नरोत्तमदास पाण्डेय ‘मधु’ की वैचारिकता कृष्ण विहारी लाल पांडेय द्वारा पुस्तक समीक्षाएं में हिंदी पीडीएफ

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नरोत्तमदास पाण्डेय ‘मधु’ की वैचारिकता

नरोत्तमदास पाण्डेय ‘मधु’ की वैचारिकता

काव्य में भाव-तत्त्व के साथ ही विचार-तत्त्व का भी काव्य में बहुत महत्त्व है। जीवन में अनेक स्थितियों का प्रभाव केवल हार्दिक उद्धेलन के रूप में ही नहीं पड़ता है, बल्कि हम उनकी तीव्रता से प्रभावित होकर कुछ सोचने के लिये भी विवश हो जाते हैं। हमारी मानसिकता इस प्रकार उद्बुद्ध हो जाती है कि हम उन प्रश्नों का मनन और विमर्श करने लगते हैं। यह विचार-दर्शन भी काव्य का विधायक तत्व है। विचार व्यक्ति को मानसिक रूप से उद्धेलित करके उस पर स्थायी प्रभाव डालते हैं। विचार-दर्शन से अनुप्राणित काव्य में गहराई और स्थायित्व के गुण आते हैं। इस दृष्टि से किसी कवि के मूल्यांकन में उसकी विचार-सम्पदा का विवेचन भी आवश्यक है।

राजनीतिक विचार-धारा-

‘मधु’ के संक्षिप्त जीवन-काल का अधिकांश स्वतंत्रता-प्राप्ति के पूर्व बीता था। उस समय भारत के राजनीतिक क्षितिज पर शीघ्रता से दृश्य-परिवर्तन हो रहा था। सम्पूर्ण देश में नवीन राष्ट्रीय चेतना और स्वाधीनता प्राप्ति के लिये अदभ्य उत्साह हिलोरें ले रहा था। भारत की कोटि-कोटि जनता के आदर्श तथा नेता के रूप में गांधी जी अंग्रेजों के विरुद्ध ऐसा उद्घोष कर रहे थे जो करोड़ों कण्ठों से प्रतिध्वनित हो रहा था। सर्वत्र उथल-पुथल और आवेगपूर्ण सक्रियता व्यक्त थी।

कवि अपने युग की परिस्थितियों का दर्शक मात्र नहीं होता है, बल्कि सामान्य व्यक्ति की अपेक्षा अधिक संवेदनशील होने के कारण वह युगीन चेतना को आत्मसात करके उसे ऐसा स्वर देता है जो साक्ष्य भरने के अतिरिक्त प्रेरक भी होता है। ‘दिनकर’ के शब्दों में कवि मानवता का वह चेतन यंत्र है जिस पर प्रत्येक भावना अपनी तरंग उत्पन्न करती है, जैसे भूकंप-मापक-यंत्र में पृथ्वी के अंग में कहीं भी उठने वाली सिहरन आपसे आप अंकित हो जाती है।1 ‘मधु’ अपने युग के राजनीतिक घटनाक्रम के प्रति पूर्ण मन से सचेत थे। उनके काव्य में वर्णित राष्ट्रीय भावना तथा प्रमुख घटनाओं और राजनेताओं के उल्लेख से युग के साथ उनकी मानसिक संपृक्ति का परिचय तो मिलता ही है, इस विषय में उनकी धारणा भी विवृत होती है।

राष्ट्रीयता

राष्ट्र किसी जड़ भूखण्ड का नाम नहीं है। एक भूखण्ड पर निवास करने वाले समान सांस्कृतिक आस्थाओं वाले मनुष्यों के समुच्चय को राष्ट्र की संज्ञा दी जाती है। इस निजता के प्रति भावनात्मक राग को राष्ट्रीयता कहा जाता है। राष्ट्रीयता राष्ट्र के भौतिक स्वरूप के प्रति वस्तुपरक दृष्टिकोण नहीं है, न वह राजनीतिक वाद है, अपितु वह राष्ट्र के सभी निवासियों की संश्लिष्ट मानसिकता है। जिमर्न का मत है कि ‘राष्ट्रीयता मेरे लिये राजनीतिक प्रश्न बिलकुल नहीं है। वह प्राथमिक और अनिवार्य रूप से आध्यात्मिक प्रश्न है। धर्म की तरह राष्ट्रीयता आत्मपरक है, मनोवैज्ञानिक स्थिति है, मनोदशा है, आध्यात्मिक निधि है, अनुभव, विचार और रहन-सहन की पद्धति है।2 राष्ट्रीयता कोरा भाववाद भी नहीं है। अमूर्त धारणा नहीं है। उसमें रहने वाले मनुष्यों के प्रति प्रेम, चिन्ता और भौतिक विकास के बिना राष्ट्रवाद व्यर्थ है।

ऊपरी भेदों और साधारण प्रश्नों पर मत-वैभिन्य से राष्ट्र की एकान्विति पर संकट नहीं आता है, क्योंकि इन भेदों और मतान्तरों के भीतर मौलिक साम्य निहित होता है। गिलक्रिस्ट के शब्दों में ‘राष्ट्रीयता आध्यात्मिक भावना अथवा धारणा है, जो ऐसे लोगों के समुदाय में जाग्रत होती है, जो साधारणतः एक ही जाति के होते हैं, एक ही भू-भाग पर निवास करते हैं, जो समान भाषा, समान धर्म, समान इतिहास और परम्पराओं, समान उद्देश्यों और समान राजनीतिक संस्थाओं तथा राजनीतिक एकता के आदर्शों में भागीदार होते हैं।3 लेकिन भारत जैसे बहुजातीय बहुपंथीय, बहुभाषी समाज में राष्ट्र की परिभाषा अधिक व्यापक होनी चाहिए।

देशार्चन-

मातृभूमि के प्रति कवि के मन में गहरा अनुराग है। उसने देश के स्वरूप का चित्रण साकार और सप्राण रूप में किया है। भारत का मानसिक राष्ट्र-देवता का शरीर धारण कर लेता है-

उत्तर में इसके मस्तक पर,

हिमगिरि देता हिम का चन्दन।

दक्षिण में हिन्द महासागर,

करता है इसका पदमार्जन।।

पूजता भुजा दाँई इसकी,

कश्मीर लिये केसर कंचन।

इसकी बाँई भुज छाया में,

रहता है ब्रह्म देश पावन।।4

मातृभूमि को नमन करते समय कवि के मन में वही पूज्य भाव है जो पुत्र का अपनी जननी के प्रति होता है। जिसने अपने अन्न, जल और वायु से हमें पोषित किया उस मातृभूमि का उपकार अविस्मरणीय है-

जल अन्न तेरा पाके पले हैं भली प्रकार।

नीरोग वायु, मेरी हुई जीवन आधार।।

कैसे भुलाये जायँ भला तेरे उपकार।

हे मातृभूमि ममतामयि तुझे नमस्कार।।5

पराधीनता की अवस्था में कवि ने मातृभूमि को सिंहवाहिनी दुर्गा के रूप में चित्रित करके उसके प्रति भक्ति भी व्यक्त की है और जन-मन में शक्ति की प्रेरणा भरने की चेष्टा भी की है। ‘दुर्गा समान दिव्य देशभूमि हमारी’ और ‘कर दे कृपा स्वतंत्रता का वर दे दुर्गे’ जैसी अर्चनाओं और याचनाओं में कवि का देशानुराग लक्षित होता है। डॉ. केसरी नारायण शुक्ल का कथन है कि ‘मातृभूमि के सौन्दर्य ने सभी देश और काल के कवियों को प्रेरणा प्रदान की है। भारत देश का भी अपना सौन्दर्य है। तरंगाकुल समुद्र, प्रफुल्ल वनराजि विंध्याचल, धवल किरीट हिमालय और सदानीरा सरिताओं ने प्राचीनकाल से कवियों को मोहित कर रखा है और आज भी उनका ऐसा ही प्रभाव है।6

कवि की देशभक्ति उसकी जन्मभूमि बुन्देलखण्ड के गौरवगान में भी प्रकट हुई है। बुन्देलखण्ड उच्च पर्वत-श्रृंखलाओं, सघन कान्तारों, गहन उपत्यकाओं और गंभीर सरिताओं के नैसर्गिक सौन्दर्य से मण्डित अंचल है। यहाँ आल्हा-ऊदल, वीरसिंह देव, चंपतराय, छत्रसाल, झाँसी की रानी और मर्दन सिंह जैसे असि घर्मा वीर, तुलसी, केशव, बिहारी, पद्माकर, पजनेस जैसे श्रेष्ठ कवि तथा हरदौल जैसे विषयपायी त्यागवीर हुए हैं। धार्मिक और सामाजिक संस्कारों वाली अपनी इस जन्म भूमि का स्मरण करके कवि-मन का गर्वस्फीत हो जाना स्वाभाविक है। ‘मधु’ ने बुन्देलखण्ड का जो यशगान किया है वह जन्मभूमि की स्तुति के साथ ही एक इकाई के रूप में व्यापक देश की प्रशस्ति है। कवि बुन्देलखण्ड की दिव्यता का वर्णन करता है-

काव्यकला कवि चातुरी में,

नवज्ञान उजाली जहाँ पर खेली।

श्यामला शस्य में सर्वदा संपदा,

वैभवशाली जहाँ पर खेली।।

वंदिये वीर बुन्देल धरा नहिं,

कौन बहाली जहाँ पर खेली।

वानी में वानी वसुन्धरा में श्री,

कृपाण में काली जहाँ पर खेली।।7

जन्मभूमि के प्रति कवि का अनुराग ‘बुन्देलखण्ड दर्शन’, ‘बेतवा बावनी’, ‘विंध्यबावनी’, अनेक गीतों और स्फुट छन्दों में व्यक्त हुआ है। ‘बुन्देलखण्ड परिचय’ गीत में कवि ने बुन्देलखण्ड के शौर्य, उसकी प्राकृतिक सुरम्यता, उसके प्रसिद्ध भवनों और तीर्थों, वहाँ के न्यायप्रिय और प्रणवीर नरेशों तथा वहाँ के संस्कारों का सविस्तर उल्लेख किया है। यमुना इसके केश सँवारती है, रेवा पाँव पखारती है, तमसा और चम्बल नदियाँ इसके भुजबन्द हैं और बेतवा की धारा इसके हृदय पर हार के समान शोभित है।8 ऐसी बुन्देलखण्ड की भूमि कवि को स्वर्ग से भी श्रेष्ठ प्रतीत होती है-

बन्दगी तुझे रुतवा आली बुन्देलखण्ड।

तू तो बहिश्त से भी वाली बुन्देलखण्ड।।

इसी भूमि में जन्म लेने और मरने की कामना में कवि का भाव-विह्वल हृदय स्पन्दित होता है-

मैं जनमँू मरूँ भूमि बुन्देल में।

देव मुझे वरदान ये देना।।

अतीत-गौरव-

किसी देश का गौरवोज्जवल अतीत उसके लिये प्रेरणा का अजस्र उत्स होता है। जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में निर्मित अतीत के आदर्श परवर्ती काल में प्रेरक सन्दर्भ बन जाते हैं। जातीय या राष्ट्रीय पराभव के समय यह अतीतपरकता अधिक मुखर हो जाती है, क्योंकि एक तो वह अपेन उत्कर्ष की तुलना में वर्तमान के अपकर्ष की ग्लानियुक्त प्रतीति कराती है, दूसरे इस अपकर्ष से मुक्ति के लिये वह शक्ति देती है। मैथिलीशरण गुप्त ने लिखा है-‘‘यदि किसी जाति का अतीत गौरवपूर्ण हो और वह उस पर अभिमान कर सके तो उसका भविष्य भी गौरवपूर्ण हो सकता है।’ आत्म विस्मृति ही अवनति का मुख्य कारण है और आत्म स्मृति ही उन्नति का।9

यह भी सच है कि अतीतोन्मुखता की निष्क्रिय प्रवृत्ति प्रगति का मार्ग अवरुद्ध कर सकती है, किन्तु अस्तित्व के संकट के क्षणों में अतीत की प्रेरणा जिजीविषा को उत्कटता और संघर्ष-क्षमता को तीव्रता प्रदान करती है।

‘मधु’ ने स्वर्णिम अतीत की भव्यता का श्रद्धापूर्वक स्मरण किया है। भारत-भूमि वीरभूमि के रूप में विख्यात रही है। यह देश पुण्य स्थान रहा है, धर्मस्थान रहा है, आर्यस्थान रहा है तथा राम और कृष्ण का क्रीड़ा स्थान रहा है। अत्याचारियों का विनाश करने के लिये यहाँ समय-समय पर वीर पुरुष पैदा होते रहे हैं-

जब सिंधु पार के रावण ने,

इसमें उत्पात मचाया था।

तब हम ही ने बन राम,

दुष्ट का नामोनिशाँ मिटाया था।।

जब कुटिल कुचालों का कंसों,

ने इस पर जाल बिछाया था।

तब हमीं बने भगवान कृष्ण,

हाथों में चक्र उठाया था।।

विदेशी शासन से मुक्ति के संग्राम में जूझते राष्ट्र के लिये वीरता के ऐसे प्राचीन सन्दर्भों की सार्थकता और आवश्यकता थी।

वर्तमान पर क्षोभ और आक्रोश

अतीत-गौरव के स्मरण की संगति वर्तमान दीनावस्था के परिप्रेक्ष्य में ही है। वर्तमान दुरवस्था के बार-बार स्मरण में यह तथ्य है कि ऐसा करने से हम उसे नियति के रूप में स्वीकार कर लेने की स्थिति तक निष्क्रिय नहीं हो पाते तथा उससे मुक्ति के लिये प्रयत्नशील रहते हैं। वर्तमान हीनता से हमें अपमान का बोध होता है। यह अपमान गौरवोज्जवल अतीत के आलोक में अधिक स्पष्ट दिखाई देता है। डॉ. सुधीन्द्र के शब्दों में ‘अतीत के गौरवज्ञान’ का ही पूरक वर्तमान के प्रति क्षोभ का चित्रण है।10

कवि को वर्तमान भारतीय जीवन की सांस्कृतिक, सामाजिक, नैतिक, आर्थिक और राजनीतिक अधोगति पर गहरा क्षोभ है। परतंत्रता किसी भी सम्मानप्रिय राष्ट्र के लिये क्षोभजनक स्थिति है, भारत के लिये तो और भी अधिक। जो भारतीय जन्म से ही आजाद रहने का प्रण ठानते थे, जो देश के लिये आत्मोत्सर्ग करने में आनन्द का अनुभव करते थे, जो दासता को मृत्यु से भी बुरा मानते थे, वही आज अपनी स्वतंत्रता के धन को इसलिये बेच रहे हैं जिससे कुछ रोटियों का गुजारा हो सके।11

वर्तमान दुर्बलता पर कवि का हृदय क्षुब्ध है-

अब कहाँ मुण्डमाली उस असि में धारा।

देते थे मुण्डमाला तुम्हें जिसके द्वारा।।

सब तरह दीन हीन हुआ देश हमारा।

किस भाँति करें स्वागत गिरिजेश तुम्हारा।।

विजयादशमी के पर्व पर कवि के हृदय की ग्लानि प्रकट होती है। यह वही तिथि है जब राम ने दानवता पर विजय प्राप्त की थी। ‘विजयादशमी’ कविता में कवि कहता है-

विजये, तुम्हारी तिथि ‘अथ’ जिसका है उस,

भारतीय गौरव की आज ‘इति’ देख लो।

आर्थिक विपन्नावस्था भी कवि की चिन्ता का विषय है। सभी सिद्धियाँ अंग्रेजों की कूटनीति से सिंधु पार विदेश चली गई हैं। ‘भारत में आठ याम होते घर पर होरी? सैर में अंग्रेजी शासन की शोषण नीति से पीड़ित किसानों की करुण दशा का चित्रण है।’

नैतिक और सामाजिक अवमूल्यन भी कवि के विषाद का विषय है। समाज के दुष्कर्मों पर आत्मग्लानि के कारण कवि स्वयं को भगवान शंकर का अभिनन्दन करने के योग्य नहीं समझता। एक ओर शिव कामारि हैं, दूसरी ओर हमारे मन में वासना का काला कीट पला हुआ है। जातिभेद और छुआछूत की भावना ने हमारी सामाजिक एकता को विश्रृंखल कर दिया है। हमने अपने असंख्य बन्धुओं को अछूत मानकर अलग कर दिया है-

हाय कितने बन्धुओं को,

गैर सा कर लिया हमने।

भूतनाथ, धुओं न हमको,

छूत प्याला पिया हमने।।

वर्तमान अधोगति पर कवि का क्षोभ कभी-कभी आक्रोश में बदल जाता है। यह आक्रोश कभी तो समाज की दर्बलता के प्रति है और कभी अत्याचारी व्यवस्था और सत्ता के प्रति है। ‘विजयादशमी’ कविता में कवि के स्वर में समाज के प्रति धिक्कार की भावना है-

दास होके श्वानवत् जीवन बिता रहे हो,

विजया मनाने का तुम्हें क्या अधिकार है।12

कवि शोषक सत्ता को चेतावनी देता है-

दुश्मन के दिल के दाग किसानों के आँसू।

हैं व्याधियों के बाग किसानों के आँसू।।

कटु कालकूट झाग किसानों के आँसू।

पानी नहीं है आग किसानों के आँसू।।13

स्वातंत्र्य-प्रेम

देश की स्वतंत्रता राष्ट्रीयता की भावना में सबसे अधिक काम्य स्थिति है। पराधीन देश में राजनीतिक दासता के साथ उसका सांस्कृतिक अवमूल्यन तथा आर्थिक शोषण भी होता है। इसलिये पूरा समाज संगठित होकर सबसे पहले विदेशी शासन से राजनीतिक मुक्ति के प्रयत्न में जुट जाता है।

‘मधु’ के काव्य में देश की स्वतंत्रता के प्रति सच्ची संलग्नता का भाव है। यह संलग्नता कभी पराधीनता के कारण उत्पन्न आत्मग्लानि और धिक्कार के रूप में व्यक्त हुई है कभी स्वातंत्र्य-वीरों की स्तुतियों के माध्यम से प्रोत्साहन और उद्बोधन के रूप में प्रकट हुई है। कवि ने भारत के स्वाधीनता-आन्दोलन के ज्वार का घनीभूत रूप देखा था।

परतंत्र जीवन भार के समान है। उससे अच्छी तो मृत्यु है। कवि स्वतंत्रता का आह्वान करता है जिससे शताब्दियों से परतंत्रता की नींद में सोया देश जाग उठे। पराधीनता की अवस्था में कोई भी राज रंग मन को आह्लादित नहीं करता। इसीलिये कवि ने विजयादशमी, रामनवमी, होली आदि पर्वों पर लिखते समय सच्चे उल्लास के लिये स्वतंत्रता की कामना की है। इसी चिर प्रतीक्षित स्वतंत्रता की प्राप्ति पर कवि हर्ष विभोर होकर उसका स्वागत करता है।

राष्ट्र की अखण्डता

कवि की राष्ट्रीयता में राष्ट्र का अखण्ड स्वरूप है। उसे इस अखण्डता के ऊपर किसी प्रकार का आघात सहन नहीं है। देश-विभाजन और पाकिस्तान-निर्माण की घटना से कवि को मार्मिक आघात पहुँचा है। जिस स्वतंत्रता के लिये देश ने इतना संघर्ष किया, सैकड़ों लोगों ने आत्मबलिदान कर दिया, जो स्वतंत्रता इतनी लम्बी और आतुर प्रतीक्षा के बाद प्राप्त हुई उस पर होने वाला हर्ष देश-विभाजन के कारण धूमिल पड़ गया। ‘पन्द्रह अगस्त 1947’ शीर्षक गीत में कवि के मन का अन्तर्द्धन्द्ध, विद्रोह और विषाद प्रकट हुआ है-

पन्द्रह अगस्त सेंतालिस पर,

क्या लिखूँ समस्या बड़ी गहन।

जग जन कहते आनन्द मना,

मम मन कहता विद्रोही बन।।14

कवि ओजस्वी स्वर में प्रश्न करता है कि क्या बहादुरशाह जफर, पेशवा, तात्या टोपे और झाँसी की रानी ने इसीलिये आत्मोसर्ग किया था कि उनके बाद की पीढ़ियाँ अपने ही हाथों से अपनी माता को फाँसी दे दें। जैसे स्वतंत्रता के वीर सैनिकों का बलिदान व्यर्थ चला गया। राष्ट्र की अखण्डता के टुकड़े-टुकड़े हो जाने से कवि के मन की गहरी व्यथा इन शब्दों में व्यक्त हुई है-

दिल में जब होली जलती है,

मैं दीप जलाऊँ फिर कैसे।

भीतर हो गर्द गुबार रंग,

रोली बरसाऊँ फिर कैसे।।

रो रो उठता है कण्ठ तुम्हीं,

कह दो मैं गाऊँ फिर कैसे।

मातम करने को मन कहता,

मैं ईद मनाऊँ फिर कैसे।।

विभाजन के अवसर पर कवि उन वीरों का स्मरण करता है जो विदेशी शासकों से जूझते रहे-

जिन्ना जवाहर में मिलके ‘मधु’,

देश यहाँ पै बटा जा रहा था।

छत्ता प्रताप गुविन्द शिवा का,

कलेजा वहाँ पै फटा जा रहा था।।

अकबर ने हिन्दुओं और मुसलमानों में भावात्मक सामरस्य स्थापित करने का प्रयास किया। अशोक ने अहिंसा को अपनाया। कवि देश विभाजन में एक ओर अकबर के सत्प्रयत्नों का दुःखद अन्त देखता है, दूसरी ओर अशोक की अहिंसा पर कायरता का कलंक लगा हुआ पाता है। देश विभाजन को देखकर अशोक और अकबर दोनों की आत्माओं को दुःख होता है-

नीचे अकक्वर कब्र में रो पड़ा,

ऊँचे अशोक ने शोक मनाया।

देश विभाजन के कारण राष्ट्र के क्षत-विक्षत हो जाने से तो कवि का मन विषण्ण है ही, साथ ही बँटवारे के समय साम्प्रदायिक दंगों में जो कत्ल, लूटपाट, बलात्कार आदि की अमानवीयता घटनाएँ हुईं उनसे भी कवि के संवेदनशील मन पर गहरा आघात पहुँचा है। खून में डूबी नोआखाली का कण-कण आजादी पर प्रश्न चिह्न लगाता है। स्वतंत्रता-प्राप्ति पर हँसना कवि को पागलपन प्रतीत होता है क्योंकि पंजाब और बंगाल में असंख्य माँ-बहिनें अपना सब कुछ खोकर रो रही हैं। ऐसी आजादी का क्या मूल्य है-

खतरे में जहाँ साफ दिखती,

लाखों माँ बहिनों की अस्मत।

उस आजादी की क्या कीमत,

उस स्वतंत्रता की क्या कीमत।।

वीर-पूजा

महापुरुषों और वीरों के प्रति श्रद्धा व्यक्त करना समाज का कर्तव्य है। इससे हमारे शील का प्रमाण मिलता है। शुक्ल जी के शब्दों में ‘यदि किसी को दूसरों के कल्याण के लिये भारी स्वार्थ त्याग करते देख हमारे मुँह से ‘धन्य‘-धन्य’ भी न निकला तो हम समाज के किसी काम के न ठहरे, समाज को हमसे कोई आशा नहीं, हम समाज में रहने योग्य नहीं।16

‘मधु’ के काव्य में आदर्श महापुरुषों और स्वातंत्र्य-वीरों की अनेक प्रशस्तियाँ हैं। अतीतकालीन महापुरुषों में कवि राम, कृष्ण, चाणक्य, चन्द्रगुप्त और अशोक को नमन करता है। मध्ययुगीन वीरों में उसने राणा प्रताप, सांगा, छत्रसाल, शिवाजी, गुरू गोविन्दसिंह आदि के त्याग की प्रशंसा की है और स्वाधीनता आन्दोलन के वीरों में उसने बहादुरशाह जफर, तात्या टोपे, पेशवा, झाँसी की रानी, महात्मा गाँधी, लाला लाजपत रा, मदन मोहन मालवीय, सरदार पटैल, जवाहरलाल नेहरू, सुभाषचन्द्र बोस, भगतसिंह, चन्द्रशेखर आजाद के प्रति पूज्यभाव व्यक्त किया है। क्रान्तिधर्मा और अहिंसाव्रती दोनों ही प्रकार के वीर कवि की श्रद्धा के पात्र हैं। अतीत के वीरों का स्मरण करते हुए कवि कहता है-

हम इसकी रक्षा हेतु बने थे,

चन्द्रगुप्त महाराज कभी।

फिर सत्रह सत्रह बार लड़े,

बन करके पृथ्वीराज कभी।।

हम ही ने बन राणा प्रताप,

थे सजे अमर के साज कभी।

की हमने ही इसकी रक्षा,

बन छत्रसाल शिवराज कभ।।

कवि झाँसी की समरभूमि की याद नहीं भूल पाता क्योंकि यहीं वीरांगना लक्ष्मीबाई ने अपना बलिदान दिया था। सरदार भगतसिंह मातृभूमि के लिये प्रसन्नतापूर्वक झाँसी पर चढ़ गये-

टेढ़ी हुई निगाहें भौहों में बल पड़े।

चश्मों से लाल खून के चश्मे उछल पड़े।।

लरजी जमीन आसमाँ दुश्मन दहल पड़े।

सरदार जी सर दार पै देने मचल पड़े।।17

सुभाष के साहस, संगठन-कौशल और वीरत्व भरे व्यक्तित्व की अलौकिकता से कवि अभिभूत है। सुभाष की बालक-सेना का बलिदान वीरता के इतिहास में अमर है-

जिन होठों से तुतले तुतले,

वचन न अब तक छूटे थे।

कच्चे दाँत दूध वाले भी,

जिनके अभी न टूटे थे।।

जिनकी कुरबानी से बढ़कर,

नहीं दूसरी कुरबानी।

अजर-मर वह वीर बोस की,

बालक सेना बलिदानी।।

महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू के प्रति कवि के हृदय में अमित श्रद्धा है। गांधी ने भारतीय स्वातंत्र्य-समर में महारथी का कार्य किया-

जगजाहिर जगचेता गांधी महारथी।

हनुमत सा ऊर्ध्वरेता गांधी महारथी।।

हतज्ञान का प्रचेता गांधी महारथी।

भारत समर का नेता गांधी महारथी।।18

‘बरतानियाँ है बिल्ली जवाहर है नाहर’, ‘मुर्दों में डाल रहा आज जान जवाहर’, ‘भारत वसुन्धरा का सिरताज जवाहर’ आदि अनेक प्रशस्तियाँ जवाहर लाल नेहरू के प्रति अर्पित है।

अहिंसा और क्रान्ति

भारतीय स्वाधीनता का आन्दोलन लक्ष्य की ओर शान्ति और क्रान्ति के दो मार्गाें से अग्रसर हो रहा था। गांधी जी के नेतृत्व में अहिंसात्मक आन्दोलन चल रहा था जिसके साधन अहिंसा, सत्याग्रह, स्वदेशी-भावना, विदेशी बहिष्कार और सविनय अवज्ञा थे। भगत सिंह, चन्द्रशेखर आजाद और सुभाषचन्द्र बोस सशस्त्र क्रान्ति के द्वारा विदेशी शासन को आतंकित और निष्कासित करने के विचार से आत्मोत्सर्ग कर रहे थे। साधन-भेद से लक्ष्य दोनों ही का एक था। भारतीय जन-मानस में दोनों प्रकार के आन्दोलनों के प्रति श्रद्धा का भाव था। शान्ति और क्रान्ति के पथों के विषय में राजनीतिक मत-वैमिन्य अवश्य रहा है, परन्तु तत्कालीन कवियों ने दोनों ही मार्गों के वीरों का अभिनन्दन किया है।

‘मधु’ को भी गांधीवाद और क्रान्ति दोनों के प्रति आस्था है। ऊपर से परस्पर विरोधी प्रतीत होने वाले इन साधनों में कवि को उद्देश्य का भावात्मक ऐक्य दिखाई देता है। कवि गांधीजी के अभिनव प्रयोग से अभिभूत है।

कवि ऋतुराज वसन्त का स्वागत नये ढंग से करना चाहता है। लोग केसर में रँगा हुआ खादी का वस्त्र धारण करें। स्वदेश के उपवन में सुख के फूल खिलें। सोये हुए देश को जगाने के लिये सत्याग्रह का शंख बजे। चारों ओर साम्यभाव की वायु बहे। अंग्रेजों का कुराज काट दिया जाये। तभी ऋतुराज का शुभागमन सार्थक हो।19

अहिंसा में कवि की आस्था तो है, पर वह अहिंसा को निष्क्रियता या कायरता नहीं मानता है। ‘मधु’ के समस्त राष्ट्रीय काव्य में पौरुष और ओज का स्वर प्रधान है। उसमेें देशरूपी दीपक पर परवाने की तरह प्राण दे देने की उत्सर्ग-भावना है। इसीलिये वह गांधी जी तथा नेहरू की प्रशस्ति में भी पौरुष, बल और वीरता का ही चित्रण करता है। कवि का अहिंसा और शान्ति का वर्णन भी ओजदीप्त है।

आस्तिकता

‘मधु’ के विचारों में ईश्वर के प्रति असंदिग्ध और अटूट आस्था है। यह भगवन्निष्ठा कवि को पारिवारिक और सामाजिक संस्कारों से मिली। आस्तिकता हिन्दू धर्म के सभी सम्प्रदायों में मूलप्रवृत्ति के रूप में विद्यमान है। परमात्मा के स्वरूप तथा उसकी उपासना-पद्धतियों के विषय में धारणा वैभिन्य होने पर भी उसके अस्तित्व पर कभी अविश्वास नहीं किया गया। परमात्मा के स्वभाव और गुण-निर्धारण में हम कितने ही अक्षम रहे हों किन्तु उसके सत्य पर हिन्दुओं में कभी सन्देह नहीं रहा।20

भारत की सरल धर्मप्राण जनता ने धर्म के दार्शनिक सिद्धान्तों के फेर में न पड़कर प्रायः उसके उपासना और साधना पक्ष को ही अपनाया है। इस दृष्टि से परमात्मा के सगुण रूप का अधिक प्रचार हुआ। शंकर का उद्वैत माया आदि के कारण उतना प्रतीतिकर नहीं हुआ। विशिष्टाद्वैत दर्शन ने भक्ति, प्रेम, कर्तव्य आदि के लिये शंकर की अपेक्षा अधिक जगह निकाल ली, वह भगवद्गीता के भी अधिक अनुकूल है। इसलिए आज भारत की अधिकांश जनता ज्ञात या अज्ञात रूप से रामानुज अनुयायिनी है।21

‘मधु’ की आस्तिकता वैष्णवी संस्कारों के अन्तर्गत आती है। उन्हें पारमार्थिक सत्ता पर विश्वास है। उस पारमार्थिक सत्ता के अनेक रूप हैं। ब्रह्मा, विष्णु, शंकर, गणेश, दुर्गा, लक्ष्मी, सरस्वती आदि सभी रूपों में वह पूज्य है। इन नामों में कोई विरोध नहीं है। वे सभी एक ही नैतिक और आधिभौतिक पूर्णत्व के प्रतीक हैं।22 ‘मधु’ ने शिव, गणेश, राम, कृष्ण, सरस्वती, दुर्गा, सीता, राधा आदि विविध देवों और देवियों की वन्दना की है।

ओरछा में एक ही समय में राम और कृष्ण की भक्ति का प्रकाश छाया हुआ है-

मधुकर साह भूप पुन्य प्रेम पूजा रत,

धारें ब्रजराज जू को वसु याम ध्यान में।

मंजु महारानी रघुनाथ रंग राँची राखें,

बन्द अवधेस कों सदाई अँखियान में।।

एक ही समैं में कृष्णचन्द रामचन्द की जो,

भक्ति को उजास छायौ ओरछा वितान में।

दोय दोय चंदन की देखि के अमंद प्रभा,

मंद होन लागौ एक चंद आसमान में।।23

‘मधु’ ने भगवान को इसी सहज द्रवणशीलता, कृपालुता और भक्तवत्सलता के गुणों से युक्त माना है।

‘मधु’ ने धर्म के लोकस्वीकृत रूप का ही समर्थन किया है। भारतीय जीवन में पुरुषार्थ चतुष्टय में मोक्ष को चरम पुरुषार्थ माना गया है। मोक्ष की प्राप्ति के लिये वैदिक धर्म में कर्ममार्ग, उपनिषदों के अनुसार ज्ञानमार्ग और परवर्ती काल में भक्तिमार्ग को साधन माना गया है। हिन्दू-धर्म में तीनों साधनों की मान्यता और उनका प्रभाव है। ‘मधु’ की विचारधारा में वैदिक युग के आर्यधर्म की भी प्रतिष्ठा है और भगवान के सगुण रूप का मूर्ति-पूजा तथा कर्मकाण्ड के माध्यम से आराधन भी है। इस सनातन धर्म के अनुसरण में बहुदेववाद में आस्था है तथा पौराणिक आख्यानों की स्वीकृति है। भगवान की विभूति का इतना प्रभाव और विस्तार है कि उनके सम्पर्क से स्थान विशेष, पर्वत, नदी, वन, विटप, फूल तथा शूल सभी भक्त को पावन प्रतीत होने लगते हैं।

‘मधु’ ने धर्मानुसरण को निवृत्ति अथवा निष्क्रियता का पर्याय नहीं माना है। वह ऐसी जीवन-दृष्टि है जो कर्म की प्रेरणा देती है। धर्म में आत्यन्तिक श्रद्धा और उसके कर्मकाण्ड पक्ष के पालन के कारण कभी-कभी रूढ़ियों के अन्धानुसरण का भय हो जाता है। अतः रूढ़ियों अथवा निरर्थक औपचारिकताओं के रूप में उनकी गर्हणा होने लगती है। उपासना और साधना पक्ष की कठिनता के कारण प्रायः धर्म के नाम पर कुछ निरर्थक क्रियाओं का पालन होने लगता है। ‘मधु’ ने धर्म के आचरण-पक्ष को महत्त्वपूर्ण माना है तथा रूढ़ियों को निरर्थक बताया है। हम आज धर्म के नाम पर कुछ औपचारिकताओं का ही निर्वाह कर रहे हैं। हम दशहरे के विजय पर्व को कटोरे के पानी में तैरती मछली को देखकर, पेड़ पर नीलकण्ठ को देखकर तथा शमी पत्र तोड़कर मनाते हैं।24 यह विजयपर्व की विडम्बना है।

आर्थिक विषमता

आर्थिक शोषण और उत्पीड़न के विरोध में ‘मधु’ का स्वर आवेशपूर्ण हो गया है। शोषितों और पीड़ितों की सहानुभूति में व्यक्त उनके विचारों में मानसिक आसंग है, कोरा कवि-कर्म नहीं। सामन्ती और पूँजीवादी सभ्यता ने समाज के एक विशाल वर्ग-मजदूर और किसान का शोषण किया है। उन्होंने गरीबों की दुनियाँ को श्मशान बनाकर ही उच्च भवन, अतुलित धन और कांतित कंचन प्राप्त किया है। एक ओर धनवानों का जगमग जीवन है, दूसरी ओर गरीबों की वीरान दुनियाँ है। जर्जर और कंकालवत् शरीर से दिन भर श्रम करने के बाद भी उन्हें पेट भर खाने को नहीं मिलता-

हो गया सूखकर तन जर्जर,

हड्डी हड्डी निकली ऊपर,

तो भी पूरे दिन भर श्रम कर,

पाती जो नहीं पेट भी भर,

क्या देखी तुमने कभी अरे,

यह दीन गरीबों की दुनियाँ।

धनहीन गरीबों की दुनियाँ।

तनछीन गरीबों की दुनियाँ।

गमगीन गरीबों की दुनियाँ।25

एक ओर अन्यायी जमींदारों और साहूकारों ने गाँवों में किसानों का रक्त चूसा है, दूसरी ओर औद्योगिक सभ्यता ने मजबूर और कमबूर मजदूरों की दुनियाँ को जन्म दिया है।

जमींदारों और साहूकारों की दुहरी यातना में पिसते हुए भारतीय किसान होली का रागरंग क्या जानें? उनके पेट में क्षुधा की आग और बाहर शोषकों के अन्याय की आग जलती रहती है। इस तरह सुख और आमोद-प्रमोद के स्थान पर आग में जलते रहना ही उनकी नियति है। उन्हें न पेट भरने के लिए रोटियाँ मिलती हैं न लज्जा ढकने के लिये लंगोटियाँ। ‘मधु’ ने नियति और ईश्वर के न्याय की दुहाई देने वालों से प्रश्न किया है कि उस न्यायकर्ता का यह कैसा न्याय है जिसमें इतनी विषमता है। अपने प्रस्वेद से सींचकर वे जो अन्न उपजाते हैं उसमें से उन्हें केवल कुछ कण ही मिल पाते हैं। यह भगवान की कैसी दया है।

शोषण ने शोषितों के विद्रोह की किसी भी संभावना को समाप्त कर देने के लिए नियतिवाद का आश्रय लिया और उनके धर्मभीरू मन में यह विश्वास जमा दिया कि उनकी दुर्दशा उनके बुरे कर्मों का फल है। उनके भाग्य में यही लिखा है। यह आर्थिक शोषण सामाजिक दृष्टि से अमानवीतया और अनैतिकता को जन्म देता है। अपहृत धन से निर्मित महलों में क्रूरता, अहंकार और छल का वातावरण है। श्रम और त्याग की प्रतीक किसान की कुटी इन महलों से नैतिक दृष्टि से श्रेष्ठ है।

परन्तु दूसरों के श्रम से सम्पत्ति संचय का यह क्रम बहुत समय तक नहीं चल सकेगा। इतनी कठिनाई से कमाई हुई किसान की एक पाई भी नहीं पचाई जा सकती। अंग्रेजों ने बहुत समय तक इस राष्ट्र का आर्थिक दोहन किया। उन्हीं के साथ उनके हिन्दुस्तानी प्रतिनिधि भी किसान-मजदूरों का रक्त चूसते रहे। स्वतंत्रता-पूर्व रचित ‘गरीब की दुनिया’ कविता में ‘मधु’ ने उस समय का पूर्वदर्शन किया है जब देश आजाद होगा परिस्थितियाँ बदलेगी और गरीबों की दुनियाँ भी नयी व्यवस्था में सुखी होगी-

पुतली न बहेगी ऐसी ही,

दिल में न दहेगी ऐसी ही

विपदा न सहेगी ऐसी ही

हरदम न रहेगी ऐसी ही

है होने वाली बहुत जल्द

दिलशाद गरीबों की दुनिया

नादाद गरीबों की दुनिया

आबाद गरीबों की दुनिया

आजाद गरीबों की दुनिया।

किसानों के आँसू पानी नहीं आग हैं। वे क्रान्ति की प्रेरणा देने वाले हैं। ये आँसू अंग्रेजों को काले नागों की तरह डसने वाले हैं। वे आजादी के वाहक हैं।26

भारत के बड़े-बड़े व्यापारिक प्रतिष्ठान विदेशियों के हाथा में थे। अंग्रेज शासकों ने मुद्रा-पूर्ति के लिये मनमाने ढंग से कर लगाये। कागजी मुद्रा छापी गयी जिससे आर्थिक अस्थिरता और मूल्यवृद्धि का संकट पैदा हो गया। सम्पत्तिशाली देश भारत खोखला होता गया और यहाँ की सम्पत्ति इंग्लैण्ड जाती रही।

प्रेमादर्श

प्रेम मन की सहजात और सबल वृत्ति है। मानव-मन की यह भावना आलम्बन-भेद से विविध रूपों में व्यक्त होती है। यहाँ प्रेम से तात्पर्य स्त्री-पुरुष के मादन भाव से है। उनकी ‘पतंग और दीपक’, ‘चकोर चन्द्र’, ‘चातक’, ‘विदा’, ‘वियोगसंगीत’, ‘शकुन्तला’, ‘प्रणयभीख’ आदि रचनाओं में प्रेम का आदर्श वर्णित है। वयः प्राप्त व संयोगसुखाभिलाषी स्त्री-पुरुष के रूप-गुण जन्य पारस्परिक आकर्षण से अनायास उत्पन्न मादन-भाव के नैसर्गिक प्रेम को ‘प्रणय’ कहते हैं। प्रेम केवल दाम्पत्य-रति या मादन भाव के प्रेम तक ही अपनी गतिविधि सीमित नहीं रखता, अपितु हृदय के समस्त भाव-क्षेत्र तथा उनसे संबंधित या प्रेरित सभी जीवन-पथों व कार्य-व्यापारों को भी वह प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से प्रभावित करता रहता है।27

प्रेम मानव की ही नहीं समस्त प्राणियों के मन की नैसर्गिक वृत्ति है। कीट-पतंगों और पशु-पक्षियों में भी इस अनुरंजनकारिणी वृत्ति के अनुभाव और प्रणय-व्यापार की चेष्टाओं के अनेक दृश्य देखे जाते हैं। यह प्राणियों को अमित उत्साह से क्रियाशील होने की प्रेरणा देता है। प्रेम ऐसा प्रबल आकर्षण है जिसके कारण प्राणियों में तो नैकट्य की अभिलाषा मचलती ही है, अचेतन ज्योतिष् पिण्डों की व्यवस्थित गति और स्थिति को परिचालित करने वाली भी यही आकर्षण-शक्ति है।

‘मधु’ ने प्रेम के मानसिक और अतीन्द्रिय पक्ष को ही आदर्श माना है। प्रेम प्रेमी के हृदय का उत्कट राग है जिसमें प्रिय की ओर से प्रतिदान का लोभ नहीं होता-

प्रतिदान न प्रेम में चाहे चकोर,

वे क्यों नहीं ढंग यों ढारा करें।

प्रेम मन की रीझ है। मन जिसमें अनुरक्त हो जाये प्रेमी के लिए सारा संसार वहीं सिमट आता है। ऐसी दशा में स्थान की दूरियों का लय हो जाता है। मन की रीझ के लिये रंग और रूप की विशिष्टता ही सर्वस्व नहीं है। प्रेमी के लिये प्रिय ही सर्वाधिक रूपवान होता है। प्रिय के दोष भी प्रेमी को भाने लगते हैं-

धरती के अकाश के अंतर का,

कभी स्वप्न में भूल खयाल नहीं है।

अपने उस प्रेमी की वंकता का,

औ कलंकता का भी मलाल नहीं है।।

यदि छोड़ चकोर को दें फिर विश्व में,

दूसरी कोई मिसाल नहीं है।

नजदीक का दूर का रंग का रूप का,

प्रेम में कोई सवाल नहीं है।।

प्रेम ऐकान्तिक साधना है। प्रिय भी प्रेमी की ओर समान रूप से द्रवित है अथवा नहीं, यह सच्चे प्रेमी की चिन्ता नहीं होती। उसे तो दूर से ही प्रिय का रूप-दर्शन सुख देता है-

धन्य चकोर तू प्रेम के पंथ में,

पंथ नवीन लिया करता है।

दूर ही से अपने प्रिय चंद्र को,

देख ही देख जिया करता है।।

प्रेम विनिमय का व्यापार नहीं है। प्रिय चाहे अनुकूल हो चाहे रुष्ट, प्रेमी के लिये प्रेम के अतिरिक्त कोई गति ही नहीं होती। प्रेम वैयक्तिक अनुरक्ति है, प्रेमी के हृदय की अदम्य भावना है इसलिये प्रिय पर एक बार रीझ कर प्रेमी फिर उसकी अनुकूलता और उपेक्षा दोनों में अपने प्रेम में दृढ़ बना रहता है-

हम नेही सनेह में रैहें विंधे,

तुम टेढ़े रहो चहै सूदे रहो।

प्रेमी की यह ऐकान्तिक निष्ठा और अनन्यता ही प्रिय के लिये गौरव की वस्तु है। सच्चे प्रेम में प्रेमी की गुणसम्पन्नता और कलानिपुणता का महत्त्व नहीं है। प्रेम स्वयं सबसे ऊँची और दुःसाध्य कला है। जो प्रेमी इस कला में निष्णात है उसे अन्य कलाओं और गुणों की आवश्यकता नहीं है-

भोरी कलान तें कोरी चकोरी,

सनेह निभायवे की कला जानें।

चकोरी न कोयल की तरह गाना जानती है न मोर की तरह नाचना पर चन्द्रमा के प्रति सच्चा प्रेम निभाना जानती है। प्रेम आडम्बर नहीं, हृदय की विवशता और आन्तरिकता है। प्रेम में अहंकार नहीं होता। अहं को विसर्जित कर देने पर ही प्रिय के प्रति निजस्व समर्पण हो सकता है। प्रेमी प्रिय के समक्ष विमित और अकिंचन रहता है।

प्रेम की परीक्षा विरह में ही होती है। संभोग में तृप्ति जन्य सुख मिलता है। इसलिए प्रेम का आवेग स्वाभाविक है। वियोग में प्रिय के अभाव से प्रेमी को असहनीय पीड़ा का अनुभव होता है। धरती में धसों कै अकाझहिं चीरौं जैसी व्याकुलता की दशा में भी वन्दि प्रिय के प्रति प्रेम-भावना कम नहीं होती, अपितु बढ़ती ही है तभी उसे सच्चा प्रेम कहा जा सकता है। संयोग तृप्ति कारक होने के कारण उसका आनन्द हृासशील होता है और एक स्थिति ऐसी आती है जब विरति उत्पन्न हो जाती है। वियोग प्रेमी को सदैव जाग्रत रखता है। वह इतनी ज्वलनशील पीड़ा लेकर सुबुप्ति में डूब भी तो नहीं सकता। अशफल प्रणय ही जीवन का वास्तवित सुख है-

जीवन का सच्चा सुख असफल प्यार है।

सम्पूर्ण प्रकृति में वियोग व्याप्त है। प्रकृति व्यापारों से यह प्रभावित होता है कि जीवन में वियोग अनिवार्य सत्य है। वियोग भी यह श्रेष्ठता है कि उसमें प्रेमी को मिलन की आशा का सुख मिलता रहता है जबकि संयोग में वियोग की चिन्ता बनी रहती है-

दिन में है कुमुद कलापी कुल सिखलाते

कमल अमल निशि आते करते हैं गान।

चक्रवात हाँम्य में प्रभाकर के अस्त होते

पावन पढ़ाया करते हैं यह पाठ प्राण।।

मिलना में चिन्ता है वियो की सुखद ‘मधु’

विषम वियोग में मिलन आशा मोद मान।

आँख खोल देख रोग भोग प्रिय तेरे लिए

योग नहीं रुचिर वियोग ही है दिव्य दान।।2

काव्यादर्श

‘मधु’ के काव्य में कविता के सिद्धान्तों पर प्रत्यक्ष वक्तव्य तो नहीं है, परन्तु अनेक स्थलों पर उनकी काव्य-धारणा अप्रत्यक्ष रूप से व्यक्त हुई है। ‘मधु’ के आस्तिकता के संस्कार उनकी काव्य-दृष्टि में भी परिलक्षित है। कवित्व उनके लिये लौकिक व्यापार अथवा मनुष्य की भौतिक शक्ति मात्र नहीं हैं। वह दिव्य दान है, आध्यात्मिक साधना है। कवित्व-शक्ति वाग्देवी का वरदान है। कवि ने कविता की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती की स्तुति की है और उनकी कृपा की याचना की है-

निज मो मुख कंज की आसनी पै।

कमलासनी आसन तेरौ रहे।।

कविता के प्रति यह दिव्य धारणा आज के बौद्धिक और पदार्थ-प्रधान युग में तर्कहीन और परम्परानुसारिणी प्रतीत हो सकती है पर कवि की आस्तिकता से इसकी पूर्ण संगति है।

‘मधु’ के अनुसार वही कविता सराहनीय है जिसमें सुन्दर भावों की व्यंजना हो, रसों का परिपाक हो, जिसका मर्म वाच्य न होकर व्यंग्य हो और जिसमें सौन्दर्योपकारक अलंकारों का प्रयोग हो-

सहित सुवर्ण दोषहीन लेख देखे पद,

भूमि भव्य भावन सुहावन की सागरी।

रसन रसीली ध्वनि व्यंग्य गरवीली पुनि,

झूमि-झूमि झंकृत अलंकृत उजागरी।।

परम पुनीत चहुं ओर ओरछा में छाई,

पाई रुचिराई भाई गुरुता की गागरी।

नागर निहार भांति भांति सतकारौ याहि,

सर्वगुण आगरी है केशव की नागरी।।28

काव्य में गति, ताल (छन्द), रस, व्यंग्य तथा कल्पना सभी की सिद्धि कवि का अभिप्रेत है-

मातु पदाम्बुजों की कृपा से,

गति ताल के पंख मिलै छवि छाये।

त्यों रस व्यंग समीरण भी,

अनुकूल रहे वर वेग बढ़ाये।।

- - -

मेरी कवित्वमयी कल कल्पना,

विंध्य की चोटियों पै चढ़ जाये।।

कविता केवल प्रयुक्त भाव अथवा विचार का पुनर्कथन नहीं है बल्कि उसमें विषय के साथ ही कथन के ढंग की नवीनता भी होनी चाहिए। ‘मधु’ ने भक्ति के क्षेत्र में सूर और तुलसी को सर्वोपरि माना है परन्तु काव्यत्व की दृष्टि से वह कवीन्द्र केशव को श्रेष्ठ मानते हैं-

सूर और तुलसी भले ही भक्ति भानु हों पै।

केशव कवीन्द्र ही है रवि कविताई का।

कविता के उद्देश्य के विषय में कवि का दृष्टिकोण मानवतावादी है। काव्य का उद्देश्य केवल मनोरंजन प्रदान करना नहीं है। उसकी सार्थकता और सिद्धि जीवन को उन्नयन और उसे प्रेरणा प्रदान करने में है। पराधीनता के उस काल में काव्य के इस प्रयोजन की व्यावहारिक आवश्यकता और महत्ता थी। कवि अपनी वाणी से देश को नया जीवन प्रदान करना चाहता है-

ओ कलनादिनी ऐसी कृपा कर,

काव्य निनाद से देश गुँजाऊँ।

जीवन का नवजीवन बाँटता,

सा जगतीतल में छवि छाऊँ।।

वेतवे मातु कृपा कर दे,

वरदान यही वरदान में पाऊँ।

तेरी सुधा रसधारा समान ही,

मैं कविता सुधा धारा बहाऊँ।।

सुप्त समाज में जागरण की चेतना भर देना ही काव्य की महान् शक्ति है-

सोती समाज जगाया करूँ सदा,

काव्य की शक्ति महान ये देना।

‘मधु’ की काव्य-धारणा में काव्य-कौशल भी कविता का प्रभावशाली पक्ष है परन्तु शास्त्रीयता के प्रति उनकी परम्पराभक्ति नहीं है।

वर्तमान शताब्दी के तीसरे दशक के आसपास द्विवेदी युगीन कविता के विद्रोह स्वरूप हिन्दी में छायावाद के नाम से वैयक्तिकता प्रधान काव्य प्रवृत्ति का उदय हुआ। छायावादी कविता का अपने नवीन विषय और भाषा-शैली के कारण एक और व्यापक प्रभाव हुआ तो दूसरी ओर आचार्य शुक्ल प्रभृति आलोचकों ने उसकी सूक्ष्मता की कटु आलोचना भी की। विरोध के बाद भी छायावाद आत्मपरकता, कल्पना-वैभव और अभिव्यंजना की अभिनव छटाओं के कारण प्रतिष्ठित हो गया।

‘मधु’ ने छायावाद के उत्कर्ष काल में काव्य-रचना आरम्भ की थी। उनकी आरम्भिक रचनाएँ छायावादी गीतों के रूप में है। परवर्ती काल में उन्होंने सवैया और मुख्य रूप से घनाक्षरी में काव्य-सृजन किया है। छायावाद का उपहास ऐसे कवि समाज में अधिक हो रहा था जिसके काव्यादर्श रीतियुगीन थे। ‘मधु’ के काव्य में वस्तुपरकता के साथ ही आत्मपरकता का तत्त्व भी निहित है, पर नवीन काव्य प्रवृत्तियों के नाम पर चल रहे अटपटे लेखन को मधु ने काव्योचित गरिमा से हीन माना। नवीनता के नाम पर विलक्षण और निरर्थक शब्द-योजना को तथा स्पष्ट भावाभिव्यक्ति के बदले असंयमित प्रलाप को, जिसमें क्षयी मनोवृत्ति का निर्बन्ध प्रकटीकरण हो, छायावादी कवि भी कविता नहीं मानते थे। छायावाद की इस धूमिलता को तथा प्रगतिवाद के नाम पर कवियों द्वारा की जा रही परशुरामी को ‘मधु’ ने उपहासास्पद माना है। प्रगतिवादी कविता के नाम पर भी अनेक कवि भावों के आवेश और उनकी क्रान्तिकारिता तथा उग्रता की कभी काव्य-समारोहों में स्वर की प्रचण्डता और गर्जना से पूरी करते थे। प्रगतिवाद का स्थूल आशय भूख और रोटी शब्दों की बार-बार आवृत्ति ही समझ लिया गया था। सामाजिक रूढ़ियों और आर्थिक वैषम्य के प्रति क्रान्तिचेतना को भावों का रूप न देकर बहुत से कवि नारेबाजी कर रहे थे। ‘मधु’ ने प्रगतिशील कवियों के इसी अकाव्यत्व पर चोट की है।

निष्कर्ष

‘मधु’ की विचार-धारा में जीवन के शाश्वत प्रश्नों की भी व्याख्या है और युगीन समस्याओं के प्रति भी चिन्तनपरक दृष्टिकोण है। कवि ने धर्म की जड़ और अर्थहीन धारणाओं के प्रति आक्रामक दृष्टिकोण अपनाया है। काव्यादर्श के विषय में कवि ने भावपूर्णता, सद्विचार और कलात्मकता पर बल दिया है। कवि की धारणा में प्रेम का आदर्श और अतीन्द्रिय रूप है। युगीन परिस्थितियों के चिन्तन में कवि का मानसिक आसंग सक्रिय भागीदार की संलग्नता से व्यक्त हुआ है, तटस्थ कवि-कर्म के रूप में नहीं। संक्षेप में कवि की वैचारिकता पर आदर्श और नैतिकता का प्रमुख प्रभाव है।

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संदर्भ

1. चक्रवाल-रामधारी सिंह दिनकर, पृ. 14

2. राजनीति विज्ञान के सिद्धान्त-पुखराज जैन से उद्धृत अंग्रेजी अंश पृ. 73

3. राजनीतिशास्त्र के मूल सिद्धान्त-डॉ. इकबाल नारायण से उद्धृत अंग्रेजी अंश, पृ. 102

4. गीतिकाव्य, अखण्ड हिन्दुस्तान

5. सैरकाव्य, 79

6. आधुनिक काव्यधारा-डॉ. केसरी नारायण शुक्ल, पृ. 105

7. बुन्देलखण्ड-दर्शन, 4

8. गीति काव्य, बुन्देलखण्ड

9. मौर्य विजय-सियारामशरण गुप्त, भूमिका (मैथिलीशरण गुप्त)

10. हिन्दी कविता में युगान्तर-डॉ. सुधीन्द्र, पृ. 186

11. गीतिकाव्य, क्या तुम्हें स्वीकार है

12. विजयादशमी कविता

13. सैरकाव्य, 35

14. पन्द्रह अगस्त, 1947 कविता

15. वही,

16. चिन्तामणि (पहला भाग)-रामचन्द्र शुक्ल, पृ. 18

17. सैर काव्य, 101

18. वही, 142

19. वही,

20. द हिन्दू व्यू ऑफ लाइफ-राधाकृष्णन, पृ. 25

21. भारतीय दर्शन साहित्य का इतिहास-डॉ. देवराज और तिवारी, आधुनिक हिन्दी

साहित्य की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि-डॉ. भोलानाथ से उद्धृत, पृ. 506

22. द हिन्दू व्यू ऑफ लाइफ, राधाकृष्णन, पृ. 46

23. रानी कुँअर गणेश-3

24. विजयादशमी कविता

25. ‘गरीब की दुनिया कविता’

26. वही

27. आधुनिक हिन्दी कविता ‘प्रेम और सौन्दर्य’-रामेश्वर दयाल खण्डेलवाल, पृ. 117

28. ‘कवीन्द्र पंचक’ कविता।

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