बुन्देलखण्ड के लोकाख्यानों के सामाजिक अभिप्राय कृष्ण विहारी लाल पांडेय द्वारा पुस्तक समीक्षाएं में हिंदी पीडीएफ

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बुन्देलखण्ड के लोकाख्यानों के सामाजिक अभिप्राय

बुन्देलखण्ड के लोकाख्यानों के सामाजिक अभिप्राय

-के.बी.एल. पाण्डेय

संस्कृति जीवन के परिष्कार के उद्देश्य से मानवीय रचनाशीलता की वह निष्पत्ति है जिसमें जीवन के व्यापक आयतन में निर्मित मूल्यबोध निहित होता है। इस रचनाशीलता में मनुष्य की भातिक और मानसिक उपलब्धियों का कौतूहल उत्पन्न करता विराट संसार होता है। विभिन्न भूगोलों में रची जाती संस्कृतियों के भौतिक आसंग भिन्न होते हैं पर उनके आधारभूत आशयों में लगभग समान शुभकांक्षाएँ होती हैं।

भारत जैसे विविध और बहुलतापूर्ण समाज में अनेक भौगोलिक आंचलिकताएँ हैं। इन अंचलों में भाषा और जीवन शैली के अलावा इतिहास और समाज की अलग-अलग विशेष घटनाएँ हैं। ये सब मिलाकर एक संवाद स्थापित करते हैं, विवाद नहीं। संस्कृति की व्यापकता लोकाश्रित ही होती है। इसलिए जब हम किसी समाज को सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में समझना चाहते हैं तो हमें उसकी लोक संस्कृति के आख्यानों के पास जाना पड़ता है। क्योंकि जैसा शंभुनाथ जी ने कहा है इस देश की लोक संस्कृति आम जीवन में लोक के दुःख और हर्षोल्लास को वाणी देती कभी क्लासिकल संस्कृति से टकराती है तो कभी अन्तः मिश्रण करती एक जीवन्त संस्कृति है।

इत जमुना उत नर्मदा इत चम्बल उत टौंस' के सीमा क्षेत्र में बसे बुन्देलखण्ड में पौराणिक गाथाओं का भी स्मरण है और ऐतिहासिक आख्यानों पर आधारि साहित्य भी है। बुन्देलखण्ड की संस्कृति के विभिन्न आशयों का विमर्श वहाँ के साहित्य में रची गयी आख्यान परम्परा में मिलता है। ये आख्यान या गाथाएँ प्रायः पद्यात्मक है। कई गद्यात्मक भी हैं पर वे गेय हैं।

लोक में प्रचलित आख्यानों, गाथाओं और विश्वासों में स्थान और समय की तथ्यात्मकता, तलाशना लोक स्वभाव के विपरीत होगा अतिशयोक्ति की अतिशयता असंभाव्यता की सीमा तक भी पहुंच जाती है पर लोक उस पर प्रश्नचिन्ह नहीं लगाता।

आख्यान का अर्थ है प्राचीन कथानक या वृतान्त और लोकाख्यान में प्रचलित इसी प्रकार के वृत्तान्त हैं। आख्यान को लोक के संदर्भ में गाथा भी कहा गया है। इनके अर्थ और आशय इकहरे नहीं है। उनमे मानवीय व्यवहारों और सम्बन्धों का सम्पूर्ण विवेचन हैं।आल्ही :- बुन्देलखण्ड में प्रचलित अनेक आख्यानों में आल्हा या आल्हखण्ड जैसा शौर्य परक आख्यान काव्य भी है, कारसदेव जैसा कृषि और गौपालक समाज का आख्यान है, हरदौलगाथा की तरह स्त्री के शील की रक्षा के लिए विषयुक्त भोजन कर स्वयं के उत्सर्ग की अमर कथा है, सुरहन गाय जैसा मातृभक्ति तथा आत्मीय सम्बोधन से हिंसा के हृदय परिवर्तन का आख्यान है, संत बसंत जैसा मातृत्व और वीरता का वृत्तान्त है, वैरायटा जैसा महाभारत के पाण्डव- निर्वासन का कथानक है और धर्मा साँवरी जैसा स्त्री विमर्श है। कुछ आख्यान राछरे और पवारे नाम से प्रचलित हैं। अमानसिंह का राछरा और चन्द्रावली का राछरा तथा जगदेव का पवारा प्रमुख रूप से बुन्देलखण्ड में प्रचलित है। कुछ आख्यान साके भी कहे जाते हैं।

जगनिक रचित 'आल्हखण्ड' 52 युद्धों का वह महाकाव्य है जिसमें आल्हा और ऊदलकी अतिमानवीय वीरता का यशोगान है। महोबा के चंदेल राजा परमाल (परमर्दिदेव) पर दिल्ली के राजा पृथ्वीराज चौहान का आक्रमण हुआ। आल्हा और ऊदल परमाल के यहाँ से कन्नौज के राजा जयचंद के पास चले जाते हैं। उन्हें वापस बुलाया जाता है। फिर दोनों सेनाओं में अनेक बार युद्ध होता है। पृथ्वीराज के युद्ध के पहले भी महोबा पर बघेलखण्ड के माण्डोगढ़ के राजा का आक्रमण होता है। वह वहाँ के दो वीरों दक्षराज और वच्छराज को मारकर वहाँ का प्रसिद्ध हाथी, नौ लखा हार और प्रसिद्ध नर्तकी लाखा को लूट ले गया। पृथ्वीराज ने संयोगिता का हरण किया तो आल्हा ऊदल ने पृथ्वीराज की बेटी बेला के लिए युद्ध किया और उसका विवाह परमाल के पुत्र ब्रह्मा से करवा दिया।

आल्हखण्ड बुंदेलखण्ड में ही नहीं, सभी अंचलों में लोक प्रचलित हो गया। वह जहाँ भी गया वहाँ की बोली में गाया जाने लगा। इस आख्यान में एक पंक्ति टेक की तरह प्रयुक्त होती रहती है-इत्तै की बातें इतई छोड़ देओ अब ऑगे कौ सुनौ हवाल" । आल्हा में वीरता की परिभाषा भी दी गयी है

"वारा बरस लौं कूकुर जीयें और तेरह लौं जिये सियार।। बरस अठारा छत्री जीवै. आगे जीवें कौं धिक्कार।।

सामाजिक अभिप्राय के रूप में देखें तो इस गाथा में सामन्ती परिवेशन में युद्धों की भूमिका प्रमुख है। युद्ध अपने राज्य को बढ़ाने, शत्रुओं से बदला लेने और लूटपाट के लिए होते हैं। राजकुमारी या राजारानी यात्रि स्त्री को लूटना प्रमुख उद्देश्य रहा है। स्त्री वस्तु से अधिक कुछ नहीं। वीरता का गलत उपयोग और उसकी मूर्खता पूर्ण अवधारणा ने युद्धों को प्रज्ज्वलित किया । इस गाथा में कजली ( कजरियाँ) पर्व जैसे रीति रिवाजों का भी उल्लेख है। इन युद्धों में आम जनता केवल परिणाम भोगी रही है। इस आख्यान में इतिहास का आधार है। इस पर कल्पना का स्थापत्य है। रीतिकाल में सौन्दर्य वर्णन में अतिशयोक्ति का भरपूर प्रयोग हुआ है पर यहाँ आल्हखण्ड' में वीरता वर्णन में अतिशयोक्ति भी कम पड़ती प्रतीत होती है। इस गाथा में प्रक्षेप भी बहुत हुआ है। कारसदेव

लोकगाथा के रूप में कारसदेव का आख्यान भी बहुत प्रचलित है। यह गोचारण समाज का सांस्कृतिक वृतान्त है। कारसदेव की कथा खण्डों में विभाजित है। प्रत्येक खण्ड को गोट कहते है। इस तरह इस कथा को गोटें गाना कहा जाता है। यह गायन डमरू के आकार के एक ताल वाद्य के वादन के साथ किया जाता है जिसे ढाँक कहते हैं। वादक इसे बैठकर घुटने से मुड़े हुए पैर के पंजे के ऊपर बाँधकर बजाता है साथ बैंधे घुँघरू संगत का अनोखा सुर प्रस्तुत करते हैं। इस आख्यान में आल्ह खण्ड के 52 युद्धों की तरह 52 गोटें हैं। सभी गोटें एक रात में नहीं गायी जाती हैं । रात के शान्त वातावरण में जब ढाँक बजती है तो बिना ध्वनि विस्तारक के ही किलोमीटरों तक सुनायी देती है।

कारसदेव गोपालक और चरागाही समाज के लोक देवता हैं। गढ़रा झाँर में राजू गूजर अपने परिवार सहित रहता था। उसकी बेटी ऐलादी अत्यन्त बलवती थी। एक दिन वह खौंड से दूध की खेप सिर पर रखे और एक हाथ से बछड़ा पकड़े आ रही थी। रास्ते में गढ़राझौर के राजा का हाथी खड़ा। जब ऐलादी के निवेदन पर महावत ने हाथी अलग हटा कर ऐलादी को निकलने की जगह नहीं दी तो ऐलादी ने पैर के अँगूठे से हाथी की जंजीर दवा दी। हाथी भरभरा कर जमीन पर गिर पड़ा। समाचार से क्रुद्ध होकर राजा ने राजू को आज्ञा दी कि आठ दिन में ऐलादी को उसके पास भेज दिया जाये नहीं तो वह खुद ऐलादी को अपनी रानी बना लेगा यह बात स्वीकार न कर राजू ने अपने परिवार सहित झाँझ के राजा माना लुहार के यहाँ शरण ली और श्रमिक का कार्य करने

लगा।

ऐलादी ने तपस्या की। कमल के फूल के रूप में एक भाई को प्राप्त किया वहीं कारसदेव हुए। उन्होंने चचेरे भाई सूरपाल (सूरजपाल) के साथ गढ़राझौँर के राजा से बदला लिया और फिर ऐलादी से मिलकर अदृश्य हो गये।

कथा की अलौकिकता के बीच से ही उसके सामाजिक अभिप्राय और लौकिक सदर्भ प्रकट होते हैं। युद्ध यहाँ भी है। अतिमानवीय वीरता यहाँ भी है। गोपालक
का पूरा परिदृश्य भी है। स्त्री के प्रति यहाँ भी पुरूष सत्तात्मक दृष्टि है। शक्तिशाली के लिए वह केवल भोग्या है। परिवार का समन्वय सामूहिक श्रम को प्रतिपादित करता है। राजा (सामन्तवाद) यहाँ भी है पर समाज की रचना बदल गयी है। एक गोट इस प्रकार है--

भोर भऔ सकारो मुरगा ने दीनी बांग। सोवत जागी बैन ऐलादी। जानै सोवत देख लये राजू दादा रो मत देख लई खोड़न में धौरी गाय।

बैन ऐलादी न झटक पिछौरा राजू दादा कौं जगाय। दादा की खुल गई सुखनिया नींद। बैन ऐलादी कै रई दादा सें। कै दादा खोडन में रमाँ रई गाय। तुम सो रये सुखनिया नींद .बैन ऐलादी ने दूदन खेपें भर लई..। अरे बैन ऐलादी रतन जडाऊ कुड़री धरें। जायै धरै दूद की नौ मन खेप अरे बीसक बछेरू डुरया लये हाँत। इस कथा के पारंपरिक गद्य पाठ के अलावा कुछ लोगों ने इसकी पद्य में रचना भी की है। प्रत्येक पंक्ति के गायन में अंत में हो. ओ.. ओ का विस्तार मिलता है।

इस कथा का पाठ बुन्देली के भिन्न स्थानीय भेदों के अनुसार बदलता रहा है।

घर्मासाँवरी

यह आख्यान एक चिड़ा और चिड़िया के दाम्पत्य में कलह और वात्सल्य पर आधारित है। चिड़ा चिड़िया से अलग होते समय बच्चों को अपने पास रखना चाहता है। चूंकि विपत्ति में चिड़िया ने बच्चों का पालन पोषण किया तो बच्चों को वह अपने साथ रखना चाहती है। विवाद राजा तक पहुँचता है। फैसला होता है कि नर बच्चे चिडा को मिलेगे और मादा बच्चे चिड़िया को इस निर्णय से असहमत चिडिया फैसले को ताम्रपात्र पर लिखवाकर प्राण त्याग देती है। चिड़ा भी मर जाता है। दोनों का पुनर्जन्म होता है। चिड़िया धर्मा साँवरी और चिड़ा दंग के नाम से जाना जाता है। दोनों का विवाह हो जाता है। दंग को बारह वर्ष तक किसी बेडिनी के यहाँ बंदी रहना पड़ता है। उसे उसका भान्जा मुक्ति देता है।

इस गाथा का सामाजिक अभिप्राय यह है कि लोक अपनी तरह से स्त्री विमर्श करता रहा है। यहाँ स्त्री की अधिकारहीनता का भी संकेत है । विवाद वाणासुर और राजा भोज के पास पहुंचता है लोक इतिहास के तथ्यों की चिन्ता नहीं करता। वाणासुर से अनिरूद्ध का युद्ध हुआ था अर्थात कृष्ण के अनन्तर का समय है। राजा भोज इतिहास के व्यक्ति हैं। दोनों समकालीन नहीं है प्रेम की शक्ति पुनर्जन्म में भी देखी गयी है।दोनों का फिर विवाह होता है। गोपालक समाज इस आख्यान में भी है। लोक विश्वास में समाहित दैवी भक्ति के प्रति आस्था और पूजा के रूप में बलि का कर्मकाण्ड तत्कालीन समय का वाचक है। अलौकिक और चमत्कारों का घटित होना लोक प्रकृति का परिचायक है। यह गाथा भी गद्य में है। कारसदेव गाथा की हो..ओ..ओ की तरह इसमें अंत में ..मोरे राम ..अता है।

इस गाथा का एक अंश है-बोले पंचन जा कहैं तुम दौड़ सुनो मोरी बात। दै दे चिरैया खौँ रे चिरवा खो दै दे मोरे राम.ऐसौ करते अपने रमना में रे

हम काय खों आऊते मोरे राम। काय खाँ न्यौतो देते पंचन खाँ.....?

सुरहिन गाथा

सुरहिन का आख्यान रिश्तों के मार्मिक सम्बोधन से हिंसा के हृदय परिवतन की कथा है। वन में चरती हुई एक गाय को एक सिंह खा लेना चाहता है। गाय कहती है कि मैं घर जाकर बछड़े को दूध पिलाकर वापस आ जाऊँगी। तब मुझे खा लेना। गाय जब बछड़े को दूध पिलाकर और उसे सब कुछ बता कर जंगल लौटने को तैयार होती है तो बछड़ा भी साथ चल देता है। सिंह के पास पहुँच कर बछडा उसे "मामा" शब्द से

सम्बोधित करता है-वह कहता है

पैलें ममइया हमई खाँ भख लेऔ पाछे हमाई माई हो माय ।

मामा, पहले मुझे खा लो फिर मेरी माँ को खा लेना। "मामा" का स्निग्ध' सम्बोधन सुनकर सिंह का हिंसत्व समाप्त हो जाता है गाय उसे बहिन लगने लगती है। वह कहता है

कजली वन मैंने तो खों दीनों छरक चरौ मैदान हो भाय।

आख्यान इस तरह शुरू होता है

छिन की उअन किरन की फूटन सुरहिन वन कौं जाय हो माय । इसे देवी गीत के रूप में गाया जाता है। इसलिए हो माय शब्द आते हैं।

इन सभी आख्यानों से कुछ सामान्य मूल्य परक निष्कर्ष निकलते है- शौर्य, करूणा, देवत्व और सामाजिक सम्बन्धों की तरल स्निग्धता सभी आख्यानों में है।

लोक जीवन, पारिवारिक सम्बन्ध और भौतिक परिवेश इन सभी आख्यानों का

आधार है।
स्त्री सभी आख्यानों में हैं। कहीं वह शक्ति सम्पन्न है तो प्रायः वह अधिकार वंचिता है। सामन्ती परिवेश में उसके लिए युद्ध होते हैं- जाकी विटिया सुन्दर देखी ता पर डार दये हथियार।

कई आख्यानों में गुजरात राजस्थान मालवा खुरासान हिंगलाल जूनागढ जैसे दूरवर्ती स्थानों के नाम आये हैं। कारसदेव की गाथा में चामल (चम्बल) नदी का नाम आता है।

लोक से देवत्व की प्राप्ति भी अनेक गाथाओं में है। आल्हा का अमर होना और कारसदेव का देवता होना ऐसा ही देवत्व है।

प्रायः सभी पात्र इसी धरती के हैं।

समाज पुरूष सत्तात्मक है पर उसे खुलती हुई खिडकियाँ भी हैं।

यह समाज कृषि और गोपालन का है जिसमें स्त्री पुरूष के का

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दतिया (म०प्र०)

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