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तिश्नगी

तिश्नगी
(कहानी)

लेखक - अब्दुल ग़फ़्फ़ार
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1980 के दशक में गौना के बाद मायके से जब दुल्हन की दूसरी बिदाई होती थी तो उसे हमारे यहां दोंगा बोला जाता था। तब सीधे शादी के बाद दुल्हन ससुराल में नही बसती थी। बियाह के बाद गौना और गौना के बाद दोंगा। मतलब धीरे-धीरे लड़कियां, बेटी से बहू के रूप में तब्दील होती थीं।

दोंगा के बाद मैं पहली बार ससुराल गया था। आज ससुराल में मेरा तीसरा दिन था। मेरी बीवी निलोफ़र दिन भर अपने मायके वालों में मसरूफ़ रहती। शर्म व हया के चलते जानबूझकर वो मेरे पास आने से कतराती थी।

कल शाम में मौक़ा मिला तो मैंने रात में आने के लिए उसे दावत दी। रात हुई। सबलोग खाना खाकर सो गए। मैं मेहमानख़ाने में निलोफ़र का इंतज़ार करने लगा। बारह बज गए फिर एक बज गया लेकिन वो नहीं आई। शायद आने से डर रही थी या फिर उसकी आंख लग गई थी।

एक बज गया। मेरी बेसब्री बढ़ती जा रही थी। मैं धीरे से बिस्तर से उतरा और आहिस्ता आहिस्ता निलोफ़र के कमरे के पास गया। मैंने दरवाज़े को हल्का सा धक्का दिया। दरवाज़ा अंदर से बंद था इसलिए नहीं खुला। इसका मतलब निलोफ़र अकेली नहीं थी। दरवाज़े पर दस्तक देकर मैं कुछ देर वहीं खड़ा इंतज़ार करता रहा फिर वापस अपने बिस्तर पर आ गया। मेहमान ख़ाने की लाइट बंद करके दरवाज़ा खुला छोड़ दिया कि कहीं निलोफ़र आ जाए।

इंतज़ार करते करते मैं सोने लगा। नींद ग़ालिब होने लगी। तभी मेरे गालों पर किसी ने बोसा दिया। मेरी आंखें खुल गईं। फिर उसने दूसरी बार मुझे चूमा। मैं समझ गया कि वो आ चुकी है। मैंने निलोफ़र की कलाई पकड़ कर अपने ऊपर खींच लिया। वो धम्म से मेरे ऊपर गिरी। उसकी सांसें मेरी सांसों से टकराईं। मुझे लगा कि ये सांसे तो निलोफ़र की नहीं हैं। उसके बदन का वज़न भी कम लगा और बदन की ख़ुश्बू भी अलग लगी। कलाई पकड़ने पर ही मुझे कुछ शक हुआ था। इसलिए कि निलोफ़र की कलाई मोटी थी और ये कलाई पतली थी।

मैंने अंदाज़े से पूछा "ज़ीनत!"
उसने सरगोशी में कहा - "हां"

उसे नीचे ढकेलते हुए मैं बिस्तर पर उठ बैठा।

"बेवक़ूफ़ लड़की, तुम पागल हो गई हो क्या!"

उसकी बोलती बंद हो चुकी थी। उसका निशाना ग़लत जगह पर लगा था। उसने फिर मुझसे लिपटने की कोशिश की, मैंने फिर उसे नीचे ढकेल दिया।

मैंने कहा - "तुम होश में नही हो ज़ीनत। जाती हो या मैं लोगों को जगाऊं।

वो ढीठ बनी बिस्तर के किनारे चुपचाप बैठी रही।

ज़ीनत, निलोफ़र की ममेरी बहन थी। शायद उसके कमरे में या फिर अगल बग़ल के किसी कमरे में जाग रही थी। मेरी दस्तक जो निलोफ़र के लिए थी, ज़ीनत ने अपने लिए आफर समझ लिया या फिर उसने मौक़े का ग़लत फ़ायदा उठाने की कोशिश की थी।

निलोफ़र से कोई दो साल छोटी 18-20 की उम्र रही होगी उसकी। दुबली पतली बला की चंचल वो लड़की दो दिन से मेरे इर्द-गिर्द मंडराती, इतराती, बल खाती चल रही थी। उसकी आंखें कुछ कहना चाह रही थीं लेकिन मैं उन आंखों में देखना नहीं चाह रहा था। इसलिए कि मेरी आंखों में तो हमेशा हमेशा के लिए निलोफ़र बस चुकी थी।

" ज़ीनत तुम्हें ख़ुदा का डर नहीं है। जाओ और अपनी बड़ी आपा को भेज दो।"

धीरे-धीरे उसके होश ठिकाने आ चुके थे। वो झटपट बिस्तर से उतरी और कमरे से निकल गई। उस लड़की की नादानी पर मैं हैरान था। मुझे उम्मीद नहीं रही कि वो जाकर निलोफ़र को भेजेगी।

तक़रीबन ढाई तीन बजे निलोफ़र कमरे में दाख़िल हुई। मैंने सोचा कि निलोफ़र कितनी बेवक़ूफ़ है कि उसने ये नहीं सोचा कि इतनी रात गए मेरा संदेश लेकर ज़ीनत उसके पास क्यों और कैसे गई।
ये भी हो सकता है कि ज़ीनत की आंख लग गई हो या फिर पूरे परिवार के गहरी नींद में सो जाने का इंतज़ार कर रही हो।

बहरहाल जो भी हो, वो आ तो गई। ससुराल में बीवी से मिलन कितना मुश्किल होता है ये अब मैंने जाना। ठीक साढ़े तीन बजे हमने खेत की तरफ़ खुलने वाली खिड़की खोल दी ताकि बाहर की ठंडी हवा अंदर आ सके और अंदर की गर्म हवा बाहर जा सके।

खिड़की खुलते ही हवा के ठंडे झोंके अंदर दाख़िल हुए जिससे हमें काफ़ी फ़रहत महसूस हुई। तभी मैंने देखा कि कोई शख़्स दीवार फांद कर बग़ल के कामिनी देवी के आंगन में कूद रहा है।

कामिनी देवी एक बदनाम औरत थी ये मैं सुन चुका था। डील डॉल की काफ़ी तगड़ी लेकिन चाल चलन में बेहद गिरी हुई। अच्छे अच्छे मर्द उससे ख़ौफ़ खाते थे लेकिन वो जिस मर्द को चाहे अपना शिकार बना लेती थी। लोग कहते हैं कि बहनोई के चक्कर में उसने अपने पति को ज़हर देकर मार डाला था।

कामिनी की बहन कौशल्या अपने पति की बेवफ़ाई के सदमे में पागल हो चुकी है और बहनोई भी एक एक्सीडेंट में घायल होकर विकलांग हो चुका है।

क़ुदरत हर इंसान के कर्मों का फल ज़रूर देती है। किसी को जल्दी दे देती है तो किसी को देर से देती है। हमें लग सकता है कि कोई गुनहगार मज़े कर रहा है और कोई नेकबख़्त ठोकरें खा रहा है। लेकिन क़ुदरत की नज़र में ऐसा नहीं होता। उसकी बहुत बातें हम नही जान सकते या फिर देर से जानते हैं। मज़े करने वाला गुनहगार एक दिन सज़ा ज़रूर पाएगा और ठोकरें खाने वाला नेकबख़्त एक दिन मज़े ज़रूर करेगा। क़ुदरत का इंसाफ़ हर हाल में होकर रहता है।

दोनों बहनें इसी गांव में पैदा हुई थीं। कौशल्या अपनी बहन कामिनी के बिल्कुल विपरीत स्वभाव की थी। गांव के लोग उसे ख़ुदा की गाय कहते थे। निहायत शरीफ़ और नीची निगाह रखने वाली।

कामिनी अपने ससुराल में टिक नहीं सकी और अपनी बहन कौशल्या के घर जाकर बैठ गई थी। उसने बहनोई को अपने मोह जाल में फंसा लिया। बहनोई भी उसी फ़ितरत का था। आला दर्जे का पियक्कड़ और एक नंबर का ऐय्याश। जब बहनोई विकलांग हो गया और बहन पागल हो गई तो वापस कामिनी अपने मायके में आकर बस गई।

बहरहाल दीवार फांद कर कामिनी के आंगन में कूदने वाले शख़्श को मैं पहचान चुका था। मैंने निलोफ़र से कहा - " ग़ालिबन वो मस्जिद के ईमाम साहब हैं!"

निलोफ़र ने कहा - "तौबा तौबा। कैसी बातें करते हैं। ईमाम साहब पर शक करने से गुनाह होगा।"

मैंने कहा - "अब तुम अपने कमरे में चली जाओ।"

ये कहते हुए मैं अपने चचेरे ससुर के कमरे के पास गया। मैंने उनके दरवाज़े पर दस्तक दी। वो फ़ौरन जाग गए। आकर उन्होंने दरवाज़ा खोला और हैरत से पूछा " इस वक़्त! क्या बात है दुल्हे बाबू!"

मैंने कहा " ईमाम साहब को मैंने कामिनी देवी के आंगन में कूदते देखा है।"

उन्हें भी मेरी बात का यक़ीन नहीं हुआ। मेरी बात की तस्दीक़ के लिए उन्होंने अपने छोटे भाई को मेरे साथ मेहमान ख़ाने भेजा।

हम दोनों मेहमान ख़ाने की खिड़की से आंखें गड़ाए इंतज़ार करने लगे। तक़रीबन आधे घंटे बाद ईमाम साहब आंगन की दीवार फांदकर बाहर निकले।

छोटे चाचा ने लौटकर बड़े चाचा से मेरी बात की पुष्टि कर दी। वाज़ेह रहे कि मेरे ससुर तीन भाई ठहरे। मैं सीधे अपने ससुर से ये बात कहने की हिम्मत नहीं जुटा सका इसलिए उनसे छोटे वाले ससुर से कहा। फिर उन्होंने अपने से छोटे वाले भाई को गवाह बनाने के लिए मेरे साथ भेजा था।

एक घंटे बाद जब सुबह की नमाज़ का वक़्त हुआ तब ईमाम साहब नहा धोकर मस्जिद में दाख़िल हुए। हम लोग भी पाक साफ़ होकर अल्लाह के हुज़ूर में पेश हुए। मेरे चचेरे ससुर ने उन्हें नमाज़ पढ़ाने से रोक दिया। ईमाम साहब अंदर ही अंदर समझ गए कि उनकी चोरी पकड़ी जा चुकी है। पूरी नमाज़ के दौरान मैंने महसूस किया कि ईमाम साहब थर-थर कांप रहे थे।

गांव की मस्जिद मेरे ससुराल वालों की देख रेख में ही रहती है। ये लोग यहां के रसूख़दार लोग हैं। मेरे ससुर मस्जिद के मतवल्ली (देखभाल करने वाला) हैं।

सूरज निकलते ही मेरे ससुर (मतवल्ली) ने ईमाम साहब का हिसाब किताब करके उन्हें इज़्ज़त के साथ गांव से रुख़सत कर दिया। ताकि बूरी बात फैले नहीं और बद अमनी से बचा जा सके। बस हम पांच लोगों तक ये बात राज़ बनकर रह गई।

हालांकि ईमाम साहब बाल बच्चेदार आदमी थे। लेकिन बीवी बच्चों को साथ नहीं रखते थे। हम लोग ईमाम मोवज़्ज़िन को तनख्वाह ही इतनी कम देते हैं कि वो लोग परिवार को साथ नहीं रख पाते।

ईमाम मोवज़्ज़िन, पंडित पुजारी भी इंसान होते हैं और हमारी तरह उनकी भी ख्वाहिशें और ज़रूरतें होती हैं। इन बातों को समाज के लोग नही समझते और ईमाम पूजारी को अलग मख़लूक़ समझते हैं। इन बातों का एहसास मुझे भी बहुत बाद में हुआ।

सुबह होते होते निलोफ़र भी समझ चुकी थी कि ज़ीनत पके हुए आम की तरह मेरे बिस्तर पर पेश हुई थी। लेकिन मैंने ठुकरा दिया था। उसने ये बात अपनी अम्मी को बतायी और अम्मी ने उसके अब्बू को। उसके अगले रोज़, इधर हमारी बिदाई हुई उधर ज़ीनत के अब्बू भी उसे आकर ले गए।

तीस साल बाद एक जाना पहचाना बूढ़ा शख़्स लेप्रोसी हॉस्पिटल के सामने नज़र आया। दोनों हाथों पर पट्टियां बंधी पड़ी थीं। मैं दो-तीन मिनट तक याद करता रहा कि इन्हें कहां देखा है। फिर याद आ गया।
मैं दौड़ते हुए उनके पास गया।

"ईमाम साहब!"

उन्होंने पलट कर मेरी तरफ़ देखा। लेकिन मुझे नहीं पहचाना।

मैंने अपना परिचय दिया तो उन्हें याद आ गया। फिर मुझे किनारे ले जाकर एक चबूतरे पर बैठ गए और मुझे भी बैठने के लिए कहा। उन्होंने कहा -

"अब तो मैं मरने के किनारे आ चुका हूं, अब आप से क्या छुपाना। वो बदबख़्त कामिनी मेरा पीछा करते मेरे घर तक आ गई थी और मुझ पर शादी करने का दबाव डालने लगी। मैं मौलवी आदमी, बूरी तरह फंस चुका था। घर परिवार, गाँव समाज , दीन ईमान सब ख़तरे में था। मैंने शहर के बाहर एक वीरान घर में उसे ठहराया और एक रात पूरी तैयारी के साथ उसके पास गया। प्यार से उसे अपने चंगुल में लेकर उसका मूंह बांध दिया फिर हाथ और पांव भी बांध दिया। फिर उसपर पेट्रोल डालकर जला दिया। रस्साकशी में मेरे दोनों हाथ भी जल गए। फिर बाहर से कुंडी लगा कर भाग आया।

आज तक मैं क़ानून और समाज की पकड़ में तो नहीं आया लेकिन अल्लाह की पकड़ से भला कौन बच सकता है! मेरे दोनों जले हुए हाथ लाख ईलाज के बाद भी ठीक नहीं हुए और अब इनमें कोढ़ पकड़ चुका है। तीस साल से इसका ईलाज करा रहा हूँ लेकिन ठीक नहीं हो रहा है। अब जहन्नुम की आग में, मेरे साथ ये कोढ़ भी जलेगा, इंशाअल्लाह। "

मेरी जेब में कुल एक हज़ार सात सौ रुपये थे। मैंने उनकी जेब डाल दिया और हैरान परेशान क़ुदरत के इंसाफ़ के बारे में सोचता आगे चल पड़ा।

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