कल तक जो केवल मकान थे रातों-रात निवास हो गए कृष्ण विहारी लाल पांडेय द्वारा कविता में हिंदी पीडीएफ

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कल तक जो केवल मकान थे रातों-रात निवास हो गए

खंडित सब विश्वास हो गए

आयोजन उपहास हो गए

अब हम उन्हें नहीं दिखते हैं

उनके कितने पास हो गए

इतनी सी है राम कहानी

राजतिलक बनवास हो गए

घटना स्थल से दूर रहे जो

आज वही इतिहास हो गए

रिश्तो में काफी घनत्व था

अब वे बिखर कपास हो गए

हम तो बने रहे वैरागी

तुम कैसे मधुमास हो गए

इतनी प्रगति नगर में नहीं है

सार्वजनिक पद खास हो गए

कल तक जो केवल मकान थे

रातों-रात निवास हो गए

सिसक सिसक कर मेरी मन-वीणा के तार अभी सोये हैं


अरूण ने सिन्दूरी घूंघट खोल जगत पर तीर चलाये,

तारे सोये सिहरे सरसिज अंगडा़ कर भंवरे मुस्काये।

जग सपनों में झूल रहा था पर मैंने अभिसार न जाना।

अंतर की उमडी़ पीडा़ के आंसू भी हंस कर राेये हैं

सिसक सिसक कर मेरी मन-वीणा के तार अभी सोये हैं ॥

मैंने भी अपने जीवन में मुस्कानों का मेला देखा

उजड़े उर की टीस छोड़ती विस्मृति की अधियारी रेखा

मेरा दीप नहीं सह पाया उपहासों के चंचल झोंके,

इन नयनों के खारे जल से मैंने तो छाले धोये हैं।

सिसक सिसक कर मेरी मन-वीणा के तार अभी सोये हैं ॥

मेरी पलकों में पढ़ लो तुम युग युग का इतिहास छिपाए

पतन उदय का सत्य चिरंतन जीवन का संगीत बनाये।

आशा को बरबस अपना कर नजर राह में बिछा रहा था

यह तो था मालूम नहीं मैंने प्रिय पाकर ही खोये हैं।

सिसक सिसक कर मेरी मन-वीणा के तार अभी सोये हैं ॥

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के बी एल पांडेय के गीत


तुम मुझे स्वर दो तुम्हें मैं गीत का उपहार दूंगा


खोजता था मैं अभी तक आंधियों में शांति के क्षण,

जिन्दगी से हार मांगे मौत से दो मधुर चुम्बन।

अमा के तम में अमर आलोक की बस कल्पना ही,

वह भ्रला आलोक क्याा जो मुस्कराये चार उडगण।

तुम अगर आओ लगत को ज्योति का आधार दूंगा॥

तुम मुझे स्वर दो तुम्हें मैं गीत का उपहार दूंगा॥

बंधनों के स्वर्ग को जिसने नियति का भार जाना,

मदिर उन्मादी दृगों को कैद कर समझे बहाना।

वह गगन का मुक्त पंछी दूर से ही हंस रहा जो

कौन सा विस्मय उसे यदि धरा पर भाये न आना।

तुम न ठुकराना इसे मैं माधवी उपहार दूंगा ॥

तुम मुझे स्वर दो तुम्हें मैं गीत का उपहार दूंगा

चार पल अभिसार कर लूं साध यह मन की पुरानी

रूठ जायेगबी कभी भी स्वयं इठलाती जवानी।

अधूरी आदि विस्म़ृत अंत भी अज्ञात जिसका

सुन सको तो कह चलूं मैं सिसकियों की ही कहानी।

सांझ जब रोने लगी मै भी रूदन का भार लूंगा॥

तुम मुझे स्वर दो तुम्हें मैं गीत का उपहार दूंगा

मान मत कर शशि तिमिर से ही सजी मुस्कान तेरी,

मोद तुमको दे रही है आंसुओं की तान मेरी।

देखना ही यदि तुम्हे प्रिय स्वप्न के जग का उजड़ना

फूंक दो जीवन शिखा रह जाय यह दुनियां अंधेरी।

जीत तुम ले लो प्रथम बस मैं तुम्हारी हार लूंगा ॥

तुम मुझे स्वर दो तुम्हें मैं गीत का उपहार दूंगा

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के बी एल पांडेय के गीत

नदी जन्म भर


भले रूठ कर शाप देते रहो प्रिय, मगर शाप सहने का वरदान दे दो।


अभी तो बहुत देर है जबकि तम चीर सूरज धरा पर उजाला करेगा,

अभी तो बहुत देर है जबकि शशि दीप नभ में सितारों के बाला करेगा ॥

प्रिया के कपोलों पे संदेश प्रिय का सिंदूरी शरम जबकि ढाला करेगा,

पिपासित अधर के चसक में किसी का विचुम्बन मधुर मत्त हाला करेगा॥

मगर प्रात उन्मन हुई सांझ जोगन मिलन से सुखद प्राण का साश चिंतन,

क्षितिज पर रहो निष्करूण पर तुम्हें देख जी लूं मुझे एक अरमार दे दो॥

भले रूठ कर शाप देते रहो प्रिय, मगर शाप सहने का वरदान दे दो।

दया के लुटाते रहे मेघ जैसे नदी जन्म भर बस तुम्हारी रहेगी

तुम्हे क्या खबर तोड़ विश्वास के तट जगत से प्रणय की कहानी कहेगी।

बड़ी क्षुद्र सरिता जवानी मिली तो नियंत्रण किसी का भला क्यों सहेगी।

हंसेगे सभी न्याय पर चोट होगी अगर तप्त मरभूमि प्यासी रहेगी।

बहें निम्नगाएं तुम्हे भी रिझायें नहीं है यहां द्वेष तुमको बतायें।

सभी के रहो किंतु मैं भी तुम्हे प्राण अपना कहूं एक अभिमान दे दो॥

भले रूठ कर शाप देते रहो प्रिय, मगर शाप सहने का वरदान दे दो।

मुझे याद चुपचाप मैंने तुम्हारी सरल मूर्ति के संग भांवर रचाई

मुझे देख स्वच्छंद नाराज थे तुम इसी से प्रथम स्वप्न में दी जुदाई।

बहुत सह चुकी हूं तुम्ही तो कहो सच किसी और से इस तरह की रूखाई

न जिसके पगों में कभी शूल कसके चुभेगी उसे खाक पीरा पराई।

कहूं‍ क्या रंगीले जनम के हठीले लुटे जा रहे स्वप्न मेरे सजीले

मुझे और कुछ भी नहीं चाहिए बस स्वयं से जुड‍ी एक पहचान दे दो॥

भले रूठ कर शाप देते रहो प्रिय, मगर शाप सहने का वरदान दे दो।

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के बी एल पांडेय के गीत


जिंदगी का कथानक


है कथानक सभी का वही दुख भरा

जिंदगी सिर्फ शीर्षक बदलती रही॥

जिंदगी ज्यों किसी कर्ज के पत्र पर कांपती उंगलियों के विवश दस्तखत,

सांस भर भर चुकाती रहीं पीढ़ियां ऋण नहीं हो सका पर तनिक भी विगत।

जिंदगी ज्यों लगी ओठ पर बंदिशें चाह भीतर उमड़ती मचलती रही ॥

है कथानक सभी का वही दुख भरा,जिंदगी सिर्फ शीर्षक बदलती रही॥

तेज आलाप के बीच में टूटती खोखले कंठ की तान सी जिंदगी,

लग सका जो न हिलते हुए लक्ष्य पर उस बहकते हुए वाण सी जिंदगी।

हो चुका खत्म संगीत महफिल उठी जिन्दगी दीप सी किन्तु जलती रही ।

है कथानक सभी का वही दुख भरा,जिंदगी सिर्फ शीर्षक बदलती रही॥

देखने में मधुर अर्थ जिनके लगें जिन्दगी सेज की सिलवटों की तरह,

जागरण में मगर रात जिनकी कटी जिन्दगी उन विमुख करवटों की तरह।

जिंदगी ज्यों गलत राह का हो सफर इसलिए तीर्थ की छांव टलती रही ॥

है कथानक सभी का वही दुख भरा,जिंदगी सिर्फ शीर्षक बदलती रही॥

बदनियत गांव के चोंतरे पर टिकी, रूपसी एक सन्यासिनी जिंदगी,

द्वार आये क्षणों काे गंवा भूल से हाथ मलती हुई मालिनी जिंदगी।

जिंदगी एक बदनाम चर्चा हुई बात से बात जिसमें निकलती रही॥

है कथानक सभी का वही दुख भरा,जिंदगी सिर्फ शीर्षक बदलती रही॥

जिंदगी रसभरे पनघटों सी जहां प्यास के पांव खोते रहे संतुलन,

जिंदगी भ्रातियों का मरूस्थल जहां हर कदम पर बिछी है तपन ही तपन।

जिंदगी एक शिशु की करूण भूख सी चंद्रमा देखकर जो बहलती रही ।

है कथानक सभी का वही दुख भरा,जिंदगी सिर्फ शीर्षक बदलती रही॥

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