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मुनिया मर चुकी थी।

मुनिया मर चुकी थी।

अब्दुल ग़फ़्फ़ार

मुनिया तो बहुत देर पहले ही मर चुकी थी लेकिन अर्जुन अपनी पत्नी सुगंधी से बता नही रहा था और चुपचाप बेटी की लाश को कंधे पर लादे चल रहा था। वो सोच रहा था कि जैसे ही वो बताएगा सुगंधी रास्ते में ही हिम्मत हार बैठेगी।

अर्जुन, मुनिया का पिता ज़रूर था लेकिन असल में मुनिया की रगों में तो लालबाबू का ख़ून था। इन बातों को नज़र अंदाज़ कर वो बस चलता जा रहा था। पीछे पीछे सुगंधी भी बेतरतीब आंचल और बिखरे हुए बालों को समेटते, दौड़ने के अंदाज़ में चलती जा रही थी।

रोहुआ गांव को पहले मिनी चंबल की राजधानी कहा जाता था। अनुमंडल मुख्यालय से डेढ़ सौ किलोमीटर दूर। आज भी न वहां बिजली है, न लैंडलाइन फोन और न मोबाइल का टावर। ये तमाम सुविधाएं अब तब पहुंचने ही वाली हैं। लेकिन फ़िलहाल चारों तरफ़ बीहड़ों से घिरा ये गांव आज भी दुनिया की अनेक सुविधाओं से वंचित और बदलते सामाजिक परिवेश से कोसों दूर है।

लालबाबू, अर्जुन का बड़ा भाई था। अर्जुन की भाभी भरी जवानी में ही गुज़र गईं थीं। तबसे लालबाबू ने दूसरा विवाह नही किया था। ब्रम्ह स्थान पर बैठकर ताश खेलने और बग़ल के जोड़ा ईनार पर पानी भरने आने वाली बहन बेटियों को घूरने में ही उसका सारा दिन गुज़रता था।

सुगंधी की उम्र 22 साल थी जब अर्जुन उसे बियाह कर लाया था। अर्जुन सूरत की एक कपड़ा फैक्ट्री में सुपरवाइज़र का काम करता था। शादी के ठीक एक दिन पहले, उस फैक्ट्री में आग लग गई। पोस्ट आफिस में तार आया कि 'फौरन चले आओ, बर्बाद हो चके कारख़ाने को संवारने में तुम्हारी मदद की ज़रूरत है।' चूंकि अगले दिन ही शादी थी इसलिए अर्जुन का जाना संभव न हो सका।

शादी की अगली सुबह मेहमानों से भरा घर और नई नवेली दुल्हन को छोड़कर उसे जाना पड़ा। अर्जुन मुश्किल से सुगंधी का चेहरा भर देख पाया था। बिल्कुल चांद का टुकड़ा थी वो, लेकिन क़िस्मत में फिल्हाल संगम होना नही लिखा था। सुगंधी की आंखों में तैरते आंसू छोड़कर उसने अपना बैग उठाया और सूरत के सफ़र पर रवाना हो गया।

समय अपनी रफ़्तार से चलता रहा। दिन दिन गिन के इधर सुगंधी क़ैद में बुलबुल की तरह फड़फड़ाती रही और उधर अर्जुन घर लौटने के लिए पर तौलता रहा।

हज़ारों अरमान संजोए अर्जुन चार महीने बाद जब घर वापस लौटा तो उसपर मानो वज्रपात सा हो गया। पति के प्रदेश से लौटने की ख़ुशी में तो सुहागने मोर की तरह नाचती हैं लेकिन सुगंधी का चेहरा बिल्कुल धुआं धुआं सा था।

अर्जुन को शक हुआ। उसने सुगंधी को अपनी आगोश में जकड़ते हुए पूछा - "क्यों उदास हो सुगंधी! क्या मेरे आने से ख़ुश नही हो!"

सुगंधी ने रोते हुए अर्जुन को सबकुछ सही सही बता दिया।

"मेरे पेट में पाप पल रहा है। मैं आप को मूंह दिखाने के लायक़ नही रही। जब आप को जाना ही था तो मुझे मेरे घर छोड़ आते। आप की सुगंधी वहां अपवित्र होने से बची तो रहती।"

झन्न-न्न से कुछ टूटा अर्जुन के भीतर और वो बिखर कर थरथराते हुए पलंग पर जा बैठा।

उसने वहशत भरी आवाज़ में पूछा कौन? कौन है वो ??

सुगंधी ने रोते हुए बताया " भसुर जी (लालबाबु) महीनों से मेरे साथ बलात्कार करते आ रहे हैं। मैं दो महीने की गर्भवती हूँ। अब आप आ गए हैं। या तो मुझे मार डालें या उस पापी को मार डालें। अब मैं जीना नही चाहती। अब तक सिर्फ़ आप के इंतज़ार में ज़िंदा थी।"

अर्जुन माथा पकड़ कर बैठ गया। वो सोच रहा था कि काश फैक्ट्री में आग न लगी होती और उसे जाना न पड़ता।

उसके मूंह से इतना भर निकला " सबकुछ अचानक हुआ जो मुझे जाना पड़ा। उफ़्फ़ - - - - हे भगवान!"

सुगंधी की सास तो बहुत पहले ही स्वर्गवासी हो चुकी थीं। ससुर जी चलने फिरने और देखने में असमर्थ थे। घर में दूसरा कोई सदस्य था नहीं। इसलिए लालबाबू को मूंह काला करने का भरपूर मौक़ा और माहौल मयस्सर हुआ।

नई नवेली दुल्हन कफ़स में फड़फड़ा कर सिसकती रही और कुछ न कर सकी। गांव में न मोबाइल न फोन। डेढ़ सौ किलोमीटर नैहर और डेढ़ हज़ार किलोमीटर मीटर साजन प्रदेश में। आख़िर अपने लुटने का संदेश भेजे भी, तो कैसे भेजे!

अर्जुन की आंखें लाल हो गईं, दांत पर दांत बजने लगे

"इतना बड़ा अनर्थ!!!"

इतना कहकर वो कुछ सोचने लगा और देर तक सोचता रहा। फिर धीरे धीरे शांत होने लगा।

अर्जुन सीधा साधा नौजवान। शहर में रहकर भी गांव की मासूमियत को अपने अंदर संजोए हुए था। बड़े भाई की इस घिनौनी करतूत पर किसी हिंसक कार्रवाई के बजाय वो उल्टे रोने लगा और भाई से कुछ पूछने के बजाय ख़ामोशी का चादर ओढ़ कर पलंग पर बैठ गया।

ना कुछ खाया ना कुछ पिया। देर रात तक दोनों पति-पत्नी विपरीत दिशा में मूंह करके सोने का असफल प्रयास करते रहे।

दोनों तरफ़ से सिर्फ़ सिसकियों की आवाज़ें आती रही।

सुबह होने से पहले जब गाँव की मस्जिद में अज़ान हो रही थी, चुपके से, मूंह अंधेरे, बिना किसी को कुछ बताए अर्जुन, सुगंधी को लेकर सूरत के लिए रवाना हो गया।

सुगंधी पति के साथ बिना किसी सवाल जवाब के चुपचाप सफ़र करती रही।

सूरत में इस घटना को जानने वाला कोई नही था। अर्जुन ने सोचा कि न तो सुगंधी कहीं से दोषी है और न ही गर्भ में पलने वाला बच्चा ही गुनहगार है। फिर इन्हें सज़ा क्यों? किस लिए?

इसलिए उसने सुगंधी के पेट में पल रहे गर्भ को गिराने के बजाय उसे जन्म देने का फ़ैसला किया।

छोटी सी नन्ही सी परी जब उनके घर में आई तो उनकी खुशियों का ठिकाना न रहा। यूं मालूम होता था कि सचमुच ख़ुदा ने ज़मीन पर कोई नूर उतारा है। इस तरह नाज़ुक, दूध की धुली, ख़ूबसूरत के क्या कहने।

बच्ची को देखकर अर्जुन के मन में एक पल के लिए कराहियत महसूस तो हुई लेकिन अगले ही पल उसने अपने ख़्याल को यह कहते हुए दरकिनार कर दिया कि " ये मासूम तो फ़रिश्ता है, और फिर ख़ून मेरा न सही, मेरे ही भाई का तो है।"

बहरहाल देखते देखते चार साल गुज़र गए। बीती बातें भूल कर वो दोनों अपनी नई दुनिया में ख़ुश थे।

सूरत में ज़िंदगी बड़े आराम से कट रही थी कि अचानक लॉक डाउन घोषित हो गया। कोरोना - कोरोना - कोरोना। हर तरफ़ कोरोना की दहशत फैल गई। फैक्ट्रियां बंद, दुकानें बंद, बाज़ार बंद, सवारियां बंद और काम बंद। फिर तो गांव लौटने के सिवाय कोई चारा न बचा।

अर्जुन का छोटा सा परिवार, जो अपने गांव कभी वापस नही लौटने की क़समें खा चुका था, अब गांव लौटने के लिए सवारियों की तलाश करने लगा।

तमाम सवारियां बंद थीं। बीमारी फैलने के डर से सरकार ने बिना किसी सूचना के अचानक सबकुछ बंद कर दिया था।

अब करें भी तो क्या! गांव जाएं भी तो कैसे!! यहां रहना भी मुश्किल और वहां जाना भी मुश्किल।

मां बाप बेटी, तीनों इक्कीस दिनों तक सवारी खुलने के इंतज़ार में बैठे रहे। बाहर देखने में न कहीं बीमारी नज़र आ रही थी और न ही कोई मर रहा था। सबकुछ सामान्य होते हुए भी, सबकुछ बंद था। क्यों बंद था! उन्हें समझ में नही आ रहा था।

इक्कीसवें दिन चलने के लिए वो अपना बैग बक्सा समेट ही रहे थे कि फिर से लॉक डाउन घोषित हो गया। और उन्हें फिर रुक जाना पड़ा। अब तो खाने पीने की भी दिक़्क़त होने लगी। मकान मालिक कमरा ख़ाली करने के लिए कहने लगा। परशानियों ने चारों तरफ़ से घेरना शुरू कर दिया।

चार दिन बाद फैक्ट्री के एक बिहारी मज़दूर ने अर्जुन को बताया कि आज रात में चुपके-चुपके दो ट्रक कपड़ा, गोरखपुर जाने वाला है। एक, ट्रक ड्राइवर से बात हुई है। वो हमें छुपा कर ले जाने के लिए तैयार है लेकिन प्रति व्यक्ति एक हज़ार रुपये लेगा। सिर्फ़ रात-रात में गाड़ी चलेगी और हमें तीसरे दिन तक गोरखपुर पहुंचा देगा।

अंधे को क्या चाहिए! दो आंखें। अर्जुन फ़ौरन तैयार हो गया।

फिर इनके साथ पांच और मज़दूर भी तैयार हो गए और दोनों ट्रक में छुपकर सभी लोग गोरखपुर तक पहुंचे।

लेकिन वहां से भी आगे जाने के लिए कोई सवारी नही थी। अलबत्ता सैकड़ों लोग पैदल ही बिहार जा रहे थे।

अर्जुन ने सुगंधी से पूछा "अब क्या किया जाए! पैदल चल पाओगी!!"

" हां तो दूसरा ऊपाय क्या है!"

" और मुनिया!!"

" तुम बैग बक्सा उठा लो, मैं मुनिया को उठा लेती हूँ।"

फिर इस तरह ये लोग भी पैदल जा रहे मज़दूरों के जत्थे में शामिल हो गए। कुछ दूर तक तो साढ़े तीन साल की मुनिया भी फुदक फुदक कर चलती रही लेकिन कुछ दूर चलने के बाद ही वो थक कर चूर हो गई।

फिर कभी मम्मी तो कभी पापा के कंधे पर सवार होकर सफ़र करती रही।

लगभग चालीस किलोमीटर तक चलने के बाद सारे मुसाफ़िर थक हार कर बैठ गए। अब किसी में आगे जाने की हिम्मत न रही। सब के पांव में छाले पड़ चुके थे। शाम ढलने लगी थी। फिर एक सुनसान जगह पर लगभग बीस बाईस मज़दूर अपने अपने चादर बिछाकर सो गए।

अचानक सुगंधी बोली "अरे मुनिया का शरीर तो तप रहा है।"

अर्जुन ने उसका माथा छूकर देखा। आग की तरह गर्म था।

सुगंधी बोली "पंजरी भी मार रहा है"

अर्जुन ने देखा कि मुनिया हांफ रही है। कुछ और मज़दूर भी पास आ गए। किसी ने कहा निमोनिया हो गया है तो किसी ने कहा कि कोरोना हो गया है।

अब क्या किया जाए!!!

इस सुनसान जगह पर डॉक्टर तो दूर दवा की दूकान भी मिलना असंभव था। मज़दूरों ने राय दिया कि यहां पड़े रहने से अच्छा है कि इसे लेकर भागो। जितनी जल्दी डाक्टर के पास पहुंच जाओगे उतना ही अच्छा होगा। बीस किलोमीटर बाद गंगा जी पर पुल पड़ेगा और उसके बाद कुछ दूर तक जंगल। सुबह होने तक अपने जवार पहुंच ही जाओगे।

सुगंधी हाय हाय करते हुए बोली - " बैग बक्सा इन लोगों के हवाले करो - - छोड़ो - - और चलो जल्दी, मुनिया को लेकर चलते हैं।"

फिर सामान का मोह त्याग कर मुनिया को बारी बारी अपने कंधों पर लाद लाद कर पति-पत्नी चलने लगे। चलने क्या लगे, लगभग दौड़ने लगे।

सुगंधी हांफते कांपते बोलती जा रही थी " हे भगवान! हमरी मुनिया को ठीक कर दो भगवान।"

चलते चलते भोर होने लगी। जैसे ही पुल पर पहुंचे कि उन्हें पुलिस वालों ने रोक लिया।

पुलिस वालों की तफ़तीश में वो राज़ खुल गया जो अर्जुन छुपाए हुए चल रहा था।

मुनिया मर चुकी थी।

लगभग घंटे भर पहले।

ये देखते ही सुगंधी बेहोश होकर गिर पड़ी।

अर्जुन ने मुनिया को पुल के पीसीसी पर लेटाया और सुगंधी को संभालने लगा। एक पुलिस वाले ने बोतल का पानी दिया। अर्जुन उसके चेहरे पर पानी के छींटे मारने लगा।

कुछ देर बाद "मुनिया - मुनिया" कहते हुए सुगंधी होश में आ गई।

"मुनिया मर चुकी है सुगंधी "

इतना कहकर अर्जुन भी रोने लगा।

सुगंधी विक्षिप्तता में मुनिया को सीने से लगाकर " मुनिया - मुनिया बुलाती रही। लेकिन मुनिया अब कहां बोलने वाली थी।

पुल के ऊपर मां बाप की चित्कार और पुल के नीचे गंगा जी की फुफकार, दोनों ऊफ़ान पर थे। चारों तरफ़ माहौल पर ग़म का साया पसर चुका था।

थोड़ी देर बाद सुगंधी के होश बहाल हुए तो अर्जुन ने कहा "उठो सुगंधी - - - मुनिया को गंगा जी बुला रही हैं।"

सुगंधी टुकुर टुकुर मुनिया का मूंह निहारती रही और अपने पति की बातों का मतलब निकालती रही।

अर्जुन ने मुनिया को गोद में उठाया और पुल पर किनारे किनारे चलने लगा।

सुगंधी पीछे पीछे अर्जुन के कंधे पर झूल रही मुनिया के लट को संवारती चलती रही। अपने लख़्त ए जिगर को जी भर के देखती रही।

फिर ऊफ़ान मारती गंगा जी के बीच धारा में दोनों ने अपने कंपकंपाते हाथों से मुनिया को जल समाधि दे दिया और बेसुध होकर पुल पर गिर गए।

दो दिन बाद लुटे पिटे पति-पत्नी अपने घर पहुंचे। घर पर ताला लटका पड़ा था।

पड़ोसियों ने बताया कि उनके बाबूजी तो उसी महीने गुजर गए थे जिस दिन दोनों घर छोड़कर गए थे। जबकि लालबाबू को साल भर पहले जोड़ा ईनार पर एक औरत का बलात्कार करते गांव वालों ने पकड़ लिया था और लाठी डंडों से पीट पीट कर मार डाला था।

ये घटना सुनकर दोनों के चेहरों पर कोई भी प्रतिक्रिया उत्पन्न नहीं हुई। कुछ नहीं - - सिर्फ़ ख़ामोशी और उदासी। फिर शून्य सपाट चेहरों के साथ दोनों घर में दाख़िल हुए और और घर की मिट्टी को माथे से लगाकर रोने लगे।

.........

समाप्त

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