अलग तरह का देश Abdul Gaffar द्वारा जीवनी में हिंदी पीडीएफ

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अलग तरह का देश

अलग तरह का देश

अब्दुल ग़फ़्फ़ार

बेहद ख़ूबसूरत ... मख़मल सी मुलायम, मलमल सी सफ़ेद, मरमरी बाहें, तपती निगाहें, मदमस्त चाल...

बॉलीवुड की नई तारिका रश्मि गर्ग ... का थोड़ा सा परिचय।

आकर्षक क़द काठी, मनमोहक अदाओं और करिश्माई छवि पर दर्शक दीवाने हो उठे थे। सिर्फ़ दो फ़िल्मों की कामयाबी के बाद ही दुनिया भर के ऐशो-आराम, ख़ूबसूरत बंगला, लम्बी इम्पोर्टेड कार और दरवाज़े पर प्रोड्यूसरों की लम्बी क़तार। रातों-रात वो सातवें आसमान पर पहुँच गई थी।

हालांकि मोबाइल और इंटरनेट की सुलभता ने सिनेमा घरों और मल्टीप्लेक्स को बर्बादी के कगार पर ला खड़ा किया था। फिर भी नई नवेली हीरोइन रश्मि गर्ग का जलवा लगातार दो हिट फ़िल्में देने के बाद अभी भी बरक़रार था।

लेकिन त्रासदी देखिये, समय का पहिया किस तेज़ी से घूमता है। सात सालों में कुल जमा चार फ़िल्में ही रिलीज़ हो पायीं। दो सफल और दो असफल। उसके बाद जल्दी ही काम मिलना भी बंद हो गया।

समय इतना ख़राब हुआ कि मरने के बाद ठेले पर उसकी लाश शमशान घाट तक पहुंची और वहां अंतिम विदाई देने के लिए कुल जमा सात-आठ लोग ही मौजूद थे। इनमें न कोई दोस्त, न परिवार का कोई सदस्य और न ही फिल्म बिरादरी का कोई प्रतिनिधि ही शामिल हुआ।

इस दरमियान देश में मॉब लिंचिंग का खेल ज़ोरों पर था। नोटबंदी से जनता की सांसें अटक चुकी थीं। तीन तलाक़ विरोधी बिल पास कराने, कश्मीर से 370 हटाने और CAA-NRC लाने पर सरकार अड़ी हुई थी। शाहीन बाग़ की औरतों ने शांतिपूर्ण धरना से इतिहास रच दिया था। देश में हर तरफ़ सरकार की नीतियों का विरोध जारी था लेकिन इन सब बातों से फ़िल्म वालों को कोई मतलब नही था।

हालांकि रश्मि गर्ग बेहद ख़ूबसूरत थी, लेकिन सुनहरे सपनों की दुनिया के लिए इतना ही पर्याप्त नही होता। कामयाब होने के लिए यहां टैलेंट भी चाहिए और समझौता करने की क्षमता भी।

संगमरमर की मुर्ति की तरह उसका भावशून्य चेहरा, आगे बढ़ने में रूकावट साबित हुआ। हालांकि ये पूर्ण सत्य नहीं है। बॉलीवुड में ऐसे दर्जनों चेहरे भी देखे गए हैं, जो भावहीन होते हुए भी वर्षों तक टॉप पर रहे हैं।

21 जुलाई 1980 में एक संपन्न पंजाबी परिवार में जन्मी रश्मि गर्ग को मिस चंडीगढ़ प्रोग्राम में म्यूज़िक डायरेक्टर राकेश मेहता ने देखा और उन्हें मशहूर डायरेक्टर प्रोड्यूसर कमाल ख़ान से मिलवाया। कमाल ख़ान ने रश्मि गर्ग को बेहद खूबसूरत ही नहीं बल्कि सुसंस्कृत भी पाया और अपनी बड़े बजट की फ़िल्म में आज़माने का रिस्क उठाया। फ़िल्म सुपरहिट साबित हुई।

हालांकि रश्मि गर्ग के परिवार वालों को उसके फ़िल्म इंडस्ट्री में जाने पर सख़्त ऐतराज़ था। रश्मि गर्ग की मां ने समझाया कि फ़िल्म वाले लड़कियों को यूज़ एंड थ्रो की तरह इस्तेमाल करते हैं। वहां ऐसे ऐसे मक्कार भरे पड़े हैं जिन्हें पीने के लिए लड़कियों का ताज़ा और गर्म ख़ून और खाने के लिए उनका कच्चा गोश्त चाहिए। चेहरे की चमक, चमड़े का तनाव और ख़ून की गर्मी, नर्म पड़ते ही लड़कियों को बासी रोटियों की तरह फेंक दिया जाता है।

लेकिन रश्मि गर्ग पर हीरोइन बनने का नशा इस क़दर सवार था कि उसने मां की एक न सुनी और राकेश मेहता के साथ जा पहुंची कमाल ख़ान के पास। घर वाले उसके इस क़दम से हमेशा हमेशा के लिए नाराज़ हो गए।

बहरहाल दर्शकों को इस बात पर हैरानी हो रही थी कि कमाल ख़ान ने अपनी फ़िल्म 'मॉडर्न इश्क़' की ज़बरदस्त क़ामयाबी के बाद भी रश्मि गर्ग को रिपीट क्यों नही किया!

फ़िल्मी दुनिया के राज़ कभी हल नहीं हुए हैं। हज़ारों राज़ काल के गर्भ में दफ़न होकर रह गए हैं। फ़िल्मी दुनिया एक अलग क़िस्म की दुनिया है जहां रात और दिन में कोई फ़र्क़ नही होता। अपने ही देश में एक अलग तरह का देश है ये, जहाँ भावनाएँ और संवेदनाएँ भी बनावटी और नक़ली होती हैं और जिन्हें देश की अन्य समस्याओं से कोई ख़ास मतलब नही होता।

जिस समय संगीतकार राकेश मेहता अपनी नई धुनें बनाने में व्यस्त थे, कमाल ख़ान दक्षिण अफ़्रीक़ा के जंगलों में नए लोकेशन तलाश रहे थे और रश्मि गर्ग क़र्ज़ के बोझ तले दबकर अवसाद ग्रस्त हो रही थी उसी समय देश की राजधानी में तूफ़ान बरपा था। उत्तर पूर्व दिल्ली के ज़ाफ़राबाद इलाक़े में रक्तपात, संपत्ति विनाश, दंगों और हिंसक घटनाओं की एक लंबी श्रृंखला चल रही थी। जिसमें 53 लोग मारे गए थे और 200 से अधिक लोग घायल हुए थे। लेकिन मायानगरी को इन सब बातों से कोई मतलब नही था। संवेदना शुन्य नगरी जिसे सिक्कों की खनक के आगे कुछ भी दिखाई नही देता।

बहरहाल 22 अगस्त 2020 को कोरोना की गिरफ़्त में आकर सिर्फ 40 साल की उम्र में रश्मि गर्ग ने दम तोड़ दिया। कोरोना के भय से कोई लाश लेने के लिए तैयार नही था। उस समय अस्पताल से लाश रिसीव करने के लिए अब्दुल नाम का एक संवेदनशील इंसान सामने आया। जिसने लावारिस लाशों को दफ़नाने का बीड़ा उठा रखा था। फिर ठेले पर उसकी लाश उन राहों से गुज़री जिन पर वो कभी लम्बी इम्पाला कार से गुज़रा करती थी।

अब आप को हक़ीक़त बताते हैं। दर असल रश्मि गर्ग एक मोहज़्ज़ब और इज़्ज़त दार घराने की लड़की थी। जब बॉलीवुड का काला सच उसके सामने आया तब पछताने के अलावा कोई चारा नही बचा था। उसकी दो फ़िल्में पिट चुकी थीं। घर वाले पहले ही उससे रिश्ता नाता तोड़ चुके थे और बाहर वाले बिना नोचे खसोटे काम देने के लिए तैयार नही थे।

बहरहाल उसने गिद्धों के सामने आत्मसमर्पण करने से इंकार कर दिया था। उसे शोहरत के बदले इज़्ज़त का सौदा करना मंज़ूर नही था। बहुत से अच्छे लोग भी हैं इस इंडस्ट्री में लेकिन उन तक रश्मि की पहुंच हो नही सकी। यही वजह थी कि बॉलीवुड में उसके लिए आगे का रास्ता महदूद होता चला गया।

काम नही मिलने के कारण रश्मि टूट कर बिखर गई । क़र्ज़ के बोझ तले दबकर वो गहरे अवसाद में चली गई। आलीशान बंगले से निकल कर मामूली घर में रहने लगी। इज़्ज़तदार और ख़ुद्दार इस लड़की को भी शराब का सहारा लेना पड़ा। जब रश्मि बीमार पड़ी तो उसे सरकारी अस्पताल के जनरल वार्ड में भर्ती कराया गया जहां डॉक्टरों ने बताया कि उसका लीवर बर्बाद हो चुका है। तबतक कोरोना भी पैर पसार चुका था जिसके सामने वो ज़िंदगी की जंग हार बैठी।

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