Pagdandiyan Gawaah hain books and stories free download online pdf in Hindi

पगडंडियाँ गवाह हैं

पगडंडियाँ गवाह हैं।
(कहानी)

लेखक - अब्दुल ग़फ़्फ़ार
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दिन भर की कड़ी धूप में झुलसे हुए घास रात भर मख़मली शबनम में नहा कर तरो ताज़ा हो चुके थे। पगडंडी के दोनों तरफ़ तरबूज़ की हरी भरी लताएँ पसरी हुई थीं। खेतों में हरे लाल काले और चितकबरे तरबूज़ शांत मुद्रा में सिर उठाए नज़र आ रहे थे।

बेला अपनी मड़ई में बर्तन मांझ रही थी। बाहर उसे कुछ आहट महसूस हुई। इसके पहले कि वो कुछ समझ पाती कंबल में लिपटे भालू जैसे दिखते चार पांच इंसान आए और बेला का मूंह दबाए खींचते हुए जंगलों की तरफ़ लेकर चले गए।

कुछ देर बाद नित्य क्रिया से फ़ारिग़ होकर मिहिर लौटा तो मड़ई में बेला को न पाकर बेचैन हो गया। उसने चारों तरफ़ बेला को आवाज़ दी लेकिन बेला नही मिली। खेत में दबे कुचले तरबूज़ और उनकी रौंदी हुई लताओं को देखकर मिहिर ने अंदाज़ा लगाया कि बेला को यहां से ज़बरदस्ती घसीटते हुए ले जाया गया है।

मुख्य पगडंडी गांव से निकल कर खेतों की तरफ़ और खेतों से निकल कर जंगलों की तरफ़ चली जाती थी। जो विभिन्न हादसों, घटनाओं, दुर्घटनाओं, उत्सवों और उल्लासों की गवाह थी। उसी पगडंडी पर दौड़ते हुए मिहिर जंगलों की तरफ़ चला गया।

बाईस साल पहले, एक दिन एक आगंतुक ने बेला की मम्मी सुमित्रा से एक निरुद्देश्य सोच के साथ कहा -

“आपकी बड़ी बेटी के नैन नक़्श बहुत सुंदर हैं ”

बेला से चार साल 'छोटी' ने पहली बार ख़ुद को आईने में देखा तौला और समझने की कोशिश की कि नैन नक़्श अच्छे होने का मतलब क्या होता है! आज पहली बार उसने माँ के सौन्दर्य और उनके सौंदर्य प्रसाधनों को भी ग़ौर से देखा।

चार साल बड़ी 'बेला' की चाल में आज रोज़ से अधिक उछाल था। उसने अपने मासूम चेहरे पर उबड़ खाबड़ सफ़ेद पाउडर पोत रखा था और होठों पर गहरा लाल लिपस्टिक लगा रखा था। आगंतुक से अपनी तारीफ़ सुनकर बेला छोटी की तरफ़ देखते हुए इतरा कर चलने लगी।

घर-घर खेलते हुए बेला ने छोटी को आदेश दिया - " इस बार तुम मम्मी बनो, मैं पापा बनूंगी।"


छोटी ने कहा - "नहीं, मैं पापा बनूंगी।"

दीदी की हर बात राज़ी ख़ुशी मानने वाली 'छोटी' के स्वर में आज पहली बार प्रतिस्पर्धा और हुंकार सुनकर पास बैठी माँ को अचरज हुआ।

माँ ने बेला से कहा - "छोटी की आवाज़ कितनी मीठी है, बिल्कुल कोयल जैसी, है न बेला?"

बेला ने अपने टीचर से सुनी हुई बात जोड़ी - " ये बात तो टीचर भी कह रही थीं एक दिन।"

छोटी ने कुछ देर बेला की ओर देखने के बाद ख़ुश होते हुए कहा -
“चलो ठीक है, आज मैं मम्मी बन जाती हूँ, पर साड़ी तुम्हें पहनानी पड़ेगी।”

बेला ने हंसते हुए कहा "ठीक है“

एक फ्रॉक की उधड़़न को ठीक करती हुईं माँ सुमित्रा देवी ये सब देखकर मुस्कुरा रही थीं।

धीरे-धीरे समय अपनी गति से चलता रहा। आंगन भी बदल गया और आंगन के संस्कार भी बदल गए। ज़िंदगी अनेक मोड़ मुड़ती रही। बेला के पापा धनिक लाल कपड़े के कारोबारी थी। दो-दो बेटियों की बरकत से उनके घर लक्ष्मी का वास हो गया था और वो अमीर से अमीर होते चले गए। कई कई गाड़ियों और कई कई मकानों के मालिक बन गए। दर्जनों नौकर चाकर भी बहाल हो गए।

बेला के पिता धनिक लाल से अब सेठ धनिक लाल और मां सुमित्रा देवी अब सेठानी बन गईं। कपड़े का कारोबार ख़ूब चल निकला। धनिक लाल को अपने व्यवसाय से फ़ुरसत नही मिलती कि घर का ख़्याल रख सकें और सुमित्रा देवी को शॉपिंग और पार्टियां अटेंड करने से फ़ुरसत नहीं थी।

दोनों बेटियों के हाथों में स्मार्ट फोन और गाड़ियां आ गईं। दौलत की हवस में बेला के माता-पिता बेटियों से ग़ाफ़िल रहने लगे। वो कहाँ जाती हैं, किनसे मिलती हैं और कब घर लौटती हैं, इन सब बातों का ख़्याल ही नही रहा। वो अपनी दुनिया में व्यस्त थे और बेटियां अपनी दुनिया में मस्त थीं। उनका मन पढ़ाई लिखाई में कम, सैर सपाटे और शॉपिंग करने में ज़्यादा लगता था। मां बाप की ग़फ़लत का नतीजा ये हुआ कि एक दिन बड़ी बेटी बेला अपने ड्राइवर मिहिर के साथ भाग गई।

बेला और मिहिर शहर शहर भागते रहे, छुपते छुपाते रहे। घर से निकलते ही उन्होंने अपना अपना मोबाइल गटर में डाल दिया ताकि पकड़े न जा सकें। ये दुनिया उन्हें पहले से ज़्यादा हसीन नज़र आने लगी। वो सारी दुनिया को अपनी बाहों में समेट लेना चाहते थे। पंख फैला कर सारा आकाश नाप लेना चाहते थे।

लेकिन जैसे ही बेला के अकाउंट के पैसे समाप्त हुए उन्हें दिन में तारे नज़र आने लगे। बिना पैसे के जीना दुश्वार होने लगा। फिर मिहिर उसे लेकर अपने गांव चला गया। मिहिर का गांव जंगल के किनारे आबाद था। जहां प्राकृतिक सौंदर्य तो था लेकिन रोज़ी रोज़गार नहीं था। मिहिर के घर वालों ने उनके लिए अपने दरवाज़े बंद कर दिए। इसलिए कि सेठ धनिक लाल के आदमी उन्हें ढूंढने कई बार यहां आ चुके थे और धमकियां देकर जा चुके थे।

फिर वो दोनों किराए का घर लेकर रहने लगे। मिहिर जंगलों से सूखी लकड़ियां काट कर लाता और अगल बग़ल के हाट बाज़ार में बेचकर अपनी जीविका चलाता। बड़ी मुश्किल से गुज़र बसर होता। घर का किराया भी मुश्किल से अदा होता। अब उन्हें ये दुनिया बदसूरत नज़र आने लगी।

गांव के एक किसान फागू कुशवाहा को उनपर दया आई और उसने गांव के बाहर अपने तरबूज़ के खेतों की रखवाली के लिए उन्हें रख लिया। खेत में एक मड़ई पहले से बनी हुई थी जिसमें बेला और मिहिर रहने लगे। इस तरह रूम का किराया भी बचने लगा। नाज़ों में पली बढ़ी बेला अब कांटों के सेज पर सोने के लिए मजबूर थी। मां बाप का घर छोड़कर, उनकी इज़्ज़त पर बट्टा लगाकर, सात सौ किलोमीटर दूर आ जाने के बाद, अब वापस लौटने का साहस भी नहीं बचा था उसमें।

मिहिर, बेला को दिन भर जंगलों में खोजता रहा। खोजते खोजते रात हो गई फिर भी बेला का कुछ पता नहीं चला। मिहिर थक हार कर अपनी मड़ई में लौट आया। रात भर उसे नींद नहीं आई रात भर करवटें बदलता रहा। रात भर दुआएं मांगता रहा। कहां होगी मेरी बेला, किस हाल में होगी। हे भगवान उसकी रक्षा करना। उसके मन में कई तरह के अंदेशे जन्म लेते रहे।

अह्ले सुबह लुटी पिटी बेला गिरते पड़ते वापस लौट आई। उजड़े हुए बाल, फटे हुए कपड़े। सारे बदन से रिसता हुआ ख़ून। ऐसा लगता था कि उसे जंगली जानवरों ने नोच खाया है। आते ही बेहोश होकर वो खटिया पर गिर पड़ी।

मिहिर उससे लिपट कर रोने लगा। बेला बेहोशी में भी कराह रही थी और थर-थर कांप रही थी। मिहिर ने उसे कंबल ओढ़ाया और भागा भागा गांव के डाक्टर के पास गया। डाक्टर ने आकर बेला के ज़ख्मों का मुआईना किया। उसकी हालत देखकर उसे शहर के बड़े अस्पताल में ले जाने को कहा।

मिहिर ने डाक्टर के पैर पकड़ लिए और रोते हुए कहा - " हमारे पास शहर जाकर ईलाज कराने के लिए पैसे नहीं हैं। आप ही माई बाप हैं, आप ही भगवान हैं। आप से जो बन सके करें और मेरी बेला को बचा लें।"

डाक्टर को उनकी बेचारगी पर तरस आ गया। उसने अपने सीमित संसाधनों से ईलाज प्रारंभ किया। बेला धीरे-धीरे होश में आ रही थी और उनकी बातें सुन रही थी। वो इस हालत के लिए ख़ुद को ज़िम्मेदार मान रही थी। घर से भागकर उसने जो ग़लती की थी उसका भोगना भोग रही थी। अपनी ग़लती का एहसास उसे बार बार हो रहा था। लेकिन अब पछताये होत क्या, जब चिड़ियाँ चुग गई खेत!

मिहिर ने फागू कुशवाहा को घटना से अवगत कराया- " मालिक मेरी बेला के साथ कुछ दरिंदों ने अत्याचार किया है। हम दोनों आप के खेतों की हिफ़ाज़त करते हैं और आप से अपनी हिफ़ाज़त की उम्मीद रखते हैं।"

फागू कुशवाहा संपन्न और रसूख़दार व्यक्ति था। उसने अपनी धाक और रसूख़ क़ायम रखने के लिए थानेदार को पैसे देकर दो दिन के अंदर बलात्कारियों को पकड़वाया और सबको जेल भेजवा दिया।

उधर बेला की बहन जो बचपन में " छोटी " के नाम से मशहूर थी अब "मोगरा" बन चुकी थी। चूँकि सेठ धनिक लाल का कोई बेटा नहीं था और बड़ी बेटी पहले ही घर छोड़कर भाग चुकी थी, इसलिए सेठ की सारी संपत्ति की इकलौती वारिस मोगरा ही ठहरी। उसके लिए वर और अपने लिए घर जमाई के तौर पर सेठ ने अपनी बराबरी और अपनी बिरादरी का एक लड़का ढूंढ निकाला था।

मार्बल टाइल्स के सबसे बड़े डीलर सेठ करमचंद का सबसे बड़ा बेटा माहिरचंद जो एमबीए पास था, घर जमाई बनने के लिए राज़ी था। सेठ करमचंद इतना बड़ा मौक़ा हाथ से जाने नहीं देना चाहते थे। उनके दो बेटे थे। एक के लिए मार्बल टाइल्स का बिज़नेस तो पहले से ही खड़ा था और दूसरे के लिए बैठे बिठाए टेक्सटाइल का कारोबार हाथ आ रहा था। उनकी सोच थी कि क़यामत जब आएगी - तब आएगी, उसके पहले तक तो ये दुनिया फलती फूलती ही रहेगी, तो इसमें हम अपनी भागीदारी क्यों छोड़ दें। बहरहाल माहिरचंद की शादी मोगरा के साथ हो गई।

करमजली बेला हालांकि मिहिर का प्यार पाकर ख़ुश तो थी लेकिन ऐसी कठिन और दुश्वार ज़िंदगी की कल्पना भी उसने नहीं की थी। मिहिर के आग़ोश के झिलमिलाते तारे इतनी जल्दी मद्धिम होकर टिमटिमाने लगेगें, ये उसने सोचा न था।

पहले बैंक खाते में बाप पैसे डालता था तब वो गुलछर्रे उड़ाती थी।अब बाप ने पैसे डालना बंद कर दिया तो उसे आंटे दाल का भाव भी मालूम हो गया। इसके पहले उसे एहसास ही न था कि खाते में पहले पैसे डाले जाते हैं, फिर निकाले जाते हैं। अब जाकर उसे पता चला कि प्यार से सिर्फ़ दिल को सुकून मिल सकता है, पेट को सुकून तो राशन पानी से ही मिलता है।

आबरू गंवाने के बाद से वो बिल्कुल गुमसुम रहने लगी थी। उसे क्या पता था कि जंगली इलाक़ों के सीधे सादे लोगों में हैवान भी छुपे होते हैं। सूरज निकलने के बाद और सूरज ढलने से पहले वो रोज़ खेतों की पगडंडियों पर जाकर बैठ जाती और बचपन के दिनों को याद करते हुए ख़ूब रोया करती। दोनों बहनों की नोक झोंक को देखते हुए मां पिता जी कितने आह्लादित हुआ करते थे। उनकी हर छोटी बड़ी फ़रमाइश पलक झपकते ही पूरी किया करते थे। सिर्फ़ एक नादानी के कारण मुठ्ठी से रेत की तरह फिसल गए वो दिन।

बेला बीए और मोगरा इंटर की छात्रा थीं। दोनों बहनों को कॉलेज छोड़ने और वापस लाने की ज़िम्मेदारी मिहिर की ही थी। मिहिर लंबा क़द, घुंघराले बाल, रोबदार आवाज़ और गठीले बदन का मालिक था। उसकी ईमानदारी और वफ़ादारी पर धनिक लाल भी फ़िदा थे। मिहिर के साथ शॉपिंग करने जाने, फार्म हाउस जाने या कॉलेज जाने के दरमियान दोनों में नज़दीकियां बढ़ती चली गईं। गाड़ी चलाते हुए मिहिर अपने साइड मिरर को बेला की तरफ़ घुमा लेता और रास्ते भर, एक नज़र सड़क पर, तो दूसरी नज़र बेला पर गड़ाए रखता। फिर बेला के किशोर मन में मिहिर आहिस्ता आहिस्ता बसता चला गया। ये सब याद करते हुए वो पगडंडियों पर बैठी देर तक आंसू बहाया करती।

तरबूज़ की लताएँ सूख चुकीं थीं और उनके स्थान पर हरे भरे धान के पौधे लहलहाने लगे थे। तब भी बेला का रोज़ का मामूल यही था। सूरज निकलने और सूरज ढलने के समय वो खेतों की पगडंडियों पर जाकर बैठ जाती और बीते दिनों को याद करते हुए आंसू बहाया करती।

उसने दुखों से तंग आकर कई बार वापस लौट जाने का ईरादा भी किया लेकिन जाती भी तो किस मूंह से जाती। उसके एक ग़लत क़दम ने सोसाइटी में बाप की इज़्ज़त को ख़ाक में मिला दिया था। और मिहिर! मिहिर को धोखा देने की कल्पना मात्र से ही वो सिहर जाती और अपना ईरादा बदल देती। आख़िर दोनों ने एक दूसरे का साथ जीवन भर निभाने का वादा जो किया था।

कुछ महीनों बाद मिहिर अच्छा कमाने लगा और बेला को ख़ुश रखने की हर मुमकिन कोशिश करने लगा। वो ईमानदारी से फागू कुशवाहा के खेती की देखभाल करते और जो भी रूखा सूखा मिलता, खाकर ख़ुश रहते। फागू कुशवाहा ने उनकी मेहनत और ईमानदारी को देखते हुए मड़ई वाली ज़मीन उन्हें बख़्शिश में दे दी।

एक दिन पगडंडी के किनारे बैठे दोनों बातें कर रहे थे -

मिहिर - " मेरे चलते तुम्हारे ऊपर दुखों का पहाड़ टूटता गया लेकिन तुम नहीं टूटी। मैं तुम्हारा गुनहगार हूँ बेला। चाहो तो मैं तुम्हें तुम्हारे घर अब भी छोड़ सकता हूं।"

पगडंडी पर बैठी बेला, मिहिर के इस कथन पर हक्का बक्का होकर उसका चेहरा ताकने लगी।

बेला - " लेकिन घर से भागने का फैसला तो मेरा अपना था मिहिर। और अब बचा क्या है जो घर लौटने की सोचूँ! माता पिता का घर अब मेरा घर रहा भी नहीं। अब तो तुम्हीं मेरे मंदिर, तुम्हीं मेरी पूजा और तुम्हीं देवता हो। "

मिहिर - " मुझे अपराध बोध सताता रहता है। इतने बड़े बाप की बेटी को मैंने दुखों के समंदर में ला ढकेला। उस मालिक के साथ धोखा किया जिसने मुझे दो वक़्त की रोटी और आसरा दिया।"

बेला - " मुझे मेरी ग़लती की सज़ा तो मिल ही रही है। तुम अंत तक साथ निभा कर मुझे और शर्मसार होने से बचा सकते हो मिहिर। एक स्त्री का सपना होता है कि उसकी अर्थी उसके पति के कंधों पर जाए। उम्मीद है उस आख़िरी मंज़िल तक साथ ज़रूर दोगे।"

मिहिर ने बेला का हाथ मज़बूती से थामते हुए कहा - " ये पगडंडियाँ गवाह हैं और गवाह रहेंगी, हम मरते दम तक साथ निभाएंगे। अगर हम ऐसा नहीं करते तो भगवान को क्या मूंह दिखाएंगे।"

सुरमई होती सांझ की बेला उन पगडंडियों पर न्यौछावर हो रही थीं जिनकी क़समें खाई जा रही थीं।

.....
समाप्त

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