भाषा और शिल्प
भाषा अभिव्यक्ति का सहज और प्रमुख माध्यम है। साहित्य के क्षेत्र में अनुभूति के रूप-विधान की सभी पद्धतियाँ भाषा पर ही आश्रित होती हैं। वह सृजन और आस्वाद का मध्यवर्ती व्यापार है। भाषा की अर्थवत्ता और शक्तिम्त्ता के द्वारा ही अनुभूति को प्रभावशाली, ग्राह्य और कलात्मक रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है। श्रेष्ठ भाव, विचार और कल्पना समर्थ भाषा के अभाव में अनभिव्यक्त या अपूर्ण व्यक्त रह जाते हैं। जीवन्तता भाषा का प्रधान गुण है। व्यवहार क्रम में भाषागत धारणाएँ और बिम्ब रूढ़ होते रहते हैं। उसकी व्यंजना-क्षमता घिस जाने से उसमें अर्थध्वनन की नवीनता और सजीवता नहीं रह जाती। इसलिये समय समय पर भाषा के शब्दों, प्रतीकों, मुहावरों आदि में परिवर्तन होता रहता है। युग विशेष की संवेदना भी भाषागत परिवर्तन का हेतु है। इस प्रकार भाषा का दूसरा गुण है भावानुकूलता।
भाषा का स्वरूप प्रायः सामाजिक होता है। सृष्टा और भावक के बीच साधारणीकरण भाषा की सामाजिकता के आधार पर होता है। परन्तु सामान्य भाषा और काव्यभाषा के स्वरूप में अन्तर होता है। काव्य की भावपूर्णता और वैचारिकता तथा कवि की सृजनक्षमता के कारण काव्यभाषा सामान्य प्रयोगों से विशिष्ट होती है। भाषा की सामाजिक प्रवृत्ति के साथ ही भाषा में रचनाकार के वैयक्तिक संस्कारों के अनुसार भी अन्तर हो जाता है। एक ही युग के कवि प्रसाद, निराला और पंत की भाषा में वैयक्तिक विशेषताएँ दिखायी देती हैं।
जिन संस्कारों और प्रेरणाओं ने ’’मधु’’ की काव्य प्रवृत्तियों का निर्धारण किया उनका प्रतिफलन भाषा के दो रूपों में परिलक्षित हो रहा था। द्विवेदी युग में खड़ी बोली काव्य-भाषा के पद पर प्रतिष्ठित हो गयी थी, फिर भी अनेक शताब्दियों से प्रधान काव्य भाषा में रूप में व्यवहृत और समाहृत होती रही ब्रजभाषा में भी काव्य रचना की पम्परा जीवित थी। भाषा के क्षेत्र में परम्परा और प्रयोग दोनों की प्रवृत्तियाँ परिलक्षित हो रही थीं। अनेक कवि खड़ी बोली और ब्रजभाषा दोनों को अंगीकार किये हुए थे।
’’मधु’’ ने भी दोनों भाषाओं में काव्य-रचना की है। भाषा की दृष्टि से उन्होंने काव्य रचना का प्रारम्भ खड़ी बोली में किया था। सन् 1962 से चार पाँच वर्षों तक उनके काव्य की भाषा खड़ी बोली ही रही। इसके पश्चात् उन्होंने खड़ी बोली के साथ ब्रजभाषा को भी अपना लिया। गीतों के अतिरिक्त कालक्रम की दृष्टि से कवि की प्रथम तीन प्रबन्ध कृतियों ’’होलिका दहन’’, शकुन्तला और उत्तर रामचरित’’ की रचना खड़ी बोली में हुई है। परवर्ती प्रबन्धकृतियों में से ’’दुर्गा और झाँसी का विभीषण’’ की भाषा भी खड़ी बोली में है। ’’सुलोचना सौरभ, भक्तवर कालीनाग, रानी कुँअर गणेश और अर्जुन मोह भंग’’ ब्रजभाषा में प्रणीत हैं।
कवि के मुक्तक काव्य की भाषा के भी दोनों स्वरूप हैं। प्रायः रीतियुगीन परम्परा के अभिजात विषयों में ब्रजभाषा का व्यवहार हुआ है और अन्य विषयों की अभिव्यक्ति का माध्यम खड़ी बोली है।
’’मधु’’ को खड़ी बोली और ब्रजभाषा दोनों के ही प्रौढ़ रूप प्राप्त हुए थे। उनकी खड़ी बोली में तत्समता की प्रवृत्ति प्रधान है। संस्कृत के प्रभाव से उनकी भाषा का रूप परिनिष्ठित है परन्तु उसमें दुरूहत्ता और शुष्कता नहीं है। आवश्यकतानुसार कवि ने तत्सम पदावली के साथ तद्भव तथा उर्दू के शब्दों का भी इस तरह प्रयोग किया है कि वे भाषा में सहज सम्पृक्त हो गये हैं।
आधुनिक युग में ब्रजभाषा-काव्य की जो परम्परा प्रचलित रही है उसमें रीतियुग की अपेक्षा भाषा का सरलीकरण हुआ है। इस समय तक ब्रजभाषा रीति-निरूपण अथवा केवल श्रृंगार चित्रण की ही भाषा नहीं रह गयी थी। उसमें नवीन विषयों की अभिव्यक्ति भी होने लगी थी। कविता अब केवल सीमित रसिक समुदाय के आस्वादन की वस्तु नहीं रह गयी थी, बल्कि कवि सम्मेलनों तथा मुद्रण सुविधाओं के माध्यम से वह व्यापक जन समूह तक पहुँचने लगी थी। ऐसी स्थिति में ब्रजभाषा का अपेक्षाकृत सरल रूप प्रचलित हो रहा था। शुक्ल जी ने आधुनिक ब्रजभाषा काव्य के विषय में लिखा था कि उसे यदि इस काल में भी चलना है तो वर्तमान भावों को ग्रहण करने के साथ ही साथ भाषा का भी कुछ परिष्कार करना पड़ेगा। उसे चलती ब्रजभाषा के अधिक मेल में लाना होगा। अप्रचलित संस्कृत शब्दों को भी अब बिगड़े रूपों में रखने की आवश्यकता नहीं।1
’’मधु’’ की ब्रजभाषा भी सरल और युगानुकूलता की और उन्मुख है। उसमें ब्रज के ठेठ या अप्रचलित शब्द रूपों का प्रयोग प्रायः नहीं है।
शब्द प्रयोग
महाभाष्यकार ने लिखा है-’’एकः शब्दः सम्यक् ज्ञातः सुष्ठु प्रयुक्तः लोके च काम धुग्भवति’’ अर्थात् सम्यक् रूप से ज्ञात और सौष्ठत से प्रयुक्त एक शब्द लोक और परलोक में अभिमत फल देता है। अनुभूति की सफल अभिव्यक्ति शब्दों के कुशल प्रयोग पर ही निर्भर है। भाषा निर्माण में शब्द प्रमुख तत्त्व होते हैं।’’ काव्य का श्रुतिगत प्रथम प्रभाव इसी तत्त्व के द्वारा पड़ता है और यही कविता की किसी पंक्ति को चिरकाल तक रमणीय भी बनाये रखता है।2
अभिव्यक्ति की प्राणवत्ता के लिये कवि को अनेक स्थानों से शब्दों का सन्धान करना पड़ता है। कभी वह शब्द की लाक्षणिकता का आश्रय लेता है, कभी ध्वन्यात्मकता का। कभी वह उसकी चित्रविधायिनी शक्ति का प्रयोग करता है, कभी प्रतीकात्मकता का। कभी वह उसके नाद-सौन्दर्य पर रीझता है, कभी उसके विविध पर्याय रूपों के सूक्ष्म अर्थ-भेद का उपयोग करता है। कभी कवि को शब्दों के विषय में अपनी सृजन और नियमन शक्ति भी प्रकट करनी पड़ती है। शब्दों को अपेक्षित रूप देने के लिये कभी वह व्याकरणिक नियमों की भी अवहेलना कर देता है। सारांशतः कवि को शब्द प्रयोग के सम्बन्ध में शिल्पी का कार्य करना पड़ता है।
जिस कवि का शब्दकोश जितना समृद्ध होगा, उसे शब्दों की समीचीनता की जितनी परख होगी, वह शब्दों की अभिव्यक्ति क्षमता का जितना अधिक प्रयोग कर सकेगा, उसकी भाषा में भावाभिव्यक्ति उतनी ही सफल होगी। डॉ0 श्याम सुन्दरदास के शब्दों में यह आवश्यक ही नहीं बल्कि अनिवार्य भी है कि कवि या लेखक का शब्द भण्डार बहुत प्रचुर और उसे इस बात का भली भाँति स्मरण रहे कि मेरे भण्डार में कौन कौन से रत्न कहाँ रखे हैं, जिसमें प्रयोजन पड़ते ही में रत्नों को निकाल सकूँ।3
व्युतिपत्ति के आधार पर शब्दों के तत्सम, तद्भव, देशज तथा विदेशी आदि भेद किये गये हैं। भाषा की प्राणवत्ता के लिये किसी विशेष प्रकार के शब्दों का महत्व नहीं है। महत्व इस बात का है कि कौन से शब्द कवि के भाव विशेष की सजीव अभिव्यक्ति और कलात्मक प्रस्तुति कर सकते हैं। डॉ0 आशा गुप्ता का मत है कि ’’शब्द चाहे तत्सम हों अथवा तद्भव सशक्त हों अथवा अशक्त, निश्चित हों या अनिश्चित, प्रतीकात्मक हों या बिम्बात्मक, सबका भाषा में समान महत्त्व है।4
’’मधु’’ की भाषा मंे सभी प्रकार के शब्द अन्तर्भुक्त हैं। कवि का शब्दकोश बहुत सम्पन्न है। उसका विभिन्न भाषाओं का अध्ययन तथा व्यावहारिक ज्ञान उसकी भाषा समृद्धि में सहायक हुआ है-
तत्सम शब्द
पारिवारिक प्रभाव और अध्ययन में संस्कृत की पृष्ठभूमि अच्छी होने के कारण कवि की भाषा में तत्सम शब्दों की बहुलता है। खड़ी बोली में तो तत्सम शब्दों का व्यवहार हुआ ही है, ब्रजभाषा काव्य में भी उनका प्रचुर प्रयोग है-
तैल, आशु, प्रतीची, अहेरी, दूर्वा, प्रसून, शस्य, कौमुदी, तरणि, प्रतीति, वह्नि, कुलिश, प्रावृट्, तुहिन, शिविका, मृत्तिका, मरंदप, महीरूह, अरण्य, वन्या, स्वीय, मदीय, करस्थ, रुजापहा, प्रणिधान, विमथंधन, दुर्ल्लंध्य, अश्म सार, शिलोच्य, परिकर, प्रकल्पित, प्रत्यक्ष, पंकिल, प्रकाम, अद्यौभाग, चक्षु, निकेत, पयोधि, चंचु, पर्ण, शावक, निखिल, उदक, रक्तशिखा, अभीष्ट, परिताप, अयाचित, अवगुण्ठन, समष्टि, व्यष्टि, पिपीलका, अभ्रक, यवनिका, प्रस्वेद, परिधान, मनोज्ञ, ज्वलित, मृगया, प्रपूरिता, मेदिनी, क्षीरधि, सन्नद्ध, श्रृंखला, अवहेला, श्रुति, आयुध, अंतराल, निशित, उपत्यका, समुच्चय, देवदारोमप, अंशु, वृन्दारक व्यजन, दोषा, उशीर, कन्दरा, उद्घत, विश्वस्त सद्म, साटिका।
तत्सम शब्दों के अतिरिक्त संस्कृत के पद-समूहों तथा वाक्यांशों का भी प्रयोग हुआ है-
पाहिमाम्, वरं बू्रहि, अस्मान् त्राहि, कृण्वन्तु विश्वमार्यम्, यत्रैव धर्म तत्रैव विजय
हिन्दी में शब्दों का मुख्य óोत संस्कृत भाषा होने के कारण उसमें तत्समता की प्रवृत्ति स्वाभाविक रूप से आ गयी है। परन्तु खड़ी बोली की प्रकृति को भूलकर जब केवल भाषा की जातीय शुद्धि के लिये तत्सम शब्दों का बहुलता से प्रयोग किया जाता है तब अभिव्यक्ति में कृत्रिमता, नीरसता और क्लिष्टता उत्पनन हो जाने की आशंका रहती है, क्योंकि तब प्रयोक्ता का ध्यान शब्दों की सार्थक उपयुक्तता पर न होकर उनके रूप विशेष पर होता है।
’’मधु’’ की भाषा में प्रायः ऐसे ही तत्सम शब्दों का प्रयोग हुआ है जो हिन्दी काव्य भाषा में प्रचलित रूप से प्रयुक्त होते हैं अथवा जो अपनी सार्थकता के कारण प्रयोजनीय हैं। स्वीय, मदीय, स्वविरामदा, सम्प्रति, अथच, आदि कुछ ऐसे शब्द रूप अवश्य हैं जिनका व्यवहार हिन्दी में स्वाभाविक रूप से नहीं होता है। अधिकांश तत्सम शब्द अपनी शक्ति और प्रयोग विशिष्टता स्वयं सिद्ध करते हैं। तत्सम शब्दों से कवि की भाषा में स्वच्छता और जीवन्तता का प्रभाव आया है।
मरू के समान मेरी अरस उरस्थली में
आओ तुम सरस सुधा विकासिका बनो।
तिमिर निराशा का घिरा हैै चारों ओर निज
आनन अमन्द से विभा विभासिका बनो।।
पावन पुनीत करने को मन मेरा ’’मधु’’
पुण्य प्रेम संगम की आओ काशिका बनो।
शासना ही आज तक सीखी जिसने है उस
मेरे उर प्रान्तर की तुम शासिका बनो।।5
उपर्युक्त उदाहरण में तत्सम शब्द बहुल भाषा में सहज प्रवाह और भाव को व्यक्त करने की पूरी शक्ति है। एक अन्य उदाहरण भी इसी सन्दर्भ में दृष्टव्य है-
नित्य प्रभात के पूर्व जो पूर्व में
खेलता लाली भरा उजयाला।
सो जगवासियों से कहती है
उषा दिखलाके उन्हें मधुशाला।।
पुत्रो उठो, उठो शीघ्र भरो
मधु से मधुरासव से निज प्याला।
क्योंकि प्रतिक्षण सूखती जा रही
देह के पात्र की जीवन हाला।।6
इस उदाहरण में प्रभात, जगवासी, मधुरासव, प्रतिक्षण, देह और पात्र जैसे शब्द भाषा में स्वाभाविकता से घुले मिले हैं। कोई भी शब्द पूरी पदावली से अलग नहीं प्रतीत होता। शब्दों के मर्म की सही पहचान से कवि वने तत्सम प्रधान भाषा का प्रसादत्व पूरी तरह उभारा है।
तरू बालकों को हलकी हलकी
थपकी जब वायु लगाने लगी।
जब गाने लगी मचली सी शिखी
तितली चल चित्त चुराने लगी।।
जब नीड़ से चंचु निकाल तृषाकुला
चातकी चीं चीं मचाने लगी।
तब आ सजला घटा पूरब से
रस की बुँदियाँ बरसाने लगी।।7
तत्समता की प्रवृत्ति कवि की ब्रजभाषा में भी परिलक्षित होती है। ब्रजभाषा में आदि वन्दनीय। तुल्य अनुराग, प्रतिभा समग्र, साश्रु नृप, जैसे तत्सम पद तो यथास्थान प्रचुरता से आये ही है, एक ही छन्द में तत्समता की प्रवृत्ति स्वरूप, देव दारिका, दृग, दिव्य, छवि, अपरूपा, प्रकट, रिद्धि-सिद्धि रूपा, तप तेजमई, भक्तिरूपा, अनूपा आदि शब्दों का अविकृत प्रयोग हुआ है।
तद्भव शब्द -
तत्सम शब्दों के साथ कवि ने तद्भव शब्दों का भी उदारतापूर्वक व्यवहार किया है। नेह, छीन, क्लेश, सरन, सुछंद, सुच्छ, दीउ, दीठ, सिंगार, नखत, अखत, उजास, मतंग, बिहूनो, जतन, उताल, पखान, पंछी, पाँत, चौंच, साँस, अमोल, मूँदरी, जुन्हाई, दिया, धौंस, नैन, सैन, पाती, मौन, भौंर, लिलार, पूरन, उकती, सारी, निठुर, रैन, पिय, पावस।
देशज शब्द -
देशज शब्दों में कवि ने बुन्देली के शब्दों का प्रयोग किया है। बुन्देली शब्द अधिकतर लोक जीवन से सम्बद्ध विषयों के साथ आये हैं। ’’महुआ’’ कविता में बुन्देलखण्ड में सूखे महुओं से बनने वाले उन खाद्य पदार्थों का वर्णन है जिनसे विपन्न ग्रामीण अन्न के बदले अपना पेट भरते हैं। ’’देहाती दुनिया’’ गीत में ग्राम्य जीवन की सरलता और अकृत्रिमता का चित्रण हुआ है। इन दोनों रचनाओं में बुन्देली शब्दों की प्रधानता है। ’’गौरी’’ गीत में शब्दों के अतिरिक्त वाक्य-विन्यास और रचना भी बुन्देली भाषा के अनुसार है। इनके अतिरिक्त अन्य रचनाओं में भी कहीं कहीं बुन्देली शब्दों का प्रयोग हुआ है।
सवाई, ऐन, कचरना, तराँ, (तरह), गैल, चौंतरा, चौंतरिया, प्याँर, टिया, चाली, पिड़ी, महेरी, टिकुनियाँ, मलिया, मुरका, अफरौ, डकरै, डुबरी, लटा, लडुआ, तिजाई, उतै, इतै, डॉड़ौ, दिना, कौंड़ौ, आगौनी, बानियांँ, औसर, बगरना।
उर्दू फारसी शब्द
’’मधु’’ की भाषा में उर्दू फारसी के शब्दों का सर्वत्र व्यवहार तो नहीं हुआ है, लेकिन कुछ रचनाओं में इन शब्दों की बहुलता है। खड़ी बोली अथवा ब्रजभाषा के बीच में जो उर्दू शब्द आये हैं ये सरल और प्रचलित है, लेकिन कुछ सैरों में, ’’होली माला’’ के दो कवित्तों में ’’हाला’’ के कुछ छन्दों में तथा कुछ गीतों में ऐसे उर्दू शब्द आये हैं। जो हिन्दी मंें साधारणतया व्यहत नहीं होते हैं। कवि का उर्दू, फारसी, का शब्द भंडार समृद्ध है, फिर भी ये शब्द उसकी भाषा के स्वाभाविक अंग नहीं है। भारतेन्दु युग से ही हिन्दी के कवियों में उर्दू में भी काव्य रचना की प्रवृत्ति चल रही थी। वर्तमान शताब्दी के तीसरे चौथे दशकों में भी अनेक कवि खड़ी बोली और ब्रजभाषा के साथ कभी स्वाभाविक रूप से तथा कभी वैलक्षण्य प्रदर्शन के लिये उर्दू में भी काव्य रचना करते थे। ’’मधु’’ ने भी इस परम्परा में कुछ रचनाओं में उर्दू फारसी शब्दों का प्रमुख रूप से प्रयोग किया है-
निहाल, मुहताज, उमरदराज, जुल्म, मुकाम, काबिज, गमगीन, मकदूर, बेजार, फरयाद, नाशाद, महरूम, आतिश, मज़लूम, ग़मदोज़, दिलसोज़, आजिज़, इलहाम, इत्तहाद, ख़तो, क़िताबत, क़याम, मिल्लत, साक़ी, मुअज्ज़िन, कूचए, ज़ि़न्दगी, पुरख़ार, आबे बक़ा, क़यामत, अलमस्तानी, बायज़, जायज़, मैकश, मैकदा, बहिश्त, जा़हिद, इनायत, चश्म, पुरमहर, वाहिद, वहीद, खुशदीद, बाव, इत्तफाक़, निफ़ाक, नुक्तये निगाह, सरशार, मज़ार, गैबी, तौक, चर्ख, अर्श, शरीअत, नाखुदा, रिन्द, नाज़नीन, पेशानी, अब्र, गुरबत, खि़जां, मतला, नूर, आफ़ताब, अज़ाब, सवाब, खादिम, इज़तराब, नाकूश, मुंतज़िम, हुब्बेवतन, तारीक़ी, उदू, बेदार, शम्सोमाह, अहवाब, रकाब, इमदाद, ग़मख्वार, किरदार, इ़़फ़कार, शब, इमकान, माहेलका।
अंग्रेजी शब्द -
उर्दू के अनेक शब्द हिन्दी में घुल मिलकर उसके सहज अंग बन गये हैं परन्तु अंग्रेजी भाषा के शब्द हिन्दी काव्य भाषा की स्वाभाविकता नहीं है। हिन्दी में अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग प्रायः व्यंग्य-विनोद तथा पाश्चात्य रीति नीति के वर्णन में ही होता है। ’’मधु’’ की भाषा में भी अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग इन्हीं प्रसंगों में हुआ है। ’’रायबहादुर’’ ’’मेम्बरी का नुस्खा’’ और ’देहाती दुनिया’, गीत, हास्य दशक कविता और ’’मधु सूक्तिसंग्रह’’, की कुछ सूक्तियों में व्यंग्य हास्य की अभिव्यक्ति के लिये अंग्रेजी शब्द आये हैं। ’’झांसी का विभीषण’’ काव्य में भाषा को पात्रानुकूलता प्रदान करने के लिये इन शब्दों का व्यवहार हुआ है।
सर्विस, गेट, लोअररेट, माइण्ड, हैट, हेट, नो वेकेंसी, टान्ट, नालिज, चेयर, पासपोर्ट, एफर्ट, लाकिट, लवमैसेज, जैंटिलमेन, लवेंडर, सिल्किन, इलैक्शन, गाउन, शू, एक्सपर्ट, रिकमेन्डेशन, नोमीनेशन, इम्प्रेशन, फोर्ट, योर, मोस्ट ओबिडियंट सर्वंेट, वर्थकन्ट्रोल, नो मेंशन, सैकिण्ड हैंड, शेक हैंड।
’’मधु’’को अपनी समृद्ध सम्पदा का यह लाभ पूर्ण रूप से मिला है। उन्हें किसी शब्द के लिये प्रयास नहीं करना पड़ा है, ठहरकर सोचना नहीं पड़ा है। अभिव्यक्ति की सहजता और प्रभावपूर्णता में स्वतः स्फूर्त जो भी शब्द उमड़ा, उसका कवि ने प्रयोग किया है, वह तत्सम हो या तद्भव, उर्दू का हो या बुन्देली का। भाषा की यह लाघव सिद्धि समृद्ध शब्द भंडार के साथ ही अनुभूति की स्पष्टता और सहजस्फूर्ति पर निर्भर रहती है। एक ही छन्द में कवि तत्सम, तद्भव और उर्दू के शब्दों का प्रयोग करता चलता है-
पत्थर से नाता जोड़ने से हुआ पत्थर जो
कैसे उस निष्ठुर हिये को पिघलाऊँगी।
जिसको न स्वीय अंगिनी की भी प्रतीति होवे
साक्षी किसी और की उसी को क्या दिलाऊँगी।।
सोहैं खाईं क्षमा मांँगी अश्रु ढारे किन्तु सब
निष्फल अथच यत्न अंतिम रचाऊँगी।
न्याय करवाऊँगी श्री अवध नरेश से मैं
मातु मैथिली को जाके अरज सुनाऊँगी।।
तत्सम शब्दों के साथ उर्दू के शब्दों का प्रयोग-
नहीं तैल था वो निज आँसुओं से
खुद ही सरशार सना हुआ था।
डुलती थी तथा नहीं अग्निशिखा
उर में व्यथा भार हना हुआ था।
हम क्या कहें छोटे से दीप में ज्यों
घने प्रेम का तार तना हुआ था।
दफ़ना हुआ था परवाना तले
शमआ वो मज़ार बना हुआ था।।
शब्दों की समीचीनता
कवि शब्दों के समीचीन और साभिप्राय प्रयोग के प्रति बहुत जागरूक है। शब्दों का समीचीन प्रयोग ही अर्थ को अधिक से अधिक प्रस्फुटित करता है और कलात्मकता में सहायक होता है।
कोहरा नहीं है साफ साफ कहता है ’’मधु’’
शीत की यवनिका का पतन ये होता है।
कोहरे के चित्रण में उसकी अस्पष्ट दृश्यता के विरोध में साफ साफ कहना चमत्कारपूर्ण है। साफ साफ कहने से यह भाव भी प्रकट होता है कि कवि कोहरे के लिये यहाँ अपहुति अलंकार के रूप में उपयुक्त और असाधारण सादृश्य की योजना कर रहा है।
दफ़ना हुआ था परवाना तले
शमआ वो मज़ार बना हुआ था।
’’परवाना’’ उर्दू शब्द है। मृतक संस्कार की इस्लामी परम्परा के अनुसार परवाना के साथ दफनाना क्रिया का प्रयोग किया गया है। शब्द प्रयोग की समीचीनता के लिये कवि ने कहीं कहीं शब्दों के रूप चयन में विशेष कौशल दिखाया है-
त्यों ही वसंत में मोेहिलिया
बन कोहिलिया वन कूकन लागै।
बुन्देलखण्ड में कोयल को कोहिल भी कहा जाता है। कोहिलिया शब्द में अधिक मार्दव और स्त्रीत्व है। ’’कोहिलिया’’ के साथ ध्वनि साम्य के लिये मोहिलिया’’ शब्द में भी मधुर मोहकता है। कवि के शब्द प्रयोग की समीचीनता और साभिप्रायता पर्यायवाची शब्दों में सर्वाधिक प्रकट हुई है।
पर्यायवाची शब्द-
पर्यायवाची शब्द स्थूल रूप से तो एक ही अर्थ की व्यंजना करते हैं परन्तु उनमें गुण, रूप, रंग आदि के आधार पर अर्थ की सूक्ष्म विविधता रहती है। पंतजी ने संगीत भेद से शब्दों के विभिन्न पर्यायों में सूक्ष्म अंतर का विवेचन किया हैे। काव्य में शब्दों के समीचीन प्रयोग में पर्यायवाची रूपों का विशेष महत्त्व है।
वस्तु और गुणवाची संज्ञाओं के तो पर्याय भाषा में होते ही है, व्यक्तिवाचक नामों के पर्याय भी गुणों के अनुसार निर्मित कर लिये जाते हैं। घनानन्द ने तो अपने नाम के भी पर्याय ’’मोद पयोद’’ का प्रयोग किया है।
’’मधु’’ ने शब्दों की पूर्ण व्यंजकता का उपयोग पर्यायवाची रूपों के द्वारा किया है। जहाँ पर्याय रूप की आवश्यकता एक शब्द से पूरी नहीं हुई वहाँ कवि ने समास बना लिया है। उसके पर्यायवाची शब्द-विधान में सामिप्रायता, नाद-योजना और आवृत्ति परिहार के प्रयोजन लक्षित होते हैं।
कण्व ऋषि और उनके आश्रम की स्वर्गोपम पावनता के सन्दर्भ में गंगा के लये ’’देवधुनि’’ शब्द प्रयुक्त हुआ है। ’’कैसे बड़भाग श्री पुलस्त की प्रपौत्र वधू नागदुहिता रहै सुहागधन खोय के’’ में सुलोचना को नागदुहिता कहा गया है। पति की मृत्यु के बाद पुलस्त की प्रपौत्र वधू प्रख्यात नागवंश की पुत्री जीवित रहकर अपने श्रेष्ठ पितृकुल के आदर्शों को कैसे कलंकित कर सकती है। रावण के लिये एक स्थान पर ’’दशभाल’’ शब्द आया है। यह पर्याय भी प्रसंगानुकूल है। सुलोचना पति का सिर प्राप्त करके उसके साथ सती हो जाना चाहती है। विच्छिन्न सिर राम के पास है। विलाप करती हुई सुलोचना के पास, दशमाल का आना रावण शब्द से अधिक व्यंजक है। रावण को अपने दस सिरों का गर्व है। वह सुलोचना से सगर्व कहता है कि मैं दशभाल होकर एक माथ के लिये एक एकमाथ राम से याचना नहीं कर सकता।
’’कहत सुकंठ नाथ हमहू निहार आये’’ में बोलने की क्रिया के संदर्भ में सुग्रीव के लये ’’सुकंठ’’ शब्द अधिक सार्थक है। ’’बाहुज’’ शब्द में ’’क्षत्रिय’’ से अधिक व्यंजना है। बाहु शस्त्र धारण करने तथा कर्मशीलता और वीरता के प्रतीक हैं। ’’बाहुज’’ से इन गुणों को धारण करने वाले व्यक्ति का ’’क्षत्रिय’’ शब्द की अपेक्षा अधिक स्पष्ट बोध होता है। अधरातन हू लगि लागी रहै ब्रजचंद जू के अधरातन सौं’’ में मुरली का कृष्ण के साथ अनन्य संयोग दिखाया गया है। आधीरात तक कृष्ण के अधरों से लगी रहने के प्रसंग में रात के साथ कृष्ण के पर्याय ’’ब्रजचंद’’ में अधिक साभिप्रायता है। उमर खैयाम की रूबाईयों के अनुवाद में उषा की लालिमा और शराब के वर्ण सन्दर्भ में मुर्गा के लिये ’’रक्त शिखा’’ शब्द लाल रंग के प्रभाव को घनीभूत करता है।
’’होलीमाला’’ काव्य में विषयानुरूप वन्दना करते हुए शंकर को ’’शशिभाल’’ कहा गया है। इस शब्द से उनके शीतल और संहारक्षम स्वभाव का एक साथ संकेत मिलता है। वह चन्द्रमा को भी अपने भाल पर धारण किये हैं। जिसका अमृत शीतलता और जीवन देने वाला है और उनके माथे पर तीसरा नेत्र भी है जो होली की तरह भस्म कर देने वाला है। ’’आशुतोष’’ सुना कि करते शत्रुओं पर भी दया तुम’’ में शीघ्र प्रसन्न हो जाने के गुण से शंकर के लिये ’’आशुतोष’ शब्द आया है।
एक ही व्यक्तिवाची संज्ञा के सबसे अधिक पर्याय चन्द्रमा के लिये प्रयुक्त हुर हैं- नदपति-नंद, निशेश, यामिनीश, रातपति, सितभानु, सुधांशु, सुधाकर, नीरधि सुअन, शशि, मयंक, हिमकर, विधु आदि। व्यतिरेक भाव से चन्द्रमा को कामदेव से अधिक मनोज्ञ बताने के लिये कामदेव को रतिपति और चन्द्रमा को रातपति कहा गया है। अन्य विशेषताओं के साथ ’’रातपति’’ में रतिपति से मात्राधिक्य भी है। इसी प्रकार शेष से ’’निशेश’’ में भी एक वर्ण की अधिकता है। चन्द्र किरण को गदूल की कोमल शैया पर सोने वाली राजकुमारी कहने के लिये चन्द्रमा का यामिनीश पर्याय प्रयुक्त हुआ है। राजकुमारी के राजवैभव की सार्थकता उसके पिता को राजा कहे जाने में ही है।
कमलिनी को शरद के पूर्ण चन्द्र में सूर्य का भ्रम हो जाता है। चन्द्रमा का ’’सितभानु’’ पर्यायवाची भ्रम को अधिक पुष्ट करता है। महारानी कुमुदिनी के मुख की अमृत से धोने के लिये चन्द्रमा का ’’सुधाकर’’ होना आवश्यक है। ’’विधि’’ की समता में चन्द्रमा को ’विधु’ कहा गया है। ब्रह्मा नीरज सुअन हैं तो ’’चन्द्रमा नीरधि सुअन’’ है। नंदपतिनन्द कृष्ण के साम्य में चन्द्रमा के ’’नदपतिनन्दन’’ पर्याय का प्रयोग हुआ है।
आवृत्तिजन्य एकरसता के परिहार के लिये भी अनेक पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग हुआ है-
मेघनाद - घननाद, इन्द्रजीत
मन्दोदरी - मयजा
यमुना - कलिन्दजा, रविजा, भानुजा
गंगा - सुरधुनि, जह्नुसुता
सुग्रीव - कामग्रीव, ललामकंठ
सरयू - वशिष्ठसुता
शब्द-परिवर्तन
’’मधु’’ की भाषा में शब्दों की विकृति के उदाहरण बहुत तो नहीं हैं, परन्तु कहीं कहीं उन्होंने आवश्यकतानुसार शब्दों के रूप में परिवर्तन किया है। ऐसा अनेक दृष्टियों से किया गया है। कहीं छन्दानुरोध के कारण शब्द में वर्णाधिक्य हो गया है। ’’को न महा अचरज्ज में पागे’’ में अचरज की जगह ’अचरज्ज’’ इसी प्रकार का शब्द है। बरसता के लिये ’’वर्षता’’ जगत के लिये जक्त, दयाल के लिये ’’द्याल’’ प्यास के लिये पियास और शरद के लिये ’’शर्द’’ में भी छन्दानुरोध है। कहीं थोड़ा सा परिवर्तन अलंकार-योजना के लिये भी किया गया है। ’’सामराज’’ के साथ यमक के लिये तथा ’’राज’’ और ’’अकाज’’ के साथ अनुप्रास के लिये ’’साम्राज्य’’ का विस्तार करके ’’सामराज’’ कर दिया गया है। इसी तरह एक स्थान पर पातकी के साथ ध्वनिसाम्य के लिये संज्ञार्थ में ’’घातकी’’ शब्द आया है जबकि वह विशेषण का रूप है।
व्याकरण
’’मधु’’ ने खड़ी बोली और ब्रजभाषा दोनों में काव्य-रचना की है। ऐसी स्थिति में एक भाषा के व्याकरणिक रूपों का दूसरी भाषा में स्वाभाविक रूप से प्रवेश हो गया है। यह प्रवृत्ति सर्वत्र तो नहीं है, क्योंकि प्रायः कवि ने खड़ी बोली और ब्रजभाषा के क्रिया रूप और ब्रज भाषा में खड़ी बोली में ब्रज के क्रिया रूप और ब्रज भाषा में खड़ी बोली के वाक्यों तथा वाक्यांशों का समावेश हो गया है।
खड़ी बोली की क्रियाओं में ए और ओ के स्थान पर ब्रज भाषा के ऐ और औ रूपों का प्रयोग हुआ है। ’’कितना ही करैं फिरंगी लेकिन झांसी हाथ न आनी है’’ में करैं और अतिथि पधारौ दीन हीन वन्य जीव हम में पधारौ क्रिया रूप इसी प्रकार के हैं। ’सकौगे, खुलैगा, सकै आदि ब्रजभाषा के क्रिया रूप खड़ी बोली में अनेक स्थानों पर व्यवहृत हैं।
ब्रजभाषा की क्रियाओं का ’’व’’ खड़ी बोली में ’’य’ हो गया है। ’’मधु’’ ने खड़ी बोली के बीच में भी उसका पूर्वरूप ही रखा है। ’’लावै’’, पावैगा, जैसी क्रियाओं में यह प्रवृत्ति लक्षित होती है। इसी प्रकार ब्रजभाषा के बीच में खड़ी बोली के क्रियारूप भी प्रविष्ट हो गये हैं।
रुचि जो तुम्हारी ऐसी जाओ प्रिय पुत्र वधू
सम्प्रति सिधावे के सजाओ साज बाज हैं।।
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ब्रजभाषा में क्रियाा के भूतकाल के हुतौ, भौे, ती आदि विभिन्न रूपों का प्रयोग हुआ है।
हरषि भौ भारी बाल गज वदनेश कौं।
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ताही भाँति यहहू भई ती भक्ति सिरमौर।
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रोम रोम रानी जू के अंचित उतान भे।
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जैसे राम नाम की कृपा तें उन पायौ हुतौ।
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भविष्य काल में क्रिया में है, हैं, हौ तथा गौ के लिंगानुसार विभिन्न रूप प्रयुक्त होते हैं-
स्याम तिहारी छिदाम की कामरी
पै रंग ऐसौ अदाम न डारिहैं।
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कढ़िहै सिगरी वह होरी हरी
कमरी दमरी के न मोल बिकैहैं।।
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संज्ञा या विशेषण में ’’आय’’ अथवा ’’आव’’ लगाकर क्रियापद बनाने की प्रवृत्ति हिन्दी मेें नहीं रह गयी है। इससे उसकी रचना-शक्ति में कमी हो गयी है। अब कंँखिआयै, मौलिआयें, छतिआये, जैसे रूप जनपदीय बोलियों में ही रह गये हैं। ’’मधु’’ ने भाषा की इस क्षमता का प्रयोग किया है-
झोरी कँधयाये काधे पग अलसाये परै
कौन भांँति तौन, ’’मधु’’ सुषमा बतावै है।
कंधे से कँधयाये क्रियापद निर्मित हुआ है। प्रस्तुत उदाहरण में काँधे शब्द अनावश्यक रूप से प्रयुक्त हो गया है। कँधयाये में ही उसका अर्थ निहित है।
’’मधु’’ ने अलग से क्रियाओं का प्रयोग किये बिना विशेषण से ही क्रिया रूप बनाये हैं। ’’अतीतना’’ और व्यतीतना इस प्रकार के शब्द हैं। आजकल हिन्दी में योगात्मक भाषाओं की तरह मुख्य क्रिया के ही रूप बनाने की प्रवृत्ति चल पड़ी है जिनमें सहायक क्रियाओं को छोड़ दिया जाता है। स्वीकार करना की जगह ’’स्वीकारना’’ और महसूस करना के स्थान पर ’महसूसना’’ रूपों का प्रयोग कहीं कहीं देखा जा रहा है। कवि ने भी ’’प्रगटाते’ जैसे क्रिया रूपों का प्रयोग किया है।
पुरानी हिन्दी और उर्दू में प्रचलित कुछ क्रिया रूप भी कवि ने स्वीकार किये हैं, जैसे ’’निहारा किया, पुकारा किया, सँवारा किया, चढ़ाया किये।
ब्रजभाषा में एक ही कारक के अनेक चिन्हों और उनके लोप की प्रवृत्ति के अनुसरण में भूतकालिक सकर्मक क्रिया के साथ कर्ता कारक के ’’ने’’ चिन्ह का भी लोप हो गया जो भाषा की शुद्धि की दृष्टि से अनिवार्य रूप से आना चाहिए।7 ’’मधु’’ ने भी ब्रजभाषा में इस स्वतंत्रता का लाभ लिया है-
जैसे राम नाक की कृपा तैं, उन पायौ हुतौ
आदि वन्दनीय पद विसद विसेस कौ।।
यहँ ’’उन’’ शब्द में कर्ता विभक्ति के बिना ही काम चलाया गया है। सम्बन्ध कारक का भी इसी प्रकार निर्विभक्तिक प्रयोग हुआ है-
उन दर्श के स्वाँत की प्यासी सदा
भ्रमरी पद पंकज पात की है।।
’’उन’’ सर्वनाम में सम्बन्धकारक चिह्न का लोप हो गया है। ऐसे उदाहरणों के अतिरिक्त कवि ने विभक्तियों का प्रयोग ब्रजभाषा के स्वीकृत रूपों में ही किया है।
संधि
संधि और समास संश्लेषणात्मक भाषा की प्रकृति है। इनसे भाषा में संक्षिप्ति का गुण तो आ जाता है परन्तु अत्यधिक संगुम्फन और समस्तता से भाषा के कृत्रिम दुरूह और अकाव्योचित होने की भी आशंका रहती है। हिन्दी में सन्धि और समास का उचित प्रयोग अभिव्यंजना में सहायक होता है परन्तु अयोगात्मक भाषा होने के कारण वह संधि और समास की बहुलता स्वीकार नहीं करती है।
’’मधु’’ की भाषा में संधि से निर्मित शब्दों की संख्या तो पर्याप्त है किन्तु अधिकांश शब्दों में प्रचलित और सरल संधि-रूप हैं। संधि के कारण भाषा में क्लिष्टता नहीं आ पायी। अधिकतर शब्द दीर्घ तथा गुण संधि से निर्मित हैं-
तपिताश्रु, व्यथाश्रु, विरहाब्धि, नवांकुर, हरिताम्बर, अद्यापि, स्वतंत्रासि, विनयावनत, पुष्टताभिलाषी, निजातंक, शरदोत्सव, मदोत्पात।
कहीं कहीं ’’शीघ्रमेव’’ और पुनर्ग्रहण जैसे व्यंजन और विसर्ग संधियों के रूप भी प्रयुक्त हुए हैं।
समास
’’मधु’’ की सामसिक प्रयुक्तियाँ संक्षिप्ति के साथ ही विशेष शब्द निर्माण अर्थ व्यंजकता तथा नाद योजना में सहायक हुई हैं। अनेक पर्याय समस्त पदों के रूप में निर्मित हुए हैं। कहीं कहीं तो साभिप्रायता के कारण कवि को किसी शब्द के अर्थ के लिये ऐसा समास बनाना पड़ा है जिसमें समस्तता के गुण से अधिक विस्तृति है, जैसे सुलोचना के लिये ’’लंक नाथ सुतनारि’’ का प्रयोग परन्तु यह शब्द अपने इसी रूप में पूर्ण अर्थ की व्यंजना करता है। सुलोचना का ऐश्वर्य लंका के स्वामी के पुत्र की पत्नी के रूप में बताया गया है।
कवि के द्वारा प्रयुक्त समस्त पदों की निर्मिति जटिल नहीं है। अनेक शब्दों में तो विभक्ति-लोप ही हुआ है। ऐसा संक्षिप्ति के उद्देश्य से किया गया है-महिषीगमन समाचार, सुख ओक, अरिन्दम, ऋषिवनराजिनी, सुधाविकासिका, गुणगणधाम, रतिमानमोचनी, स्वविरामदा, अपति, अवाम। कवि के शब्दों में तत्पुरूष समास की प्रधानता है। नड्. तत्पुरूष से भी अनेक शब्द निर्मित किये गये हैं, क्योंकि अभावसूचक ’अ’ अथवा अन् का प्रयोग कर देने से संक्षिप्ति आ जाती है- अनन्द, अगात, अथोर, अपक्ष, असुध, अचेत, असिक्त, अरस, अहित, अगेय, अवध्य, अकाल, अनावृत, अकिंचन, अभय।
प्रत्यय
’’मधु’’ की भाषा में संस्कृत और हिन्दी दोनों से ही प्रत्यय जोड़कर शब्दों की रचना की गयी है। ’’हेय’’ वन्दनीय, तुल्य, दीर्घसूत्रता, अमरत्व, अनुकूलता आदि तो ऐसे कृदन्त और तद्धित हैं जो हिन्दी में भी सामान्यतया प्रयुक्त होते हैं, परन्तु द्रवमान, भासमान, विहाय, स्वकीय, स्वीय, मदीय जैसे प्रत्ययान्त शब्दों का भी कवि ने व्यवहार किया है। ये शब्द साधारणतया हिन्दी में प्रयुक्त नहीं होते। ऐसी प्रयुक्तियों का भी प्रयोग हुआ है, जैसे दुर्गमताई, उच्चताई, मौनता। खड़ी बोली को काव्य भाषा का गौरव प्रदान करने वाले और व्याकरण का अनुशासन स्थापित करने वाले पं0 महावीर प्रसाद द्विवेदी की खड़ी बोली की प्रारंभिक कविताओं में भी ’सुन्दरताई’ जैसी भाववाचक संज्ञाएँ मिलती हैं।8
उक्ति सौन्दर्य
भाव-व्यंजना में उक्ति-सौष्ठव का बहुत महत्त्व है। वैदग्ध्यपूर्ण उक्ति से काव्य में अनूठा चमत्कार, चारूत्व और प्रभाव उत्पन्न हो जाता है। वक्रतापूर्ण उक्ति में कथन शैली की असाधारणता और नवीनता होती है। इस विलक्षणता से काव्य के कलात्मक सौन्दर्य में वृद्धि होती है।
राजशेखर ने उक्ति को महत्त्व देते हुए आठ प्रकार के काव्य कवियों में उक्ति कवि को माना है।9 उक्ति का तात्पर्य सामान्य कथन से भिन्न भंगिमापूर्ण कथन है। कुंतक ने तो वक्रोक्ति को ही काव्यात्मा स्वीकार करके उसे प्रबन्धवक्रता तक विस्तृत कर दिया है। आचार्य क्षेमेन्द्र का भी कथन है कि जिस कवि में चमत्कार उत्पन्न करने की क्षमता नहीं है। वह कवि नहीं है और जो काव्य चमत्कार विरहित है उसमें काव्यत्व नहीं है।10 आचार्य शुक्ल ने लिखा है कि उक्ति के द्वारा हृदय पर मर्मस्पर्शी प्रभाव पड़ता है।11
उक्तिगत चमत्कार का अर्थ वैचित्र्मात्र नहीं है। सायाम किया गया वैचित्र्य विधान भाव के साथ अविच्छिन्न न होने से केवल कौतूहल वृत्ति का शमन करता है, भाव सौन्दर्य को आलोकित नहीं करता। शुक्ल जी ने काव्य और सूक्ति का अन्तर स्पष्ट करते हुए लिखा है कि ’ जो उक्ति हृदय में कोई भाव जागरित कर दे या उसे प्रस्तुत वस्तु या तथ्य की मार्मिक भावना में लीन कर दे, वह तो है काव्य। जो उक्ति केवल कथन के ढंग के अनूठेपन, रचनावैचित्र्य, चमत्कार, कवि के श्रम या निपुणता के विचार में ही प्रवृत्त करे, वह है सूक्ति।12
’’मधु’’ के काव्यादर्श में उक्ति-सौन्दर्य का प्रमुख स्थान है। उन्होंने सुन्दर भावों की कलात्मक अभिव्यक्ति में काव्य का प्रणिधान माना है। कवि का उक्ति प्रेम उसके काव्य में प्रत्यक्ष रूप से प्रकट हुआ है।
केलि करें केशव साहित्य सुधा सिन्धु मध्य
लहर सदुक्ति लेत लहर प्रवाह में।।
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रचि है अनोखी चारू चोखी उक्ति चातुरी की
कवि ने अपने लिये कामना की है-
नूतन नूतन सूक्ति समीर से
भाव तरंगे उठाया करूं में।
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लंक द्वार में तो लंक वधू शिविका जो चढ़ी
कविन के उर में यों नव उकती चली।
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याही भांति कहत सबै हैं पै निराली एक
युक्ति आवौ करै ’’मधु’’ मति निरमल में।
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पेखि हिय कालिमा सुहाई हिय भाई मल
उकति अनोखी एक आई ’’मधु’’ मन में।
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साश्रु नृप वैनन में डूबी स्याम पूतरी कों
देखि उक्ति उठी उक्ति पूरित अनिन्द की।
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’’मधु’’ स्वीय उक्ति कहैं सहित प्रमान के।
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’’मधु’’नवरस के रूचिर रंगरागन तंे
उक्ति पिचकारी भरें मोद अधिकाई है।
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दोउन के देखि के समान ही सुढंग उठी
’’मधु’’ के हिये में उक्ति ऐसी रंग रेखनी।
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ताही समै बहे महिषी के लोल लोचन सो
देख तिन्हें उकति अनूठी यो सुहानी है।
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’’मधु’’ की उक्तियाँ नीरस कथन अथवा उपदेश व्यक्त करने वाली सूक्तियाँ नहीं हैं। उनमें कल्पना के संयोग से भाव का ही सहज विकास और उसका कलात्मक प्रस्तुतीकरण हुआ है। उनमें वक्रता के साथ ही नवीनता का भी आकर्षण है।
पौर्वापर्य-निरपेक्ष मुक्तकों में उक्ति कौशल के प्रदर्शन के लिये अधिक अवसर रहता है। प्रबन्धों में भी भाव-वर्णन में उक्ति विधान के लिये कवि को अवसर प्राप्त होता है। ’’मधु’’ का अधिकांश मुक्तक काव्य उक्ति सौन्दर्य से विभासित है। कवि ने उक्ति का विधान कविता की किसी पंक्ति में प्रसंग-निरपेक्ष रूप से नहीं किया है। उक्ति प्रक्षिप्त न हो कर भाव के सहन विकास का चरम उत्कर्ष बनकर आयी है। ’’बुन्देलखण्ड दर्शन’’ ’’विंध्यवावनी’’, ’’बेतवावावनी’’, ’’शशिशतक’’, ’’मुरली माधुरी’’, ’’होलीमाला’’, ’’चन्द्रचकोर’’, ’’पतंग और दीपक’’, ’’पपीहा’’, ’’हाला’’, समस्यापूर्ति काव्य तथा प्रभूत स्फुट काव्य मेें सैकड़ों भावपूर्ण उक्तियाँ हैं।
अधरातन हू लगि लागी रहै
ब्रजचंद जू के अधरातन सौं।
मनमोहन की मनमोहनी है
’’मधु’’ जान परी इन बातन सौं।।
इक हाथ गही तिया के वशीभूत
रहे नर रीत सनातन सौं।
इह के वश में हरि क्यों न रहें
वे गहे इह कौं दुहू हातन सौं।।
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गोपियों को मुरली के सौभाग्य से ईर्ष्या है। कृष्ण के ओठों से उसका सतत संयोग, जो गोपियों की अतृप्त कामना है, उनकी व्यथा का कारण है। बाँंसुरी के प्रति कृष्ण की अवश आसक्ति तथा गोपियों के ईर्ष्यायुक्त निराशा भाव की अभिव्यक्ति में उक्ति से अनूठा सौन्दर्य आ गया है। जिस स्त्री का एक ही हाथ से पाणिग्रहण किया जाता है पुरूष उसके वश में हो जाता है फिर कृष्ण तो मुरली का ग्रहण दोनों हाथों से किये हुए हैं। स्वकीया के सौभाग्यपूर्ण अधिकार के प्रति अधिकारहीन परकीया के मन की हताशा युक्त हीनता की सूक्ष्म ध्वनि से उक्ति की मार्मिकता का परिचय मिलता है।
सखि सौत भई मुरली अपनी
गहि कें हरि के अधरासन कौं।
’’मधु’’ तानें सुनाय के ताने से देत
हमारे उभै श्रुति दाहन कौ।।
उपजी यह वंश के वंश में है
सौ तजै किम वंश प्रभावन कौं।
निज कानन कौं जो जरावत है
सौ जरावै न क्यों पर कानन कौं।।
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इस उक्ति में भी मुरली के प्रति गोपियों का सपत्नी-भाव व्यक्त हुआ है। वाँसुरी अपनी तानों से अपना सौभाग्य प्रदर्शित करते हुए गोपियों को चिढ़ाती हैं। और उनके कानों को दग्ध करती है। बाँसुरी बाँस के वंश में उत्पन्न है। बाँस का वन स्वयं को जला डालता है। ऐसे वंश में जन्मी वाँसुरी को दूसरों को दग्ध करने में क्यों कष्ट होगा? उक्ति का चारुत्व ’’कानन’’ शब्द के यमकाश्रित प्रयोग से द्विगुणित हो गया है।
पार्वती के मन का सपत्नी-भाव इस उक्ति के द्वारा अत्यन्त विदग्धता के साथ व्यक्त हआ है। पति के सिर पर चढ़ी नीर भरी गंगा तो आज तक हृदय जला रही है, शरद चन्द्रिका की दुग्ध गंगा न जाने क्या करेगी-
शरद जुन्हाई दुग्ध गंग सी सुहाई ता पै
औचक ही गई गिरजा की दीठ परि है।
देखि अकुलानी घबरानी चख पूतरी में
सुरधुनि सौत आई आतुर उतरि है।।
देह लागी दहन वहन वारि धार लागी
’’मधु’’ जू कहन लागी कंबु कंठ भरि है।
नीर भरी गंगा हियें आज लों लगावै आग
क्षीर भरी गंगा कौन जानै कहा करि है।।
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कवि केशव के काव्य-कौशल की प्रशंसा में अनोखी उक्ति की कल्पना की है-
हिन्दी कविता के नमोमण्डल में कोई जन
सविता समान दास तुलसी बताते हैं।
कोई अन्ध भक्त अन्ध सूरदास के हैं जो कि
सूरज सरिस सूर गाते ना अघाते हैं।।
भासमान के समान मान लीजै दोनों पर
सुकवि ’’नरोत्तम’’ यों स्वमत सुनाते हैं।
केशव कवीन्द्र ही है हिन्दी कविता का माघ
जहाँ ये अमन्द भानु मंद पड़ जाते हैं।।
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’’माघ’’ शब्द के श्लिष्टार्थ पर आधारित इस उक्ति से भाव अपूर्व आभा से दीप्त हो उठा है। जिस तरह माघ मास में सूर्य का प्रकाश क्षीण हो जाता है उसी प्रकार केशव की काव्य-कला के समक्ष सूर और तुलसी भी मन्द पड़ जाते हैं। साथ ही केशव को संस्कृत के माघ कवि के समान कहा गया है। ’’माघे सन्ति त्रयो गुणाः’’ के आधार पर माघ को उपमा के अनुपम कवि कालिदास, अर्थगौरव के कवि भारवि और पदलालित्य के धनी दण्डी से श्रेष्ठ माना गया है। इसी प्रकार केशव को सूर और तुलसी से उत्कृष्ट निरूपित किया गया है।
’’मधु’’ सूक्ति संग्रह की उक्तियाँ भी भाव की दृष्टि से रमणीय हैं-
धवल नवल पट ओढ़ि़कें लोग चलत उहि देश।
सजनि लसत परलोक में का कछु परब विशेष।।
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पर्व के अवसर पर स्वच्छ और नये वस्त्र धारण किये जाते हैं। शव को आच्छादित करने वाले स्वच्छ और नये वस्त्र को पर्वोचित कहकर मृत्यु के प्रति दुःख के भाव का निरसन किया गया है।
मुलक अदम उहि लोक कौ उचितै उरदू नाम।
उतै जायवे में परत नेकु न दम कौ काम।।
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मुल्के अदम तभी जाया जा सकता है जब दम न रह जाय। ’’अदम’’ शब्द के श्लिष्टार्थ से कवि ने उक्ति निर्माण कर लिया है।
ऐसी काँच चुरी हमें पहिरा ओ मनिहार।
जिन्हें उतारें चिता में आँच देत भरतार।।
पति के दीर्घजीवन की कामना और उसके पहले ही स्वयं मर जाने की अभिलाषा की अत्यन्त कोमल व्यंजना इस दोहे में हुई है। नारी के मन की सबसे बड़ी साध होती है कि उसे आजीवन पति का साथ मिलता रहे और उसे वैधव्य का अभिशप्त जीवन न जीना पड़े। काँच की चूड़ियाँ, सौभाग्य की प्रतीक हैं। परम्परा के अनुसार मनिहार स्त्रियों को चूड़ियाँ पहनाने के बाद आशीष की चूड़ी अतिरिक्त पहनाता है जिसका वह मूल्य नहीं लेता। पत्नी की मृत्यु पर पति उसके हाथों की चूड़ियाँ दाह संस्कार के समय स्वयं उतारता है।
आचार्य क्षेमेन्द्र ने काव्य में चमत्कार के दस प्रकार माने हैं। समस्त सूक्त व्यापी चमत्कार उनमें से एक हैं। इसमें चमत्कार तथा उक्ति सौन्दर्य की अवस्थिति एकांगी न होकर पूरे प्रसंग और भाव में प्रसूत होती है। ’’मधु’’ की उक्तियाँ इसी प्रकार की हैं। वे शास्त्रीय निष्कर्ष न होकर भाव सम्पन्न कल्पना की मनोरम सृष्टि हैं।
मुहावरे और लोकोक्तियाँ
मुहावरे और लोकोक्तियाँ अभिव्यंजना को विदग्ध और प्रखर बनाने वाले उपकरण हैं। भाषा की प्रौढ़ता और समृद्धि के साथ उसमेें अभिव्यक्ति की जो अनेक शक्तियाँ उत्पन्न हो जाती हैं मुहावरे और लोकोक्तियाँ उनमें से ही हैं। लोकानुभव पर आधारित ये भाषिक प्रयोग लाक्षणिक अर्थ में रूढ़ होकर अभिव्यक्ति के अधिक व्यापक और सशक्त माध्यम बन जाते हैं। डॉ0 ब्रजेश्वर वर्मा के शब्दों में अर्थ की गम्भीरता, व्यापकता और मार्मिकता शब्द समूहों के ऐसे प्रयोगों द्वारा भी सिद्ध की जाती हैं जिनमें लोक का अनुभव संक्षिप्त उक्तियों के द्वारा प्रकट किया गया होता है। जब ये शब्द समूह प्रायः पूर्ण वाक्यों का रूप धारण करके सामान्य अनुभव के रूप में प्रकट होते हैं तब लोकोक्ति या कहावत कहलाते हैं और जब विशेष संदर्भ के साथ प्रायः वाक्यांशों में प्रकट होते हैं तब मुहावरें।13
लोकोक्तियाँ और मुहावरे लक्षणाश्रित होते हैं। वे मूल रूप में किसी स्थान, समय अथवा घटना विशेष से सम्बन्धित होते हैं, किन्तु अपना विशेषत्व और वाच्यार्थ खोकर वे लक्ष्यार्थ अथवा व्यंग्यार्थ का द्योतन करने लगते हैं। यदि वाच्यार्थ का भान होता भी है तो वह अपेक्षाकृत मंद होता है।14 इसके अतिरिक्त उनके तात्पर्य को पूरा करने के लिये कभी कभी किसी अलंकार का भी प्रयोग किया जाता है। इनसे लोकोक्तियों और मुहावरों में चमत्कार की सृष्टि होती है। उनमें सादृश्य के आधार पर अर्थ की तीव्र व्यंजना और व्यापकता का गुण आ जाता है। वे थोड़े में बहुत अर्थ ध्वनित करने लगते हैं।
अभिव्यक्ति के साधन के रूप में तो मुहावरों और लोकोक्तियों का महत्त्व है, पर जब वे साधन के स्थान पर साध्य बन जाते हैं तब उनमें वैचित्र्य या चमत्कार हो जाता है। प्रौक्तियों को अनुभूति के साथ सम्पृक्त और एकात्म होना चाहिए। वे बाहर से प्रक्षिप्त प्रतीत न हों।
काव्य में मुहावरों और लोकोक्तियों का प्रयोग सदा अविकल रूप में नहीं हो पाता। छन्द तथा वाक्य-विन्यास के अनुरोध से उनका शाब्दिक स्वरूप प्रायः परिवर्तित हो जाता है। कवि को कभी उनके मूल रूप में संक्षेप और कभी विस्तार करना पड़ता है। कवि की यह स्वतंत्रता उसी सीमा तक स्वीकार्य मानी जा सकती है जहाँ तक प्रोक्तियों के अर्थ पर आघात न हो। अधिक शाब्दिक परिवर्तन से तथा अधिक संकोच अथवा प्रसार से उनकी अर्थ व्यंजकता नष्ट होने की आशंका रहती है।
’’मधु’’ के काव्य में मुहावरे और लोकोक्तियाँ चमत्कार साध्य न होकर भाव के साथ सम्पृक्त हैं। वे भाव की तीव्रता में सहायक हैं और उक्ति को रमणीयता प्रदान करती हैं। अधिकतर प्रोक्तियाँ या तो प्रसंग के साथ जुड़ी हुई हैं या अलंकार प्रयोग के द्वारा उनकी व्यंजकता को और अधिक बड़ा दिया गया है।
मुहावरे
1. हमें जोग की सीख सिखायवौ ऊधव
ऊसर में जल गेरिबौ है।
2. ’’मधु’’ का कहें आपने हाथन तें
हम आपने पाँव पै मारी कुल्हारी।।
3. मनमोहन की मुख माधुरी में
यह बाँसुरी बाँस की फाँस भई।।
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गोपियों द्वारा कृष्ण की मुख-माधुरी के आस्वाद के बीच में बाँसुरी उसी तरह बाधक है जैसे गुड़ में ईख का छिलका निकल कर उसकी मिठास को आस्वादहीन कर देता है। बाँसुरी बाँस की बनी होती है। उसका गोपियों के हृदय में फाँस की तरह गड़ जाना अत्यंत स्वभाविक प्रयोग है।
4. रंग राग सभी ठुकराकर आग का
जीवन कण्ठ लगाना पड़ा।
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दीपक के आकार के अनुसार उसकी लौ उसके कण्ठभाग में होती है। इस तरह लाग का जीवन गले लगाना मुहावरे की सार्थकता अधिक प्रस्फुटित हुई है।
5. मानव तू जिस आशा की पूर्ति में
आँख को मूँद के आँख लगाता।
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आँख मूँदना और आँख लगाना मुहावरों का विरोधाभास आशापूर्ति के प्रति मनुष्य की आतुरता के भाव के सहायक हुआ है।
6. ब्रह्म को पाथर बाँध गरें ’’मधु’’
सोम के सिन्धु उतारनि चाहत।
7. देव क्या अनोखा व्यवहार है तुम्हारा हम
हृदय दिखाते तुम आँख दिखला रहे।।
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यहाँ प्रिय की निष्ठुरता तो व्यक्त होती ही है हृदय और आँख के विरोध के द्वारा भी विषमता की व्यंजना हुई है। प्रेमी हृदय जैसी बड़ी वस्तु दिखा रहा है और निष्ठुर प्रिय आँख जैसी छोटी वस्तु दिखा रहा है।
8. ऊपर की फूटी जो तो चश्मा चढ़ाया झट
पर उन्हें क्या करें जो फूट गई हीये की।
हिये की फूटना (विवेक-दृष्टि समाप्त हो जाना) बुन्देली भाषा का मुहावरा है।
9. फिर क्या था अरि के वायुयान भागे दुम दबा दबा करके।
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पक्षियेां की तरह आकाश में उड़ने वाले वायुयानों के साथ दुम दबाकर भागना मुहावरे से सजीव चित्र अंकित हुआ है। वायुयान का पिछला हिस्सा उसकी दुम है।
10. मातु मैथिली पै छींटे कीच के उछाले जो कि
मैं भी ऐसे नीच के न संग रहा चाहती।
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यह कथन सीता पर चरित्रहीनता का आरोप लगाने वाले धोबी की पत्नी का है। धोबी की क्रिया-व्यापार के सन्दर्भ में कीचड़ उछालना मुहावरा अत्यंत सार्थक है।
11. वर वाटिका एक वसन्त के आगम
में नहीं फूली समा रही थी।
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वाटिका के फूली न समाने में वाच्यार्थ और लक्ष्यार्थ दोनों का निर्वाह हुआ है।
12. अरी तमोलिन ताकि के गज़ब करयो तू हाय।
खैर दिखा कें दूर संे चूना दियौ लगाय।।
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’’चूना लगाना’’ का श्लिष्टार्थ ही इस दोहे का चमत्कार है।
13. मुझको सवार दो घोड़ों पर
रहना है रचकर ढंँग न्यारा।
14. नभ कुसुमों का उर हार मिला
मृगजल अभिषेक साज पाया।
15. इस राज्य लोभ में मैं न कहीं
रणमख का बकरा बन जाऊँ।
16. नियरायौ योरूपी विनास पेखिये प्रतच्छ
पंख जम आये पश्चिमी पिपीलिकान के।
17. यह जोग को रंग कहाँ चढ़ि है
चित पै तौ संजोग कौ रंग चढ़्यौ।
18. अरि से मिलकर हा इसी काल इटली भी कूदा रण में यों।
छत विछत मनुज के पृष्ठ भाग में छुरा भौंक दे कोई ज्यों।
19. हम अब भी बड़ी दया मानें जो अपने बिस्तर बँंधवाओ।
20 टलने का नाम नहीं लोगे जम होकर के जम जाओंगे।
21. ताला एक सौ चवालिस का सबही की ज़बान पर डाला।
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लोकोक्तियाँ
1. ’’मधु’’ काहे कौं साँची करौ कहनावत
ऊँची दुकान की फीकी मिठाई।
2. जो अलग दिखाने खाने के हों दाँत न ये हाथी वाले।
3. वह भव्य भोज भूपाल कहाँ औ कहाँ दीन भुजवा तेली।
4. छोड़ करस्थ का अर्ध सुदूर की
पूर्णता में फँसते जन भोरे।
सत्य प्रमानो प्रिये लगते हैं।
कि दूर के ढोल सुहावने कोरे।
5. इस ढके ढोल के भीतर की है पोल उसी ने बतलाई ।
6. है मुझे सिपाही ही रहना कोई भी राजा रानी हो।
7. घूड़े के भी दिन बारा बरसों मंे फिरते हैं
कूड़े से भी भाग क्या हमारा गया बीता है।
8. आँधी कितनी ही चोट करैं पर पहाड़ की क्या हानी है।
गुण:-
गुणों को रसोत्कर्ष का हेतु माना गया है।15 विभिन्न रसों की आस्वाद प्रक्रिया में हमारे चित्त में भिन्न-भिन्न प्रकार के भाव उदित होते हैं। कभी-किसी कविता को पढ़कर हमारा चित्त द्रवित हो उठता है, कभी उसमें विस्तार होता है और कभी हमें प्रशस्तता का अनुभव होता है। चित्त के आर्द्र और द्रवित होने को द्रुति, उसकी उत्तेजना को दीप्ति तथा चित्त के त्वरित और सरल व्यापकत्व को व्याप्ति कहा जाता है। इन्हीं अवस्थाओं को उत्पन्न करने वाले गुणों का नाम क्रमशः माधुर्य, ओज और प्रसाद है। काव्य में गुणों के अनुसार ही वर्ण और शब्दों की संघटना होती है।
माधुर्य
अन्तःकरण को आनन्द से द्रवीभूत और आर्द्र कर देने वाला गुण माधुर्य है। इसकी अवस्थिति प्रायः श्रंृगार रस में रहती है। श्रंृगार में भी संयोग की अपेक्षा वियोग में माधुर्य भाव से हृदय अधिक द्रवित होता है। इच्छित वस्तु का अभाव उसके माधुर्य को और तीव्रातितीव्र रूप में भासित करता है।16
’’मधु’’ संज्ञा से ही कवि के काव्य में माधुर्यगुण की प्रधानता का आभास हो जाता है।
मधुपों की मनोहर पंक्ति अहा
करने मकरंद की चोरी चली।
प्रिय पुष्प के संग को त्याग
समीर के अंग सुगन्धि किशोरी चली।।
पहिने सितकाश धरा अभिसारिका
नेह के रंग में बोरी चली।
किरणों का कमन्द लगा करके
प्रिय चंद्र के पास चकोरी चली।।
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करुणभाव की व्यंजना में भी माधुर्यगुण पूरी तरह मुखर है। ’’यशोदा का स्वप्न’’ गीत में कृृष्ण के मथुरा चले जाने के बाद होली के अवसर पर यशोदा कृष्ण की हठ, तरह तरह के रंगों का जोड़ना और राधा के साथ फाग खेलना याद करती हैं। इसी करुण स्मृति में उन्हें नींद आ जाती है। यशोदा स्वप्न में देखती हैं कि कृष्ण पिचकारी भरे राधा का पीछा कर रहे हैं। जैसे वह पिचकारी छोड़ते हैं वैसे ही राधा यशोदा के पीछे छिप जाती है और यशोदा भींग जाती है। उसी समय उनकी नींद खुलती है और वह देखती हैं कि उनका अंचल उन्हीं के आँंसुओं से भीग गया है।
फागुन वही पूर्णिमा वह ही वही होलिका आई।
लौटा नहीं किन्तु मथुरा से मेरा कुँअर कन्हाई।।
यह न चाहिये यह न चाहिये बना बनाकर हीले।
कौन सभी रँग मँगवा लेगा लाल गुलाबी पीले।।
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होली जलती देख हृदय में होली ही सी जलती।
होते पंख आज अपने कान्हा के ढिंग उड़ चलती।।
नहीं किसी से केवल उसही से कहती निज बाधा।
उसही से पूछती कि किससे होली खेले राधा।।
आज कहे बिन ही तेरे जो मेरे कुँअर कन्हैया।
तरह तरह के रँग जोड़े बैठी है तेरी मैया।।
रोते रोते दिन बीता है निशि भी जाती बीती।
आशा कोरी आशा निकली हुई नहीं मनचीती।।
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मानों दुखिया दीन यशोदा की विनती सुून कातर।
उनकी मनचाही देने को नींद आ गई क्षण भर।।
देखा सपने में वे ब्रजधन अपनी पिचकी ताने।
राधा का पीछा करते आते हैं उर उमगाने।।
राधा चिल्लाती आती है देखो देखो मैया।
किया मुझे सरबोर छोड़ते तो भी नहीं कन्हैया।।
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ऐसा कहते छिपी यशोदा के वह जाकर पीछे।
और नन्दनन्दन ने हँसकर तक कर तनिक तिरीछै।।
सीधा लक्ष तानकर तज ही दी अपनी पिचकारी।
और यशोदा बोली हैं ! मैं हूँ तेरी महतारी।।
ऐसा कहकर चौंक उठी वह छुटी नींद की छाया।
अपने ही दृगजल से उर का अंचल भीगा पाया।।
ओज
औज गुण से चित्त में स्फूर्ति और मन में तेज का अनुभव होता है। ओजगुण पूर्ण काव्य का आस्वाद मन में आवेग उत्पन्न करता है। इस गुण की स्थिति वीर, वीभत्स और रौद्र रसों में क्रमशः अधिकाधिक होती है। ओजगुण की व्यंजना के लिये द्वित्वयुक्त, संयुक्त और परुष वर्णांे तथा समस्त पदों का प्रयोग किया जाता है। ’’मधु’’ ने राष्ट्रीय भावना सम्बन्धी गीतों में, बुन्देलखण्डदर्शन, और विंध्यवावनी के अनेक छन्दों में तथा अन्य रचनाओं में ओजगुण का विधान किया है-
सूचती पुष्पित पादपराशि
यहाँं फिर मोद के मेले मढं़ेगे।
उच्च शिलागम खंड बता रहे
शीघ्र यहांँ विजै स्तम्भ गढ़ेेगे।।
सिंह दहाडं़े सुना कहते
यहांँ वैभव पूर्व सकेल बढ़ेगे।
विंध्य पहाड़ में से नरसिंह से
वीर वृसिंह बुंदेल कढ़ेगे।।
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प्रसाद
जिस काव्य के आस्वाद से चित्त में व्याप्ति का भाव उत्पन्न हो और जिससे रचना का बोध शीघ्र हो जाये उसमें प्रसाद गुण की स्थिति मानी जाती है। इसका निवेश सभी रसों में हो सकता है। कवि के काव्य में माधुर्यगुण के बाद प्रसाद गुण की ही प्रधानता है। अनुभूति की स्पष्टता और अभिव्यक्ति की सहजता से कवि का काव्य प्रसाद गुण से अनुप्राणित है-
आकाश में तारों की कतारें पुकारतीं।
खूनी किले की लाल दीवारें पुकारती।।
बलिदानियों के रक्त की धारें पुकारती।
मंदिर के साथ साथ मीनारें पुकारतीं।।
जो अब तलक नाशाद था वो शाद हो गया।
चालिस करोड़ का वतन आजाद हो गया।।
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साकिया सावन की घटा होकर
के जग प्यास बुझाता चला जा।
सूखे मरुस्थल मानसों को भी
हरे तृण दे हरषाता चला जा।।
शीशओ जाम का काम न हो
तू अटूट ही धार बहाता चला जा।
जीवन पाकर सार यही है कि
पीता चला जा पिलाता चला जा।।
भाषा की भावानुकूलता
अपनी विशिष्ट शैली, भंगिमा और प्रयुक्तियों के द्वारा किसी कवि की भाषा का एक परिचित समग्र रूप बन जाता है, परन्तु इस सामान्यता के साथ ही भाव-व्यंजना के अनुसार उसकी भाषा की कुछ विशिष्ट मुद्राएँ भी प्रकट होती हैं। ’’मधु’’ की भाषा की भी भावानुकूल छवियाँ हैं। ’’शकुन्तला’’ खण्डकाव्य का विषय राजपुरूष दुष्यंत और सुसंस्कृत आश्रम-कन्या शकुन्तला से संबंधित है। इसलिये इस काव्य की भाषा स्वच्छ तत्समता प्रधान और परिनिष्ठित है-
लहरा रहीं थी लतिकाएँ खेलते थे नीचे
शावक मृगों के जिन्हें भय न अकाज का।
यही रूह होड़़ महिराजों से लगा रहे थे
गौरव संँभाले हुए कुसुमों के ताज का।।
कल कल नाद एक ओर देवधुनि का था
एक ओर कूजन था विहग समाज का
गोद में अरण्य की विनोद मोदकारी शुचि
शोभमान आश्रम था कण्व ऋषिराज का।।
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’’पतंग और दीपक’’ ’’चन्द्रचकोर’’, ’’मुरली माधुरी’’, ’’होलीमाला’’, ’’गोपियाँ उद्धव से और ’’हाला’’ आदि रचनाओं में वर्ण्य विषय के अनुकूल भाषा का रूप भी कोमल और मधुर है। इनमें से अनेक रचनाओं में अलंकरण के किसी उपकरण का प्रयोग नहीं हुआ है। माधुर्य और प्रसाद गुणयुक्त भाषा में भावपूर्ण प्रभाव के साथ व्यक्त हुआ है-
धरणी के अकाश के अंतर का
कभी स्वप्न में भूल ख्याल नहीं है।
अपने उस प्रेमी की वंकता का
औ कलंकता का भी मलाल नहीं है।।
यदि छोड़ चकोर कोदें फिर विश्व
में प्रेम की कोई मिसाल नहीं है।
नजदीक का दूर का रंग का रूप का
प्रेम में कोई सवाल नहीं है।।
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डूब गया रवि साँझ हुई
निशा बोल उठी गगनस्थल घेरे।
बीते हुए दिन ही के समान तो
है मुझे भी चले जाना सवेरे।।
देख के ये भव भंगुरता मन में
कहने लगा कोई यों मेरे।
हैं दिनरात के साथ ही जा रहे
जीवन के दिनरात भी मेरे।।
कवि की भाषा में पात्रानुकूलता, वार्तालाप और मनोभावानुकूलता के भी गुण हैं-
तुम कौन आये धमकाते धौंस सी जमाते
गाते रमा जानकी सी सुयश कहानियाँं।
किसको यहाँं पै भयभीति दे डराते तुम।
ऐसे शूरवीरों की सुनी हैं बहु वानियाँं।।
सीता के ही पुनरग्रहण का ये परिणाम
सामने है क्यों न फिर कहूँ में अलानियाँं।
नारियाँं वहाँं की उसी पंथ पै चलेंगी क्यों न
जिस पंथ पै वहां की चलैं राजरानियाँं।।
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’’उत्तररामचरित’’ काव्य में रजक अपनी पत्नी पर अन्यत्र रमण का आरोप लगाता हुआ उसे निष्कासित कर रहा है। वह राम और सीता पर कलंक लगाता है। तभी किया हुआ चर प्रकट होकर रोष में उसे मार डालने की धमकी देता है। रजक जैसे सामान्य पात्र के अनुकूल भाषा में ’धमकाना’’ धौंस जमाना जैसी लोक प्रचलित प्रयुक्तियाँं आयी हैं। भाषा में संलापोचित सम्बोधनीयता और प्रत्यक्षता है। इसी के साथ रजक की मनस्थिति भी व्यक्त हुई है। वह सशस्त्र चर के क्रोधावेश से किंचित भयभीत होता है। इसी भय के कारण उसके शब्दों में आरोप उतना विषाक्त नहीं रह गया है। जितना पहले के छन्दों में व्यक्त हुआ है। फिर भी वह स्वयं को भयभीत न प्रकट करके अपने मत की दृढ़ता दिखाना चाहता है।
जहाँ संलाप में शिष्टता और आभिजात्य है वहाँ भाषा भी उसी प्रकार परिवर्तित हो जाती है-
अतिथि पधारौ दीन हीन वन्य जीव हम
नागरों के स्वागत की जानते नहीं कला।
देवें उपहार में क्या हम वनवासियों के
पास बस सम्पति है तरू पंक्ति सफला।
पूछा परिचय आपने है जो हमारा ’’मधु’’
इससे अधिक सो बताऊँ और क्या भला।
सींचना इसी अराम का है काम मेरा कण्व
धाम धाम मेरा नाम मेरा है शकुन्तला।।
सामयिक विषयों पर हलके हास्य-व्यंग्य की अभिव्यक्ति में भाषा भी गम्भीर हो गयी है। उसमें उर्दू और अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग भी विषयानुकूल है-
चिकने बनाने हेतु जर्द रूखसारों पर
पाउडरवैसलीं की पालिशिज़ कीये की।
हड्डियांँ गठीलीं हाय हाय जब ढीली पड़ी
पेटी टाई बाँध के कड़ाई उन्हें दीये की।।
ऊपर की फूटीं जो तो चश्मा चढ़ाया झट
पर उन्हें क्या करैं जो फूट गई हीये कीं।।
कहकह लड़के भी टान्ट करते हैं ’’मधु’’
लीडर में बाबूजी छपी हैं वान्ट्स बी0ए0कीं।।
भगे मुवक्किल तो लगे खुद ही भरने जेल।
फेल प्लीडरी जो हुई रचे लीडरी खेल।।
लेकिन जहाँ व्यंग्य मार्मिक और गम्भीर है वहाँं भाषा भी तीखी और चोट करने वाली है-
विजया मनाई थी तुम्हारे राम राघव ने
आज कीर्ति ध्वजा फहराती सिंधु पार है।
विजया मनाई थी तुम्हारी मातु विजया ने
गेह गेह आज शक्ति पूजा का प्रचार है।।
विजया मनाई थी शिवा ने छत्रसाल ने भी
शत्रुओं को आज तक याद खड्ग धार है।।
दास हो के श्वासवत् जीवन बिता रहे हो
विजया मनाने का तुम्हें क्या अधिकार है।।
आर्थिक विषमता से उत्पन्न गरीबों की पीड़ा पर गहरी संवेदनाा और पूंँजीपतियों के प्रति आक्रोश का भाव प्रश्नाकुल भाषा में व्यक्त हुआ है। प्रश्नों की सतत आवृत्ति से भाषा में ओजपूर्णता और प्रहार क्षमता आयी है-
जिन्दगी दुखों में बीती है,
हरदम हाथों से रीती है,
क्या कहें किस तरह जीती है,
गम़ खाती आँसू पीती है,
क्या तुमने देखी वह ऐसी
महरूम गरीबों की दुनिया?
मजलूम गरीबों की दुनिया?
महकूम गरीबों की दुनिया?
मासूम गरीबों की दुनिया ?
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इसस प्रकार ’’मधु’’ की भाषा भाव की विविध ध्वनि-तरंगों को ग्रहण करने और उन्हें पूर्ण प्रभाव के साथ व्यक्त करने में सफल रही है। उनकी भाषा की अभिव्यक्ति-क्षमता व्यापक है।
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सन्दर्भ:-
1- हिन्दी साहित्य का इतिहास-रामचन्द्र शुक्ल, पृष्ठ 630
2- काव्य शास्त्र-डॉ0 भागीरथ मिश्र, पृष्ठ-21
3- साहित्यालोचन-श्यामसुन्दर दास पृष्ठ-232
4- खड़ीबोली काव्य मंें अभिव्यंजना-डॉ0 आशा गुप्ता पृष्ठ 92
5- पल्लव-सुमित्रा नन्दन पंत-भूमिका पृष्ठ 29
6- भारतेन्दु युग और हिन्दी भाषा की विकास परंपरा-रामविलास शर्मा पृष्ठ-151
7- हिन्दी साहित्य का बृहद इतिहास-(षष्ठ भाग) सं.डॉ. नगेन्द्र पृष्ठ 273
8- द्विवेदी युग का हिन्दी काव्य-डॉ0 रामसकल राय शर्मा पृष्ठ 183
9- काव्य मीमांसा-राजशेखर, पंचम अध्याय-पृष्ठ 41
10- नहि चमत्कार विरहितस्य कवेः कवित्वं काव्यस्त वा काव्यत्वम्।
क्षेमेन्द्र लघु काव्य संग्रह कवि कंठाभरणम् चमत्कार
कथनं नाम तृतीयः संधिः पृष्ठ-71
11- चिन्तामणि (पहला भाग) कविता क्या है, निबंध-रामचन्द्र शुक्ल पृष्ठ-13
12- ...........वही...........पृष्ठ 137
13- सूरदास-डॉ0 ब्रजेश्वर वर्मा, पृष्ठ 568
14- घनानंद और स्वच्छन्द काव्यधारा-डॉ0 मनोहरलाल गौड़-पृष्ठ 131
15- काव्य प्रकाश-मम्मट-अष्टम उल्लास, सूत्र 66
16- काव्य दर्पण-पं0 रादहिन मिश्र, पृष्ठ 326