लभ को किसी भी स्थिति में स्वीकार नहीं । प्रेमचंद्र की "पूस की रात" की भूख साम्राज्य वादियों की देन थी परन्तु जनतंत्र के साठ वर्ष बीत जाने के बाद भी भीमसिंह के बच्चों की भूख क्या फासिस्टी ताकतों की देन नहीं है? है, बिल्कुल है, आजाद लेखक हवा ने भूख के ग्राफ को बढ़ाया है लेकिन वल्लभ की रचनाओं के माध्यम से कह सका है कि आज की व्यवस्था को वल्लभ के इस प्रश्न का जवाब देना चाहिए कि हमारे वर्तमान के लिए इतिहास जिम्मेवार है तो इतिहास के लिए कौन जिम्मेदार होगा (पृष्ठ-84) पाण्डेय जी की स्थापना के अनुसार जटिलतम समय में भी ईश्वर की अवधारणा और विश्वास रखने का साहस जो वल्लभ में दिखा वह अन्यतम है। मेरा मानना है कि वल्लभ की रचनायें आज नहीं तो कल क्लासिक कहीं जावेगी सच्चाई को इतिहास भी कबूल करेगा। आपातकाल झेलने वाले मीसाबंदी वल्लभ की जब चर्चा हो, तो लेखक को रेणु की याद न आवे यह कैसे सभव था। शारीरिक अशक्तता के बावजूद रेणु की अदम्य जिजीविषा लोक जीवन, समाज के अन्तिम छोर के आदमी से जुड़ाव, प्रकृति से अंतरंगता जन की चेतना को मूर्तरूप देता रेणु पर केन्द्रित पाण्डेय जी का यह आलेख भले ही छोटा है, परन्तु बेहद तरल और जीवंत। बड़े बड़े रेणु पर

लिखे आलेखों की झख मारता यह वस्तुतः लेखक का रेणु के प्रति तर्पण है। यहां रेणु की सैद्धान्तिकी और जीवन दर्शन की चर्चा है, रेणु की रेणुता शाश्वत है इस आलेख से। क्रान्ति की स्मृति में कबीर भी लेखक के हृदयतल पर काँध गए, लेखक ने नया तथ्य दिया

है कि कविता करना कबीर का लक्ष्य नहीं था (पृष्ठ 91) यह मात्र बात कहने का लहजा था। आगे के निबंधों में सूर के काव्य बिम्बों की एवं संतों की सामाजिक समरसता की चर्चा है तेलु कवियिी एन. अरूणा की तीखी अभिव्यक्ति का आज के संदर्भ में निरूपण है, श्यामसुन्दर दुबे के कृतित्व पर विचार करते हुए ललित निबनध में भी समीक्षा दृष्टि का समन्वय पाण्डेय जी के अनुसार लेखक का विरल प्रयोग है।

अब पाण्डेय जी की कृति और समीक्षा दृष्टि पर कहना चाहूंगा आज समीक्षा के चौगान

में समीक्षकों के पाले बढे हैं। लेखक का कोई पाला नहीं सबसे अलग है वह ।