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लाजवंती

लाजवंती
(कहानी)

लेखक - अब्दुल ग़फ़्फ़ार

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मेरा नाम लाजवंती है लेकिन गांव घर के लोग दुलार से मुझे लाजो कह के बुलाते हैं। नेपाल, भूटान और बांग्लादेश, हमारे गांव से बहुत दूर नहीं हैं फिर भी सरहदों के चलते बहुत दूर लगते हैं। हमारे यहां की पथरीली ज़मीन ऊपजाऊ नही होती और आसपास कोई बड़ा शहर भी नही है जहां लोग कमाने जा सकें। हींग और शीलाजीत बेचने वाले अधिकतर नौजवान माओवादियों के शक में एसएसबी और बीएसएफ के हाथों गिरफ़्तार कर लिए जाते हैं।

जब भी गांव की किसी बेटी को नाचने के लिए शहर जाते देखती हूँ तो मुझे अपनी कहानी याद आ जाती है।

बचपन में ही मेरे बाबूजी का साया सर से उठ गया था। तब से माई, मेहनत मज़दूरी करके हम दोनों बहनों को पालती रही। गांव में आज भी ग़रीबी का ये आलम है कि अभी तक ना किसी के घर में गैस चूल्हा है और ना ही शौचालय। हम लोग अभी भी रोज़ सुबह शौच के लिए जंगलों में जाते हैं।

ग़रीबी और भुखमरी के कारण पिछले कुछ सालों से हमारे गांव की औरतें और लड़कियां शादी विवाह के अवसर पर बैंड पार्टी और आर्केस्ट्रा में नाचने का काम करती हैं।

1999 में, मैं आठवीं क्लास में थी जब बिहार का एक भैया लगन के दिन में महीने भर नाचने के लिए माई से तीन हज़ार में तय करके मुझे ले गया। उसने एक महीने के बदले देढ़ महीने तक नचाया और तीन हज़ार के बदले सिर्फ देढ़ हज़ार देकर टरका दिया था। उस वक़्त तक मैंने गांव से बाहर की दुनिया बिल्कुल नही देखी थी। इसलिए रंगबिरंगी दुनिया घूमकर ही मैं संतुष्ट हो गई थी।

आज भी गांव के लोग हर लगन में ठेकेदारों का इंतज़ार करते हैं। सीज़न के समय दस साल से ऊपर की लड़कियों को लोग सजा संवार कर रखते हैं कि लड़कियां ठेकेदारों की नज़रों में चढ़ सकें।

सन 2000 की बात है। मैंने किवाड़ की आड़ से देखा तो इस बार कोई दूसरा आदमी था जो माई से मेरा मोल भाव कर रहा था। वो ख़ुद को बंगाली बता रहा था लेकिन लगता बिहारी था। उसकी उमर पचास पचपन के आसपास रही होगी।

मर्दानी कुर्ता पहने, सिर के सफेद बालों के साथ रंगे हुए मूंछों को बार बार ऐंठ रहा था और अपना नाम ललन दास बता रहा था। माई की लाख कोशिशों के बावजूद वो तीन हज़ार से अधिक देने के लिए तैयार नही था।

मैं झट से बाहर निकली और बोली "अगर नचाना है दादा, तो पूरे पांच हज़ार लगेंगे और वो भी टोटल पैसा एडवांस में, नहीं तो दूसरा दरवाज़ा देखो।"

उसे दादा इसलिए बोली कि हमारे गांव में बंगालियों को अक्सर दादा ही बोलते हैं। वैसे वो बिल्कुल हमारे स्वर्गीय दादा जी की उमर का लग भी रहा था।

मेरी बातें सुनकर दादा ने मुझे नीचे से ऊपर तक निहारा और माई से बोला " तुम तो जानती हो बहन कि आर्केस्ट्रा में कितना खर्चा है। आधा पैसा तो हाकिम हुकुम ही ले लेते हैं। उसके बाद तमाम तरह का ख़र्च अलग। चलो पांच हज़ार ही सही, लेकिन एडवांस में सिर्फ़ एक हज़ार देंगे। बाक़ी रक़म और लौंडिया दोनों, लगन ख़तम होते ही पहुंचा देंगे - - ये मेरा वादा है।

हम पहाड़ी लोग शहर वालों की बातों में जल्दी आ जाते हैं। महीने भर का पांच हज़ार मिलता देख माई ने हामीं भर दी और मुझे उसके साथ जाने की इजाज़त दे दी।

"देखना मेरी लाजो को कोई तकलीफ़ ना हो, वर्ना मुक़दमा ठोक दूंगी तुम पर - - बता देती हूँ।"

माई की बातें सुनकर मेरे दिल को कुछ तसल्ली हुई और कुछ हौसला बढ़ा।

"अरे क्यों चिंता करती हो बहन! तुम्हारी बेटी मतलब हमारी बेटी। एक सुई ना चुभने देंगे तेरी लाजो को। क़सम से।"

मेरे किशोर मन को दादा की बातें बनावटी महसूस हुईं लेकिन परिवार पालने के लिए उसके साथ जाना मजबूरी थी। इसलिए जाना ही पड़ा।

बारह घंटे का सफ़र तय करते करते रात हो गई। अंधेरे में कुछ समझ में नही आ रहा था कि हम कहां जा रहे हैं और कौन सा इलाक़ा है। इस शहर का नाम पता ना तो मुझे मालूम था और ना ही जानने की कोई ज़रूरत थी। बस नाचने जाना था, नाचने जा रही थी। अभिभावक के रूप में दादा साथ था, उसे जहां ले जाना था, वहां लेकर जा रहा था।

शहर की चकाचौंध गलियों में रात भी दिन जैसा ही लग रहा था। हम लोग बस से उतरने के बाद बहुत देर तक पैदल ही चल रहे। एक पतली सी गली में दूर तक चलते चलते एक छोटे से बोसीदा कमरे में दादा ने ले जाकर मुझे बंद कर दिया और खाने पीने का सामान लाने चला गया।

हल्की रौशनी कमरे में फैली हुई थी और कमरे में नाम मात्र का सामान था जो तितर बितर पड़ा था। हमें तो खुली हवा में सांस लेने की आदत थी और यहां सीलन भरी बदबू, जिसमें सांस लेना मुश्किल हो रहा था। ऐसा लगता था जैसे कभी कभार ही इस कमरे में इंसानों का बसेरा होता था।

एक घंटे बाद दादा खाने पीने का कुछ सामान लेकर आया।

अंडे का आमलेट, रोटी, सेब और केले वग़ैरह। भर पेट खाने के बाद दादा ने दारू की शीशी निकाली और घटाघट पीने लगा। दो चार घूंट पीने के बाद वो मुझपर भी पीने के लिए दबाव डालने लगा।

उसने कहा - "पी लो बिटिया---सफ़र की थकान उतर जाएगी। ये दारू नहीं दवाई है।"

मैंने कहा - "नही दादा मैं नही पीती।"

ललन दास - "अरे थोड़ा सा पी कर तो देखो।" कहते हुए उसने ज़बरदस्ती मेरे मुंह में शीशी घुसेड़ना शुरू कर दिया।

मैंने बचपन में बाबूजी को पीते देखा करती थी। माई कहती है कि तुम्हारे बाबूजी दारू के चलते ही असमय काल के गाल में समा गए थे। इसलिए मैं दारू के नाम से ही दूर भागती थी।

दादा ज़बरदस्ती दारू की शीशी मेरे मुंह में घुसेड़े जा रहा था। मजबूरन मैंने एक घूंट पी ली। पीते ही ऐसा लगा कि कंठ में किसी ने आग भर दिया हो।

फिर दादा ने अपनी ज़बरदस्ती जारी रखी और मुझे पूरी शीशी पिला दी। फिर मेरा माथा चकराने लगा और मैं बेसुध होकर लुढ़क गई।

रात के किसी पहर नींद में अचानक पेट के निचले हिस्से में दर्द महसूस हुआ। ऐसा लगा कि किसी ने गर्म लोहा मेरे शरीर में घुसेड़ दिया हो। मैंने आंखें खोलना चाहा लेकिन नशे के कारण आंखें नही खुल रही थीं। लगता था जैसे टनों मिट्टी के बोझ तले दबी पड़ी हूँ। मैंने उठने की भरपूर कोशिश की लेकिन शरीर साथ नही दे रहा था। फिर मेरी पलकें बंद होने लगीं। उसके बाद पता नही क्या हुआ।

जब मैं जगी, तब सुबह के दस बज रहे थे। आंखें खुलते ही मैं दर्द से तड़़प उठी। मेरे आधे कपड़े शरीर पर नहीं थे। मैंने हड़बड़ा कर बिस्तर से उठना चाहा लेकिन आंखों के सामने अंधेरा छा गया और चक्कर खा कर वहीं बिस्तर पर गिर पड़ी।

माई-माई कहके रोने लगी। मुझे एहसास हो चुका था कि दादा ने मेरे साथ गंदा काम किया है। जिस इंसान को मैं बाप के बराबर समझ रही थी उसी ने मेरे साथ दरिंदगी की थी।

दादा कमरे में नहीं था और दरवाज़ा बाहर से बंद था। मुझे ज़ोर से प्यास लगी थी लेकिन कमरे में पानी मौजूद नहीं था।

मैं माई को कोसने लगी कि उसने किस शैतान के साथ मुझे भेज दिया। बाप दादा के उमर के इंसान को शैतान बनते देखने का यह मेरा पहला अनुभव था।

बारह बजे के क़रीब दादा आया। साथ में खाने पीने, नहाने और मेकअप करने का कुछ सामान और दर्द की दवाईयां भी साथ लाया था।

उसने आते ही कहा - "लाजो - - खाना खाकर दवा खा लेना और नहा धो कर तैयार हो जाना। शाम में शो करना है।"

रात की घटना का उसके चेहरे पर शायबा तक नही था। वो आज भी वैसे ही मासूम तरह नज़र आ रहा था जैसे कल नज़र आ रहा था। मन किया कि उसका मूंह नोच लूं और उसका मुखौटा ऊतार दूं लेकिन मैं उसके सामने मुर्गी के चूज़े के बराबर थी, इसलिए कुछ कर न सकी।

कल तक जो इंसान फ़रिश्ता नज़र आ रहा था आज वो साक्षात राक्षस के रूप में मेरे सामने खड़ा था।

अपना हुक्म सुनाने के बाद वो बाहर से दरवाज़ा बंद कर के चला गया। मेरे पूरे शरीर में अभी भी दर्द हो रहा था। मैं चार बजे शाम तक बिना कुछ खाए पीए रोती रही।

मैंने भगवान का ध्यान करके कहा , 'लोग तो कहते हैं कि तू बड़ा दयालु है। मुझ पर ये कैसी दया कर रहा है भगवान! एक तो इतना ग़रीब बनाया की आज तक भर पेट खाना और तन भर कपड़ा नसीब नही हुआ और उसपर सितम ये कि जानवरों के हाथों का खिलौना बना दिया। वाह रे दयालु भगवन, अगर मेरी जगह तू होता तो पता चलता कि पंद्रह साल की बच्ची इस परिस्थिति में कैसी तकलीफ़ से गुज़रती है।

तभी दरवाज़ा खुलने की आवाज़ आई। मैंने सोचा वही शैतान होगा लेकिन ये तो कोई बीस बाईस साल का नौजवान था। आते ही उसने कहा "मैं गोलू हूं, मकान मालिक का बेटा। ललन चाचा ने फोन किया था कि तुझे लेकर मैरेज हॉल पहुंचना है।"

मैंने कहा - "लेकिन मैं तैयार नही हूं भैया।"
गोलू ने झल्लाते हुए कहा - "मुझे भैया वैया मत कह, जल्दी से तैयार हो जा, मैं अभी आता हूं।"

ये कहते हुए वो बाहर से ताला लगा कर चला गया।

मैं क़साई के खूंटे पर बंधी गाय की तरह थी। भागूं तो कैसे भागूं, कहां भागूं! पापी पेट ने मुझे इस उमर में कहां से कहां पहुंचा दिया था।

मजबूरन मुझे गोलू के साथ जाना पड़ा। वहां पहुंच कर मैंने दादा से कहा - "मेरे शरीर में जान नही पड़ रही है दादा, मैं नाच नही पाऊंगी।"

ललन दास ने कहा - "तू क्या तेरी मां भी नाचेगी। कहती थी, पूरे पांच हज़ार लगेंगे, तो अब नाच। तेरे चलते क्या मैं दस हज़ार का सट्टा छोड़ दूं!"

मैंने कहा - "मुझसे कल नचवा लेना दादा। बस आज भर छोड़ दो। मेरे पैर ज़मीन पर नहीं टिक रहे हैं। आज दूसरी लड़की से नचवा लो।"

ललन दास मेरे बाल पकड़े एक कमरे में ले गया जहां दो लड़कियां पहले से मौजूद थीं। उनकी तरफ इशारा करते हुए बोला -" देख - - ये तो तेरे जैसे नखरें नहीं कर रही हैं।"

मैंने दादा के सामने हाथ जोड़ते हुए कहा - "दादा, तू जानता है कि मैं किस पीणा में हूं, फिर भी मुझपर रहम नही कर रहा!"

दादा ने पॉकेट से दारू की शीशी निकालते हुए कहा - "अभी तेरा सारा दर्द दूर हो जाएगा। ले इसे पी ले।" और शीशी का ढक्कन खोलकर मेरे मुंह में घुसा दिया। मेरे हल्क़ में दारू उतरती चली गई।

फिर उसने जल्दी से शीशी निकालते हुए कहा -" बस कर, नही तो टल्ली हो जाएगी, फिर नाचेगी क्या !"

मेरा दम फूल गया। कुछ ही देर में मेरा माथा घूमने लगा और मैं माथा पकड़ कर बैठ गई।

इस बीच स्टेज सज चुका था और मुझे ठेल ठाल कर उसपर चढ़ा दिया गया। मरता क्या न करता। मैंने लड़खड़ाते क़दमों से नाचना शुरू कर दिया।

मेरा लड़खड़ा कर नाचना, दर्शकों में उत्तेजना पैदा कर रहा था। मेरी तड़प में लोगों को अदाएं नज़र आ रही थीं। मैं बाहर से हंस रही थी, अंदर से रो रही थी और दर्शक झूम रहे थे।

दर्शक मेरे लटके झटके देखकर सीटियां बजा रहे थे। लगता था कि उनके घर में मेरी उम्र की बहन बेटियां नही हैं। या हैं भी तो वो दूसरी मिट्टी की बनी हैं और मैं दूसरी मिट्टी की बनी हूं। दर्शकों के चेहरे मेरे सामने गोल गोल घूमते नज़र आ रहे थे। मैं क्या नाच रही थी, कैसे नाच रही थी, पता नहीं। बस किसी तरह नाच रही थी, इतना पता था।

बहरहाल बारह बजे रात को मुझे फुर्सत मिली और गोलू अपने घर के उसी बोसीदा कमरे में वापस लाया जहां पर मैं कल से क़ैद थी।

मेरे बदन का जोड़ जोड़ टूट रहा था। पहुंचते ही थकान से निढाल होकर बिस्तर पर गिर पड़ी। एक तो दारू का नशा ऊपर से नाच की मुशक़्क़त। मुझे इस बात का एहसास ही नही रहा कि गोलू चला गया या यहीं रुका हुआ था।

एहसास तब हुआ जब फिर से पिछली रात वाली दर्द से गुज़रना पड़ा। मैंने हड़बड़ा कर उठना चाहा लेकिन उठ नही सकी। चिल्लाना चाहा लेकिन चिल्ला नही सकी। उसने मेरे मुंह पर अपना मज़बूत हाथ जमा रखा था। मेरी आंखें हैरत से खुली रह गईं जब अपने ऊपर गोलू को चढ़ा हुआ पाया।

फिर तो ये सिलसिला यूं ही चलने लगा। लगभग रोज़ बिस्तर से लेकर स्टेज तक मुझे रौंदा जाने लगा। पिछले साल भी मैं नाचने निकली थी लेकिन तब ऐसा कुछ भी नही हुआ था।

वादे के मुताबिक़ तो महीना कबका पूरा हो चुका लेकिन दादा डेट पर डेट बढ़ाए जा रहा था। उसने मेरे खाने पीने रहने सहने की सारी ज़िम्मेदारी गोलू पर डाल रखी थी, जो मेरी देखभाल बढ़िया से कर रहा था।

कुछ दिनों बाद मुझे उबकाईयां आने लगीं। वजह मुझे पता नहीं थी लेकिन गोलू इस खेल का पूराना खिलाड़ी लग रहा था। उसने दवा की दुकान से कोई चीज़ लाकर मेरा पेशाब जांच किया और बताया कि मेरे पेट में गर्भ ठहर चुका है।

मैंने घबरा कर गोलू से पूछा - "अब क्या होगा ??"

गोलू ने कहा- "घबराओ मत, सब ठीक हो जाएगा। हमारे धंधे में ये सब चलता ही रहता है।"

फिर उसी रात उसने मुझे गर्भ गिराने वाली दवा लाकर दी।

अगली सुबह से खून गिरना आरंभ हो गया जो पांच छह दिनों तक जारी रहा। पेट में ज़बरदस्त ऐंठन, असहनीय दर्द और बुखार रहने लगा। आंखों के सामने अंधेरा छाने लगा और सप्ताह भर में, मैं अधमरी सी हो गई।

फिर मैं उठ न सकी। लगन भी समाप्त हो गया। ललन दादा ने मेरे हाथ पर पूरे चार हज़ार रुपए रखते हुए कहा - " मैं ज़ुबान का पक्का आदमी हूं। अगर ज़ुबान बंद रखोगी तो अगले सीज़न में इससे ज़्यादा कमाओगी। इस धंधे में थोड़ा ऊंच नीच चलता ही रहता है। अभी छोटी हो, धीरे धीरे सब सीख जाओगी।

फिर उसने गोलू के हाथों मेरी अधमरी लाश को मेरे घर के क़रीब वाले स्टेशन तक पहुंचवा दिया।

मैंने अम्मा के हाथों में चार हज़ार रुपये थमाते हुए कहा - " अम्मा मेरी हालत ठीक नहीं है। मैं मर रही हूँ, मुझे ईलाज की ज़रूरत है। मुझे घर नहीं अस्पताल ले चलो।"

.....
समाप्त
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Abdul Gaffar
Bagaha (Bihar)
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Mobile / WhatsApp - 8294789186

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