आ अब लौट चलें।
(कहानी)
लेखक - अब्दुल ग़फ़्फ़ार
उस समय मैं दिल्ली में पढ़ाई कर रहा था जब धर्मा के मरने की ख़बर मिली। उसे गेहुअन सांप ने डंस लिया था। धर्मा कोई मेरा सगा संबंधी तो नही था लेकिन सगा से कम भी नहीं था। वो मेरे बाबू जी की खेतीबाड़ी देखता था। बाबू जी का चश्मा, बाबू जी का छाता, बाबू जी का टॉर्च और बाबू जी की घड़ी, सभी चीज़ों की रिपेयरिंग कराने की ज़िम्मेदारी उसी की थी।
उसकी मेहनत, ईमानदारी और वफ़ादारी की लोग मिसालें दिया करते थे। गांव के कई लोगों ने अनेक प्रलोभन देकर उसे अपनाना चाहा लेकिन वो हमें छोड़कर जाने के लिए तैयार नहीं हुआ।
सचमुच उसके मरने की ख़बर सुनकर लगा कि मेरा अपना भाई मर गया है। धर्मा तो मेरे घर का सदस्य था ही, उसकी पत्नी अरूणा भी हाई स्कूल तक मेरे साथ पढ़ी हुई थी।
मैट्रिक के बाद पढ़ाई करने मैं दिल्ली चला गया। मुझे जेएनयू में पढ़ने का बहुत शौक़ था। इस बीच अरूणा की शादी गांव में धर्मा के साथ हो गई। धर्मा जैसे मेहनती और ईमानदार नौजवान के संग सात फेरे लेकर अरूणा ख़ुद को ख़ुश्क़िस्मत मान रही थी। ऐसा स्वभाविक भी था, इसलिए कि धर्मा को देखकर गांव भर की लड़कियां आहें भरा करती थीं।
पढाई पूरी करने के बाद मैं गाँव वापस लौट आया। फिर मेरी शादी रूपा संग हो गई। रूपा जैसी रूपवती और संस्कारी पत्नी को पाकर मैं बेहद ख़ुश था। जिस तरह की पत्नी की कल्पना मैंने की थी, रूपा उससे भी बढ़ कर निकली। सास ससुर की सेवा करना वो अपना धर्म समझती थी। मेरी मां बार बार उसे "दूधो नहाओ, पूतो फ्लो" का आशिर्वाद देती। रूपा लगातार तीन सालों में तीन बार गर्भवती हुई लेकिन तीनों बार ही गर्भ नष्ट हो गया। मतलब फल लगता तो था लेकिन टिकता नहीं था। फिर डाक्टरों का चक्कर लगाने का सिलसिला शुरू हो गया।
तीसरे साल में रूपा के गर्भाशय कैंसर का पता चला। मैं ईलाज कराने उसे मुंबई ले गया लेकिन तबतक देर हो चुकी थी। कैंसर का ज़हर पूरे शरीर में फैलना शुरू हो चुका था। आख़िरकार पिछले साल रूपा हमें छोड़कर इस संसार से चली गई।
उसके चले जाने के बाद अब ख़ाली घर काटने को दौड़ता है। मेरे साथ साथ मां बाबू जी भी बेसहारा हो गए हैं। इस उम्र में उनकी देखभाल करने वाली बहू अब नहीं रही। कभी कभी माँ, बहू - बहू की हांक लगाने लगती है तो पिता जी उससे अपनी दवाई मांगने लगते हैं। उनकी मानसिक स्थिति देखकर मेरा दिल रोने लगता है। इसलिए मैं दूर हट जाता हूँ और अधिकतर समय खेतों में गुज़रता हूँ।
रूपा के स्वर्गवासी होने के बाद धर्मा का ख़्याल तब ज़ेहन में आया जब अरुणा मेरे खेतों में धान काटने पहुंची। दो बच्चों की मां अरूणा पहले भी मेरे खेतों में आया करती थी लेकिन उसकी ऐसी हालत कभी नही देखी थी। अरूणा उस ज़र्द फूल की तरह कुम्हलाई लग रही थी जिसे वक़्त की आंधियां अपने झन्नाटेदार थपेड़ों से मसल कर रख देती हैं।
उसने मुझे देखते ही अपने चेहरे पर साड़ी का पल्लू नीचे खींच लिया और धान काटने में व्यस्त हो गई। बेजान हाथ, सूखे होंठ और बदन पर सौ देढ़ सौ की साड़ी में वो जवान होकर भी बूढ़ी लग रही थी।
मैंने उसके नज़दीक पहुंच कर कहा - धर्मा के बारे में मुझे दिल्ली में ख़बर मिली थी। सुनकर बहुत दुख हुआ - - -
मेरी बात को अनसुना कर वो चुपचाप अपना काम करती रही। हालात की मारी अपनी सहपाठिन की दुर्दशा देखकर मेरा मन तड़प उठा।
मैंने फिर कहा - अरूणा तुम्हें जब भी किसी चीज़ की ज़रूरत हो तो मुझे फ़ौरन याद कर लेना। हमारे घर को पराया न समझना। आख़िर धर्मा मेरा वफ़ादार साथी था, और तुम - - तुम भी तो मेरी दोस्त रह चुकी हो।
लेकिन अरूणा फिर भी कुछ न बोली और चुपचाप धान काटती रही। शायद अपनी क़िस्मत पर अंदर ही अंदर रो रही थी या फिर इस बात से नाराज़ थी कि जो धर्मा मेरे भाई जैसा था उसकी याद मुझे इतने दिनों बाद आ रही है।
इतने दिनों तक रूपा के ईलाज और दुनिया से उसकी बिदाई के चक्कर में, मैं इतना व्यस्त रहा कि ख़ुद को ही भुला बैठा था, फिर धर्मा की याद से ग़ाफ़िल होना कोई आश्चर्य की बात नहीं थी।
अरूणा को देखने के बाद मुझे शर्मिंदगी महसूस हो रही थी। लाख मूसीबत में रहने के बाद भी मुझे धर्मा के परिवार का ख़्याल रखना चाहिए था। हालांकि मां बाबू जी कभी कभी अनाज वग़ैरह भेजवा देते थे लेकिन धर्मा जैसे वफ़ादार के लिए सिर्फ़ राशन भेजवा देना ही काफ़ी नहीं था।
फिर मैं अड़ोस पड़ोस के लोगों से धर्मा के परिवार की खोज ख़बर रखने लगा। जब भी मैं अरूणा को देखता मुझे उसके साथ गुज़ारे स्कूल के दिनों की यादें आने लगतीं।
फिर किसी न किसी बहाने मैं उसकी मदद करने लगा। कभी धर्मा का बक़ाया बताकर दे देता तो कभी आगे मज़दूरी में काटने की बात कहकर दे देता। शुरू शुरू में तो वो मदद लेने से इंकार करती रही लेकिन फिर धीरे-धीरे मुखर होकर मदद लेने लगी।
एक दिन अरूणा खेत में घास निकाल रही थी और मैं मेढ़ पर बैठा उससे बातें कर रहा था। तभी कुछ मज़दूर औरतें उधर से गुज़रीं और हमारी बातें सुनकर अर्थ का अनर्थ निकाल लिया। फिर हवा फैलते देर नहीं लगी। गांव के घर घर में मेरा संबंध अरूणा से जोड़ा जाने लगा।
एक तो स्त्री और ऊपर से विधवा, उससे बड़ा सॉफ्ट टार्गेट समाज के लिए कुछ हो ही नही सकता। लोगों की बातों का मुझपर तो कोई असर नहीं पड़ा लेकिन अरूणा टूट कर रह गई। उसे क्या कुछ नहीं सुनना और सहना पड़ रहा था। लोग फब्तियां कस रहे थे। उसे कुल्टा और चरित्रहीन कह रहे थे।
हालांकि निशाने पर मैं भी था लेकिन पुरुष प्रधान समाज में पुरुषों के लिए कुछ रियायतें रहती हैं जिसका लाभ मुझे मिल रहा था। बहरहाल इस घटना के बाद मैंने ख़ुद को अपने घर की चहारदीवारी तक महदूद कर लिया।
अरूणा एक ग़रीब और छोटी जाति की तेज़ तर्रार लड़की हुआ करती थी। मैट्रिक तक वो मेरी सहपाठिन रही थी। क्लास में हमेशा अव्वल आती। लेकिन उसकी क़िस्मत में मैट्रिक से आगे पढ़ना लिखा ही नहीं था। शादी के सिर्फ़ तीन साल बाद उसका विधवा हो जाना उसके लिए एक अभिषाप बन चुका था। पति के मरने के बाद वो अपनी ग़रीबी, अपनी बेबसी, अपनी इस्मत और अपनी अस्मिता से लगतार लड़ रही थी।
धर्मा न सिर्फ़ मेरे खेतों का रखवाला था बल्कि मेरा हमराज़ और हमप्याला भी था। उसके जीते जी मेरे दिल में अरूणा का ख़याल तक नहीं आया था। लेकिन अब मेरे मन में अरूणा के प्रति हमदर्दी की भावना जन्म लेने लगी।
अरूणा के दो बच्चे भी थे जिनकी परवरिश करना उसके लिए किसी अज़ाब से कम नही था। मुझे बार बार ऐसा लगता कि धर्मा आसमान से मेरी तरफ़ आशा भरी निगाहों से देख रहा है।
अरूणा और मेरे बीच कोई समानता नहीं थी सिवाय इसके कि हम दोनों के जीवन साथी हमें मंझधार में छोड़ कर चले गए थे। तमाम तरह की असमानता के बावजूद हम दोनों भावनात्मक रूप से एक दूसरे के क़रीब आने लगे। लेकिन अमीरी ग़रीबी और ऊंच नीच का सामाजिक बंधन बहुत बड़ी दीवार के रूप में हमारे सामने मूंह बाए खड़ा था।
पत्नी के गुज़रने के बाद अक्सर मैं देर रात तक जागता रहता था। आज भी मुझे नींद नही आ रही थी। बिना पत्नी के बिस्तर कांटों का सेज लगता था। बेचैन होकर टहलते हुए मैं नहर की तरफ़ चला गया। खेतों के बीचोंबीच ख़ामोश नहर का पानी कलकल बह रहा था। अंधेरी रात में नहर के किनारे चारों तरफ़ फैले सन्नाटे में सारी दुनिया ही काली नज़र आ रही थी। हालांकि लहरों की मद्धिम सरसराहट और हर तरफ़ फैली गहरी ख़ामोशी से दिल को कुछ सुकून मिल रहा था।
कुछ देर बाद एक साया नमूदार हुआ। क़रीब आते ही मैं उस साए को पहचान गया। वो अरूणा थी जो मुझे देखकर सकपका गई। उसे इस समय यहां देखकर मेरे मन में कई तरह के ख़्याल आने लगे।
वो कुछ नहीं बोली और चुपचाप मेरे साथ नहर के किनारे बैठ गई। इस घुप्प अंधेरे में भी, उसकी आंखों में बेबसी के आंसू मैं साफ़ देख सकता था। ना वो कुछ बोल रही थी और ना ही मैं कुछ पूछ रहा था। धीरे धीरे ख़ामोश लम्हे गुज़रते रहे। रात रुख़सत होने लगी। डर लग रहा था कि कोई हमें यहां इस वक़्त देख ना ले।
मैंने वापस चलने के लिए अरूणा की तरफ़ हाथ बढ़ाया। उसने मेरा हाथ पकड़ा और ज़मीन से उठ गई। फिर पलक झपकते ही वो दौड़ते हुए छपाक से नहर में कूद पड़ी।
मैं इस परिस्थिति के लिए बिल्कुल तैयार नही था इसलिए घबरा गया। लेकिन फ़ौरन मैंने भी नहर में छलांग दिया और उसे जा पकड़ा।
उसे पानी से बाहर निकालते हुए मैंने ग़ुस्से से कहा - अरूणा - - - ये क्या पागलपन है??
अरूणा फूट फूट कर रोने लगी। मैं हक्का बक्का उसे देखने लगा। कुछ देर बाद जब स्थिति सामान्य हुई तो सिसकियों के दरमियान उसने बताना शुरू किया।
रात बड़ी बेटी निक्की को तेज़ बुख़ार चढ गया था। वो बुरी तरह कांप रही थी और हांफ भी रही थी। एक बजे रात को मैं उसे आनंद जी के क्लिनिक ले गई। क्लिनिक में कोई स्टाफ नहीं था। आनंद जी अकेले थे इसलिए निक्की को देखने से आना कानी करने लगे। मैंने बहुत आग्रह किया तब जाकर वो माने और निक्की का ईलाज करने के लिए तैयार हुए।
एक घंटे में निक्की का बुख़ार उतर गया। फिर वो आराम से सो गई। हालांकि उसके नस में पानी अभी भी चल रहा था। फिर अचानक आनंद जी पागल कुत्ते की तरह मेरी तरफ़ जीभ लपलपाने लगे और लार टपकाने लगे। उनके अंदर का शैतान जाग चुका था। हवस में वो अंधा हो रहे थे। मैं उनके सामने हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाने लगी। वो मुझे पुचकारने लगे। रात का सन्नाटा अपने शबाब पर था। मेरे सामने बेसुध पड़ी मेरी बेटी, मेरे पैरों की ज़नजीर बनी हुई थी। काफ़ी जद्दोजहद के बाद भी मैं ख़ुद को उस पापी से बचा नहीं सकी।
वातावरण की ख़ामोशी और गहरी हो चुकी थी। रात और भी काली हो चुकी थी। उसने रोते हुए कहना जारी रखा।
उस समाज में जीने का क्या फ़ायदा जिसे एहसास ही नही कि विधवा भी हाड़ मांस की बनी हुई इंसान होती है। किसी की बेटी और किसी की मां होती है। उसका भी आत्मसम्मान होता है, गौरव होता है। उसके भीतर भी आरज़ूएं होती हैं, इक्षाएं होती हैं। वह भी पर खोलकर उड़ना चाहती है, खिलखिला कर हंसना चाहती है।
आख़िर क्यों छीन लेना चाहता है ये समाज, उससे उसकी सारी खुशियां, ज़िंदगी की सारी रंगीनियाँ! क्यों उसे बंजर ज़मीन बनाकर छोड़ दिया जाता है। उसे जीते जी क्यों मार दिया जाता है!
आप बड़े लोग हैं - - - पुरुष हैं - - मज़बूत हैं, लेकिन मैं - मैं तो हर तरह से बेबस और लाचार हूँ। पांच साल से विधवा की ज़िन्दगी जी रही हूँ। ज़माने की मार सहते सहते अब थक चुकी हूँ। जो मौक़ा पाता है, काट खाने को दौड़ता है। अब और जीने का साहस नही बचा है मुझमें।
उसके कांपते शरीर को देखकर मेरी आत्मा भी कांप रही थी। मेरा शरीर भी कांपने लगा। उसके प्रश्नों के उत्तर मुझे नहीं सूझ रहे थे। सूरज की लालिमा उफ़क पर उभरने लगी थी। मैंने अपना हाथ उसकी तरफ़ बढ़ाया - - -
उसने सवालिया नज़रों से पूछा - ये क्या!!!
मैंने कहा - मैं तुम्हारा कवच बनना चाहता हूं।
उसे यक़ीन नही हो रहा था। उसने कहा - नहीं - - ये संभव नहीं है। मैं अछूत हूँ, ग़रीब हूँ और अपवित्र भी।
मैंने कहा - सब कुछ संभव है अगर आदमी ठान ले।
उसने कहा - ये समाज आप को जीने नहीं देगा।
मैंने कहा - और मैं तुम्हें मरने नहीं दूंगा।
उसने कहा - उसके लिए हिम्मत चाहिए।
मैंने कहा - भरोसा रखो, अब ये हाथ कभी नहीं छूटेगा।
उसने मेरा हाथ मज़बूती से थाम लिया और खड़ी हो गई।
मैंने कहा - मां बाबू जी तुम्हारा इंतज़ार कर रहे हैं।
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