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जल जीवन हरियाली

जल-जीवन-हरियाली
(कहानी)

लेखक - अब्दुल ग़फ़्फ़ार
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हमारे क्षेत्र में ज़मीन के ऊपर रोज़गार और ज़मीन के नीचे पानी ढ़ूंढ़ने से भी नहीं मिलता। हालांकि ऐसा हमेशा से नहीं था। कभी यहां भी जल-जीवन-हरियाली का बोलबाला हुआ करता था।

कल गांव के दो लोगों में खेत पटवन को लेकर झगड़ा हो रहा था। बाबूजी झगड़ा छुड़ाने गए। बीच बचाव में बाबूजी का चश्मा झन्न से गिरा और चन्न से टूट गया। फिर तो उनके माथे पर बल पड़ना लाज़मी था। इधर फागुन में तेज़ पछिया हवा ज़मीन की नमी चूसती जा रही है और उधर सरकार ने बोरिंग से पानी निकालने पर रोक लगा रखी है। पटवन के बिना गेहूं की बालियां कुहुक रही हैं। एक तो बाबूजी गेहूं की फसल को लेकर पहले से ही चिंतित थे और अब उनका चश्मा भी टूट गया। उनके चश्मे का टूटना मेरे ऊपर क़हर बनकर टूटा -

"एक रहमान मियां का लौंडा तबरेज़ी है कि रात रात भर सरकारी फ़रमान की धज्जियाँ उड़ाते हुए खेत पटाता है और एक तुम हो कि बीवी के पल्लू से बंधे रहते हो। अगर यही हाल रहा तो गेहूं की बालियों से एक दाना भी नहीं निकलेगा। फिर पत्नी को साल भर निहारते रहना। उसी से तुम्हारा पेट भरेगा। आख़िर मन मर्ज़ी का विवाह भी तो इसी लिए किया था ना।"

बाबूजी का ग़ुस्सा देखकर मैं सकपका गया और वर्षा भी घबरा गई। मैं इधर-उधर दीवारों को घूरने लगा और वर्षा पैर के अंगूठे से फ़र्श कुरेदने लगी। जब बाबूजी का ग़ुस्सा कुछ शांत हुआ तो वर्षा ने चश्मा के टूटे टुकड़ों को समेट कर बाहर फेंका और ख़ाली फ़्रेम मेरे हवाले किया।

मास्टर डिग्री करने के बाद भी हम पति-पत्नी बेरोज़गार थे। दस हज़ार की तनख्वाह पर पिछले साल हम दोनों ने एक प्राइवेट स्कूल ज्वाइन किया था। नया सत्र प्रारंभ होने से पहले ही लॉकडाउन लग गया। 2020 से 2021 आ गया लेकिन स्कूलों के गेट पर अभी भी ताले लटक रहे हैं। हालांकि बाज़ार, मॉल, सिनेमा, मंदिर मस्जिद सब खुल चुके हैं लेकिन प्राइवेट स्कूल अब भी बंद हैं। प्राइवेट स्कूल टीचर भूखमरी के कगार पर पहुंच चुके हैं।

हम लोगों का भी बुरा हाल है। जबतक मैं अकेला था तबतक और बात थी लेकिन शादी के बाद ख़र्च बढ़ता ही जा रहा है। अब
बाबूजी पर बोझ बनना अच्छा भी नहीं लगता।

इस परिस्थिति में अगर मां ज़िंदा रहतीं तो बाबूजी हमें जी भर कर कोसते। रोज़ खरी खोटी सुनाते। लेकिन मां तो हैं नहीं, फिर किस के सामने वो अपनी भड़ास निकालते। मां-बाप जब साथ होते हैं तब एक दूसरे के माथे पर खेलते हुए बच्चों को नसीहत करते रहते हैं। कभी सचमुच नाराज़ होते हैं तो कभी नाराज़ होने का नाटक करते हैं।

जबतक मां ज़िंदा थीं तबतक वो हर बात में मेरा बचाव किया करती थीं। लेकिन उनके जाने के बाद तो मैं बाबूजी के क़हर से बचने के लिए उनसे दूर रहने में ही अपनी भलाई समझता हूं।

जब मैं छोटा था तब हमारा ईलाक़ा भी हरा भरा हुआ करता था। हमारे क्षेत्र के किसान बोरिंग से इतना पानी पटाते थे कि अपना खेत क्या, अगल बग़ल के दर्जनों खेत बिना ज़रूरत के ही पट जाया करते थे। लेकिन जबसे पानी निकासी पर सरकारी रोक लगी है तबसे खेतों में फसलें मुरझाने लगी हैं। अब सरकार के डर से लोग रात में सिंचाई करते हैं। इन सारी मुसीबतों के ज़िम्मेदार लोग ख़ुद हैं। लोग ना बेकार में पानी बर्बाद करते ना ज़मीन का जल स्तर नीचे गिरता और ना ही सरकार को इस पर रोक लगानी पड़ती।

अब एक तरफ़ बढ़ती आबादी के कारण जहाँ जल की आवश्यकता बढ़ी है, वहीं प्रति व्यक्ति जल की उपलब्धता भी कम होती जा रही है। बढ़ते औद्योगिकीकरण, गाँवों से शहरों की ओर पलायन और बढ़ते शहरीकरण ने भी अन्य जलस्रोतों के साथ भूमिगत जलस्रोतों पर दबाव उत्पन्न किया है।

पहले तालाब बहुत होते थे। इन तालाबों का जल भूगर्भ में समाहित होकर भूजल को संवर्द्धित करने का काम करता था। लेकिन अब लोगों में भूमि और धन-सम्पत्ति के प्रति लालच इतनी बढ़ी है कि तालाबों का वजूद सिमटता जा रहा है। तालाबों को पाट कर लोग खेती बाड़ी करने या कल कारख़ाने लगाने लगे हैं। भू-माफ़िया तालाबों को पाटकर उनपर बड़ी-बड़ी इमारतें खड़ी करने लगे हैं। बड़े बड़े मॉल या मल्टीप्लेक्स बनाने लगे हैं।

भूजल का स्तर और न गिरे इसके लिए हमें उचित उपायों से भूजल संवर्धन की व्यवस्था करनी होगी। इनमें भूजल पुनर्भरण तकनीक को भी अपनाना होगा। वर्षाजल संचयन (रेनवॉटर हार्वेस्टिंग) इस दिशा में एक कारगर उपाय हो सकता है।

हमारे क्षेत्र में जल संकट की गंभीर समस्या है। मैंने सोचा कि क्यों न रेनवॉटर हार्वेस्टिंग के लिए सरकार से मदद ली जाए। रेनवॉटर हार्वेस्टिंग के लिए हमें सरकार से आर्थिक मदद ज़रूर मिल जाएगी।

मेरी पत्नी वर्षा श्रीवास्तव, भूगोल में एम ए तक मेरी सहपाठी रही थी। उसने मुझे प्रोत्साहित करते हुए कहा " मल्हार, आप प्रयास करें। अगर ये काम हो गया तो हमारे दिन भी बदल जाएंगे और क्षेत्र से जल संकट भी दूर हो जाएगा।"

फिर मैंने राज्य भूजल बोर्ड का चक्कर लगाना प्रारंभ कर दिया। यहां भी भ्रष्टाचार क़दम क़दम पर मूंह बाए खड़ी है। बिना पैसे के फाइल सरकती ही नहीं। लेकिन सरकार इस समस्या के प्रति गंभीर है। उम्मीद है कि 2021 समाप्त होने से पहले हमें रेनवॉटर हार्वेस्टिंग के लिए मंज़ूरी मिल जाएगी। शायद तबतक स्कूल भी खुल जाएं। लेकिन तबतक तो हमें बाबूजी के सहारे ही जीवन व्यतीत करना पड़ेगा।

ऐसा नहीं है कि बाबूजी को हम से नफ़रत है। बस वो हाथ पर हाथ धरे रखने के ख़िलाफ़ हैं। उनका सपना था कि मैं कृषि वैज्ञानिक बनूँ। लेकिन हालात ने साथ नहीं दिया और इस बीच मां भी चल बसीं। इसलिए कृषि वैज्ञानिक का सपना मुझे त्यागना पड़ा। फिर मैंने किसी तरह भुगोल में एम ए किया। हालांकि एम ए करने के बाद भी मुझे और मेरी पत्नी को कोई सरकारी जॉब नहीं मिला।

हम ने प्रेम विवाह किया है। लेकिन अभिभावक की सहमति और धार्मिक रीति रिवाजों के साथ किया है। हालांकि वर्षा के सामने मैंने आनर्स के दौरान ही शादी का प्रस्ताव रखा था लेकिन तब उसके सिर पर पीएचडी करके डाक्टर बनने का जुनून सवार था। इसलिए उसने मेरा प्रस्ताव ठुकरा दिया था।

वो एम ए करने के बाद डाक्टर शिंदे की शागिर्दी में थीसिस लिखने लगी और मेरी पढ़ाई ब्रेक हो गई। डाक्टर शिंदे महाराष्ट्र के जाने माने खगोलविद रहे हैं। हमारी युनिवर्सिटी ने उन्हें महंगे दाम पर हायर किया था।

एक दिन मैं शहर गया तो अचानक वर्षा से मुलाक़ात हो गई। उसका चेहरा कुछ बुझा बुझा सा लगा। मैंने ख़ैरीयत पूछा तो उसने कन्नी काटते हुए निकल जाना चाहा। लेकिन मैंने उसे जाने नहीं दिया और किसी तरह कैफ़े तक ले गया। कॉफ़ी पीने के दौरान उसने मुझे जो बताया वो सुनकर मेरे पैरों तले की ज़मीन खिसक गई -

"थीसिस तो कबकी पूरी हो चुकी है मल्हार, लेकिन मंज़ूरी देने के बदले डाक्टर शिंदे मुझे अपने बिस्तर तक ले जाना चाहता है।"

उसकी बातें सुनकर मुझे लगा कि इस दुनिया को हमने अपने हाथों इतना बर्बाद कर दिया है कि अब ये इंसानों के रहने के क़ाबिल नही रही। अब कोई किस पर भरोसा करे। ईश्वर के बाद मां बाप और गुरू का ही तो दर्जा होता है। विद्वान की क़लम की स्याही शहीद के ख़ून से भी अधिक पवित्र होती है, फिर ये डाक्टर शिंदे कैसा विद्वान है! ये तो शैतान है।

मैंने ग़ुस्से से कहा - "गोली मारो साले बुड्ढे को, और कोई दूसरा प्रोफेसर ढूंढो।"

वर्षा - "यही तो विडंबना है कि कॉलेज में 'जलवायु परिवर्तन' देखने वाला कोई दूसरा प्रोफेसर है ही नहीं। फिर दूसरी जगह से करने पर दो-तीन साल और लग सकते हैं।"

मैंने उसकी मासूम आंखों में झांकते हुए पूछा -" फिर??"

वर्षा -" फिर क्या! या तो उसकी शर्त माननी पड़ेगी या फिर थीसिस अधूरी छोड़नी पड़ेगी।"

मैंने उसकी बेकसी और बेचारगी पर तिलमिलाते हुए कहा -"आख़िर तुम्हारा डिसीज़न क्या है!!"

मेरे प्रश्न के उत्तर में उसने झिझकते हुए कहा -" मल्हार, क्या तुम अब भी मुझसे शादी करने का ईरादा रखते हो!"

मुझे उसकी बेकसी और बेबसी पर तरस आया। मैंने मुस्कुरा कर जवाब दिया - "हां बिल्कुल। क्यों नहीं! लेकिन तुम्हारी पीएचडी!!!"

उसने जवाब दिया - "मुझे नहीं करनी है पीएचडी।"

फिर मैं सोचने लगा कि वही शरीर, वही दिमाग़, वही जान। खाने, सोने, हंसने, रोने - - सबका तरीक़ा एक, फिर स्त्री, पुरुषों के लिए उपभोग की वस्तु क्यों है!! आख़िर पुरुषों को जन्म देने वाली स्त्री के साथ ऐसा सौतेला व्यवहार क्यों है! मर्दों के लिये हर ऐश का हक़, औरत के लिये जीना भी सज़ा, आख़िर क्यों है!

किसी लड़के, किसी पुरुष शोधार्थी से डाक्टर शिंदे वही डिमांड कर सकता है जो उसने वर्षा से किया!! लड़कों के बराबर तमाम सलाहियतें रखने के बावजूद लड़कियों से जिस्म की मांग क्यों ?

फिर मैंने डाक्टर शिंदे को नंगा करने के बजाय 'वर्षा' को संरक्षण देने का फ़ैसला किया।

हम दोनों अलग-अलग जातियों से ताल्लुक़ रखते हैं। इसलिए मैंने बाबूजी को राज़ी करने के लिए रहमान चाचा को लगाया। रहमान चाचा बाबूजी के लंगोटिया यार ठहरे। आज भी दोनों यार हस्बे मामूल चायख़ानों में बैठकर अख़बारों की ख़बरों पर चर्चाएं किया करते हैं।

बाबूजी सख़्त मिज़ाज इंसान भला कहां मानने वाले थे। रहमान चाचा ने ऊंच नीच सब समझाया लेकिन फिर भी बाबूजी टस से मस नहीं हुए। फिर रहमान चाचा उन्हें भूतकाल में ले गए। उन्होंने याद दिलाया कि कैसे हरी अवतार गुप्ता एक भंगिन के प्यार में पागल हुआ और फिर उससे विवाह रचाया था।

जाति की मेहतर और नाम मधुबाला था उसका। वो रोज़ हरी अवतार गुप्ता का दुआर दालान और खलिहान बहारने आती थी। उसकी चढ़ती जवानी की ख़ुश्बू अंधों को भी मदहोश कर देती थी। एक दिन तन्हाई पाकर हरी अवतार गुप्ता ने उसकी कलाई पकड़ ली। उसने झटके से हाथ छुड़ाते हुए कहा - "ये क्या कर रहे हैं बाबूजी, पाप लगेगा पाप" फिर वो झाड़ू पटकते हुए भाग खड़ी हुई।

लेकिन हरी अवतार पर तो मधुबाला की कड़ियल जवानी का सुरूर छा चुका था। एक दिन फिर मौक़ा पाकर उसने उसे खलिहान में दबोच लिया। वो पसीना पसीना हो गई लेकिन हार न मानी। उसने कसमसाते हुए कहा "मैं मालकिन से कह दूंगी हां" और फिर मछली की तरह फिसलते हुए उसके हाथों से निकल गई।

हरी अवतार मुसलसल मधुबाला को पाने का प्रयास करता रहा। आख़िर एक दिन आंधी-तूफान ने फिर मौक़ा फ़्राहम कर दिया और उस दिन वो हार गई। उस दिन उसने भागने का प्रयास भी नहीं किया और बदन ढीला कर दिया। फिर तूफ़ान के गुज़र जाने के बाद मधुबाला ने लंगर डाल दिया।

"आप ने मेरी इज़्ज़त ली है तो अब इज़्ज़त देनी भी पड़ेगी। या तो मुझे अपनाना पड़ेगा या अपनी इज़्ज़त गंवानी पड़ेगी।"

हरी अवतार भी बड़े घर का बेटा था। उसे मधुबाला दिलो जान से प्यारी थी। उसने उसे अपनाने का फ़ैसला कर लिया। मां बाप के लाख विरोध के बावजूद उसने मधुबाला से विवाह रचा ही लिया। आगे चलकर वही मधुबाला, गुप्ता ख़ानदान की वारिस देने वाली इकलौती बहू साबित हुई।

अपनी कहानी दोहराए जाने पर बाबूजी पिघल गए और अपने लंगोटिया यार के सामने हथियार डाल दिया। आख़िरकार रहमान चाचा के मैराथन प्रयास से हमारी शादी संपन्न हुई। हालांकि मां बाप की कहानी सुनने के बाद मुझे कुछ देर के लिए आत्मग्लानि ज़रूर हुई।

फिर एक दिन बाबूजी ने रहमान चाचा से कहा - " मेरा मल्हार तो ठहरा निकम्मा। तुम अपने तबरेज़ी से कहकर मेरे खेतों में भी पटवन करा दो न यार। मेरे खेत सूख रहे हैं।"

रहमान चाचा ने अपने हाथों में बाबूजी का हाथ मज़बूती से थामकर उन्हें पूरी तरह से आश्वस्त कर दिया कि सुबह होने तक उनके खेतों में भी जल जीवन हरियाली के तमाम निशान मिल जाएंगे।

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