ऐसा क्यों होता है समीक्षा-राज बोहरे कृष्ण विहारी लाल पांडेय द्वारा पुस्तक समीक्षाएं में हिंदी पीडीएफ

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ऐसा क्यों होता है समीक्षा-राज बोहरे

के बी एल पांडे हिंदी के प्रसिद्ध वैचारिक गीत कार

राजनारायण बोहरे

हिंदी के प्रसिद्ध गीत कारों की चर्चा चलने पर बहुत से ऐसे नाम अचर्चित रह जाते हैं , जिन पर कभी ध्यान नहीं गया| इन कवियों की विशेषता यह है कि वे केवल पेड़, पत्तियों, प्रकृति, प्रकृति प्रेम का और पुराने रिश्तो के व्याकरण को नहीं सजाते, बल्कि वे देश, समाज, संविधान ,,आम आदमी हमारी निष्ठा, देश का सामाजिक सौमनस्य और सांप्रदायिक सद्भाव की बात भी बहुत सरल भाषा में अपने गीतों में करते हैं ऐसे एक गीतकार का नाम है कृष्ण बिहारी लाल पांडे यानी डॉक्टर केबीएल पांडे|

ऐसा क्यों होता है डॉक्टर के बी एल पांडे का गीत संकलन पिछले दिनों डॉक्टर कृष्ण बिहारी लाल पांडे यानी केबीएल पांडे का कविताओं का संग्रह “ऐसा क्यों होता है” प्रकाशित हुआ है , जो इन दिनों काफी चर्चित है |इस काव्य संकलन की कविताओं की वैचारिक परिपक्वता कवि के बी एल पांडे को एक सहृदय और जागृत विचारक के रूप में प्रतिष्ठित करती है| पांडे जी की कविताओं की एक अलग शैली है और इन कविताओं के आधार पर उन्हें आसानी से पहचाना जा सकता है|

कवि को उन नेताओं पर क्षोभ है जो आज अराजकतावादियों और असामाजिक तत्वों से संधि कर लेते हैं राजनीतिक दलों की धर्मांधता को स्पष्ट रूप से फटकारते हैं , असामाजिक और अराजकतावादी ही नहीं, हर बुरे तत्वों के साथ या समाज विरोधी तत्वों के साथ अथवा न्याय विरोधी तत्वों के साथ जिन्होंने समझौते किए , ऐसे ज्ञानियों को प्रकाश का, उजाले का क्या महत्व ? कवि ने लिखा है-

अंधकार के साथ जिन्होंने संधि पत्र लिख दिए खुशी से

उन्हें सूर्य के संघर्षों का कोई क्या महत्व समझाएं

सबके सिर पर धर्म ग्रंथ हैं सबके हाथों में गंगाजल

किस न्यायालय में अब कोई झूठ सत्य का न्याय कराएं

ऐसी ही बात अपनी एक अन्य कविता तम का षड्यंत्र में वे कहते हैं-

तम ने कुछ इस तरह किया है षड्यंत्र

रोशनी भटकती है आज द्वार द्वार

फूलों के हंसने पर निर्मम प्रतिबंध

सहमी सी बैठी है आतंकित गंध

ऐसे मजबूर आज उपवन के प्राण

पतझर के नाम लिख दिया है अनुबंध

विश्वास के मामले में एक ग़ज़ल में पांडे जी अपना कष्ट बताते हैं –

खंडित सब विश्वास हो गए

आयोजन उपहास हो गए

घटना स्थल से दूर रहे जो

आज वही इतिहास हो गए

इतनी प्रगति नगर में नहीं है

सार्वजनिक पथ खास हो गए

भारतीय दर्शन में बौद्ध दर्शन का प्रमुख सत्य है कि संसार मे दुःख है, इसको अपनी कविता में बड़ी सहज सरल भाषा मे वे लिखते हैं कि सबक्का जीवन दुःख से भरा हुआ है। पांडे जी की कविताओं में आया दर्शन केवल किताबी और अमूर्त दर्शन नहीं है बल्कि यथार्थ जीवन के कटु अनुभवों के साथ एकाकार हो गया प्रदर्शन है इसे पाठक आसानी से समझ लेता है वे लिखते हैं

है कथानक सभी का वही दुख भरा

जिंदगी सिर्फ शीर्षक बदलती रही

जिंदगी जो किसी कर्ज के पत्र पर

कांपती उंगलियों के विवस दस्तखत

सांस भर भर चुकाती रही पीढ़ियां

ऋण नहीं हो सका पर तनिक भी विगत

इसी तरह का एक और उदाहरण देखिए

फिसल गया एक और साल यह

मुट्ठी में बंद हुए पानी सा !

जाती हुए कभी संप्रदाय हम दल हुए

हुए ना सिर्फ आदमी

आंखें तो पूजा में बंद हैं

ग्रंथों पर चढ़ी जिल्द रेशमी

गांव-गांव का चरित्र युद्ध प्रिय होता जा रहा राजधानी सा !

चल गया एक और साल यह मुट्ठी में बंद हुए पानी सा !!

कभी अपनी कविता शुभ लाभ में विश्व में में डूबे हुए सोचते रह जाते हैं लिखते हैं –

इतनी दूर आ गए हम उत्पादन के इतिहास में,

भूल गए अंतर करना अब भूख और उपवास में!

बंद के बालों भीतर जाने लक्ष्मी कैसे चली गई ,

यहां लिखे भर रहे लाभ शुभ पूरे खुले मकान में!!

आज की राजनीति का इससे बड़ा और क्या सही अक्स कोई कवि दिखा सकता है, एन केन प्रकारेण सत्ता पर कब्जा करने के राजनीतिक दलों के षडयंत्र साजिश और चाल वादियों का कितना सांकेतिक वर्णन बड़ी ही प्रश्न शैली में केवल पांडे साहब ने किया है इस कविता में प्रकट दिखाई देता है, जब पांडे जी लिखते हैं -

उनके हाथों में नहीं है खून का एक भी दाग

अखबार में होते हैं

सभाओं में चर्चाओं में

भी बनाते हैं योजनाएं

की राज महल में किस दरवाजे से घुसकर

इस पर कब्जा किया जा सकता है

और फहराया जा सकता है अपना झंडा

इसी कविता का एक और अंश है -

बे खुद नहीं रखते कोई हत्या

उनके महा समर मुफ्त में

उनकी अराजक सेनाएं लड़ती हैं

इसी तरह की राजनीतिक और सप्ता पर कब्जे वाली विचारधारा के लोगों के बारे में अपने अनुभवों को विस्तार देते हुए कभी अपनी कविता आप की फसलें में लिखते हैं –

तीर रखे नफरत की कमानों पर,

सज रहे हैं लक्ष्य कुछ चिन्हित मकानों पर!

उत्सवी आयोजना हो रही हत्या की ,

चल रहे हम कौन से पावन निशानों पर !

| कवि की कविता एक और साल में उनकी मुखर चेतना प्रस्फुटित होती दिखाई देती है ,उनकी कविता का क्लाइमेक्स इस कविता में इन पंक्तियों में आ जाता है=

इतना अपनापन तुमने बड़ा जो कुछ भी देखा अपना लिया!

सिर्फ कसम खानी थी बंधुवर तुमने तो संविधान खा लिया!!

इस छोटे से प्रतीक से राजनीतिक लोगों की महत्वाकांक्षा ,अत्याचार, इस देश की संवैधानिक संस्थाओं पर कब्जा, संवैधानिक संस्थाओं का विनाश और संविधान की मूल भावना का विनाश करने वालों को न केवल कुछ पंक्तियों में किस तरह से फटकारा है, वह बहुत सुखद है ,एक विचार वान कवि से हम ऐसी ही आशा करते हैं|

लेकिन पांडे जी की कविताओं का एक सुखद पक्ष भी है| बे ऐसे लोकतंत्र में छाई घटा टॉप अंधेरे निराशाजनक प्रस्तुति ,साजिश, षड्यंत्र, और सत्तावादी मानसिकता के अंधेरे में रोशनी की कल्पना करते हैं, चाहे करते हैं और उम्मीद करते हैं |देखते हैं-

कैसा हिसाब है

लड़ाई हम करते हैं जीत बे जाते हैं

लेकिन अब हमें मौसम में बदलाव लाना है

ताकि सुबह की कामना लेकर

रात में कपिल के लिए

कल का सूरज हादसा ना बन जाए

अपनी एक अन्य कविता आग में कभी अपनी बात का ही समर्थन करते हैं –

पर इतना तो सच है

की जंगली अधेरे से

जूझने के लिए

रोशनी की चिंता जरूरी है

आग जलाने का कोई उपाय

निकल ही आएगा

कभी नदी , पेड़ और समाज के बहाने अपनी बात से पाठक को आ सकते हैं –

फिर उम्र पड़ती है नदी

किनारों को पूछती

लहलहा उठता है पेड़

फिर मिलते हैं

आपस में मोहल्ले

और आंख खुलते ही

मिट जाती है

सपनों की दहशत

कल्पना जाती है, बस यही दहशत केवल सपनों तक रहे वास्तविकता में मिट जाए और वास्तविकता में मिट गई तो सपनों में भी कहां से आएगी ? कवि कि इस कल्पना के लिए, इन विचारों के लिए पाठक अपनी तरफ से भी कहता है- आमीन!

ऐसा नहीं है कि कवि की संपूर्ण ऊर्जा, देश और वर्तमान परिस्थितियों पर ही है, कवि की नजर मौसम पर भी है, उसके हृदय में प्यार के लिए भी खूब जगह है और वह आज की कविता की तरह मां और पिता पर भी कविता लिखते हैं ,कविता आषाढी आहट में कवि का चित्रण देखिए-

आषाढी आहट पर

उचक गई

आंगन में धूप की गिलहरी

गली-गली डोलती हवा

मौसम के कान भर गई

अगली तारीख का

पंखों में

चिड़िया की बैठ गई कचहरी

एक और अन्य कविता प्रतीक्षा में आए पंक्तियों को देखिए-

फागुनी अंगड़ाइयां के दिन

और ऐसे में कई लेकिन

रंग का मौसम कहीं नजदीक ही है

स्वच्छ आंखों में पलाश ओं से खिले हैं

अब ना विग्रह का समय कुछ तो विचारों

लोग तो देखो समासों से मिले हैं

समासों की तरह मिले लोग एक नई कल्पना है भारतीय समाज के लिए ,सांप्रदायिक एकता के लिए और हिंदी के माध्यम से ,गीत के माध्यम से, कविता के माध्यम से, समाज की एकता को प्रदर्शित करने के लिए कवि का यह उच्च स्तर, एकता का विचार और एकता की मानसिकता प्रणम्य है|

फागुन की ही तरह चर्चा करती यह कविता परिचय कुछ और आगे बढ़ती है

रंग उमड़ता मन में लेकिन मौसम का यह हाल

न जाने कैसा फागुन आया

इतना बड़ा अपरिचय हमसे नाम पूछती अपनी छाया

जाने क्या भूल गया कुए में सारा गांव लगे --आया

पल-पल रंग बदलते चेहरों पर क्या मले गुलाल

न जाने कैसा फागुन आया

हिंदी गीत साहित्य में ऐसा गीत बहुत मुश्किल से दिखाई देता है, जिसमें केवल मौसम ना हो, केवल मन की भावनाएं ना हो ,प्यार ना हो ,उस दिल की बात ना हो, केवल मोहब्बत ना हो , बल्कि वही कि विचार भी हो, समाज भी हो और समाज में बढ़ती दूरियां भी हो| यह गीत केबीएल पांडे जी के रचना संसार के चमकते मणि- मणिको में से एक है|

कविता मां में प्रस्तुत उनकी मां अपने घरेलू कामकाज में जुटी बच्चों की चिंता से दो-चार हो रही मां है तो पिता में उनके पिता अपार शक्तिशाली और बाहर बेहद कमजोर पिता है| जो दुनिया की सबसे यथार्थवादी स्थिति है| जिनकी यह कल्पना झूठ नहीं बल्कि सच है| कविता देखिए

पिता नहीं है सिर्फ एक आदमी

वह निर्भयता की भरी पूरी उपस्थिति

पिता के आते ही मिलाता है

बच्चे का हौसला

बढ़ जाती है उसकी भूख

और एक रोटी ज्यादा खा लेता है

इन कविताओं के अलावा पांडे जी की कविता “पटाक्षेप” “रचना” “प्रेम पत्र” “जो मैं हूं” “ शब्दों की बोल”“ संबंध” --- सराहनीय और कवि की प्रतिभा में शामिल दूरगामी सोच, समय की परीक्षा, एक --बनकर उभरती हैं

सारांशत इन सब अच्छी कविताओं के साथ कवि की भाषा नए और अनोखे प्रयोग सच कहने का साहस और संघर्षरत आम आदमी के साथ उसकी सद्भावना इस संग्रह को पठनीय स्मरणीय बना देती है| कवि पूरी तरह सफल है अपनी बात कहने बनवाने में और अपना संदेश देने में कवि से भविष्य में भी काफी उम्मीदें है|