नरोत्तमदास पाण्डेय ‘मधु’ का स्फुट काव्य
उपर्युक्त प्रबन्ध रचनाओं और मुक्तक कृतियों के अतिरिक्त ‘मधु’का प्रभूत काव्य स्फुट रूप में है। स्फुट काव्य में कहीं-कहीं किसी स्थिति, प्रसंग, घटना अथवा व्यक्ति को विषय बनाया गया है। ‘मधु’ के स्फुट काव्य में समस्या पूर्ति काव्य, ओरछा नरेश की प्रशस्ति, प्रार्थना परक काव्य, श्रृंगार काव्य, राष्ट्रीय काव्य, प्रेमादर्श निरूपक काव्य हास्यव्यंग्य, प्रकृति परक काव्य, अन्योक्ति परक, काव्य तथा उमर खैयाम की रुबाइयों का अनुवाद है।
समस्या पूर्ति काव्य
‘मधु’ ने समस्या पूर्ति के रूप में भी अनेक छन्द लिखे हैं। उस समय प्रकाशित होने वाले प्रमुख पत्रों में समस्याएँ दी जाती थीं जिनकी पूर्ति-स्वरूप प्राप्त श्रेष्ठ रचनाएँ उनके अगले अंकों में प्रकाशित होती थीं। मऊरानीपुर और झाँसी में होने वाले विभिन्न कवि सम्मेलनों में समस्यापूर्ति परक कविताएँ पढ़ी जाती थीं। टीकमगढ़ में भी कभी-कभी महाराज वीरसिंह देव अपने कवियों के कौशल की परीक्षा लेने के लिए दुरूह समस्याएँ दिया करते थे। ऐसे ही एक अवसर का ‘मधु’ ने अपनी एक समस्यापूर्ति में संकेत किया है-
कोई कहता है बड़ी विकट समस्यापूर्ति
कठिन है सुरस सिंगार भाव भल में।
कोई कहता यदि न होता शब्द दूसरे के,
जटिलता हल होती सब एक पल में।।
सुनकर ऐसा मैं मनाने लगा सारदा को,
माता वेग ही आ मेरी मति निर्मल में।
ओरछेन्द्र जू ने सुकविन की परीक्षा हेतु,
अद्भुत समस्या दई दूसरे के दल में।।
अनेक कवियों द्वारा किसी समस्या की पूर्ति के रूप में लिखी गई कविताओं के पीछे प्रतियोगिता का भाव होता था। इसलिये प्रायः अनूठे प्रसंग और उक्तियों का सहारा लिया जाता था।
पहले समस्यापूर्ति-काव्य का प्रमुख विषय श्रृंगार था परन्तु भारतेन्दु-युग से परिवर्तित राजनीतिक-सामाजिक चेतना की भी अभिव्यक्ति उसमें होने लगे। खड़ी बोली के उदय के बाद ब्रजभाषा के साथ ही उसमें भी समस्या-पूर्तियाँ की जाने लगीं।
समस्या-पूर्ति में कवि-कौशल की परीक्षा होती है। इस काव्य का प्रणयन स्वतंत्र काव्य-रचना से भिन्न होता है। समस्या-पूर्ति में कवि को निश्चित चरण अथवा चरणांश की छन्द-योजना के आधार पर ही पूरे छन्द का निर्माण करना पड़ता है। इसी के साथ कभी-कभी विषय भी पूर्व निर्धारित हुआ करता था। कभी तो समस्या तत्काल दी जाती थी और कवियों को उसी समय उसकी पूर्ति करना पड़ती थी। इन सीमाओं में समस्या पूर्ति-काव्य के द्वारा कवियों की श्रेष्ठता का निर्धारण होता था। जिस कवि में जितनी अधिक कल्पनाशीलता और कलात्मकता होती थी उसकी पूर्तियाँ उतनी ही प्रभावपूर्ण होती थीं।
‘मधु’ ने विभिन्न अवसरों पर प्रस्तुत समस्याओं का पूरण ब्रज और खड़ी बोली में किया है। उनके इस काव्य के विषय श्रृंगार, भक्ति, समसामयिक राजनीति आदि हैं। उनमें पौराणिक, ऐतिहासिक और सांस्कृतिक सन्दर्भ भी हैं और उग्र राष्ट्रभक्ति तथा प्रगतिशील चेतना भी है। ‘मधु’ की समस्या-पूर्तियाँ उर्वर कल्पना और प्रकृत भावपूर्णता के कारण उत्कृष्ट रचनाओं के रूप में प्रणीत हुई हैं। ‘बतरान में’ समस्या की पूर्ति में मानिनी नायिका के लक्षणों का निरूपण हुआ है-
रोज रोज ल्यावत गुबिन्द कों मनाय कें मैं,
बातन बनाय नित्य नूतन विधान में।
किन्तु तेरी बान ही परी है यों रियायबे की,
विष रस घोरे नित्य सरस कथान में।।
करौं कहा मति में न मेरी कछु आवत है,
हार गई तो कूँ समुझाय हूँ निदान में।
निपट अजान अरी कौन हूँ तराँ न मिटै,
तेरी सतरान बतरान बतरान में।।
इसी समस्या की एक अन्य पूर्ति में संयोग का चित्र अंकित किया गया है-
नवल वधू को देखि निपट इंकत माँहि,
औचक लपेट लीन्हों कंत्र ने भुजान में।
पीयकों पिछान प्रिया पगन पछेले लगी,
झेलें लगी वक्ष आगे उमंग उतान में।।
नैन सरसौ हें युग भौहें पै रिसौहें लसै,
अधर हँसौहें कछू नूतन विधान में।
मैन चितचाही मधु देके गलबाही मनौ,
कहत है हाँ ही नाहीं नाहीं बतरान में।।
प्रसंगगर्भित समस्यापूर्तियों में कलात्मकता के साथ ही सन्दर्भ के प्रयोग का भी आकर्षण रहता है। ऐसा ही एक समस्यापूर्ति में केशव की शिष्या रायप्रवीण के उस उत्तर का सन्दर्भ लिया गया है जो उसने अकबर को दिया था-
काहू भाँति आयुस स्वराय इन्द्रराय सों लै,
बोली दिली शाह सों जा गरब गुमान में।
भक्ष्य के अभक्ष्य जूठी पातर मिलें न आप,
नर्क अधिकारी बारी बायस में स्वान में।।
धन्य-धन्य चातुर प्रवीनराय राखि है को,
पातिव्रत तेरे तुल्य कुशल कलान में।
हर्यौ दिलीपति को कुकाम ज्वर ज्ञान,
उपदेश की दवाई खबा मधु बतरान में।।
कभी-कभी पूरा चरण ही समस्या के रूप में दिया जाता था। टीकमगढ़ में इसी तरह की एक समस्या दी गयी थी-‘नाचिवौ आवै नहीं जग में जो बिहारी के रंग में राँचिवौं आवै।’ ‘मधु’ ने पाँच सवैयों में इसकी पूर्ति की थी। एक छन्द में तो कवि ने समस्या का अर्थ काकुवक्रोक्ति से लेकर अनूठी सूझ का परिचय दिया है-
गोपी रँगी इह रंग में सो,
नची गैलन गैलन विश्व बतावै।
नाम जू देव और मीरा कौ नृत्य है,
कालि की बात कहौ को भुलावै।
ऐसी झुठाई भरी समस्या दई,
को बनावै अरु का कों सुनावै।
नाचिवौ आवै नहीं जग में,
जो बिहारी के रंग में राँचिवौ आवै।।
वीर रस में दूसरे के दल में समस्या की पूर्ति अत्यन्त ओजपूर्ण है-
मृत्यु भीति से न डोल सीना खोल खोलकर,
जय बोल बोल झूमते हैं रण थल में।
पीठ जो दिखाते दीठ उनमें न डालते हैं,
करते अनीठ हैं किसी का नहीं छल में।।
एक महाशक्ति का भरोसा इनका है धर्म,
कर्म करते हैं बैठते न भाग्य बल में।
धार शमशीर शत्रुओं की भीर चीर तीर,
तुल्य बढ़ते हैं वीर दूसरे के दल में।।
हास्य रस में समस्या की पूर्ति करते हुए तत्कालीन निर्दलीय राजनीतिज्ञों की नीति निबन्धता और वैचारिक अस्थिरता पर व्यंग्य किया गया है-
दल निरदल वाले दल दल में हैं ये,
न देश दलही में और न दूसरे के दल में।
‘अनुराग हो’, ‘राज की’, ‘वीरबाला की’, ‘देश’, ‘पानी’ में आदि समस्या पूर्तियों का विषय उत्कट देशभक्ति है। ‘मधु’ की देशभक्ति में बलिदान भाव की प्रधानता है। ‘अनुराग हो’ समस्या की पूर्ति में राष्ट्र का समर्पित भाव से चिन्तन और आराधन है-
आँसू ये गिरें तो गिरें देश दुर्दशा ही पर,
होवे जो विराग तो विदेशी से विराग हो।
साहस सिखाता उत्साह भरा जिह्वा पर,
राग हो तो मातरम् वन्दे का ही राग हो।।
लाग यदि हो तो वह देश बलिवेदी पर,
हाथ शिर छेदी ही से कटने की लाग हो।
और अनुरागों से न राग रंच भी हो प्रभो,
देश अनुराग ही से एक अनुराग हो।।
कभी-कभी कुछ विशिष्ट पर्वों पर होने वाले काव्य समारोहों के लिये भी समस्याएँ दी जाती थीं। तुलसी-जयन्ती के अवसर पर कवि ने ‘साके है’, ‘सार है’ तथा ‘अमर बनाये हैं’ समस्याओं की पूर्तियाँ की हैं। तुलसी और वर्षां की श्लिष्ट वन्दना का सुन्दर निर्वाह ‘साके है’ समस्या-पूर्ति में हुआ है-
सुमन समूहन कों नव रस दान दीनों,
आनन्द विभोर भक्त भौंह मन छाके हैं।
गगन लौ यत्र तत्र श्याम के चरित्र चारु,
चित्रित करै हैं भरे भूरि सुषमा के हैं।।
‘मधु’ जगजीवन कों जीवनदा जाहिर हैं,
परम प्रताप ताप हर वसुधा के हैं।
मोददा रसा के वरसा के रस एक संग,
गेय वर साके तुलसी के वरसा के हैं।।
प्रशस्ति काव्य
नरोत्तमदास पाण्डेय ‘मधु’ 10-12 वर्ष तक टीकमगढ़ के राजा वीरसिंह जू देव के राजकवि रहे हैं। दशहरा-दीपावली और वसन्त के अवसर पर टीकमगढ़ के सभी राजकवि मुंशी अजमेरी, रामाधीन खरे, अम्बिकेश, ब्रजेश, बिहारी और नरोत्तमदास पाण्डेय ‘मधु’ उपस्थित होते थे। इन अवसरों पर ये कवि अपने आश्रयदाता को काव्य बधाई देते थे और अवसरानुकूल तथा अन्य स्वतन्त्र रचनाएँ पढ़ा करते थे। इस अवसर पर महाराज के अतिरिक्त दरबार में अनेक काव्य प्रेमी और रसज्ञ श्रोता उपस्थित रहते थे। ‘मधु’ ने विभिन्न अवसरों पर महाराज को दी गई बधाई के रूप में टीकमगढ़ नरेश की प्रशस्तियाँ लिखी हैं।
‘मधु’ की ये प्रशस्तियाँ, विजय बधाई, वसन्त बधाई, होली बधाई और कुछ स्फुट रूप में है। ‘मधु’ द्वारा रचित इस प्रकार के 50 छन्द उपलब्ध हैं। कुछ अन्य काव्य-ग्रन्थों में भी अवसरानुकूल वीरसिंह की प्रशस्तिपरक छन्द हैं।
ये प्रशस्तियाँ किसी साधारण आश्रयदाता की प्रशंसा में रचित अत्युक्तियाँ नहीं हैं। यह प्रशस्ति-काव्य एक विद्वान्, साहित्य-मर्मज्ञ, गुणग्राही और प्रजा के साथ मानवीय व्यवहार करने वाले नरेश के गुणों का काव्यात्मक सम्मान है। देव पुरस्कार-प्रदाता वीरसिंह देव की साहित्य-प्रियता हिन्दी जगत में श्रद्धा के साथ स्मरण की जाती है। हिन्दी और जनपद साहित्य के लिये किये गये उनके निष्ठापूर्ण प्रयासों का उल्लेख द्वितीय अध्याय के ‘ओरछा दरबार’ शीर्षक में हो चुुका है। उनके मन में साहित्य के संरक्षण और संवर्द्धन की तीव्र अभिलाषा थी।
‘मधु’ के प्रशस्ति-काव्य में नरेश की तथ्यहीन, निराधार और आतिशय्यपूर्ण स्तुति नहीं है, बल्कि वास्तविक गुणों के आधार पर उनका अभिनन्दन है। कवि ने वस्तुगत ऐश्वर्य और वैभव की काल्पनिक चकाचौंध का अविश्वसनीय वर्णन नहीं किया है। टीकमगढ़ में वसन्त, होली और दशहरा के अवसर पर सभी राजकवि एकत्र होते थे और अपने आश्रयदाता को काव्य बधाई दिया करते थे। ‘मधु’ की प्रशस्तियाँ बधाइयों के रूप में ही हैं। ये बधाइयाँ आशीर्वादात्मक हैं।
होली के अवसर पर महाराज नगर में फाग खेलने के लिये निकलते थे। उनके साथ राज्य के अधिकारी, परिवार-जन, कवि तथा नागरिक रहते थे। ऐसे ही अवसर को लक्ष्य करके कवि ने उन्हें होली की बधाई दी है-
रोली होय भाल पै सदाई गरिमा की लगी,
गंध कीर्ति केसर की चहुँ दिस डोली होय।
तोली होय पुन्य पिचकारी कर कोमल में,
कोविद कवीजन की संग संग टोली होय।।
बोली होय एक तेरे जय जयकार ही की,
मोददानी गरिमा गुलाल अनमोली होय।
झोली होय सम्पदा अबीर तें न खाली कबौं,
ओरछा नरिन्द तेरे ऐसी सदा होली होय।।
कवि हृदय में प्रेम और वाणी में कवित्व लेकर ओरछेश के साथ फाग खेलने आये हैं-
पावन पराग गोये प्रेम कौ उरस्थली में,
मोये अनुराग राग रंग अनुहारी कों।
सारदा सों गौरव गुलाल गरिमा है पाये,
ल्याये वर विशद विचार वारि धारी कों।।
आनन्द उलास की अबीर है अंगेज राखी,
कीरति की केसर सहेज सुख भारी कों।
ओरछेन्द्र जू पै फाग खेलन कवीन्द्र आये,
कर में सम्हारि लेखनी की पिचकारी कों।।
विजयादशमी के अवसर पर दी गयी बधाइयों में भी ओरछेश के साहित्य संरक्षण का सश्रद्ध स्मरण किया गया है-
तेरौ बल पाय कवि रवि के समान आय,
ओजमान ह्वै के रह्यौ छवि छिटकाई है।
ओरछा नरेन्द्र श्री महेन्द्र महाराज जू कों,
शरद समाज देत विजयबधाई है।।
कवि के स्वरों में यशोच्चारकों का भाव न होकर सरस्वती के साधक नरेश के प्रति आशीष का भाव है-
ये ‘मधु’ की कवि भारती आज,
विजैदशमी में अशीश उचारै।
भारती की तू-उतारवै आरती,
भारती आरती तेरी उतारै।।
अनेक प्रशस्तियों में नरेश के प्रजा-प्रेम और संरक्षण का भाव भी व्यक्त हुआ है। ओले गिर जाने से फसल नष्ट हो गयी है। किसान कृषि कर देने में असमर्थ हैं। औरछेश ने केवल कर ही माफ नहीं कर दिया बल्कि तकाबी भी वितरित करवायी-
ओरन सों बिनसी सुनकंे कृषी,
वीर वृसिंह दया उमड़ाई।
कीनी सबै कर माफी तथा,
संग संग ही बाँटी विशेष तकाई।।
ऐसी कृपालता देख किसान,
सबै लगे दैन यों होरी बधाई।
पाय के आयु सवाई सवाई,
रहै चिरजीवी महेन्द्र सवाई।।
जहाँ प्रशस्तियों में अलौकिकता का वर्णन किया गया है वहाँ भी वास्तविक आधार पर काव्यगत चमत्कार की सृष्टि है। वीरसिंह देव के राज्य को स्वर्ग के समान कहने में कवि-कल्पना को उन नामों से प्रेरणा मिली है जो ओरछा-राज्य में और स्वर्ग में समान है। स्वर्ग में भगवान विष्णु हैं तो यहाँ भी महाराज कमलेश हैं। वीरसिंह देव की पत्नी का नाम कमला था। इस आधार पर महाराज कमलेश हुए। वहाँ अमृत का सागर है तो यहाँ भी सुधा सागर है। महाराज ने अपनी पुत्री के नाम पर सुधा सागर बनवाया था। उसे बैकुण्ठ कहते हैं तो यहाँ भी बैकुण्ठी है। महाराज ने अपने शासन के अन्तिम वर्षों में टीकमगढ़ से तीन-चार मील दूर ‘बैकुण्ठी’ नाम से एक निवास बनवाया था।
ये प्रशस्तियाँ कल्पना और उक्ति-चारुत्व से समन्वित हैं। ये भाव-विरहित और प्रकथनात्मक विरुदावलियाँ नहीं हैं। एक विजय बधाई में शारदीय सुषमा का भी चित्रण किया गया है और वीरसिंह देव को बधाई भी दी गई है-
अमल अमंद तुव कीरति दिखायवे कांे,
सुख सुधा कंद पूर्ण चंद को लिखत है।
चाँदनी कौ व्याज करि विश्व में प्रसार ताकों,
निज पर प्यार उपहार में चहत है।।
शारदा शरद सों कराय फेर ता में शुद्धि,
विधि सों समृद्धि ऋद्धि सिद्धि लै भरत है।
अक्षर नक्षत्र सम पत्र लिख तो कूँ आज,
विजया बधाई देवे कविता रचत है।।
विजया नक्षत्रों के अक्षरों से आकाश के पत्र पर ओरछेश की प्रशस्ति में कविता लिख रही है। इस कविता में चन्द्रमा और ज्योत्स्ना जैसे सौन्दर्य के उपकरणों का प्रयोग किया गया है। यह कविता अत्यन्त स्वच्छ और दोषहीन है क्योंकि स्वयं शरद रूपी शारदा ने उसे शुद्ध किया है।
प्रार्थनापरक काव्य
प्रबन्ध और मुक्तक कृतियों की आरम्भिक वन्दनाओं के अतिरिक्त भी कवि ने स्फुट रूप से प्रार्थना परक काव्य की रचना की है। संस्कार रूप में जीवन की सहज धारणा होने के कारण ‘मधु’ की देव-स्तुतियों में स्वतः स्फूर्त काव्य की सहजता, भाव प्रवणता और आयासहीनता है। प्रबन्ध और मुक्तक कृतियों के आरम्भ में जो वन्दनायें आयी हैं उनमें तो वर्ण्य विषय की प्रसंगानुकूलता का भी ध्यान रखा गया है, परन्तु स्फुट रूप से रचित प्रार्थना परक काव्य में अनुभूति की निर्बाधता और भावना का सहज आवेग है।
कवि की आराधना का प्रमुख आलम्बन तो वाग्देवी ही होती है। काव्य का श्रेष्ठ वरदान प्राप्त करने के लिये वह वाणी की उपासना करता है। ‘मधु’ ने भी सरस्वती की स्तुति में ‘शारदाभिनन्दन’ शीर्षक से अनेक छन्द लिखे हैं। कवि के ध्यान में हंसवाहिनी शारदा की ही झाँकी समायी है-
हूलति आवै सु हंस हरें हरें,
फूलन सों लदी फूलति आवै।
आनन चन्द अमन्द प्रभा सों,
महा तम तोय विमूलति आवै।।
मातु कौ नाम उचारत का कहैं,
जैसी विभा अनुकूलति आवै।
आँकी विरंचि की नैनन में,
मेरे झाँकी झलाझल झूलति आवै।।
कवि का विश्वास है कि वह सरस्वती की ही कृपा से रसपूर्ण काव्य-रचना में समर्थ है-
अम्ब तिहारी कृपा सों सदा,
‘मधु’ की रसना यों नयो ढँग राखै।
चाखत चाव सौं भीतर छै रस,
भाव सौं बाहर नौ रस भाखै।।
टैर्यो जबै ‘मधु’ ने जननी कह,
ह्वै अनुरक्त सुभक्त अधीना।
पाय पियादे प्रमोद पगी चली,
हंस हू कों निज संग न लीना।।
आय गई अति आतुर धाय कै,
चार भुजा यों सजाये प्रवीना।
एक में पंकज एक में पुस्तक,
एक में लेखनी एक में वीना।।
जगदम्बा के विविध रूपों की वन्दना ‘सारदा सप्तक’ में की गयी है। ‘जैतमाता’ कविता में दुर्गा की स्तति है। दुर्गा का यह मन्दिर मऊरानीपुर के पास ही कचनेव गाँव में स्थित है। वह मनोरथ-प्रदान के लिये लोक विश्वास मेें सिद्धपीठ के रूप में प्रसिद्ध है। ‘मधु’ की वन्दनाओं में भक्ति का निवेदन भी है और लौकिक कामना भी है। कवि को पारमार्थिक सत्ता की लौकिक कृपा के प्रति विश्वास है। ईश्वरोपासना और भगवत्कृपा की प्राप्ति के साधन के रूप में मंत्र, तंत्र और योग आदि के प्रति कवि की व्यावहारिक आस्था रही है। ‘जैतमाता’ से सर्वार्थसिद्धि के लिये प्रार्थना की गयी है-
जै ही के कहत जग जीवन में जय होत,
ता के कहें ताप कटि जात कोटि भाँता के।
मंजु मन काम मुख आवत ही मा के मिलै,
कात कात ता के तागे जुरें चित्त चाता के।।
फेरि मिला चारऊ वरन चार बेर रटै,
मिलें अर्थ आदि फल चार जब ख्याता के।
विपति विदारवे कों सब सुख सारिवे कों,
वन्दहु पदारविन्द ऐसी जैतमाता के।।
इन वन्दनाओं में एक ओर भक्त हृदय की आस्था, दीनता, विगलित भावना और याचना के भाव हैं दूसरी ओर उनमें अभिव्यक्ति का सौन्दर्य भी निहित है-
दाया वेग कीजै मनचाहा मधु दीजै मम,
छीजै पाप पूर्वकृत कुकृत जमाता के।
लीजै सुधि वेग जन जान अपनो ही एक,
पुलक पसीजै कर ढंग वरदाता के।।
रीझे सुन आरत विनय त्यों सदय ह्वै के,
भीजै प्रेम वारि बोय बीजै चितचाता के।
कीजै वेग सफल सुभक्त की अभीष्ट लता,
श्रृंगार काव्य
आधुनिक युंग में भी ब्रजभाषा काव्य की परम्परा जीवित रही है। अनेक कवि आधुनिक युग के नव काव्यान्दोलनों के बीच भी रीतियुगीन श्रृंगारिक विषयों पर काव्य-रचना करते रहे हैं। ‘मधु’ ने भी ‘होलीमाला’ और ‘मुरली माधुरी’ जैसी ब्रजभाषा की मुक्तक कृतियों के अतिरिक्त स्फुट काव्य के रूप में ‘झूला’ और ‘गोपियाँ उद्धव से’ शीर्षक कविताएँ लिखी हैं। ‘झूला’ के छन्दों में संयोग श्रृृंगार के अन्तर्गत कृष्ण की झूला-क्रीड़ा का वर्णन हुआ है। किसी गोपी के मन में कृष्ण के साथ एक बार झूला झूलने की एक मात्र लालसा है। संयोग के चरम सुख के प्रति गोपी के हृदय की आकांक्षा का आतुर वेग छटपटा रहा है-
न्हावन गई ती तीज जान तिथि सावन की,
देखे तहाँ झूला घले पीत पटधारी के।
भूली आपने कों झूली मन मुद मोद भरी,
नटखट देख वीर पेखत विहारी के।
ताहत हरी के मधु चाहत न और कछू,
लालसा यही है भई हीय सुकमारी के।
फूल सम फूल लेंव आपने को भूल लेंव,
झूल लेंव एक बेर संग बनवारी के।।
ललिता कृष्ण के साथ झूल रही है। प्रिय के संयोग-सुख की कामना से विशाखा का हृदय आकुल है। ललिता का सौभाग्य उसकी कामना को और अधिक उद्दीप्त करता है। विशाखा के हृदय की विकलता और कामना-पूर्ति के लिये उसकी कातर याचना की मार्मिक अभिव्यक्ति इस छन्द में हुई है-
तरस न खात खात हाहा कब की हों खड़ी,
सुनत न बात होत मेरे हिये हूलना।
श्यामले सलोने संग नेक मोय हू तो अरी,
झूल लैन दै री झूल लेैन दे री झूलना।।
अन्तिम चरण में याचनात्मक शब्दों की आवृत्ति से विशाखा की आतुरता मूर्त हो उठी है। राधा और कृष्ण की युगल झूला क्रीड़ा में संयोग का पूर्ण दृश्य चित्रित किया गया है। इसमें संयमित अभिव्यक्ति के द्वारा संयोग के परम आनन्द की व्यंजना हुई है-
इन्दीवर नैनी आज तीर पै कलिन्दजा के,
झूलत गुविन्द संग आनन्द अथोरे में।
छवि सरसात शुचि गन्ध महकात तहँ,
दिखत उड़ात से हैं पौन के झकोरे में।।
मोद भरे विमल विनोद भरे राजत हैं,
झूम झुक जात लेत लूम झकझोरे में।
‘मधु’ सुख मूल फूल फूल हिय फूल भरे,
राधिका विहारी दोऊ झूलत हिंडोरे में।।2
अन्य सखियों के बाद कृष्ण के साथ झूला झूलने की जैसे ही नायिका की बारी आयी वैसे ही दुर्भाग्य से वर्षा होने लगी और वह अपने कल्पित सुख से वंचित रह गयी। वंचिता के हृदय में अप्राप्ति के दुःख की कचोट बनी हुई है-
सावन सुहावन कौ जान सुखदाई समै,
झूला डरै हीय हरषावन मुरारी के।
सखियाँ सिधारी मन मोद मुद भारी लहें,
झूलीं एक एक कर संग बनवारी के।।
सूरदास, नन्ददास और रत्नाकर के काव्य की तरह ‘मधु’ के इन छन्दों में दार्शनिकता और तार्किकता नहीं है। ‘मधु’ की प्रतिभा भावसृष्टि में ही प्रकट हुई है। कवि ने विरह-व्यंजना का शास्त्रीय आधार न लेकर गोपियों की मार्मिक व्यथा को ही प्रकट किया है। कुछ छन्दों के अन्तिम चरणों में लोकोक्तियों के प्रयोग से भाव की दृढ़ता सिद्ध हुई है-
हमें जोग की सीख सिखायवौ ऊधव,
ऊसर में जल गेरियौ है।
- - -
उर में निठुराई न धारिये ऐसी,
सनेह शिरोमनि कौ पद पाई।
‘मधु’ काहे कौं साँची करौ कहनावत,
ऊँची दुकान की फीकी मिठाई।।
भावों की विदग्ध व्यंजना इन छन्दों की विशेषता है। विदग्ध प्रयोगों में गोपियों के मन की निराशा और प्रेमविवशता की अभिव्यक्ति अधिक प्रभावशाली रूप से हुई है।
राष्ट्रीय काव्य
राष्ट्र प्रेम की अभिव्यक्ति में ‘मधु’ ने प्रबन्ध और मुक्तक कृतियों के अतिरिक्त स्फुट कविताओं की रचना की है। तत्कालीन भारत की सबसे बड़ी राष्ट्रीय चिन्ता दीर्घकाल से अपहृत स्वतंत्रता को पुनः प्राप्त करना था। कवि ने स्वाधीनता आन्दोलन में मानवीय प्रयत्नों और वलिदानों का भी वर्णन किया है और स्वतंत्रता प्राप्ति के लिये देवी कृपा की याचना भी की गयी है। ‘सत्ययुग स्मृति’, ‘त्रेता स्मृति’ और ‘द्वापर स्मृति’ कविताओं में देश को स्वतंत्र करने के लिये अलौकिक शक्ति का आव्हान किया गया है। प्रहलाद के रूपक से द्वितीय विश्व युद्ध की होलिका से भारत की रक्षा के लिये भगवान से प्रार्थना की गयी है-
दीसै महायुद्ध जन्य घोर अग्निदाह सौ तो,
होलिका पिसाची के कुमंत्रन कौ साज है।
अबल अनाथन के नाथ देहु हाथ दीन,
भारत प्रह्लाद की तिहारे हाथ लाज है।।
अंग्रेजों ने भारत को द्वितीय विश्वयुद्ध में धकेल दिया। इस महायुद्ध से त्राण की प्रार्थना में द्वापर युग के लाक्षागृह-प्रसंग का रूपक लिया गया है-
विरच्यौ महारन को लाखा गृह शत्रुन नंे,
एक बेरि फेरि कला द्वापरी दिखाइयो।
ए हो यदुनाथ परिवारयुत तामें फँसे,
धर्मप्रान भारत युधिष्ठिरै बचाइयो।।
चिरप्रतीक्षित स्वतंत्रता की प्राप्ति का हर्ष देश-विभाजन के कारण शोक-मिश्रित हो गया। भारत की अखण्डता और एकता के विखण्डन से देश की आत्मा कराह उठी। कवि को इस अवसर पर अतीत के उन वीरों का स्मरण आना स्वाभाविक है जो विदेशी शासन से देश की मुक्ति के लिये सतत संघर्ष करते रहे-
आँसुओं का उमड़ा यों समुद्र,
पलों का प्रदेश पटा जा रहा था।
आँधी उठी थी अधीरता की,
सँग वक्ष न डाटे डटा जा रहा था।।
जिन्ना जवाहर में मिल के ‘मधु’,
देश यहाँ पै बँटा जा रहा था।
छत्ता प्रताप गुविन्द शिवा का,
कलेजा वहाँ पै फटा जा रहा था।।
देश विभाजन से साम्प्रदायिक सामरस्य के प्रवर्द्धक अकबर और अहिंसा के सच्चे पूजक अशोक दोनों को गहरा परिताप हुआ-
नीचे अकबर कब्र में रो उठा,
ऊँचे अशोक ने शोक मनाया।
प्रेमादर्श निरूपक काव्य
‘मधु’ के स्फुट काव्य में अनेक कविताओं का विषय प्रेम है। कवि की आदर्शवादी चेतना में प्रेम का स्वरूप मानसिक और आत्मिक है। उसे कायिक व्यापार न मानकर भावनात्मक माधुर्य के रूप में स्वीकार किया गया है। ‘विदा’, ‘चन्द्रचकोर’, ‘पतंग और दीपक’, ‘चातक’, ‘वियोग संगीत’, ‘प्रणय गीत’ आदि कविताएँ प्रेमाभिव्यंजक हैं।
पतंग और दीपक के प्रेम-सम्बन्ध में दीपक को प्रिय और पतंग को प्रेमी माना जाता है। प्रेमी पतंग का अपने प्रिय दीपक के ऊपर प्राणोत्सर्ग कर देना प्रेम का महत्त्व आदर्श माना गया है। इस व्यापार में दीपक को जड़ और निष्ठुर प्रिय के रूप में निरूपित किया जाता है, परन्तु ‘मधु’ ने अपनी ‘पतंग और दीपक’ कविता के छन्दों में दीपक के हृदय की व्यथा का चित्रण विशेष रूप से किया है। दीपक ऐसा प्रिय है जिसे अपने प्रेमी की पीड़ा का आभास तो है, परन्तु वह उसका कष्ट दूर करने में समर्थ नहीं है। दीपक के हृदय में तो दुहरी बाधा है। प्रेम उसके भी हृदय में है। इस प्रकार एक ओर तो वह स्वयं प्रेम को जलता रहता है और दूसरी ओर उसे यह दुःख भी होता है कि उसके कारण पतंग भी जल जाता है-
कहलाकर आप सनेही स्वमित्र के नेह का मूल्य घटाना पड़ा।
रंग राग सभी ठुकरा कर आग का
जीवन कंठ लगाना पड़ा।।
निज भाग्य को दीपक कोसता था
इसी बेवसी में अकुलाना पड़ा।
जलने की व्यथा खुद जान के भी
मुझे दूसरों को है जलाना पड़ा।।1
प्राण देकर कष्टों से मुक्ति मिल जाती है, परन्तु जो निरन्तर कष्ट सहने के लिये अभिशप्त है उनकी व्यथा दीपक ही जानता है। पीड़ा सहते हुए जीवित रहना अधिक कष्ट साध्य है। इसीलिये उसे प्रेम का उच्चादर्श माना जाता है। पतंग तो थोड़ी देर के ही लिये जलता है, परन्तु दीपक को तो आजीवन जलना पड़ता है-
क्षण ही के लिये जलता है पतंग,
दिया सब रात जला करता है।2
प्रेम का व्यापार अत्यंत कष्ट साध्य है। इस बात को जानकर दीपक लौ को हिलाकर पतंग को निकट आने से मना करता रहा। दीपक के हृदय में पतंग के प्रति गहरा अनुराग है। वह अपने प्रेमी को कोई कष्ट नहीं होने देना चाहता। पतंग के जल जाने पर दीपक रात भर इसी आशा में जीवित रहा कि संभवतः काल की प्राणद वायु से उसका मृत प्रिय जीवित हो उठे-
लौ को हिला कहता ही रहा
यहां आग से खेलने को मत आना।
तद्यपि अंग से जा लिपटा
वह अंधा पतिंगा न माना न माना।।
दुर्दशा देख पतंग की दीपक
जागा निशा पर आशा समाना।
प्रात की प्राणद वायु से शायद।
जी उठे मेरा मरा परवाना।
प्रेम में प्राण देकर पतंग ही आदर्श नहीं निभाता है बल्कि दीपक भी प्रेम की मर्यादा का मूल्य समझता है। जब प्रातः काल की वायु भी उसके प्रेमी को जीवित नहीं कर पाती तो दीपक को अपना अस्तित्व व्यर्थ लगने लगता है-
जग सारा चला जगने के लिये।
पर दीप का भाग्य था सोने चला।
प्रेम में मन का ऊर्ध्व संचरण होता है। भौतिकता में आसक्त रहना मन की अधोगामिता है। चकोर प्रेम की उच्चता को जानता है। वह निरन्तर आकाश में स्थित अपने प्रिय चन्द्रमा को ही देखता रहता है। प्रेम ऐकान्तिक साधना है। उसमें प्रतिदान अथवा विनिमय की चिन्ता नहीं की जाती। प्रेमी अपनी भावनाओं में ही मग्न रहता है। चकोर चन्द्रमा से प्रेम का प्रतिदान नहीं चाहता।
प्रेम तर्क और विचार के बाद निकलने वाला निष्कर्ष नहीं है। वह हृदय का ऐसा आवेग है जो किसी क्षण सहसा जाग उठता है। उस समय यह नहीं सोचा जाता कि प्रिय प्राप्य है अथवा नहीं, वह निष्ठुर है अथवा अनुकूल-
नजदीक का दूर का रंग का रूप का।
प्रेम में कोई सवाल नहीं है।।
प्रेम ऐसी अन्तरंग साधना है जिसकी निष्ठा वाचिक अभिव्यक्ति की आश्रित नहीं होती-
ऐसे चहै जितना पिया कौ रटि,
कोई भी तौ लौ टिया ही नहीं है।
जौ लौ कि तूने हिया सों अरे,
पिया प्रेम का प्याला पिया ही नहीं है।।
प्रेम अहंकार-विसर्जन की चरम स्थिति है, जो प्रिय के सामने पूरी तरह विनम्र नहीं होता वह प्रेमी नहीं है-
चातक सा कलपाता सदा,
पल को भी कभी कल पाता नहीं है।
जो निज नाथ को पावन प्रेम के,
साथ स्वमाथ झुकाता नहीं है।।
विरह प्रेम का निकष है। तृप्ति में भावना की उत्कटता का अवसान होने लगता है, जो आकुलता के कारण निरन्तर जाग्रत बना रहे ऐसा असफल प्रेम ही सच्चा सुख है। जीवन की सबसे बड़ी तृप्ति चिर अतृप्ति में ही निहित है। चिन्तन के आधार पर वियोग में मिलनाशा का सुख भले ही हो, परन्तु मिलन के पश्चात् वियोग की पीड़ा प्रेमी ही जानता है। भाव के पश्चात् अभाव की स्थिति में असह्य वेदना होती है। ‘विदा’ शीर्षक छन्दों में प्रवत्स्यत्पतिका की मार्मिक व्यथा का चित्रण हुआ है। विदा का क्षण संयोग और वियोग के बीच की स्थिति है। इस क्षण में संयोग सुख का अनुभव भी जीवित रहता है और आसन्न वियोग की असह्यता का आभास भी होता है। इस क्षण का अनुभव कितना मर्मान्तक होता है इसकी व्यंजना ‘विदा’ छन्दों में अत्यन्त सजीव है-
ज्ञात होता प्राण प्रिय आपके ही संग संग,
वाणी भी हमारी ये हमारा संग छोड़ेगी।।
यह व्यथा तब और बढ़ जाती है जब विरहिणी इतनी विवश और द्वन्द्वग्रस्त हो कि प्रिय से जाने के लिये कहने की शक्ति उसके कण्ठ में नहीं है और रोक लेने का उसे अधिकार नहीं है। किन्तु असहनीय वेदना सहन करते हुए भी प्रिय को प्रसन्न देखना ही प्रेमी की सबसे बड़ी अभिलाषा होती है। जब विरहिणी प्रिय की आँखों में आँसू देखती है तो उसके आँसू सूख जाते हैं। वह अपना दुःख भूलकर प्रिय को प्रबोध देने लगती है-
व्यर्थ रो रहे हो खो रहे हो धैर्य देखो प्रिय,
विचलित करो मत निज को सँभालो तुम।
जिस कंठ में है पहिनाई सुमनों की माल,
उसी कंठ में न आँसुओं की माला डालो तुम।।
‘मधु’ के प्रेमादर्श में आत्मिक प्रेम की व्यंजना है। मानसिकता और अतीन्द्रियता की स्थिति वियोग में अधिक रहती है। इसलिये कवि ने वियोग का चित्रण अधिक किया है।
इन कविताओं में कोमल भावों की स्वतः प्रेरित और आत्मपरक व्यंजना हुई है। इसलिये बाह्य रचना में भिन्न होते हुए भी इन कविताओं में गीतिकाव्य की आत्माभिव्यंजना और हार्दिकता दिखायी देती है।
हास्य-व्यंग्य परक काव्य
मुक्तक काव्य कृति के रूप में ‘मधु सूक्ति संग्रह’ में हास्य-व्यंग्य परक सूक्तियाँ हैं। उन्होंने हास्य और व्यंग्य संबंधी कुछ स्फुट कविताओं की भी रचना की है। इनके विषय अंग्रेजी फैशन, भारतीयता का परित्याग, अंग्रेजी शिक्षा-दीक्षा, विदेशी भाषा के अध्ययन में शक्ति और प्रतिभा का अपव्यय, बेरोजगारी, नारी की आधुनिकता प्रियता तथा राजनीतिक प्रसंग है। इस व्यंग्य-काव्य की प्रेरणा में कवि का कोई राजनीतिक मतवाद अथवा किसी व्यवस्था के प्रति गम्भीर असन्तोष नहीं है। इसलिये यहाँ व्यंग्य में आक्रोश और प्रहारात्मकता नहीं है। इन कविताओं का उद्देश्य शुद्ध हास्य और विसंगतियों पर विनोदपूर्ण व्यंग्य का विधान करना है। अच्छी नौकरी के लिये नयी फैशन और अंग्रेजी शिक्षा-दीक्षा प्राप्त करने वाले व्यक्ति के मोह-भंग का एक चित्र इस प्रकार है-
हेट कर हैड से उतार फेंक साफा दूर,
डाट सूट बूट हैट पर मरने लगे।
पास किया बी.ए. नरोत्तम तब साहिबों के,
पैरों पर सर्विस को शीस धरने लगे।।
जहाँ जहाँ निज इन-टेलीजेंस ले गये वे,
शब्द नो वैकेंसी वहीं कान भरने लगे।
झूठी नौकरी से आश टूटी तब शीस कूट,
रूठ फैशनों से बूट साफ करने लगे।।
पाश्चात्य रीति-रीति के अनुकरण में ‘बाबू’ बने हुए व्यक्ति की दयनीयता का चित्रण करते हुए कहा गया है कि शरीर पीला पड़ गया है, हड्डियाँ ढीली हो गयी हैं और आँखों की ज्योति क्षीण पड़ गयी है। ऐसे व्यक्ति का लड़के भी उपहास करने लगे हैं-
कह कह लड़के भी टाँट करते हैं ‘मधु’,
लीडर में बाबूजी छपी है वान्ट्स बी.ए. की।।
प्रकृति परक काव्य
प्रकृति के साथ मनुष्य का प्रारम्भ से ही परिवेशगत और भावनात्मक सम्बन्ध रहा है। प्रकृति ने अपने विविध रूपों से उसे मुग्ध किया है, विस्मित किया है और आतंकित भी किया है। इसी के साथ मनुष्य ने अपनी मनोदशा के अनुसार प्रकृति को सुखद और दुःखद रूपों में अनुभूत किया है। मानव-भावनाओं के साथ प्रकृति के इस संयोग के कारण काव्य में उसका अनेक रूपों में चित्रण किया गया है।
जब प्रकृति को साध्य मानकर उसके कोमल अथवा कठोर रूप का प्रत्यक्ष वर्णन किया जाता है तब उसे प्रकृति का आलम्बन-रूप कहा जाता है।
इस प्रणाली में वह अपने सौन्दर्य से दृष्टा का अनुरंजन करती है। प्रकृति का आलम्बन रूप में चित्रण अनलंकृत भी हो सकता है और अलंकृत भी। दोनों ही रूपों में प्रकृति स्वतंत्र रूप से कवि को प्रभावित करती है। यही प्रभाव जब उसकी चेतना को अभिभूत कर देता है। तब कवि उसमें चेतनता का आरोप करके उसे सजीव बना देता है। तब प्रकृति मानववत् चेष्टाएँ करने लगती है। इसी दृष्टि से इस प्रकार के चित्रण को मानवीकरण की संज्ञा दी गयी है। प्रकृति का दूसरा रूप वह है जिसमें दृष्टा उसे अपनी मनःस्थिति के अनुसार देखता है। वस्तु-रूप में प्रकृति वहीं रहती है, परन्तु वर्ष के समय वही प्राकृतिक उपादान हर्षोद्दीपक प्रतीत होते हैं और दुःख में वही कष्टकारक लगने लगते हैं। यह प्रकृति का उद्दीपन-रूप कहा जाता है। इसके अतिरिक्त कभी प्रकृति के व्यापारों से उपदेश-ग्रहण किया जाता है और कभी उसके उपादानों का प्रतीकवत् प्रयोग किया जाता है।
‘मधु’ ने प्रकृति चित्रण प्रायः आलम्बन-रूप में किया है। उनके काव्य में प्रकृति का अलंकृत और अनलंकृत दोनों रूपों में चित्रण हुआ है। वर्षा की पहली फुहार का एक अनलंकृत चित्र इस प्रकार है-
तरु बालकों को हल्की हल्की,
थपकी जब वायु लगाने लगी।
जब गाने लगी मचली सी शिखी,
तितली चल चित चुराने लगी।।
जब नीड़ से चंचु निकाल तृषाकुला,
चातकी चीं चीं मचाने लगी।
तब आ सजला घटा पूरब से,
रस की बँुदियाँ बरसाने लगी।।
ग्रीष्म के वर्णन में उपकरणों को प्रस्तुत न करके उसके प्रभाव की व्यंजना की गयी है-
‘मधु’ जग जीवन की बात का बखानें जब,
सलिल हू जान अंग आपनो चुरत है।
सरिता किनारिन की झुक झारू झारन की,
सिकता सिवारिन की छाया में दुरत है।।
आलम्बन-रूप में कवि ने प्रकृति का अलंकृत चित्रण अधिक किया है। कवि की कलात्मक प्रवृत्ति इसका हेतु है। सादृश्य तथा साधर्म्य आदि अलंकरण के साधनों से प्रकृति के रूप और गुण की अधिक तीव्र व्यंजना हुई है। उषा के चित्रण में राजरानी के स्वागत का रूपक लिया गया है-
ओस युक्त दूब चारु चंचु बीच दाबकर,
मंगलाभिषेक कर द्विज सुमती रहे।
द्रुम दल धवल ध्वजा में फहरा रहे हैं,
अपलक देख मंजु कमल यती रहे।।
फूला नहीं फूल में समाता फूल फूल ‘मधु’,
अमर विसार वार अमरावती रहे।
प्रसरित प्राची तक लालिमा है देवगण,
उषा राजरानी की उतार आरती रहे।।
प्रकृति के अलंकृत चित्रण में कवि ने सबसे अधिक उपयोग अपन्हुति का किया है। अपन्हुति के प्रयोग में वस्तु-निरूपण के लिये कल्पना का अवकाश अधिक रहता है। ‘मधु’ की अपन्हुतियों में पहले प्रस्तुत के लिये अनेक संभावित सादृश्यों का विधान किया गया है और अन्त में उन सबका निषेध करते हुए सादृश्य-कल्पना का चरम उत्कर्ष प्रस्तुत किया गया है-
कौऊ हार हीरे निशि नारि के प्रमाने कोऊ,
व्योम के वितान में बखाने दीप झूले हैं।
कौऊ स्वेदकन कोऊ स्वर्गधन या ही भाँत,
उपमा अनेकन में कवि गन भूले हैं।
‘मधु’ सुख सारक त्रिताप तम हारक ये,
तारक तमी में व्योम तल के न ऊले हैं।
कलित कलाधर की देखि के कृपा की कोर,
कुमुद करोर नभ नीरधि में फूले हैं।।
‘मधु’ का अधिकांश प्रकृति-चित्रण जड़ दृश्य-वर्णन न होकर सजीव और स्पन्दित है। अप्रस्तुत विधान के द्वारा भी उसमें क्रियात्मकता का प्रभाव उत्पन्न किया गया है। इसके साथ सचेतन रूप में उसमें मानवीय व्यापारों का आरोप किया है-
रवि रश्मियाँ नाट्य दिखाने लगीं,
भमरावलि वीन बजाने लगी।
दुम पल्लव तालियाँ देने लगे,
पिक पंचम तान के गाने लगी।
वर्षा के आगमन से पृथ्वी के हृदय में उल्लास मचल रहा है-
‘मधु’ फूली समाती नहीं वसुधा,
पहिने फिरती परिधान हरा।
‘मधु’ ने विरहोद्दीपन में भी प्रकृति की सहायता ली है। वर्षा विरहिणी की वेदना को उद्दीप्त तो करती ही है कवि ने प्रकृति में विरहिणी के अन्तर्भाव का प्रतिरूप दिखाया है-
पीव पीव पावक तें पपिहा पजारै उर,
मारै ‘मधु’ कोयलिया कूक की कटारी है।
तरह जिन जुगनू जमात जोतबारी जानो,
दाहमरी दुःखिनी की आह चिनगारी है।।
वर्षा-काल में बादलों का गर्जन कामिनी नायिका का मान-मोचन करके उसे प्रिय से संयुक्त कर देता है।
पौंढ़ी परयंक पै मयंक मुखी मान ठान,
निपट निशंक नहीं मानत मनाई है।
हीय साध-साध आज भई है असाध व्याध,
विवश पिया ने गहलीन मौन ताई है।।
ताही समै गर्जतर्ज घन घिर आये ‘मधु’,
भीति मान आपु पिय अंक में समाई है।
महामानिनी हू कों विमानित बनायवे की,
पावस प्रवीन तो मैं नोंखी चतुराई है।।
प्रकृति-व्यापारों से उपदेश-ग्रहण की परम्परा भी काव्य में प्रचलित रही है। प्रकृति-चित्रण के इस रूप में मार्मिकता और सौन्दर्य का प्रभाव अपेक्षाकृत कम रह जाता है, परन्तु ‘मधु’ ने जहाँ प्रकृति के व्यापारों से निर्गत उपदेश का वर्णन किया है वहाँ भी अलंकरण और सजीव-चित्रण के कारण उसमें सरसता है। कोहरे का चित्रण उपदेश के रूप में किया गया है-
नभ में प्रकाश है अचेत ठिठुराया पड़ा,
पथराया कौने में लगाता रवि गोता है।
हिम मोतियों का ढेर लुटा लुटा सीख देता,
अंत में सहायी न किसी का कोई होता है।।
‘मधु’ के प्रकृति-चित्रण में सजीवता, भावात्मकता और चित्रात्मकता है। कवि की कल्पना शक्ति ने उसकी नवीन छवियाँ और भंगिमाएँ प्रस्तुत की हैं। उसमें परिगणन-शैली की नीरसता न होकर चित्रण की प्रभावपूर्णता है।
अन्योक्ति काव्य
‘मधु’ की अन्योक्तियाँ प्रायः नीतिपरक हैं। उनमें प्रस्तुत के साधर्क्य से अप्रस्तुत के सामान्य नीतिपरक व्यापार की व्यंजना होती है। ‘फूल’ शीर्षक अन्योक्तियों में क्षणिक ऐश्वर्य पर टृप्त तथा अपने मद में दूसरों को पीड़ित करने वालों को अन्तिम नियति के प्रति सचेत किया गया है-
शूल ही पायँगे अंत में वे,
भ्रमरों के शरीर को शूलने वाले।
कौड़ियों में भी बिकेंगे नहीं,
रंग रूप की शान में भूलने वाले।।
आखिर धूल में ही मिलेंगे,
हरी डालियों पै मधु झूलने वाले।
गर्व में भूल के फूलने का फल,
फूल से सीख लें झूलने वाले।।
अन्योक्तियों में प्रतीकों का प्रयोग किया जाता है। प्रतीक जितने स्पष्ट और अर्थगर्म होंगे अन्योक्ति का भाव उतना ही सुसंवेद्य और प्रभावशाली होगा। कागजी फूल ऊपरी आकर्षण और प्रवंचना का प्रतीक है। उसमें आन्तरिक गुणों का अभाव है। भ्रमर ऐसे लोभी व्यक्ति का प्रतीक है जिसमें एक निष्ठा नहीं होती। ‘भौंरे से’ अन्योक्ति में इसी भाव की व्यंजना है-
इठला रहा है अलमस्त बना,
रँग साज के रंग पै झूल रहा।
रस गन्ध का ख्याल नहीं करता,
रंग रूप में अन्ध हो भूल रहा।।
उस पद्मिनी का तुझे ध्यान नहीं,
जिसके उर में चुभ शूल रहा।
अरै भौंरे तुझे क्या प्रमाद हुआ,
इस कागजी फूल पै फूल रहा।।
अन्य काव्य
‘मधु’ के प्रभूत स्फुट काव्य में अनेक कविताएँ ऐसी हैं जो उपरिवर्णित प्रवृत्तिगत वर्गों में समाहित नहीं होतीं। अतः उन्हें अलग वर्ग में रखकर उनका अध्ययन किया गया है। ऐसी कविताओं में ‘तीन लेखिनी’, ‘कवीन्द्र पंचक’ तथा ‘छत्रसाल की तलवार’ कविताएँ भाव और काव्यत्व की दृष्टि से प्रभावपूर्ण हैं। ‘तीन लेखिनी’ कविता में तुलसी, सूर और भूषण की लेखिनी के प्रतीक से इन कवियों के काव्य के प्रमुख वर्ण्यभाव का उक्तिपूर्ण चित्रण किया गया है। तुलसी के काव्य की भक्ति पापों से मुक्ति प्रदान करने वाली है। तुलसी की लेखिनी में राम के वाण का प्रभाव है-
जो पै जग ख्यात वह तन को उधारक है,
तो पै यह मन की सुधारिका विशेखनी।
शत्रु गात पैठि रह्यौ शोणित उपासौ वह,
यह मसि पात्र पैठि पुण्य पथ पेखनी।।
दोउन के देखि कें समान ही सुढंग उठी,
‘मधु’ के हिये में उक्ति ऐसी रंग रेखनी।
त्रेता में रह्यो जो राम राघव को वान सोई,
कलियुग माँह भयो तुलसी की लेखनी।।
सूर के सन्दर्भ में उनके आराध्य कृष्ण की मुरली की मधुरता और उसके प्रभाव से सूर के काव्य के माधुर्य भाव का वर्णन किया गया है-
मेरे जान में तो ब्रजराज जू की बाँसुरी कों,
सूर ने स्वकर की कलम करि राखी ती।
भूषण की लेखिनी शिवाजी की तलवार की तरह वीर भाव से सम्बन्धित है। शिवाजी की तलवार ने रणभूमि में जो पराक्रम दिखाया उसका निर्भीकतापूर्ण चित्रण भूषण की लेखिनी ने किया।
छत्रसाल की तलवार के वर्णन में अनेक नायिकाओं के साधर्म्य का आधार लिया गया है। वह कुलटा के समान छत्रसाल की होती हुई भी शत्रुओं के गले लगती है, गणिका के समान नर्तन करती हुई शत्रुओं के गले लगकर उनके प्राण रूपी वित्त का हरण कर लेती है, स्वकीया के समान सदैव छत्रसाल के अधीन रहती है और दूरी के समान शत्रुओं का मृत्युरूपी नायिका से मिलन कराती है। कुलटा नायिका के लक्षणों का आरोप तलवार पर इस प्रकार किया गया है-
विश्व में कहाई तेरी तौ हू सदा शत्रुन के,
कंठन सो लागिवे की रहत उपासी है।
मानत न हार कबौं एक संग एक सम,
रमत सहस्रन में करत कला सी है।।
रोक आम खास की न माने मनभावै एक,
रनवास नहीं रनवास रस रासी है।
शोणित सुरस कों उताल छत्रसाल तेरी,
क्रुर करवाल बाल-खासी कुलटा सी है।।
‘कवीन्द्र पंचक’ के छन्द अनूठे उक्ति-विधान और कल्पना के कारण बहुत भावपूर्ण और कलात्मक हैं। प्रारम्भिक अवस्था के इन छन्दों में कवि की प्रौढ़ रचना-शक्ति के दर्शन होते हैं श्लेष, उपमा और रूपक अलंकारों का भावोपकारी प्रयोग तथा नवीन उक्तियों का सफल निर्वाह इन छन्दों का कलागत आकर्षण है। रचना के पूर्ण भावन के लिये भावक को सर्जक की मनोभूमि पर पहुँचना आवश्यक है-
केशव समीप आयवे की चाह हौवे यदि,
शुद्ध शास्त्र सागर में बुद्धि अवगाहिये।
केश वर सघन सुदेश जो हमेश चाहौ,
सुमन समाहित सनेह तो बिसाहिये।।
गावें सब के सब हैं प्रखर प्रवीनता में,
उत्तम है क्यों नहीं ‘नरोत्तम’ सराहिये।
केशव कवीन्द्र चन्द्र चन्द्रिका निहारवे कों,
चतुर चकोर से निराले नैन चाहिये।।
सूर और तुलसी से केशव की तुलना में ‘माघ’ शब्द के प्रयोग से अनोखा चमत्कार उत्पन्न हो गया है-
हिन्दी कविता के नभोमण्डल में कोई जन,
सविता समान दास तुलसी बताते हैं।
कोई अन्ध भक्त अन्ध सूरदास के हैं जो कि,
सूरज सरिस सूर गाते ना अघाते हैं।।
आसमान के समान मान लीजै दोनों पर,
सुकवि ‘नरोत्तम’ यों स्वमत सुनाते हैं।
केशव कवीन्द्र ही है हिन्दी कविता का माघ,
जहाँ ये अमन्द भानु मंद पड़ जाते हैं।।
यहाँ प्रश्न यह नहीं है कि सूर और तुलसी का काव्य श्रेष्ठ है अथवा केशव का। कवि की मान्यता यहाँ समीक्षा का विषय नहीं है। दृष्टव्य यह है कि अपनी बात को कवि ने कलात्मकता के साथ प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत किया है।
अनुवाद
उमर खैयाम की रुबाइयों का अनुवाद
उमर खैयाम की रुबाइयाँ प्रेम और मस्ती की उच्छलित भावनाओं के कारण बहुत लोकप्रिय हुई हैं। हिन्दी में उनके अनेक अनुवाद हुए। मैथिलीशरण गुप्त का अनुवाद ‘रुबाइयात उमर खैयाम’ के नाम से सन् 1931 में प्रकाशित हुआ। पं. गिरिधर शर्मा नवरत्न ने भी सन् 1931 में अनुवाद किया। इसके दो वर्ष पूर्व वह संस्कृत में भी अनुवाद कर चुके थे। इनके अतिरिक्त केशवप्रसाद पाठक (सन् 1932), पं. बल्देवप्रसाद मिश्र (सन् 1932), डॉ. गयाप्रसाद गुप्त (सन् 1933), बच्चन (सन् 1935), मंुशी इकबाल वर्मा ‘सेहर’ (सन् 1937 मूल फारसी से अनूदित), रघुवंशलाल गुप्त (सन् 1938), किशोरी रमण टंडन (सन् 1936 अप्रकाशित) तथा ‘हितैषी’ और पंत के अनुवादों से हिन्दी में अमरखैयाम की कविता के प्रति सम्मान परिलक्षित होता है। टीकमगढ़ के मौलवी मंजर साहब ने अमर खैयाम की रुबाइयों का मूल फारसी से उर्दू में अनुवाद किया था।
‘मधु’ ने उमर खैयाम की 75 में से 32 रुबाइयों (1 से 31 तक की और 41 वीं) का ही अनुवाद किया है। अधिकांश हिन्दी-अनुवादों की तरह ‘मधु’ के अनुवाद का आधार भी फिट्जेराल्ड का अंग्रेजी अनुवाद है। शेष अनुवाद का कार्य छोड़कर कवि ने हाला सम्बन्धी दर्शन पर स्वतंत्र काव्य की रचना करना अधिक उचित समझा क्योंकि अनुवाद में स्वतंत्र कल्पना और भाव-विधान का अवसर नहीं मिला पाता।
अनुवाद के सामने दुहरा संकट होता है। यदि वह मूल का यथावत् रूपान्तर करता है तो अनुवाद शाब्दिक हो जाता है और अभिव्यक्ति के बदले हुए उपकरणों में मूल भाव भी पूरी तरह स्पष्ट नहीं हो पाता। दूसरी ओर यदि अनुवाद मूल के स्वरूप और भाव के साथ स्वच्छन्दता का व्यवहार करता है तो मूल की आत्मा आहत होती है। ऐसी स्थिति में अनुवादक को यथावत्ता से बचते हुए भी मूल को अविकृत रखते हुए उसकी स्पष्ट अभिव्यक्ति करनी पड़ती है।
‘मधु’ ने फिट्जेराल्ड के अंग्रेजी अनुवाद का शाब्दिक पद्यानुवाद नहीं किया है, बल्कि उनके अनुवाद में मूल भाव की सुरक्षा भी हुई है और स्पष्ट व्यंजना भी हुई है। अनुवाद के सम्बन्ध में बच्चन जी ने लिखा है कि ‘अगर अनुवाद का अर्थ यह है कि एक भाषा के शब्द के स्थान पर दूसरी भाषा का शब्द लाकर रख दिया जाये तो फिट्जैराल्ड सफल अनुवादक नहीं है और अगर अनुवाद का अर्थ यह है कि मूल में भावों को दूसरी भाषा के माध्यम से जाग्रत किया जाये तो फिट्जेराल्ड आदर्श अनुवादक हैं। वस्तुतः फिट्जेराल्ड का अनुवाद शब्दानुवाद न होकर भावानुवाद है।1 इसी दृष्टिकोण को लेकर बच्चन जी शब्दानुवाद करने के फेर में नहीं पड़े। उन्होंने भावों को ही प्रधानता दी है।2 मैथिलीशरण गुप्त का अनुवाद प्रायः अर्थानुवाद है, फिर भी उन्होंने एकाधबात कुछ भिन्न प्रकार से कहीं हैं। उनका मत है कि ‘यदि फिट्जैराल्ड अपने अनुवाद में मूल की काँट छाँट कर सकता है तो दो एक स्थान पर वैसा करने का मैं भी अपना अधिकार कैसे छोड़ सकता हूँ।3 गुप्त जी को अंग्रेजी का ज्ञान न होने के कारण उन्हें फिट्जेराल्ड के अंग्रेजी पाठ का भाव समझाया गया था। उसे उन्होंने पद्यबद्ध किया था।4
‘मधु’ का ध्यान भी शब्दानुवाद पर न होकर अनुवाद की सजीवता और भाव प्रधानता पर है। उन्होंने रुबाइयों के चरणों का अनिवार्य रूप से यथाक्रम अनुवाद नहीं किया है। भाव को अधिक उपयुक्त क्रम में संयोजित करने के लिये कवि ने कहीं रुबाई की तीसरी चौथी पंक्ति को पहले और पहली दूसरी पंक्ति को बाद में रखा है-
।दकए ंे जीम बवबा बतमूए जीवेम ूीव ेजववक इमवितम
ज्ीम ज्ंअमतद ेीवनजमक.ष्व्चमद जीमद जीम क्ववतण्
ष्ल्वन ादवू ीवू सपजजसम ूीपसम ूम ींअम जव ेजंलए
ष्।दकए वदबम कमचंतजमकए उंल तमजनतद दव उवतमष्5
ज्ञात सभी को भली विधि है,
हमारे यहाँ रंचक काल के डेरे।
है फिर जाना वहीं, नहीं लौटते,
हैं जहाँ से इक बार के प्रेरे।।
गूँज उठा ‘मधु’ मंदिर रक्त-
शिखा ध्वनि संग सवेरे सवेरे।
खोल दे द्वार सवेग सुधारस,
घोल दे घोल दे माधव मेरे।।
जीवन की क्षणभंगुरता के सामान्य निष्कर्ष के तर्क के आधार पर ‘मधु-मन्दिर’ के अधिकाधिक उपभोग की इच्छा सहज और क्रमबद्ध निष्पत्ति प्राप्त होती है।
सफल अनुवाद की सबसे बड़ी विशेषता यह होती है कि वह कृत्रिम न प्रतीत हो। कृत्रिमता तभी आ जाती है जब अनुवादक का ध्यान पदावली के शाब्दिक प्रतिस्थापन पर तथा अर्थानुवाद पर अधिक होता है। ‘मधु’ के अनुवाद में कृत्रिमता कहीं नहीं है। कवि ने परिवर्द्धन और निरसन के द्वारा रुबाइयों के मूल भाव को निजी अभिव्यंजना में इस प्रकार बाँधा है कि वह अनुवाद से अधिक स्वतंत्र काव्य प्रतीत होता है। मूल कृति में विशिष्ट परिवेश और संस्कृति के नाम, प्रसंग और अर्न्तकथाएँ होती हैं। अनुवाद में उनकी विशद व्याख्या हो नहीं सकती और उसी रूप में शाब्दिक उल्लेख से वे सन्दर्भ बोधगम्य नहीं हो पाते। ऐसी स्थिति में अनुवाद को नामों का परिवर्तन विशेषताओं के रूप में करना पड़ता है। ‘मधु’ ने ऐसी व्यक्ति वाचक संज्ञाओं का तथा विशिष्ट अन्तर्कथाओं का उल्लेख उनकी प्रतिनिधि विशेषताओं के रूप में किया है-
प्तंउ प्दकममक पे हवदम ूपजी ंसस पजे त्वेमए
।दक श्रंउेीलकश्े ेमअश्द.तपदहश्क बनच ूीमतम दव वदम ादवूेण्6
दिव्य वनस्थली वे विनसीं,
जो प्रसून पहेला किया करती थी।
त्यों जमशेद की कीर्तिकलाएँ,
गईं जो झमेला किया करतीं थीं।।
कुरान में अरम ‘आद’ के प्रागैतिहासिक लोेगों का उद्यान-नगर माना गया है जिन्हें खुदा ने उनके पापों के कारण नष्ट कर दिया।7 ‘मधु’ ने अपने अनुवाद में ‘दिव्य वनस्थली’ कहकर उसका भाव व्यक्त किया है। इसी प्रकार ‘सैविन रिंग्ड कप’ को जमशेद की कीर्तिकलाएँ कहा गया है। कहा जाता है कि फारस के बादशाह जमशेद के पास सात पार्श्वों का प्याला था। इसका प्रत्येक पार्श्व पृथ्वी के सात भागों में से एक-एक को दर्शाता था।8
ब्वउमए पिसस जीम बनचए ंदक पद जीम पितम व िैचतपदहए
ज्ीम ूपदजमत ळंतउमदज व ित्मचमदजंदबम सिपदहए
ज्ीम ठपतक व िज्पउम ींे इनज ं सपजजसम ूंलए
ज्व सिल.ंदक स्वण् ज्ीम ठपतक पे वद जीम ॅपदहण्9
आज वसंती विभा में उड़ेल अटूट महा ‘मधु’ के नद नारे।
शीघ्र बुझा दो सखे जलाते,
आ रहे उर को जो विषाद अंगारे।।
सीमित पंथ ही पार जिसे,
करना हो अरे वहाँ देख तू प्यारे।
लो वो उड़ा चला आता यहीं पर,
काल पखेरु स्व पंख सम्हारे।।
अंग्रेजी अनुवाद में वसन्त की मादक ज्वाला में अनुताप के शिशिर वसन जला डालने और मधु-पान करने का भाव है। ‘मधु’ ने प्याला भरना ही न कहकर मधु की सरिताएँ बहा डालना कहा है। उसमें विषाद के अंगारों को बुझा डालने के भाव की अधिक सार्थकता है। मूल में यह भाव इसी रूप में नहीं है।
अभिव्यंजना के उपकरणों का विदेशीपन भी अनुवाद की समस्या होता है। ‘मधु’ ने विदेशीपन को भारतीय परिवेश में प्रस्तुत किया है-
दाउद मौन युगों से हुआ,
कहीं तान नहीं उसकी है सुनाती।
किन्तु वनस्थली में अब भी पिकी,
माधव का ‘मधु’ सार जो पाती।।
यहाँ नाइटिंगेल का अनुवाद बुलबुल न करके पिकी किया गया है। बुलबुल भारतीय परिवेश से सम्पृक्त नहीं है जबकि कोयल का सम्बन्ध वसन्त ़ऋतु से है। दूसरी रुबाई में ‘डॉन्स लेफ्ट हैंड’ को कवि ने प्रभात के पूर्व का लाली भरा उजयाला कहा है। यह गुप्त जी के उषा के ‘वाम कनक कर’ से अधिक व्यंजक है। ‘लाली भरा उजयाला’ से उषाकाल और हाला का रंग-प्रभाव अधिक धनीभूत होता है। दाउद को मधुर गायक के रूप में माना जाता है। रुबाई के अंग्रेजी अनुवाद में दाऊद का मौन होना कहा गया है पर उसके ओंठ बन्द हो जाने से रागिनी की समाप्ति का भाव तभी समझा जा सकता है जब दाऊद की गायन विशेषता ज्ञात हो। ‘मधु’ ने इसीलिये भाव को विस्तार देकर स्पष्ट और पूर्ण किया है।
इस प्रकार ‘मधु’ के अनुवाद में मूल भाव की सुरक्षा, उसकी भावपूर्ण व्यंजना और अकृत्रिमता है। उसमें स्वतंत्र रचना जैसी मौलिकता और सहजता है।
हिन्दी में खैयाम की रुबाइयों के अनुवाद में विविध छन्दों और अन्त्यानुक्रम का प्रयोग किया गया है। गुप्त जी ने ताटंक छन्द में रुबाई की तुकयोजना (क क ख क) अपनायी है। केशव प्रसाद पाठक के अनुवाद में भी इसी छन्द योजना का प्रयोग हुआ है। पंत जी का अनुवाद गीतियों के रूप में है। बच्चन जी ने श्रृंगार छन्द में अनुवाद किया है। ‘मधु’ का अनुवाद सवैया छन्द में है। इसके पूर्व ‘मुरली माधुरी’, ‘चन्द्रचकोर’, ‘पतंग और दीपक’ आदि रचनाएँ सवैया छन्द में लिखी जा चुकी हैं। सवैया के लालित्य को कवि ने अनुवाद में भी पूरी तरह उभारा है।
सन्दर्भ
1. खैयाम की मधुशाला-बच्चन, भूमिका पृ. 19
2. वही, पृ. 45
3. रुबाइयात उमर खैयाम-श्री मैथिलीशरण गुप्त, पृ. 7
4. वही, पृ. 4
5. रुबाइयात ऑव उमर खैयाम-एडवर्ड फिट्जेराल्ड, पृ.-37
6. वही, पृ. 39
7. वही, पृ. 119, 120
8. वही, पु. 120
9. वही, पृ. 42