मदन मोहन दानिश-शुभकामनाओं का विनम्र पाठ कृष्ण विहारी लाल पांडेय द्वारा पुस्तक समीक्षाएं में हिंदी पीडीएफ

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मदन मोहन दानिश-शुभकामनाओं का विनम्र पाठ

मदन मोहन यानि की कविताः शुभकामनाओं का विनम्र पाठ

के.बी.एल.पाण्डेय

मैक्सिको के ऑक्टागवियो पाज की एक कविता की पंक्तियाँ है.. हमें तब तक गाना है जब हमारा गीत जड़ों ,तनों, शाखाओं, चिड़ियों और तारों को जन्म दे। हमें तब तक गाना है जब तक स्वप्न जन्म दे पुनर्जीवन की लाल गेहूँ बाल को सोने वाले की कोख में '
मदन मोहन दानिश अपनी कविता को किताबी उपदेशों का अनुवाद न बना कर उन सरोकारों तक ले जाते हैं जो जीवन को मूल पाठों की तरह पढ़ते हैं,इस पाठ में प्रेम है, दानिशमंदी है,करुणा दे प्रेरित सहजता है,अनुभवों के निष्कर्ष हैं,सोच का अनन्त है,ज़िंदगी की इज्जत है , जो मानवीय है उसके लिए तड़प है और बयान की साफगोई व सच्चाई है। बहुत कम रचनाकार ऐसे होते हैं जिनके व्यक्तित्व और कृतित्व का लिबास एक जैसा हो। दानिश ऐसे हैं और यह बात उन्हें एक गम्भीर रचनाकार सिद्ध करती है।
दानिश जी की कविता या शायरी की प्रमुख विधा गजल है।ग़ज़ल का अपना काव्यशास्त्र होते हुए भी समय औऱ समाज के साथसाथ उसमे कथ्य औऱ शिल्प के बदलाव होते रहे हैं।ग़ज़ल ने हुश्नो इश्क, गमे फिराक,सागरो मीना के मकाम भी देखे हैं, उसने महफ़िलों दरबारों के अदबी दौर से भी सफर किया है औऱ साहित्य की जीवन के साथ सम्बद्धता में उसने यथार्थ की खुरदुरी ज़मीन पर अपने रदीफ़ काफ़िये भी बदले हैँ। अपनी संक्षिप्ति में बडी और महत्वपूर्ण अनुभूतियां समेटे होने के कारण ही ग़ज़ल न सिर्फ आज तक उर्दू कविता की पुर असर विधा बनी हुई है, बल्कि आज हिंदी ग़ज़ल का भी सम्पन्न और सार्थक साहित्य है। हिन्दी और उर्दू के घर ऐसे पड़ौस की तरह जुड़े रहे हैं जहां एक घर से आग माँग कर दूसरे घर का चूल्हा जलता रहा है। आग, एक बहुत जरूरी तत्व जिसे देवताओ के आधिपत्य से धरती पर मनुष्यों के लिए चुराने पर प्रमथ्यु ( यूनानी पुराण का प्रोमेथियस) को बंदी होना पड़ा था औऱ भीषण यातना सहनी पड़ी थी । आग जिसनेअसीम अंधकार के बीच डरे सहमे मनुष्य को रोशनी का मध्यम दे कर जीने की निर्भयता दी थी। आग जिसने सामाजिक परिवर्तनों और क्रांतियों को जन्म दिया था। आग जिसने मनुष्य के लिए अपने आपको लकड़ियों और पत्थरों में छिपा कर रखा था कि जब भी तुम संघर्ष करोगे मै तुम्हारे साथ होऊँगी।
कविता यही हस्तक्षेप करती है। वह मशाल बनती है रोशनी के लिए,प्रेमचन्द की कहानी पूस की रात के हल्कू को अपने जीते जी बचाये रखती है,वह कबीर की साखी में रहती है, फैज मज़ाज़ साहिर को शायर बनाती है। आग से पैदा रोशनी की ऐसी ही सदभावना हमें मदनररोहन दानिश की कविता में भी दिखायी देती है। वह अंधेरे के विरूद्ध प्रकाश का संकल्प लेकर चलते हैं और एक बड़े रचनाकार का काम करते हैं जब शब्दा में रौशनी

भर देते हैं

सोनी पल रही है लफ्जों में कितनी मुश्किल में अब अँधेरा है।

शब्द ज प्रकाशवान हो जाते हैं तो वे दिलों के भीतर के अँधेरे को मिटाते हैं और भीतर का अँधेरा जय गिटता है तो सभ्यता और संस्कृति के शिलान्यास होते हैं। प्रकाश का माध्यम जब इतना बड़ा हो जाये तो अँधेरे पर विजय तो होगी ही दानिश जी की यह प्रतिज्ञा हमें आश्वस्त करती है

उनकी कोशिश है उजाला नहीं होने देंगे।

और उधर हम भी अँधेरा नहीं होने देंगे।

काश इतना ही आदमी कर दे।

कम अँधेरों की जिन्दगी कर दे।

अँधेरा प्रतीक है अदृश्यता का, अव्यवस्था का, गलत का, मनमानी का और उसके विसद्ध रोशनी का प्रण है कवि का। अपने हालाते वक्त, अपनी समकालीनता की समीक्षा करते

दानिश न तेज़ चिल्लाती आवाजों का सहारा लेते हैं, न उनके निश्चय दिशाएँ गुँजाते रहते हैं उनकी संवेदना धैर्यवान् प्रतिबद्धता में ढल कर व्यक्त होती है जो प्रतिरोध को अधिक शक्ति देती है। शब्दों की निरर्थकता और उनका अपव्यय अर्थ की तेजस्विता को कम कर देता है। खामोशी दानिश जी की शायरी का बहुप्रयुक्त और प्रिय शब्द है लेकिन वह खामोशी को शब्दहीनता या मूकता नहीं मानते। खामोशी मनुष्य की निरन्तर सोचती ही नहीं भीतर ही भीतर संवाद भी करती बोलती मनःस्थिति है। खामोशी के भीतर भी भाषा का आकार होता है। चीखती आवाजें भी उसके सामने लाचार हो जाती हैं

चीखती आवाज दब कर रह गयी

खामोशी के सामने लाचार हैं ।

दानिश की खामोशी जिन्दगी के बारे में विचार करने का मौन भी है। आते आते खामणी तक आ गये

लग रहा हैं जिन्दगी तक आ गये और उपेक्षा भरी अनसुनी का विरोध भी- खामशी मसअले का हल तो नहीं

मसअले हैं तो सामना भी करो

जमी का सब्र न टूटे दुआ करो दानिश खमोशी ओढ के सोया है आसमाँ कबसे
दानिश की सातोशी पर खुद उनका बयान भी है और वह उनकी खामोशी को प्रयोजन

परक बनाता है।

दानिश की खामशी को कहे कोई कुछ मगर उसकी खमोशियों पै मुझे एतबार है।

दानिश की गललो में चिन्तन अथवा दर्शन की जटिल शास्त्रीय बौद्धिकता नहीं है बल्कि जीवन और जगत से जुड़े अनुभवलनित सत्य हैं या उत्सुकता और जिज्ञासा का भोलापन। हम प्रायः समय को अपने साथ जोड़ कर देखते हैं, समय को इस तरह निरूपित करते हैं जैसे वह परिस्थितियों का कारक हो। समय को तो हमने अपने बोध की सुविधा के लिये एक आयाम के रूप में निर्धारित कर लिया है। क्या सारा समय हमारा है? इसलिये दानिश जी लिखते हैं कि जो मेरा होके मेरे साथ रहे बस वो लमहा तलाश करना है। बाकी माहो साल युगकल्प तो चलते ही रहते हैं. गुजरते ही जाते हैं। और लमहे के नाम से दानिश जी सिर्फ किसी क्षण को अपना कह सकने की आरजू नहीं रखते। यहाँ सब कुछ सन्दर्भित है जिसके बीच हम हैं तो पर वह हमारा बिल्कुल भी नहीं। यह जिज्ञासा कभी कभी उन्हें ऐसे प्रश्नों की ओर ले जाती है जो लौकिक और अलौकिक उत्तरों के द्वन्द्व से प्रेरित होते हैं

इनको बुझते कभी नहीं देखा।

कौन जलता है इन सितारों में।

है शबनम से समुद्र तक मगर क्या शै है पानी भी,

कहीं से कुछ निकलता है कहीं से कुछ निकलता है।

दानिश जी की कविता की निजता उनकी अपनी विशेषता ही यह है कि वह बहुत सहजता से अपनी बात कह लेते हैं। उनमें न परंपरा के जड़ अनुगमन की वस्तुपरकता है न वैचित्र्य के मोह में अमूर्तन की अस्यष्टता। वह लिखने को जीवन से बाहर की कलात्मक निस्संग क्रिया नहीं मानते। इसलिए वह अपने लेखन में आत्मपरक नहीं हैं। वह दूसरों के लिये हाशिए छोड़ना अपना लेखकीय दायित्व मानते हैं। वह अपने भीतर कितनी ही रातों को रखकर सुबह का गीत गाते हैं। वह एक शेर में ही इतने आशय व्यक्त कर देते हैं जैसे झील में एक कंकड़ अनेक परिधियाँ रच देता है। उन परिधियों की रचनात्मक व्याकुलता किनारों तक पहुँच कर रूक तो जाती है पर समाप्त नहीं होती।

रात क्या होती है हमसे पूछिए आपतो सोये सबेरा, हो गया अथवा 'वे कहाँ दूर तक गये दानिश। जो परिन्द उड़े उड़ाने से दानिश ने अपनी परवाज़ खुद बनायी है. खलाएं खुद नापी है।

अगर की भूमिका में मेराज फैजाबादी ने लिखा है कि दानिश की शायरी अछूते खयालात, नया लहना, अनकही बातें और उसके साथ गजल का पूरा हुस्न बरकरार।
मेराज साहब दानिश की शायरी को तलवार की धार पर से गुजाता देखते हैं तो डॉ. राहत इन्दौरी दानिश पर लिखते हुए शायरी को पुलसरात पर नहीं तो कम अज कम रस्सियों पर चलने का अमल मानते हैं। स्वयं दानिश रचना को जीवन से अविभाज्य रूप से संश्लिष्ट मानते हैं । कला जीवन का निवेश माँगती है। इसके लिए कलाकार को आत्मविसर्जन करना पड़ता है। इस तरह कला या साहित्य उसके रचनाकार का ही पुनर्जन्म है। उसके आयतन में पूरी दुनिया की अनुभूतियों और समस्याएँ होती हैं पर कलाकार के माध्यम से

शेर कहने के लिये दानिश मियाँ रोज जीना रोज मरना चाहिए

प्रेम और सौन्दर्य कविता के सनातन विषय हैं और जब कविता के हैं तो जिन्दगी के तो हुए ही ठहरे। प्रेम और सौन्दर्य कविता में कभी ऐन्द्रिय आस्वाद के स्थूल धरातल पर वर्णित होते रहे तो कभी इतने अतीन्द्रिय और रूहानी हो गये कि उनके अनुभवों के कोई माध्यम ही नहीं रहे। वे अपनी दुनिया के लगे ही नहीं। इन दोनों अतियों के बीच कला और साहित्य ने इनके ऐसे अनुभवों को रचा जो छुअन से रोमांच जगाते रहे, देखने से उपमान निरस्त करते रहे और सुनने से नया सरगम पैदा करते रहे। दानिश जी बेहद कोमल अहसासों ओर बिम्बात्मक चित्रण के कवि हैं। वह वर्णन के नहीं अनुभूतियों के शायर हैं। वो देखो परिन्दों की आवाज सुनकर/किरन आँख मलते हुए उठ रही है।

खुशबुएँ घर से मेरे जाती नहीं/ कुछ तो था दो रोज़ के मेहमान में कुछ पल गुजार कर वो परिन्दा तो उड़ गया। इक बेजबान शाख थी, बस काँपती रही कविता की दो पंक्तियों यानि एक शेर में पूरा एक प्रसंग लिख देना दानिश के कलम का कमाल है

बेटे का खत मिला तो जरा खुश हुई मगर / माँ देर तक उदास रही सोचती रही। और दानिश जी का वह मशहूर शेर जो सरहद पार बेहद मकबूल हुआ गुजरता ही नहीं वो एक लमहा। इधर मैं हूँ कि बीता जा रहा हूँ।'

मदन मोहन मिश्र के उपनाम 'दानिश' ने उन्हें श्लेष के द्वारा अर्थ को दोहरा करने की भरपूर गुंजाइश दी है। कभी दानिश होते हुए भी नासमझी और कभी दानिश होने के कारण बिगड़ी हुई बात को बना लेना ऐसे अनेक अर्थ-कौशल उनकी गजलों को सेंवार देते हैं।

दानिश की गजलों में मानवीय प्रेम के स्वप्न झाँकते हैं, कला का निहायत बारीक स दिखायी देता है और अपनी कलाकृति के सामने झुके कलाकार की तरह उनकी विनम्रता उनके ऊँचे क़द को और ऊँचा उठा देती है।