नरोत्तमदास पाण्डेय ‘‘मधु’ और छायावाद कृष्ण विहारी लाल पांडेय द्वारा पुस्तक समीक्षाएं में हिंदी पीडीएफ

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नरोत्तमदास पाण्डेय ‘‘मधु’ और छायावाद

ऽ सम सामयिक परिवेश ऽ

उन्नीसवीं शताब्दी के अन्तिम दशकों और बीसवीं शताब्दी के प्रथमार्द्ध की परिस्थितियाँ भारतीय जिजीविषा का इतिहास हैं। राजनीतिक आकाश में राष्ट्रीयता की भावना के ऐसे बादल घिरे जिनकी वर्षा से सम्पूर्ण राष्ट्र आप्यायित हो गया। उसके प्रवाह-वेग में विदेशी शासन निर्मूल होकर बह गया। इस काल में देश को नवीन अभिव्यक्ति मिली। ’मुधु’ के काव्य में समसामयिक परिवेश की प्रेरणा और उसका परिपाक स्पष्ट परिलक्षित होता है।

ऽ राजनीतिक परिवेशः-
भारतीय इतिहास में स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्व के सौ वर्ष परतंत्रता की पीड़ा के अनुभव और खोयी हुई आजादी की तलाश की चेतना के वर्ष हैं। राजनीतिक चेतना का उभरता हुआ स्वरूप तो सन् 1857 के विद्रोह में ही दिखायी देने लगा था, परन्तु समग्र राष्ट्र में राष्ट्रीयता की भावना का उन्मेष वर्तमान शताब्दी के प्रारंभ में ही प्रकट हुआ। सन् 1857 की क्रान्ति स्वयं अनेक ऐसी घटनाओं की निष्पत्ति थी जिनमें अंग्रेजों के प्रति असन्तोष और विरोध प्रदर्शित होने लगा था और लोगों के मन में स्वशासन की अभिलाषा प्रकट होने लगी थी।1 सन् 1765 और सन् 1795 के बंगाल सेना के विद्रोहों और सन्् 1806 में मद्रास सेना के विद्रोह में भारतीय सैनिकों ने अंग्रेज अधिकारियों के आदेशों की अवहेलना कर दी थी। सन् 1857 की क्रान्ति को आम जनता की क्रान्ति भले ही न कहा जा सके, परन्तु विद्रोहियों की घोषणाओं से यह प्रकट होता है कि विदेशी शासन के मूलोच्छेद के उद्देश्य से प्रेरित थे। ऐसी ही एक घोषणा में कहा गया-’’ईश्वर की दी हुई वस्तुआंे में सबको आजादी है। जिसने हमसे इन्हें अलग कर दिया है, क्या वह हमेशा हमको इससे अलग रख पायेगा? क्या ईश्वर की इच्छा के विरूद्ध ऐसा ही होता रहेगा? नहीं, फिरंगियों ने अब इतना अत्याचार किया है कि अब उनका प्याला भर चुका है। ...उठो ईश्वर ने अंग्रेजों को निकाल बाहर करने के लिये जोश पैदा किया है।2 इस संग्राम के वीर मंगल पाण्डे, झाँसी की रानी, तात्या टोपे, बहादुरशाह जफर तथा नाना साहब और सैकड़ों भारतीय सैनिक मन-मानस की श्रद्धा के पात्र बन गये। इस आन्दोलन का सबसे बड़ा राजनीतिक प्रभाव यह हुआ कि भारत का शासन ईस्ट इंडिया कम्पनी के हाथों से सीधा ब्रिटिश पार्लियामेंट में न्यस्त हो गया।
01 नवम्बर 1858 को महारानी विक्टोरिया के नाम से प्रचारित घोषणा में कहा गया कि भारतीय प्रजा को जाति, रंग तथा धर्म के भेद-भाव के बिना शिक्षा, योग्यता और कार्यक्षमता के अनुसार सरकारी नौकरियों में प्रवेश दिया जायेगा। महारानी की इस घोषणा का ब्रिटेन की सरकार और भारत में अंग्रेजी सरकार ने जान बूझकर उल्लंघन किया। भारतीयों को बड़ी-बड़ी सरकारी नौकरियों से वंचित रखा गया।
अंग्रेजों की शोषणपरक व्यापार नीति के कारण भारती का आर्थिक ढांचा अस्त-व्यस्त हो गया। उस समय यहाँ का वस़्त्र-उद्योग इतने उन्नत स्तर पर था कि यहाँं का बना हुआ कपड़ा विदेशों में बहुत पसन्द किया जाता था। ईस्ट इंडिया कम्पनी जुलाहों से कम दामों पर बलपूर्वक कपड़ा खरीदती थी और उसे इंग्लैण्ड में भेज दिया जाता था। जुलाहे एक प्रकार से कम्पनी के गुलाम थे। अंग्रेेजों के अत्याचारों से घबराकर अनेक स्थानों पर जुलाहों ने अपने अंँगूठे काट डाले।3 व्यापार से और अधिक धन लूटने के लिये कम्पनी के लक्ष्य में परिवर्तन हुआ। अब भारत का कच्चा माल विदेश भेजा जाने लगा और वहाँ से कपड़ों तथा अन्य वस्तुओं के रूप में निर्मित माल को भारत लाया जाने लगा। इस नीति से भारत का वस्त्र उद्योग तो नष्ट हो ही गया। लोहा, चीनी, कागज और जहाज बनाने के उद्योग भी बुरी तरह प्रभावित हुए।
भारत का खाद्यान्न इतनी मात्रा में इंग्लैण्ड भेज दिया जाता था ताकि यहाँ दुर्भिक्ष की स्थिति उत्पन्न हो जाये। सन् 1876-77 में आसन्न दुर्भिक्ष के समय भी पिछले वर्षों की अपेक्षा अधिक अन्न बाहर भेज दिया गया।4 किसानों को बड़ा हुआ लगान चुकाने के लिये अपनी उपज बेचकर भूखे रहने पर विवश होना पड़ता था। नील की खेती के लिये अनुबंधित किसान भी इसी प्रकार अंग्रेज मालिकों के अत्याचार से पीड़ित थे। अन्त में इन किसानों ने विद्रोह कर दिया और कई जगहों पर नील की कोठियों में आग लगा दी। बंगाल में दीनबंधु मित्र ने ’’नील दर्पण’’ शीर्षक नाटक लिखा। किसानों के दुःखों से सहानुभूति रखने वाले एक अंग्रेज रेवरंेड जेम्स लौंग ने माइकेल मधुसूदन दत्त से उसका अनुवाद कराके तथा उसमें अपनी भूमिका जोड़कर उसकी 200 प्रतियाँ इंग्लैण्ड भेज दीं। इस पर उन्हें एक हजार रूपये का अर्थदण्ड और एक माह की सजा हुई। चाय बागानों के मजदूरों को भी इसी प्रकार छल और बल से शोषित किया जा रहा था। इस तरह भारतीयों पर राजनीतिक और आर्थिक स्तर पर जो अत्याचार किये जा रहे थे उनसे व्यापक असन्तोष उत्पन्न हो रहा था।
सन् 1877 के दिल्ली दरबार के समय से सुरेन्द्रनाथ बनर्जी, जमशेदजी, जीजी भाई, विश्वनाथ माण्डलिक आदि कुछ भारतीय नेता ऐसी अखिल भारतीय राजनीतिक संस्था की आवश्यकता का अनुभव कर रहे थे जिसके माध्यम से वैधानिक उपायों द्वारा अंग्रेजों के निरंकुश शासन को रोका जा सके। ह्यूम के मन में भी इसी प्रकार का विचार था। अतः सन् 1885 में अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना हुई। इसकी स्थापना में लार्ड डफरिन की भी सहमति थी। वह जैसा सोचते थे कांग्रेस ने प्रारंभ में स्वयं को अंग्रेजी शासन की नम्र और शिष्ट आलोचना तथा सुधार की माँगों तक ही सीमित रखा। धीरे-धीरे कांग्रेस का स्वरूप बदलता गया और वह स्वाधीनता आन्दोलन का प्रमुख मंच बन गयी। काँग्रेस के पाँचवें अधिवेशन (सन् 1886)में तिलक और गौखले राजनीति के क्षेत्र में आ गये।
बंगाल की उभरती हुई क्रान्ति चेतना और शक्ति को दबाने के लिये लार्ड कर्जन ने बंग-भंग की योजना बनाई। इसके अनुसार बंगाल के पूर्वी भाग को काटकर आसाम केक साथ मिला दिया। अक्टूबर 1905 में यह कानून अमल में आ गया। इसके परिणाम स्वरूप व्यापक और सशक्त आन्दोलन हुआ। हिन्दू और अधिकांश मुसलमान बंग-यंग के विरोध में विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार और स्वदेशी-ग्रहण का प्रचार हुआ। बहिष्कार और प्रदर्शनों में ’’वन्देमातरम्’’ गीत गाया जाता था। 16 अक्टूबर को बंगाल में आम हड़ताल रही। लोगों के घरों में चूल्हे नहीं जले। कुछ मुसलमानों को छोड़कर सारे बंगाल ने उस दिन उपवास किया।5
अंग्रेजों को ’’फूट डालो और राज्य करो’’ की नीति से भारत में बहुत सफलता मिली। सन् 1906 में ढाका के नबाब सलीमुल्ला खां ने एक मीटिंग बुलायी। इसमें मुस्लिम लीग की स्थापना का प्रस्ताव पारित हुआ। इस अधिवेशन में बंग-भंग का समर्थन करने और कांग्रेस की आन्दोलनकारी नीति से अलग रहकर सरकार के सामने नम्रतापूर्वक अपनी माँंगंे रखने की नीति अपनायी गयी।
इस समय तक विचारों के आधार पर कांग्रेस में दो दल हो गये। लाल, बाल और पाल उग्र दल के नेता थे। सुरेन्द्रनाथ बनर्जी, गोखले तथा भूपेन्द्रनाथ बसु नरम दल का नेतृत्व कर रहे थे। इन लोगों का अब भी यह विश्वास था कि अंग्रेज भारत के साथ न्याय करेंगे। सन् 1906 में दादा भाई नौरोजी के कारण तो संघर्ष टल गया परन्तु अगले ही वर्ष सूरत अधिवेशन में कांग्रेस में फूट पड़ गयी।
सन् 1916 के लखनऊ अधिवेशन में दो महत्त्वपूर्ण घटनाएँ हुईं। एक तो उग्र और नरम दल वालों में पुनः एकता हो गयी। दूसरे, मुस्लिम लीग का अधिवेशन भी कांग्रेस के अधिवेशन के साथ ही हुआ।
सन् 1915 में गान्धी जी दक्षिण अफ्रीका में सत्याग्रह करके भारत आ गये। सन् 1914 में प्रथम विश्वयुद्ध आरंभ हो गया। इसमें भारतीय सैनिकों ने असाधारण वीरता का प्रदर्शन किया। इससे भारत में यह निष्फल आशा की जा रही थी कि सम्भवतः पुरस्कार स्वरूप अंग्रेज भारत को स्वराज्य प्रदान कर देंगे किन्तु भारत को रौलेट एक्ट का पुरस्कार मिला।

गान्धी जी ने चेतावनी दे दी थी कि यदि यह बिल पारित हुआ तो व्यापक आन्दोलन किया जायेगा। दिनांक 06 अप्रैल को सारे देश में आम हड़ताल हुई। क्रुद्ध भीड़ ने ओडायर के बंगले से लौटते समय एक बैंक के भवन में आग लगा दी और उसके अंग्रेज मैनेजर को मार डाला। 15 अप्रैल की शाम को जलियाँवाले बाग में आयोजित सभा पर जनरल डायर ने नृशंसतापूर्वक गोली चलाने का आदेश दियां उस संकीर्ण स्थान में घिरे सैकड़ों आदमी मारे गये। डायर ने तब तक नर-संहार करवाया जब तक एक भी गोली शेष रही।
राष्ट्रीय चेतना पूरे ज्वार पर थी और गान्धी जी सत्य और अहिंसा के अभिनव प्रयोग से उसे नवीन दिशा दे रहे थे। सन् 1930 में नमक पर लगे कर के विरोध में उन्होंने नमक सत्याग्रह छेड़ दिया। धरसना पर धावा बोलते समय उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। इसी समय गान्धीवाद से असन्तुष्ट होकर आचार्य नरेन्द्र देव, सम्पूर्णानन्दद जी तथा जयप्रकाश नारायण ने कांग्रेस समाजवादी दल की स्थापना की।
सुभाष चन्द्र बोस सुधार और समझौते की नीति के विरोधी थे। वह विदेशी शासन से मुक्ति के लिये शस्त्र-ग्रहण के पक्ष में थे। त्रिपुरी कांग्रेस में सुभाष ने अध्यक्ष पद के चुनाव में उदारवादियों के प्रत्याशी पट्टाभि सीतारामय्या को पराजित कर दिया। गान्धी जी ने इसे अपनी पराजय माना। क्षुब्ध होकर सुभाष चन्द्र बोस ने कांग्रेस से इस्तीफा दे दिया और फॉरवर्ड ब्लाक की स्थापना की।

सन् 1939 में प्रारंभ द्वितीय विश्वयुद्ध में सरकार ने भारतीय नेताओं की अनुमति के बिना ही भारत को सम्मिलित कर लिया। कांग्रेस ने सरकार से यह आश्वासन माँगा कि युद्ध की समाप्ति पर भारत की स्वतंत्रता घोषित कर दी जायेगी। सरकार ने जब यह आश्वासन नहीं दिया तो सभी प्रान्तों के कांग्रेसी मंत्रिमण्डलों ने विरोध स्वरूप त्याग पत्र दे दिया।
सन् 1940 में रामगढ़ अधिवेशन में पूर्ण स्वराज्य का लक्ष्य घोषित किया गया। युद्ध के विरोध में व्यापक आन्दोलन किया गया। जिसे ’’व्यक्तिगत सत्याग्रह’’ कहा गया।
08 अगस्त 1942 को ’’भारत छोड़ो’’ का ऐतिहासिक प्रस्ताव कांग्रेस के अधिवेशन में स्वीकार किया गया। 09 अगस्त को बम्बई में एकत्र सभी नेता गिरफ्तार कर लिये गये। गांधी जी इस आन्दोलन के लिये जो निर्देश देना चाहते थे उसका समय ही नहीं आ पाया। ’’अंग्रेजो भारत छोड़ो’’ तथा करो या मरो के नारों के साथ यह प्रसिद्ध आन्दोलन जनता ने ही चलाया। क्रान्तिकारियों ने रेल की लाईनें उखाड़ दीं, स्टेशनों और थानों को जला दिया, डाकखाने नष्ट किये, सरकारी कर्मचारियों की हत्या की तथा अनेक प्रकार से कानून को तोड़ा। सन् 1942 की इस क्रांति में बलिपंथी भारत की अप्रतिहत चेतना प्रकट हुई। इस क्रान्ति के दमन में अंग्रेजों ने अमानवीय और अकल्पनीय व्यवहार किया।

सन् 1943 में सुभाष चन्द्र बोस रहस्यात्मक ढंग से सिंगापुर पहुंच गये और उन्होंने रास बिहारी बोस द्वारा गठित आजाद हिन्द फौज का कुशलतापूर्वक संचालन किया। उनके नेतृत्व में यह सेना भारत की ओर बढ़ने लगी परन्तु सीमित साधनों और प्रतिरोधी मौसम के कारण वह पराजित हो गयी। सन् 1945 में नेताजी की मृत्यु वायुयान दुर्घटना में हो गयी। आजाद हिन्द सेना युद्ध बंदियों के रूप में भारत लायी गयी। सुभाषचन्द्र बोस का असाधारण साहस और प्रबल संगठन कौशल सफलता तक नहीं पहुँच सका परन्तु उन्होंने भारत की राष्ट्रीय चेतना को नयी शक्ति प्रदान की। वह जन-जन के श्रद्धेय बन गये।
युद्ध के पश्चात् इंग्लैण्ड में मजदूर दल की सरकार बनी। सन् 1946 में कैबिनेट मिशन भारत आया। इसी समय मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान की माँग फिर उठायी। उसने अंतरिम सरकार में सम्मिलित होने से इन्कार कर दिया। प्रत्यक्ष कार्यवाही के रूप में उसने जो कदम उठाया उससे नोआखाली में और कलकत्ता में दंगे आरम्भ हो गये। जिन्ना अपनी माँंग पर अटल थे। मार्च 1947 में लार्ड माउंटबेटन भारत आये। उन्होंने जून 1948 के बजाय 15 अगस्त, 1947 के पहले ही सत्ता हस्तान्तरण करने की घोषणा की। पाकिस्तान की माँग कांग्रेस ने स्वीकार कर ली थी। इस प्रकार स्वतंत्रता प्राप्ति का हर्ष और देश-विभाजन का विषाद भारत ने एक साथ अनुभव किया। पंजाब में साम्प्रदायिक विद्वेष की अग्नि, हिंसा और पाशविक अनाचार के कारण मानवता को कलंकित करने वाली घटनाओं का क्रम चला।
स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् भारत के समक्ष देशी रियासतों के विलयन का प्रश्न सबसे बड़ा था। अंग्रेज इस देश से जाते समय देशी नरेशों को अपनी संधियों से मुक्त कर गये थे। सरदार पटेल की कुशलता और दृढ़तासे इन रियासतों का विलयन भारत में हो गया। काश्मीर, हैदराबाद और जूनागढ़ भी भारत में ही सम्मिलित हो गये।

ऽ सशस्त्र क्रान्ति:-
भारतीय स्वाधीनता के संग्राम में उन क्रान्तिवीरों का योगदान भी अविस्मरणीय है जिन्होेंने अंग्रेजों को अपनी सशस्त्र क्रान्ति से आतंकित किया और जिन्हांेने मातृभूमि पर अपनी बलि दे दी। क्रांतिकारियों के साहस और उत्सर्गभाव का भी दीर्घकालीन क्रम रहा है। सन् 1897 में एक और लोग दुर्भिक्ष के कारण तडप-तड़प कर मर रहे थे, दूसरी ओर बम्बई में प्लेग फैल गयी। प्लेग कमिश्नर रैंड लोगों के साथ बहुत कठोरता का व्यवहार कर रहा था। अतः चाफेकर बन्धुओं ने उसकी हत्या कर दी। चाफेकर बन्धुओं को फाँसी दे दी गयी। बंगाल में वारीन्द्र घोष सशस्त्र समितियों का गठन कर रहे थे। उनका संगठन अलीपुर षड़यंत्र के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इसमें वारीन्द्र घोष, अरविन्द घोष तथा अन्य लोग गिरफ्तार हुए। सन् 1978 में मुजफ्फरपुर में किंग्सफोर्ड की हत्या के प्रयास में खुदीराम बोस को फाँसी हो गयी। उनके विषय में लेख लिखने पर तिलक को छः साल का कठोर कारावास और एक हजार रूपये का जुर्माना हुआ। मदनलाल धीेगरा को एक अंग्रेज को गोली मार देने के अपराध में फाँंसी की सजा हुई। श्यामजी कृष्ण वर्मा तथा सावरकर इंग्लैण्ड में रहकर क्रांति में सहयोग दे रहे थे। क्रांतिकारी संगठन योरोप के अनेक देशों में भी अंग्रेजों के विरूद्ध संघर्ष के लिये शक्ति और साधन अर्जित कर रहा था।
काकोरी में ट्रेन रोककर उसका खजाना लूट लेने के षडयंत्र में रामप्रसाद विस्मिल, राजेन्द्र लाहिडी, रोशनसिंह तथा अशफाकुल्ला को फांसी हुई। काकोरी की घटना के पश्चात् क्रांतिकारियों के संगठन और नेतृत्व का भार चन्द्रशेखर आजाद और मंगलसिंह पर आ गया। उनके अन्य प्रमुख साथी राजगुरू, सुखदेव, यशपाल, बटुकेश्वर दत्त तथा झाँसी के भगवानदास माहौर थे। ये क्रांतिकारी स्थान-स्थान पर बम विस्फोट के द्वारा तथा अंग्रेज अफसरों पर गोली चलाकर अंग्रेजी शासन के कान खोल रहे थे। मातृभूमि के ये प्रेमी अपने प्राण हथेली पर लिये रहते थे। वे फाँसी के तख्ते पर चढ़ते समय हर्ष और गौरव से दीप्त हो उठते थे। इन वीरों की शहादत ने स्वाधीनता आन्दोलन में महत्त्वपूर्ण कार्य किया है।

ऽ सामाजिक परिवेशः-
आधुनिक युग में राष्ट्रीयतापरक राजनीतिक चेतना के उदय के साथ ही सामाजिक क्षेत्र में भी पुनर्जागरण का उन्मेष हुआ। मध्ययुगीन सामाजिक जीवन-मूल्य नवीन परिवेश में निरर्थक अन्यायपूर्ण और विघटनकारी प्रतीत होने लगे थे। वर्णाश्रम-व्यवस्था के अनुसार निर्धारित समाज में एक वर्ण मंें अनेक जातियाँ और उपजातियाँ निर्मित हो गयी थीं। इनके कारण उत्पन्न हुई अलगाव की चेतना ने समाज को कृत्रिम और तर्कहीन आधारों पर विखण्डित और विभाजित किया। जातियों के आधार पर समाज में ऊँच-नीच का भाव पैदा हुआ जिसमें गुण और योग्यता के स्थान पर जन्म के संयोग को महत्त्व दिया गया। नारी को भोग्य सम्पत्ति मानकर उसका उपयोग वस्तु रूप में होने लगा। सामयिक परिस्थितियों और धारणाओं के अनुसार नारी अन्तःपुर की वन्दिनी और असूर्यम्पश्या हो गयी। उसका स्थान पुरूष की सापेक्षता में अत्यन्त निम्न समझा जाने लगा। बाल-विवाह, विधवा-जीवन, सती-प्रथा आदि ऐसी अनेक कुरीतियों ने जन्म लिया जिनसे नारी जीवन अश्रु-कथा बन गया। व्यापक अशिक्षा ने समाज की जड़ता और परम्परा भक्ति को बल दिया।
धर्म आध्यात्मिक साधना के उच्चादर्श से च्युत होकर बाह्य उपचारों का निर्वहण माना जाने लगा। सामाजिक और नैतिक आचरण के लिये आरोपित धर्मानुशासन की परिणति अब अन्ध विश्वास जन्य भय में हो गयी।
ऽ ब्रह्म समाज:-
नव जागरण के वर्तमान युग में सामाजिक जीवन मूल्यों में क्रान्तिकारी परिवर्तन हुआ। इस दिशा में पहला महत्त्वपूर्ण प्रयास राजा राममोहन राय ने ब्रह्मसमाज की स्थापना के द्वारा किया। राममोहन राय ने हिन्दू धर्म के अतिरिक्त इस्लाम और ईसाई धर्मों का गहन अध्ययन किया था। ईसाई धर्म का प्रचार तो भारत में ईस्ट इंडिया कम्पनी के आने के पूर्व ही हो गया था परन्तु भारत में अंग्रेजी राज्य की स्थापना के बाद शासक धर्म होने के कारण उसका प्रचार अधिक तीव्रता से होने लगा।
राजा राममोहन राय धार्मिक अन्ध विश्वासों के विरूद्ध थे। उन्होंने ईसाई धर्म पर लेख लिखकर तार्किक रूप से उसके चमत्कार वाले अंश को निरर्थक सिद्ध किया। उनके तर्कों से प्रभावित होकर एक ईसाई पादरी तो अपना धर्म छोड़कर उनके द्वारा स्थापित यूनीटेरियन सोसायटी में सम्मिलित हो गया। राममोहन राय ने विज्ञान और वेदान्त के संयोग की आवश्यकता का अनुभव किया। उनका विचार था कि भारत के प्राचीन सत्यों के योरोप के नवीन सिद्धान्तों के साथ मेल में ही भारत का कल्याण निहित है।इसीलिये उन्होंने अंग्रेजी शिक्षा का समर्थन किया।
ब्रह्म समाज ने अनेक सामाजिक कुरीतियों पर प्रहार किया। उन्होंने जाति भेद को अमानवीय और राष्ट्रीय एकता को विघटित करने वाला माना। सतीप्रथा के विरूद्ध राजा राममोहन राय ने इतना सशक्त आन्दोलन किया कि मुख्य रूप से उन्हीं के प्रचार के कारण विलियम बैंटिंक ने सती-प्रथा के विरूद्ध कानून बनाया। उन्होंने विधवा विवाह और स्त्री-पुरूष की समकक्षता का भी प्रचार किया।
राममोहन राय का वेद और उपनिषदों में अविचल विश्वास था परन्तु उनके पश्चात् ब्रह्म समाज हिन्दुत्व से दूर जाने लगा और केशवचन्द्र सेन के समय में तो वह ईसाई धर्म के बहुत निकट आ गया।
ऽ आर्य समाज:-
सामाजिक और सांस्कृतिक पुनरूत्थान में स्वामी दयानंद के आर्यसमाज का महत्त्वपूर्ण योगदान है। ’’दिनकर’’ ने लिखा है कि जैसे राजीनति के क्षेत्र में हमारी राष्ट्रीयता का सामरिक तेज पहले-पहल तिलक में प्रत्यक्ष हुआ, वैसे ही संस्कृति के क्षेत्र में भारत का आत्माभिमान स्वामी दयानन्द में निखरा। उन्होंने हिन्दू समाज में व्याप्त सामाजिक कुरीतियों और धार्मिक पाखण्ड पर कठोर प्रहार किया, परन्तु वेदों को आधार मानकर उन्होंने आर्य धर्म को गौरव के उपयुक्त माना। उनके अनुसार भारत की शान और प्रकाश पश्चिमी दर्शन से नहीं बल्कि वेदों से प्राप्त हो सकती है। जाति भेद और छुआछूत को मिटाने तथा स्त्री जागरण के सम्बन्ध में आर्यसमाज ने असाधारण कार्य किया। उनका सबसे महत्वपूर्ण कार्य था जाति-च्युत हिन्दुओं को पुनः हिन्दू धर्म में प्रवेश के लिये द्वार खोलना। यह सामयिक आवश्यकता थी। समाज सुधार के अन्तर्गत स्वामी दयानन्द ने धार्मिक आडम्बर अवतारवाद तथा मूर्ति पूजा पर भी प्रहार किया। आर्यसमाज संस्था में क्रान्तिकारी आवेश और आक्रामकता थी। इससे ईसाई और मुसलमान दोनों ही सशंकित और विचलित हुए। मुसलमान तो आर्यसमाज के प्रबल विरोधी हो गये। परन्तु दयानन्द की विचारधारा में साम्प्रदायिक वैर न होकर कुरीतियों के कुशोत्पाटन की तथा हिन्दुत्व की रक्षा की अप्रतिहत क्रान्ति भावना थी।
एनीबेसेंट ने ’’ब्रह्मसमाज’’ (थियोसोफिकल सोयाटी) के माध्यम से जो कार्य किया वह पुनर्जागरण के युग में कुछ कारणों से असाधारण है। उन्होंने ब्रह्म समाज और आर्य समाज से आगे बढ़कर अखण्ड हिन्दुत्व की प्रतिष्ठा की। उन्होंने वेद, उपनिषद, अवतारवाद, गीता, योग और अनुष्ठान सभी के द्वारा हिन्दुत्व का समर्थन किया।
विवेकानन्द ने दर्शन को वाग्जाल अथवा दुर्बोध बौद्धिकता का विषय नहीं बताया बल्कि उन्होंने आंतरिक उन्नयन के साथ ही भौतिक समस्याओं पर भी संलग्नतापूर्वक विचार किया। एक ओर उन्होंने भारत के सांस्कृति अतीत की श्रेष्ठता प्रतिपादित की दूसरी और यह भी प्रचारित किया कि भूखी जनता के सामने धर्म चर्चा करना अन्याय है।
भारतीय समाज की कुरीतियों की ओर गांधीजी ने भी ध्यान दिया। उनकी प्रेरणा से कांग्रेस के कार्यक्रम में अछूतोद्धार, स्त्री शिक्षा, प्रौढ़शिक्षा आदि सामाजिक कार्य सम्मिलित किये गये। आस्तिकता के स्तर पर उन्होंने सर्वधर्म समभाव का प्रचार किया।
शिक्षा के क्षेत्र में भी पारम्परिकता के स्थान पर नवीनता का आगमन हुआ। अंग्रेजों ने शासन मे सुविधा के लिये तथा सांस्कृतिक विजय के लिये भारत में अंग्रेजी शिक्षा को प्रारंभ किया। अंग्रेजी शिक्षा के माध्यम से भारत जहाँ अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं और ज्ञान विज्ञान से जुड़ा वही उसके प्रभाव से विचारों और रहन-सहन का पश्चिमीकरण भी हुआ।
इस प्रकार वर्तमान युग में सामाजिक, नैतिक और धार्मिक जीवन मूल्यों में रूढ़िवादिता और परम्परा, पूजा के स्थान पर तार्किकता और वैज्ञानिक दृष्टिकोण का उदय हुआ। कुछ तो वैचारिक परिवर्तन से और कुछ नयी परिस्थितियों के कारण परम्पराओं तथा अन्धविश्वासों का निर्मोक टूटता गया। संचार और आवागमन के साधनों से नवयुग की चेतना भारत के भीतरी भागों में भी पहुँचने लगी। फिर भी जीवन के युगों पुराने सामाजिक आधार और मानदण्ड सम्पूर्ण रूप से विसर्जित नहीं हुए। परम्परापालन आज भी अनेक रूपों में दिखाई देता है।
शताब्दियों के साहचर्य से हिन्दू और मुसलमान में जो स्वाभाविक समन्वय उत्पन्न हुआ था उसे स्वाधीनता आन्दोलन के समय कुटिल अंग्रेजों ने तथा स्वार्थप्रेरित नेताओं ने बहुत कुछ नष्ट कर दिया। पृथक देश की मांग से भारतीय समाज के दोनों घटकों में सहिष्णुता का अभाव दिखाई देने लगा। आर्यसमाज के उग्र दृष्टिकोण के कारण इस वर्ग में जो आशंका की प्रतिक्रिया हुई उसका उपयोग राजनीतिक क्षेत्र में किया गया।

ऽ साहित्यिक परिवेश ऽ

भारतेन्दु-युग का प्रारम्भ 1868ई. में माना जाता है। इसके पूर्व और रीतिकाल की समाप्ति के बीच के काल को न तो पूरी तरह रीतिकाल के साथ संयुक्त किया जा सकता है और न उसमें नवयुग की प्रवृत्तियों के स्पष्ट दर्शन होते हैं। सन् 1843 से सन् 1867 के बीच की कविता पर पूर्व युग का प्रभाव है। इस समय ब्रजभाषा में भक्ति, श्रंृगार और रीति-निरूपण सम्बन्धी विषयों का प्रयोग हुआ है।

भारतेन्दु युग में काव्य एकनिष्ठ सत्ता की ओर से लोक निष्ठा की ओर उन्मुख हुआ। अब कविता में रीतियुगीन परम्परायुक्त श्रंृगार वर्णन तथा रीति निरूपण की प्रवृत्ति का त्याग और युगीन चेतना की अभिव्यक्ति दिखायी देने लगी। इस युग की चेतना पुनर्जागरण की चेतना है। धार्मिक और सामाजिक क्षेत्रों में अनेक सुधारवादी आन्दोलनों के कारण समाज में रूढ़ियों से मुक्ति और नवीन दृष्टिकोण दिखायी दे रहा था। भारतेन्दु ने युग के साथ सम्पृक्ति दिखाकर कविता को रीतियुगीन विगतार्थ रूढ़ियों से मुक्त किया और उसमें प्राणों का संचार किया। इस युग की कविता में राजनीतिक समस्याओं का भी समावेश हुआ। प्रारंभ में तो कवियों में राजभक्ति का स्वर है, परन्तु धीरे-धीरे यह देश भक्ति का उद्घोष बन गया। भारतेन्दु ने अंग्रेेजी भाषा और शिक्षा के प्रभाव से अपनी भाषा के प्रति उत्पन्न हीनता के भाव को भी दूर करने का प्रयास किया। उन्होंने सभी प्रकार की उन्नति का मूल अपनी भाषा की उन्नति को ही माना।
भारतेन्दु युगीन कविता में राष्ट्रीयता, सामाजिक चेतना, भक्ति तथा श्रृंगार के स्वरों की अभिव्यक्ति हुई है। अस्पृश्यता, विधवा जीवन के अभिशाप तथा नारी शिक्षा आदि सामाजिक समस्याओं को इस युग के कवियों ने प्रमुख रूप से वाणी दी। कविता अब लोकार्पित होने लगी। फिर भी भारतेन्दु युग की कविता पूर्ववर्ती युग के प्रभाव से सर्वथा मुक्त नहीं है। समस्यापूर्ति काव्य और ब्रजभाषा के प्रयोग में रीतियुग का प्रभाव बना हुआ है।
सन् 1900 में सरस्वती पत्रिका का प्रकाशन हिन्दी कविता के क्षेत्र की अविस्मरणीय घटना है। महावीरप्रसाद द्विवेदी ने कविता के विषय और विशेष रूप से भाषा के निर्धारण में शासक और नियामक का कार्य किया। भारतेन्दु युग में परिवर्तन तो आया था परन्तु उसमें अमिश्र स्पष्टता नहीं थी। द्विवेदी जी ने विषय, भाव, भाषा तथा छन्द के सम्बन्ध में कवियों को मार्ग दर्शन कराया। इस युग की कविता में राष्ट्रीय भावना का स्वरूप अधिक स्पष्ट हुआ। अतीत, गौरव और वर्तमान दुर्दशा के चित्रण से समाज में प्रेरणा का संचार किया गया। कविता में सामान्य मानवता का बोध और नीति तथा आदर्श के प्रति प्रेम प्रमुख रूप से परिलक्षित हुआ। कविता में प्रयुक्त विषयों का क्षेत्र विस्तृत हुआ। जीवन और जगत के विविध दृश्यों और पदार्थांे को काव्योचित माना गया। इनके अतिरिक्त विभिन्न मनोभावों पर भी काव्य रचना होने लगी। हरिऔध, मैथिलीशरण गुप्त, सियाराम शरण गुप्त, रामनरेश त्रिपाठी, श्रीधर पाठक, पूर्ण शंकर, सनेही आदि अनेक कवियों ने कविता को जीवन के अधिक निकट लाने का कार्य किया।
द्विवेदी जी का सबसे बड़ा योगदान काव्य भाषा का निर्धारण और स्थिरीकरण है। भारतेन्दु युग में गद्य में तो खडी बोली का प्रयोग होने लगा था, किन्तु कविता प्रमुख रूप से ब्रजभाषा में ही लिखी जा रही थी। द्विवेदी जी ने खडी बोली को काव्य-भाषा के पद पर प्रतिष्ठित किया। उन्होंने भाषा की व्याकरणिक शुद्धता पर विशेष बल दिया। छन्द-प्रयोग के प्रयोग में भी विविधता के दर्शन होते हैं। अब कवि कवित्त और सवैया के अतिरिक्त गीतिका, हरिगीतिका, सार, रोला, कंुडलिया, ताटक आदि अनेक छन्दों का भी व्यवहार करने लगे। काव्य रूपों के क्षेत्र में भी द्विवेदी युगीन कविता में व्यापकता की प्रवृत्ति दिखाई देती है। इस समय मुक्तक के अतिरिक्त महाकाव्य, खण्डकाव्य, आख्यानक काव्य, चम्पू काव्य तथा प्रगीत आदि विविध काव्य रूपों का व्यवहार हुआ है।
द्विवेदी युगीन कवि केवल मनोरंजन को कवि कर्म नहीं मानते थे। उनके अनुसार कविता में उचित उपदेश भी आवश्यक था। उपदेश प्रधानता और प्रयुक्त विषयों की स्थूलता के कारण इस युग की कविता में इतिवृत्तात्मकता और नीरसता का प्रभाव उत्पन्न हो गया। भाषा में भी समुचित परिष्कार नहीं हो पाया था। खडी बोली की अभिव्यक्ति क्षमता बाद के वर्षों में दिखाई देती है।

ऽ छायावाद:-
द्विवेदी युग की समाप्ति के आसपास कविता में भाव और अभिव्यंजना के क्षेत्र में अपूर्व परिवर्तन दिखायी दिया। सन् 1918 से 1936 तक छायावादी कविता में द्विवेदी युगीन वस्तु परकता तथा इतिवृतात्मकता के स्थान पर स्वानुभूतिपरकता और कल्पना के नवीन रूपों का वैभव प्रकट हुआ। छायावादी कविता में विषय के स्थान पर विषयी को प्रधानता मिली। उसमें प्रेम और सौन्दर्य की विविध रंगिणी छवियाँ अंकित की गयीं। प्रकृति अब केवल जड़ दृश्य न होकर सजीव हो उठी। उसमें मानवोचित स्पन्दन और चेष्टाएँं दिखायी देने लगीं उपदेश और नैतिकता के बदले कवि ने अपनी सहज अनुभूति में जीवन के सुख-दुख, आशा-निराशा आदि विभिन्न अनुभवों को समाहित कर लिया।
छायावादी कविता की सूक्ष्मता केवल द्विवेदी युगीन स्थूलता की तात्कालिक प्रतिक्रिया नहीं थी। उसका सम्बन्ध युगीन राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक चेतना से भी था। अनेक सुधारवादी आन्दोनों, गांधीवाद तथा नारी के प्रति स्वस्थ और सहानुभूति पूर्ण दृष्टिकोण का प्रभाव भी छायावाद पर पड़ा है।
भाव की ही तरह इस युग की भाषा में भी परिवर्तन और विकास लक्षित होता है। छायावादी कवियों ने शब्दों का मर्म पहचानकर उनकी अभिव्यक्ति परक सभी सम्भावनाओं को उजागर किया। भाषा की लाक्षणिक और व्यंजनात्मक क्षमताओं का तथा उसकी चित्र विधायिनी शक्ति का प्रचुर प्रयोग किया गया।
इसी काल में माखनलाल चतुर्वेदी, बालकृष्ण शर्मा नवीन, सुभद्राकुमारी चौहान आदि कवियों ने राष्ट्रीयतापरक काव्य की भी रचना की।

ऽ छायावाद पर प्रहार:-
अनुभूति और अभिव्यक्ति की नवीनता से प्रेरित इस काव्यान्दोलन का व्यापक सत्कार हुआ, परन्तु उसे आलोचना के निर्मम प्रहार भी कम नहीं सहन करना पड़े। उस समय कवियों और आलोचकों का एक ऐसा वर्ग भी था जो काव्य के परम्परागत प्रतिमानों से जुड़ा था। जून सन् 1921 की सरस्वती में सुशीलकुमार ने छायावाद पर व्यंग्यात्मक लेख लिखा। महावीर प्रसाद द्विवेदी ने मई सन् 1927 की सरस्वती में छायावाद के तात्पर्य पर व्यंग्य किया। ’’सुकवि’’ में भी इस प्रकार के लेख प्रायः प्रकाशित होते थे। आलोचना और प्रत्यालोचना के कारण कभी कभी तो कानूनी अदालत तक मामले के पहँुंचने की संभावना हो जाती थी।
महेश प्रसाद मिश्र ’रसिकेश’ ने ’सुकवि’ में हिन्दी कविता में छायावाद शीर्षक से धारावाहिक लेख लिखा। इसमें लेखक ने छायावाद का उपहास करते हुए छन्द के बन्धन तोड़कर मुक्त छन्द का प्रयोग करने वाले कवियों को कवि ही नहीं माना। लेखक के अनुसार पिंगल से गला छुड़ाना सच्चे कवि का काम नही है। जिन्हें अंगूर खट्टे हों उनकी बात ही न्यारी है। इस आरोप के लक्ष्य निराला जी थे। उन्होंने सनेही जी को एक पत्र में मिश्र जी के पत्र का सन्दर्भ देते हुए लिखा-’’मुक्त छन्द की मुक्ता का महत्त्व नराकार वानर महाशय क्या समझेंगे? उन्हें तो समावर्त केले ही प्रसन्न कर सकते हैं।
’रसिकेश’ जी ने अगले अंक में निराला की ’’बादल’’ कविता में रस विपरीतता का आरोप लगया और उसमें रस-परिहास दिखाया। शब्दाबली की भीष्मता भाव एवं रस के बिल्कुल खिलाफ है। विरोधी रसों की निष्पत्ति से किसी का भी विकास नही हो पाया। प्रत्येक एक दूसरे का गला घोंट रहे हैं। इसी के साथ उनकी चेतावनी भी छपी कि यदि निराला जी ने खुले शब्दों में क्षमायाचना नहीं की तो उनके विरूद्ध फौजदारी और दीवानी का मुकदमा दायर कर दिया जायेगा। निराला जी ने निर्भीक भाव से अपराध के अभाव में क्षमा याचना करने से इन्कार कर दिया। तब छायावाद का वितण्डावाद शीर्षक से टिप्पणी करते हुए सनेही जी ने लिखा कि यदि दोनों ओर से लिखे गये पत्रों से सम्बन्धित लोगों को सन्तोष न हुआ तो इसका निर्णय साहित्यिकों की पंचायत पर छोड़ दिया जावे।
यह विवाद दो भिन्न काव्य दृष्टियों का विवाद था। ’’रसिकेश’’ जी उन काव्यादशों के पक्षधर थे जिनमें कविता में विषय प्रधानता, स्पष्ट भाव, रस के प्रति शास्त्रीय दृष्टि तथा छन्दों का परम्परागत रूप स्वीकार किया जाता था। निराला कविता के रूढ़ि मुक्त स्वरूप के संवाहक थे। उस समय विभिन्न स्थानों के प्रमुख कवि भी जो परम्परा से जुड़े हुए है, छायावाद की विलक्षणता के आश्वस्त नहीं थे।

ऽ समस्या पूर्ति काव्य:-
समस्या पूर्ति की रीतिकालीन काव्य शैली आधुनिक युग में भी विभिन्न कवि समाजों में प्रचलित रही है। रीतिकाल में दरबारों में इस प्रवृत्ति का पर्याप्त प्रचलन था। इसके द्वारा कवियों की कल्पना-शक्ति, रचना-कौशल तथा कभी कभी उनके आशुकवित्व की परीक्षा होती थी। भारतेन्दु युग में ब्रजभाषा-काव्य परम्परा में समस्यापूर्ति-काव्य की रचना विशेष रूप से हुई है। भारतेन्दु द्वारा काशी में स्थापित, कवितावद्धिनी-सभा, कानपुर का रसिक समाज तथा निजामाबाद के कवि समाज में समस्या पूरण को प्रतियोगिता के रूप में प्रौत्साहन दिया जाता था। समस्यापूर्ति काव्य की गोष्ठियों में उस समय के प्रसिद्ध कवि भाग लिया करते थे। प्रेमधन, लछिराम, ठाकुर जगमोहनसिंह, विजयानन्द त्रिपाठी, गोविन्द भिल्ला भाई, रामकृष्ण वर्मा, प्रतापनारायण मिश्र, अम्बिकादत्त व्यास तथा बैनीद्विज आदि कवि समस्यापूर्तियों के कारण विशेष रूप से लोकप्रिय हुए। प्रतापनारायण मिश्र की ’पपिहा जब पूछिहै पीव कहाँ’ और प्रेमधन की ’चरचा चलिये की चलाइये ना’ प्रसिद्ध समस्यापूर्तियाँ हैं। अम्बिका व्यास ने कविता वद्धिनी सभा में ’पूरी अमी की कटोरिया सी चिरजीवी रहो विक्टोरियारानी’ समस्या पूर्ति के द्वारा सुकवि की उपाधि प्राप्त की थी। नाथूराम शंकर शर्मा और रत्नाकर ने भी प्रभूत समस्यापूर्ति काव्य की रचना की है। ’’शंकर’’ जी के समय में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी, बालकृष्ण भट्ट, राय देवीप्रसाद पूर्ण तथा किशोरीलाल गोस्वामी जैसे लोग समस्यापूर्तियों में भाग लेते थे। राजा लक्ष्मणसिंह प्रायः निर्णायक होते थे।14 शंकरजी को श्रेष्ठ समस्यापूर्तियों के कारण कविराज भारतेन्दु साहित्य सुधाकर तथा कवि सम्राट आदि उपाधियांँ मिली थीं। 15
इस समय ’समस्यापूर्ति’ ’कवि वचन सुधा’, ’काव्य सुधाकर’, ’रसिक वाटिका’ तथा ’रसिकमित्र’ आदि पत्रिकाओं में केवल समस्या पूर्तियाँं ही रहा करती थीं। सनेही जी ने सुकवि पत्र के द्वारा इस काव्य प्रणाली को बहुत योगदान दिया। उस काल में समस्या पूर्तियोें के अनेक संग्रह निकले जिनमें दुर्गादत्त व्यास का समस्यापूर्ति प्रकाश, गोविन्द गिल्लाभाई का समस्यापूर्ति प्रदीप, गंगाधर द्विज गंग का समस्या प्रकाश अम्बिकादत्त व्यास का समस्या पूर्ति सर्वस्व तथा किशोरीलाल गोस्वामी का समस्यापूर्ति मंजरी प्रमुख है।
समस्या पूर्तियों का प्रचलन काशी और कानपुर जैसे बड़े नगरों के कवि-समाजों के अतिरिक्त अन्य क्षेत्रों में भी रहा है। यहाँं के कवि ’सुकवि’ जैसे पत्रों में नियमित रूप से समस्यापूर्तियांँ भेजते थे।
ऽ ब्रजभाषा काव्य:-
भारतेन्दु से पूर्व दीनदयाल गिरि, अयोध्याप्रसाद वाजपेयी औध, द्विजदेव तथा राजा लक्ष्मणसिंह आदि कवियों ने ब्रजभाषा में काव्य रचना की है। भारतेन्दु युग हिन्दी कविता का संक्रान्ति काल है। उसमें विषय और भाषा दोनों रूपों में प्राचीन और नवीन धाराएंँ प्रवाहित होती रही हैं। इस युग में भारतेन्दु, प्रेमधन, प्रतापनारायण मिश्र, ठाकुर जगमोहनसिंह तथा अम्बिकादत्त व्यास आदि ने ब्रजभाषा में काव्य सृजन किया है। इस युग में परम्परागत विषयों के साथ देशानुराग, मातृभूमि-गौरव, आर्थिक शोषण पर चिन्ता तथा बाल विधवा जैसे विषयों का भी प्रयोग हुआ है। द्विवेदीयुग में भी ब्रजभाषा काव्य की परम्परा जीवित रही है। शंकर, हरिऔध, रत्नाकर, लाला भगवानदीन, पूर्ण, सनेही, सत्यनारायण, कवि रत्न, वियोग हरि तथा रसाल आदि कवियों ने ब्रजभाषा में परम्परित और नवीन विषयों का व्यवहार किया। ब्रजभाषा काव्य की आधुनिकता के विषय में डा0 जगदीश वाजपेयी ने लिखा है कि भारतेन्दु काल से आरम्भ होकर द्विवेदी युग तक तथा उसके बाद की ब्रजभाषा कविता में जीवन के अधिकाधिक समीप जाने की प्रवृत्ति क्रमशः फलित और पुष्पित होती रही है।16 छायावाद के आधार-स्तम्भ प्रसाद जी ने और नयी कविता के पुरस्कर्ता डा0 जगदीश गुप्त ने प्रारम्भ में ब्रजभाषा में काव्य रचना की है।
ब्रजभाषा और खड़ी बोली के व्यवहार के विषय में पर्याप्त विवाद चला है। एक ओर शताब्दियों से व्यवहृत कोमल कान्त पदावलीयुक्त ब्रजभाषा थी, दूसरी ओर खड़ी बोली का उभरता हुआ स्वरूप था जिसे महावीर प्रसाद द्विवेदी, हरिऔध और गुप्त जी का संरक्षण मिला।
ब्रजभाषा के अनेक कवि खड़ी बोली के प्रभाव और उसकी शक्ति को स्वीकार करके उसमें भी कविता लिखने लगे। द्विवेदीयुग के बाद काव्य भाषा का यह विवाद धीमा पड़ गया था। परन्तु छायावाद सम्बन्धी आलोचना और प्रत्यालोचना से वह पुनः उग्र हो उठा। डा0 कपिलदेव सिंह के शब्दों में छायावाद की कविता के विरोध में यदि एक दल ने आधुनिक नवीन प्रवृत्ति के कवियों की काव्य प्रतिभा पर बुरी तरह से आक्रमण किया कि हाँंक दो, न घूम घूम खेती काव्य की चरें। (पाखण्ड परिच्छेद-रामचन्द्र शुक्ल) तो दूसरे दल ने ब्रजभाषा का विरोध करते हुए केवल उसके श्रंृगारी काव्य पर ही ध्यान रखा और प्रातः स्मरणीय ’’सूर’’ तक को कलंकित करने और यह लिखने में कि उन्होंने अपने समस्त ज्ञान का सदुपयोग अधिकांशतः राधा और कृष्ण की जोड़ी का वर्णन करने में ही कर डाला। (जगन्नाथ प्रसाद मिश्र, सम्पादक विश्वामित्र) 17 दुलारे दोहावली के सम्बन्ध में भी यह भाषा विवाद चला था। बनारसीदास चतुर्वेदी ने खड़ी बोली को अप्सरा और ब्रजभाषा को क्षयरोग से पीड़ित नायिका कहा।18 गोपाल स्वरूप भार्गव ने देव पुरस्कार से सम्मानित दुलारे दोहावली की प्रशंसा करते हुए ब्रजभाषा के आलोचकों को उत्तर दिया।19
खड़ी बोली की शक्ति को रोकने की क्षमता ब्रजभाषा में नहीं थी। यह इसी बात से सिद्ध है कि अधिकतर कवि ब्रजभाषा के साथ खड़ी बोली में भी कविता लिखने लगे।
ऽ छायावादोत्तर काव्य प्रवृतियाँं:-
छायावाद की प्रमुख काव्य प्रवृत्ति के साथ कुछ ऐसे कवियों का काव्य भी विचारणीय है जो वैयक्तिक प्रेम और मस्ती का भाव लेकर चले। ’’नवीन’’ भगवतीचरण वर्मा, बच्चन, नरेन्द्र शर्मा, अंचल आदि कवियों के काव्य में प्रणयभावना का लौकिक स्वीकार है। उसमें प्रच्छन्नता अथवा रहस्यावरण नहीं है। बच्चन जी की कविताएंँ विशेष रूप से लोकप्रिय हुई। नवीन, दिनकर, माखनलाल चतुर्वेदी तथा श्यामनारायण पाण्डेय ने राष्ट्रीयता के भाव को ओजपूर्ण अभिव्यक्ति प्रदान की।
सन् 1936 के आसपास छायावाद की वायवीयता और आत्मोन्मुखता के स्थान पर सामाजिक यथार्थ के धरातल पर प्रगतिवाद का जन्म हुआ। मार्क्स के सिद्धान्तों से प्रभावित इस काव्य प्रवृत्ति में कविता को वास्तविक जीवन से संयुक्त करके देखा गया तथा सामन्ती और पूंँजीवादी शक्तियों के विरूद्ध पीड़ित और शोषित सर्वहारा वर्ग का युयुत्साभाव दिखाया गया। प्रगतिवादी कवि सौन्दर्य को परम्परागत दृष्टि से नहीं देखता है। समाज के उपेक्षित और शोषित वर्ग के साथ सहानुभूति रखते हुए उसने कुरूपता में भी सौन्दर्य के दर्शन किये हैं। प्रगतिवाद ने काव्य को यथार्थ से जोड़ने का स्तुत्य कार्य किया परन्तु उसकी सोद्देश्यता प्रचार में परिवर्तित हो गयी।
छायावाद की वायवीयता के विरूद्ध दूसरी काव्य प्रवृत्ति प्रयोगवाद के नाम से अभिहित हुई। इस कविता में भी यथार्थ का आग्रह है।, परन्तु यह यथार्थ समष्टि का न होकर व्यक्ति मन का है। प्रयोगवादी कवियों ने विषय और अभिव्यक्ति दोनों में नवीन प्रयोगों की आवश्यकता का अनुभव किया। इन कवियों पर फ्रायड के सिद्धान्तों का पर्याप्त प्रभाव है। उन्होंने व्यक्ति जीवन की कुंठा, टूटन, दमित वासनाओं और उलझी संवेदनाओं को अभिव्यक्ति दी।

ऽ स्थानीय परिवेश ऽ ऽस्थानीय परिवेशऽ ऽ ऽ राजनैतिक परिवेश:-
राष्ट्रीय स्वाधीनता आन्दोलन में बुन्देलखण्ड का सक्रिय योगदान रहा है। स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्व बुन्देलखण्ड का कुछ भाग प्रत्यक्ष रूप से अंग्रेजी शासन के अन्तर्गत था और शेष भाग देशी रियासतों के अधीन था। झाँसी पर सन् 1858 ई0 में अंग्रेजों का अधिकार हो गया था। मऊरानीपुर नगर भी पहले झाँसी के मरहठा शासन के अन्तर्गत था। प्रथम स्वतंत्रता आन्दोलन के पश्चात् वह भी अंग्रेजों के अधीन झाँसी जिले की एक तहसील बन गया। इसके निकट टीकमगढ़ (ओरछा), छतरपुर, दतिया आदि कुछ बड़ी रियासतों के अतिरिक्त अनेक छोटी रियासतें और जागीरें थीं। इनमें भी स्वातंत्र्य आन्दोलन घनीभूत रूप में चला है। प्रस्तुत सन्दर्भ में मऊरानीपुर तथा उसके आसपास के क्षेत्र की राजनीतिक गतिविधयों का उल्लेख अभीष्ट है क्योंकि कवि के जीवन और काव्य पर उसका प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ा है।
झाँसी जिले में उत्कट राजनीतिक चेतना का रूप सन् 1915 के लगभग प्रकट हुआ। लगभग अर्द्धशताब्दी पहले इसी भूमि पर युद्ध करते हुए वीरांगना झाँसी की रानी ने अंग्रेजों के समक्ष वीरता और उत्सर्ग का अप्रतिम आदर्श प्रस्तुत किया था। इस क्षेत्र की जुझारू और बलिदानी वृत्ति स्वाधीनता आन्दोलन में पुनः प्रकट हुई। सन् 1915ई0 में मऊरानीपुर के पं0 भगवतनारायण भार्गव कानून की परीक्षा उत्तीर्ण करके झाँसी आ गये। यहाँ उन्होंने होमरूल लीग की स्थापना की और युवकों को स्वाधीनता आन्दोलन में भाग लेने के लिये प्रेरित और प्रोत्साहित किया। सन् 1919ई0 में केन्द्रीय विधान सभा में रौलट बिल पास हुआ। भार्गवजी ने उसके विरोध में मर्यादा पत्र में एक लेख लिखा। इस पर उन्हें सरकार की ओर से चेतावनी दी गयी।
झाँसी के अतिरिक्त मऊरानीपुर में भी इस समय तक स्वराज्य की चेतना और अंग्रेजी शासन के विरोध की भावना धनीभूत होकर कार्यरूप में प्रकट होने लगी। सन् 1920 के असहयोग आन्देालन का प्रभाव यहाँ भी पड़ा और श्री रामनाथ त्रिेवदी, श्री घासीराम व्यास श्री लक्ष्मीनारायण अग्रवाल, श्री रामनाथ राव आदि सभी प्रमुख कार्यकर्ताओं में जो उत्कटता दिखायी दी उसका चरमोत्कर्ष बाद की घटनाओं में परिलक्षित हुआ। सन् 1929 ई0 में मऊरानीपुर में जिला राजनीतिक कान्फ्रेंस का आयोजन किया गया। इसमें उमा नेहरू, कृष्णकान्त मालवीय, दीवान शत्रुघ्नसिंह, रानी राजेन्द्रकुमारी आदि बड़े बड़े नेताओं ने भाग लिया। इस अवसर पर दस हजार वर्दीधारी कांग्रेसी स्वयं सेवक उपस्थित थे। झाँसी से 500 महिला कार्यकर्त्रियों ने भी इसमें भाग लिया। बुन्देलखण्ड के गांधी के नाम से प्रख्यात दीवान शत्रुघनसिंह की पत्नी रानी राजेन्द्रकुमारी ने इस सभा में ऐसा तेजस्वी भाषण दिया कि उसे सिंहिनी की गर्जना का नाम दिया गया। उनके भाषण को सुनकर पुलिस के सिपाही तक रोने लगे थे।
सन् 1930 ई0 में गान्धीजी ने नमक सत्याग्रह छेड़कर धारसाना पर धावा बोल दिया। इस समय मऊरानीपुर में भी आन्दोलन में तीव्रता आयी। अप्रैल में आरम्भ हुआ आन्दोलन जुलाई अगस्त तक बहुत धनीभूत हो गया। भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की द्वादशी को मऊरानीपुर में जलविहार का उत्सव होता है। इस अवसर पर मऊरानीपुर के विभिन्न मन्दिरों से विमानों में भगवान की झाँकियाँ निकाली जाती हैं। इस समय छै-सात दिनों तक मेला लगता है। यह उत्सव सम्पूर्ण बुन्देलखण्ड में प्रसिद्ध है। सन् 1930 के जलविहार में धार्मिकता और राष्ट्रीयता के भावावेश का अनोखा समन्वय दिखायी दिया। सभी विमानों में मूर्तियों को खादी की पोशाक पहनायी गयी। विमान वाहक भी खादी पहने हुए थे। गणेशजी की झाँकियाँ सबसे अधिक सजायी गयीं और उन्हें राष्ट्रीय झंडा लिये हुए दिखाया गया।
अंग्रेजों ने इस आन्दोलन का दमन करने के लिये पूरा प्रबन्ध कर लिया था। ऐसी आशंका थी कि कोई बहुत बड़ा काण्ड होगा। ऐसा कहा जाता है कि सरकार ने गोली चलाने के लिये मशीन गनें मँगवा ली थीं। इस सम्बन्ध में पं0 घनश्यामदास पाण्डेय ने मऊ सत्याग्रह शीर्षक से कविता लिखी थी-
आ गयी मऊ में हैं मशीनगन ऐसा सुना,
हरने को प्राण दीन हीन तन छीनों के।
बरसेंगी गोलियाँ बलण्टियर टोलियों पै
खोलियाँं भरेंगी मारे रूधिर पसीनों के।।
विप्र घनश्याम स्वयं सेवकों ने कहा तब
देना हमें इम्तहान आज इन सीनों के।
वैसे तो न जाते पर जायेंगे जरूर अब
हम भी तो देखें वार कैसे हैं मशीनों के।।20
यह आन्दोलन झण्डा सत्याग्रह के नाम से प्रसिद्ध है। इस संगठित आन्दोलन को देखकर समाचारपत्रों में समाचार प्रकाशित हुआ कि मऊरानीपुर तहसील में अंग्रेजी शासन उखड़ चुका है। तब झाँसी के कलेक्टर डार्लिंग को कड़ी कार्यवाही करने के आदेश दिये गये। डार्लिंग ने नगरपालिका को आदेश दिया कि झण्डा उसके क्षेत्र में स्थित है उसे उखाड़ दिया जाये।
कांग्रेसी कार्यकर्ताओं की बैठक में यह निश्चय किया गया कि नगरपालिका के प्रत्येक सदस्य के घर पर सत्याग्रह किया जाये और उन्हें मीटिंग में न जाने दिया जाये। नगरपालिका के सदस्यों पर इसका प्रभाव पड़ा। नगरपालिका के अध्यक्ष रायसाहब सेठ गंगाप्रसाद थे। उनकी अध्यक्षता में किसी प्रकार मीटिंग हुई। उस समय पं0 भगवतनारायण भार्गव कांग्रेस की ओर से झाँसी जिले के डिक्टेटर थे। वह इस मीटिंग में दर्शक के रूप में पहुँच गये। उन्होंने समझा बुझाकर प्रस्ताव पास करा दिया कि झण्डा न उखाड़ा जाये। कलेक्टर डार्लिंग इस पर बहुत क्रुद्ध हुआ। उसने डाक बंगले पर नगर के सभी प्रतिष्ठित लोगों को बुलाया और उन्हें पूरी तरह फटकारा। जब उसने राय साहब से कहा कि तुम कांग्रेस के कलेक्टर भार्गव को अपने घर ठहराते हो और उनका कहना मानते हो, हमारा नहीं तो रायसाहब ने विरोध स्वरूप रायसाहबी का पदक और ऑनरेरी मजिस्ट्रेट के पद से इस्तीफा प्रस्तुत कर दिया। तब कलेक्टर ने शान्त होकर उनसे क्षमा माँगी।21
झण्डे की रक्षा के लिये सैकड़ों सत्याग्रही क्रमशः सत्याग्रह करते थे। पं0 रामनाथ त्रिवेदी के पिता ने उसके नीचे अपनी खाट बिछा ली थी और कहा था कि मेरी लाश पर चलकर ही झण्डा उखाड़ा जा सकता है। एक अन्य सत्याग्रही बाबूलाल दरजी को इतना पीटा गया कि वह बहरे हो गये। सत्याग्रहियों के जत्थे पर जत्थे जाते थे और पुलिस पीटते पीटते थक जाती थी। इस दमन-कार्यवाही में घुड़सवार पुलिस का भी प्रयोग किया गया। औरतों और बच्चों तक को नृशंसता के साथ पीटा गया। रामनाथ त्रिवेदी और घासीराम व्यास तो पहले ही नमक-सत्याग्रह में गिरफ्तार हो गये थे। इस समय रामनाथ राव, हल्के सुनार, दुर्जनलाल रावत, चन्द्रभान नायक, सुमेरसिंह आदि प्रमुख कार्यकर्ता भी पकड़ लिये गये।
आन्दोलन के समय बाजार आठ दिन बन्द रहा। सत्याग्रहियों के लिये मजदूर स्त्रियाँ छिपकर खाना लाती थीं। नवम्बर-दिसम्बर में सरकार का अत्याचार और अधिक बढ़ गया। सत्याग्रहियों को घोड़ों के पिछले पैरों से बाँध दिया जाता था और उन्हें सड़कों पर घसीटा जाता था। उनके सिर टट्टी से भरे गमलों में डुबा दिये जाते थे।
सत्याग्रहियों के साथ किये गये घोर जुल्म
जिन्हें सुन वज्र के कलेजे फट जाते थे।
करते अश्लील कृत्य भृत्य चंद टुकड़ों के
टट्टियों के गमलों में मल सुँघवाते थे।।22
इन यंत्रणाओं के परिणामस्वरूप अनेक कार्यकर्त्ता आजीवन बधिरता और विक्षिप्ति का अभिशाप भोगते रहे।
इस आन्दोलन में भगवतनारायण भार्गव, कुंजबिहारी लाल शिवानी तथा रूस्तमसैटिन मऊरानीपुर से गिरफ्तार हुए तथा झाँसी में रघुनाथ विनायक घुलेकर, रूद्रनारायण, कृष्णचन्द्र शर्मा आदि नेता बन्दी बनाये गये। झण्डा सत्याग्रह में जन सहयोग भी पर्याप्त प्राप्त हुआ। मण्डी में गेहूँ, लौंग, नारियल और बीड़ी पर काँग्रेस कर लिया जाता था। दुकानदार रात के बारह बजे चुपचाप पैसा दे दिया करते थे। बजाजा कमेटी की देखरेख में विदेशी वस्त्रों का विक्रय बन्द हो गया। विभिन्न जातियांे की पंचायतों में शराबबंदी लागू कर दी। शासन से सहयोग के रूप में तहसीलदार अल्ताफ हुसैन की अदालत में छः महीने तक एक भी मुकदमा नहीं आया। रँगरेजों के कड़ाहों में सत्याग्रहियों के लिये दाल चावल बनता था। खाद्य सामग्री दुकानदारों से उदारतापूर्वक प्राप्त होती थी। लोग सहर्ष जेल जाते थे और वहाँ से स्वास्थ्य लाभ करके लौटते थे।
आये जेल खेल भोग साहसी सपूत लोग
झलक रही है मुख आभा वीर बाने की।
कोई बढ़े पन्द्रह तो कोई बढ़े बीस पौण्ड
जागती किसी पै ज्योति कंचन तपाने की।।
विप्र घनश्याम कोई शेर हैं सुमेर हुए
देख के पुकार उठी जनता जमाने की।
पूड़ियाँ कचौड़ियाँ न देह गेह ऐसी लगीं
जैसी लगीं यारो तुम्हें रोटी जेलखाने की।।23
सुमेरसिंह मऊरानीपुर के प्रतिवेशी गाँव के थे। पहले डकैती और लूटपाट का काम करते थे। बाद में स्वाधीनता-आन्दोलन का उन पर ऐसा प्रभाव पड़ा कि वह उसके कर्मठ और अग्रणी कार्यकर्ता बन गये। मऊरानीपुर में रामनाथ त्रिवेदी, घासीराम व्यास, छौआ पण्डा, टंटा बाबा, दुर्जनलाल रावत, चन्द्रभान नायक, रामनाथ राव, पन्नालाल अग्रवाल आदि लोग असाधारण क्षमता और उत्साह के साथ आन्दोलन का संगठन कर रहे थे। पं0 भगवतनारायण भार्गव, श्री रामेश्वरप्रसाद शर्मा और स्वामी स्वराज्यानन्द उनका निर्देशन करते थे।
सन् 1932 में मऊरानीपुर में हुई किसान कान्फ्रेंस भी इस नगर की उत्कट राजनीतिक चेतना की परिचायक है। इसमें भाषण देने के लिये पं0 जवाहर लाल नेहरू आये थे। सरकार ने कान्फ्रेंस का विफल करने के लिये नियत स्थान के आसपास निषेधाज्ञा लागू कर दी। आयोजकों ने सरकार को धोखा देने के लिये एक अन्य स्थान पर ’’ईसुरी फाग सम्मेलन’’के नाम से आयोजन का प्रचार किया और आसपास के गाँवों से किसानों को उसमें आमंत्रित किया। नेहरूजी को दूसरे स्थल पर आयोजित कार्यक्रम में ले जाया गया। यहीं वास्तव में किसान कान्फ्रेंस हुई तथा नेहरू जी ने उसमें भाषण दिया। सन् 1937 ई0 में प्रान्तीय धारा सभा के चुनाव के समय नेहरू जी बुन्देलखण्ड का दौरा करते हुए मऊरानीपुर और झाँसी आये। सन् 1941 के व्यक्तिगत सत्याग्रह में इस नगर के अनेक नेता गिरफ्तार हुए। सन् 1942 में भारत छोड़ो आन्दोलन में यहाँ पुनः ज्वार आया। तोड़फोड़ की कार्यवाही के द्वारा सरकार को आतंकित करने में इस क्षेत्र में भी पर्याप्त योगदान दिया।
ऽ पड़ौसी देशी रियासतों में राजनीतिक चेतना:-
बुन्देलखण्ड के टीकमगढ़, छतरपुर और दतिया राज्यों में तथा छोटी छोटी जागीरों और रियासतों में भी विभिन्न संस्थाओं के नाम से स्वाधीनता आन्दोलन का अलख जगाया गया। इन राज्यों मेें विदेशी शासन के विरोध के साथ ही नरेशों के दमन, शोषण और अत्याचार के विरूद्ध भी संघर्ष चल रहा था। टीकमगढ़ उस समय प्रमुख राज्य था। यहाँ से ’मधु’ का सम्बन्ध था। इसलिये इस राज्य की राजनीतिक चेतना का विवेचन विषय संगत है। मऊरानीपुर के निकट होने के कारण यहाँ के कार्यकर्ताओं की प्रेरणा और प्रोत्साहन तथा उनकी कार्यवाही के संचालन का यहाँ से बहुत सम्बन्ध रहा है।
सन् 1936 ई0 के लखनऊ काँग्रेेस अधिवेशन में टीकमगढ़ जिले के पं0 लालाराम वाजपेयी ने जो विन्ध्यप्रदेश के गृहमंत्री और मध्यप्रदेश में कांग्रेस के महत्त्वपूर्ण पदों पर रहे, पैदल चलकर भाग लिया। यहाँ से लौटकर उन्होंने ओरछा राज्य में स्वतंत्रता आन्दोलन के कार्य का संगठन प्रारम्भ कर दिया। सन् 1937 ई0 में पं0 जवाहरलाल नेहरू मऊरानीपुर से ललितपुर जाते समय टीकमगढ़ से निकले। यहाँ के कार्यकर्ताओं को उनसे बहुत प्रेरणा मिली।
टीकमगढ़ में स्वाधीनता आन्दोलन की प्रथम महत्त्वपूर्ण घटना सन् 1937 का झण्डा सत्याग्रह थी। श्री रामेश्वरप्रसाद शर्मा और श्री लालाराम वाजपेयी के संचालन में सत्याग्रहियों के एक जत्थे ने राष्ट्रीय झण्डे के साथ टीकमगढ़ में प्रवेश किया। उन्हें राज्य की सीमा पर ही रोक कर पीटा गया और राज्य के बाहर फिकवा दिया गया। इस घटना की सूचना कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष राजेन्द्र प्रसाद के पास पहुँची। उनके आदेश से महाकौशल प्रान्तीत कांग्रेस समिति के अध्यक्ष कैप्टिन अवधेश प्रतापसिंह और झाँँसी के कुंजबिहारीलाल शिवानी ने टीकमगढ़ जाकर महाराज से बातचीत की और गिरफ्तार सत्याग्रहियों को मुक्त कराया।।24
इस समय तक यहाँ आन्दोलन के लिये विधिवत् संस्था का गठन नहीं हुआ था। सन् 1938 में दतिया और टीकमगढ़ राज्यों के कार्यकर्ताओं ने बुन्देलखण्ड के राज्यों की बुन्देलखण्ड प्रान्तीय कांग्रेस संगठन समिति का निर्माण किया। इसके पश्चात् झाँसी और मऊरानीपुर की निकटवर्ती रियासतों में आन्दोलन प्रारंभ हो गया। सन् 1939 की फरवरी में टीकमगढ़ राज्य के एक गाँव थौना में, जो झाँसी जिले की सीमा पर है, पं0 लालाराम वाजपेयी के नेतृत्व में राष्ट्रीय झण्डे के साथ सत्याग्रह किया गया। इस आन्दोलन में सत्याग्रहियों का इतनी बर्बरता के साथ दमन किया गया कि स्वयं नेहरूजी ने ओरछा राज्य की दमन-कार्यवाही के विरूद्ध वक्तव्य दिया।25
फरवरी सन् 1941 में बुन्देलखण्ड के इन देशी राज्यों के 12 कार्यकर्ताओं ने महात्मा गाँधी की आज्ञा से भिन्न भिन्न स्थानों पर व्यक्तिगत सत्याग्रह किया। 01 जून 1942 को ओरछा राज्य के प्रमुख नेताओं ने महाराज को एक प्रार्थना पत्र भेजा जिसमें उनसे बात करने का समय माँंगा गया तथा नागरिक अधिकारों की माँग की गयी। देशी राज्य अंग्रेजी शासन के रोष से बचने के लिये अपने क्षेत्र में स्वाधीनता आन्दोलन का दमन करते थे। टीकमगढ़ के नरेश ने कार्यकर्ताओं से बात करते हुए उन्हें ओरछा राज्य में कांग्रेस संस्था के अन्तर्गत आन्दोलन चलाने की अनुमति नहीं दी। इसके स्थान पर उन्होंने ओरछा सेवासंघ संस्था बनाकर राज्य की धारा सभा के माध्यम से बुन्देलखण्ड की भाषा, रहन-सहन और प्रान्त निर्माण के लिये कार्य करने की प्रेरणा दी। उन्होंने यह भी कहा कि कार्यक्रम चाहे कांग्रेस का ही क्यों न हो उसे राज्य की धारा सभा के माध्यम से चलाया जाये ।26 उस समय रियासतों में स्वाधीनता संग्राम की लड़ाई प्रजा परिषद् और प्रजा मण्डल आदि संस्थाओं के अन्तर्गत लड़ी जा रही थी। कांग्रेस रियासतों में केवल रचनात्मक कार्यों की अनुमति देती थी। अतः टीकमगढ़ में अगस्त सन् 1942 में ओरछा सेवासंघ की स्थापना हुई। बाद में इस संस्था का नाम बुन्देलखण्ड सेवा संघ कर दिया गया। इस संस्था ने कांग्रेस के हरिजनोद्वार, खादी प्रचार, प्रौढ़ शिक्षा तथा स्त्रियों की उन्नति के सामाजिक कार्यक्रम के साथ बुन्देलखण्ड प्रान्त निर्माण का विशेष कार्य करना प्रारंभ कर दिया।
इसका अर्थ यह नहीं है कि इस संस्था ने राजनीतिक कार्यक्रम छोड़कर सामाजिक कार्यक्रम अपना लिया। स्वाधीनता के लिये उसी प्रकार आन्दोलन चलता रहा। इसका अंतिम दौर सन् 1946 में चला जिसमें राज्य में उत्तरदायी शासन के लिये संघर्ष प्रारम्भ हो गया। अंग्रेजों ने सत्ता-हस्तान्तरण की तिथि निश्चित कर दी थी और कांग्रेस के मेरठ अधिवेशन में देशी राज्यों के भविष्य के प्रति कांग्रेस की नीति स्पष्ट कर दी थी। इसी आधार पर टीकमगढ़ में भी उत्त्रदायी शासन के लिये आन्दोलन में तेजी आयी। चँंदेरा गाँंव में प्रशिक्षण शिविर को विफल करने के लिये राज्य की पुलिस ने कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार कर लिया और उन्हें अमानुषिक यंत्रणाएँ दीं। परन्तु जो ज्वार उमड़ पड़ा था उसे दबाना अब किसी शक्ति के लिये संभव नहीं था। वीरसिंह देव काफी पहले से यह अनुभव कर रहे थे कि अब राजाओं का काल समाप्ति पर है। उन्होंने समय की गति को पहचानते हुए 17 दिसम्बर 1947 को राज्य का उत्तरदायित्व शासन को सौंप दिया। बुन्देलखण्ड के अन्य राज्यों में भी इसके पश्चात् सत्ता का हस्तान्तरण हुआ।
ऽ बुन्देलखण्ड प्रान्त-निर्माण और आन्दोलन:-
स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्व इस क्षेत्र में बुन्देलखण्ड प्रान्त निर्माण की माँंग राजनीतिक और साहित्यिक संस्थाओं की ओर से प्रबल रूप से उठायी गयी। हिन्दी भाषी प्रान्तों के गलत राजनीतिक विभाजन के स्थान पर भाषायी और सांस्कृतिक आधार पर प्रान्तों के गठन की आवश्यकता का अनुभव अनेक प्रमुख राजनीतिक और साहित्यकार कर रहे थे। पं0 बनारसीदास चतुर्वेदी ने विशाल भारत के फरवरी 1934 के अंक में बुन्देलखण्ड, ब्रज तथा अवध इत्यादि जनपदों के साहित्यिक तथा पृथक सांस्कृतिक व्यक्तित्व के पक्ष में लिखा था। महापंडित राहुत सांकृत्यायन भी जनपदों की बोलियों और उनके साहित्य के उद्धार की आवश्यकता पर बल दे रहे थे। सन् 1947 में पं0 बनारसीदास चतुर्वेदी ने एक पत्र के उत्तर मेें व्यौहार राजेन्द्रसिंह ने लिखा था-’’भाषा की दृष्टि से ब्रज साहित्य मंडल या बुन्देलखण्ड मंडल का संगठन आवश्यक है, किन्तु राजनीतिक प्रान्त विभाजन के कारण भाषा सम्बन्धी एकता तथा आपसी सम्पर्क में बड़ा भारी आघात उपस्थित हो गया है। बुन्देलखण्डी भाषा भाषी महान जनसमूह संयुक्त प्रान्त, मध्यप्रान्त तथा छोटी छोटी रियासतों में बिखरा हुआ पड़ा है। उसकी सम्पूर्ण एकता तब तक संभव नहीं, जब तक वह एक अलग राजनीतिक प्रान्त में संगठित नहीं कर दिया जाता।27
ओरछा नरेश वीरसिंह देव के मस्तिष्क में भी यू0पी0, सी0पी0 और देशी रियासतों में बँटे बुंदेलखण्ड के एक प्रान्तीय रूप की कल्पना थी। उनकी प्रेरणा से ओरछा सेवा संघ जो बाद में बुन्देलखण्ड सेवा संघ हो गया, प्रान्त निर्माण की माँग उठा रहा था। टीकमगढ़ से प्रकाशित होने वाले मासिक पत्र मधुकर में उसके सम्पादक चतुर्वेदी जी प्रान्त निर्माण का औचित्य सिद्ध कर रहे थे।
नवम्बर 1943 में ओरछा सेवा संघ के विशेष अधिवेशन के अवसर पर टीकमगढ़ में बुन्देलखण्ड परिषद् का प्रथम अधिवेशन हुआ। इसमें जबलपुर में तत्कालीन धारा सभा सदस्य व्यौहार राजेन्द्रसिंह ने अध्यक्षता की। अगस्त-सितम्बर 1944 में पं0 बनारसीदास चतुर्वेदी ने बुन्देलखण्ड प्रान्त निर्माण का औचित्य और आवश्यकता सिद्ध करने के लिये ’’मधुकर’’ का जनपद आन्दोलन अंक निकाला। इसमें बुन्देलखण्ड के भूगोल, इतिहास, संस्कृति, साहित्य तथा खनिज सम्पदा आदि का विस्तृत परिचय दिया गया। इस अंक में राहुल सांकृत्यायन, वासुदेवशरण अग्रवाल, जैनेन्द्रकुमार, यशपाल जैन, बनारसीदास चतुर्वेदी, डॉ. रामकुमार वर्मा, गौरीशंकर द्विवेदी, पं0 कृष्णकिशोर द्विवेदी, जगदीश प्रसाद चतुर्वेदी आदि के लेख प्रकाशित हुए।
’’बुन्देलखण्ड परिषद्’’ का विशेष अधिवेशन वर्ष 1944 में सागर में पुनः व्यौहार राजेन्द्रसिंह की अध्यक्षता में सम्पन्न हुआ। इस अवसर पर यह प्रस्ताव पारित हुआ-’’यह द्वितीय बुन्देलखण्ड परिषद् प्रस्ताव करती है कि बुन्देलखण्ड प्रान्त निर्माण या भाषा संगठन का उद्देश्य बुन्देलखण्ड की बिखरी हुई सामाजिक, आर्थिक और साहित्यिक सामग्रियों का सम्मेलन और संगठन करना तथा अपने इस कार्य से राष्ट्रभाषा की साहित्यिक भावराशि को सम्पन्न करना है।28
परिषद् का तीसरा अधिवेशन सन् 1945 में झाँसी में हुआ। इसका उद्घाटन करते हुए व्यौहार राजेन्द्रसिंह ने अपने भाषण में बुन्देलखण्ड के प्रान्त के रूप में गठन की आवश्यकता पर बल दिया। इसकी अध्यक्षता श्री बेनीमाधव तिवारी, एम0एल0सी0 उरई ने की। इसी अवसर पर बुन्देलखण्ड हिन्दी साहित्य सम्मेलन का अधिवेशन भी हुआ जिसका उद्घाटन यू0पी0 की विधान-परिषद् के तत्कालीन अध्यक्ष डा0 सर सीताराम ने किया और सभापतित्व पं0 बनारसीदास चतुर्वेदी ने किया। मनोनीत सभापति डा0 रामकुमार वर्मा किसी कारणवश सम्मेलन में उपस्थित नहीं हो सके। सम्मेलन के अवसर पर कवि सम्मेलन का भी आयोजन किया गया। इसका उद्घाटन डॉ0 रामविलास शर्मा ने और अध्यक्षता पं0 लोकनाथ द्विवेदी सिलाकारी ने की। कवि-सम्मेलन में सबसे पहले कविता-पाठ श्री मैथिलीशरण गुप्त ने किया। परिषद् के इस अधिवेशन में टीकमगढ़, सागर, मऊरानीपुर, झाँसी और जबलपुर के अनेक राजनेता और साहित्यकार उपस्थित हुए थे। इससे बुन्देलखण्ड प्रान्त निर्माण के आन्दोलन की सघनता का परिचय मिलता है।
इस आन्दोलन की प्रेरणा स्वरूप बुन्देलखण्ड के नैसर्गिक सौन्दर्य और ऐतिहासिक, सांस्कृतिक गौरव पर प्रभूत काव्य रचना हुई। ’’मधु’’ की बुन्देलखण्ड दर्शन’’ विंध्यवावनी और बेतवा बावनी’’ काव्य कृतियों की तथा अनेक गीतों की प्रेरणा यही आन्दोलन रहा।


ऽ स्थानीय सामाजिक परिवेशः-
व्यापक सामाजिक जीवन की प्रतिच्छवि स्थानीय जीवन-मूल्यों में दिखायी देती है। बुन्देलखण्ड के इस अंचल में परम्परागत जीवन-धारणाओं के साथ ही सामाजिक जीवन में परिवर्तित युग के नवीन मूल्यों का भी प्रभाव पड़ा है। आज की विखंडित और अतिवैयक्तिक चेतना, जो व्यक्ति को अकेलेपन का और निराश्रयता का अनुभव कराती है, उस समय नहीं थी। जीवन के सभी पक्षों में तथा आचार-विचारों में सामाजिकता और पारस्परिकता का बोध व्याप्त था। जीवन के विभिन्न संस्कार सामाजिक उपस्थिति और स्वीकृति से ही सम्पन्न होते थे। विवाह और अन्तिम संस्कार के समय तो सामाजिकता दिखायी देती ही थी ऐसे अन्य अनेक उपलक्ष्य भी थे जिनमें लोग एकत्र होकर पारस्परिकता की भावना को दृढ़ करते थे। दशहरे के अवसर पर अपने सभी संबंधियों और परिचितों के अलावा और लोगों के घर जाकर मिलना और पान खाना तथा होली के अवसर पर सामूहिक रूप से फाग खेलना तथा मिलना सामाजिकता की अभिव्यक्ति के विशिष्ट अवसर थे। नगर के विभिन्न मंदिरों में शरदोत्सव मनाया जाता था। अनेक बगीचों और जलाशयों पर लोग रोज ही स्नान करने जाते थे।
भारतीय जीवन में धार्मिकता प्रबल रूप से विद्यमान रही है। यहांँ कि पूजा-पाठ, कथाएँ रामचरित मानस सम्मेलन तथा भागवत की कथाएंँ नियमित रूप से होती रहती थीं। इन अवसरों पर विशाल जन समूह उपस्थित होता था। धर्म ने जीवन में पारमार्थिक सत्ता के प्रति अटूट विश्वास और आध्यात्मिक उन्नयन की धारणा उत्पन्न की है। आस्तिकता के संस्कार इतने दृढ़ थे कि जीवन में सभी उपलब्धियों को भगवत्कृपा का प्रसाद माना जाता था। उपलब्धि के प्रति कृतज्ञता और अभिलाषा पूर्ति के लिये देव-याचना जीवन के विभिन्न व्यापारों में दृष्टिगोचर होती थी। धन सम्पन्न लोग धार्मिक कार्यों और आयोजनों पर कुछ न कुछ व्यय करते थे। इस पारमार्थिक धारणा ने भौतिकता को जीवन का एकमात्र और अन्तिम लक्ष्य नहीं बनने दिया। भौतिक उपलब्धियों के लिये प्रयत्नशील रहते हुए भी जीवन की मूल सत्ता सामूहिक रूप से उससे निर्धारित नहीं हुई। इसीलिये संघर्ष जन्य विफलता ने सांघातिक निराशा को जातीय लक्षण के रूप में जन्म नहीं दिया। आशावादिताा और उल्लास का जीवन में प्रमुख स्थान रहा।
यहाँ सामाजिक जीवन में परम्परावादिता का प्रभाव रहा है। सामाजिक धार्मिक विधि-निषेधों का पालन सामान्य रूप से होता रहा है। जीवन के अंधविश्वास भी इसी परम्परावादी धारणा में रक्षित बने रहे। जाति-भेद होते हुए भी सामाजिक सामजंस्य बना रहा। यद्यपि निम्न वर्ण के लोग उच्च वर्ण वालों की समकक्षता और सुविधाओं से वंचित थे, वे उनकी महत्तम सेवा करते हुए भी आर्थिक रूप से उनकी कृपा और उदारता पर ही अवलम्बित थे, फिर भी इस युग में पुरानी व्यवस्था को सहज रूप से स्वीकार कर लिया गया और सामाजिक विषमता के बीच भी सामंजस्य की भावना बनी रही परन्तु नये युग की प्रगतिशील सामाजिक चेतना भी धीरे-धीरे प्रकट होने लगी। सैद्धान्तिक रूप से समाज का एक बड़ा भाग यह स्वीकार करने लगा कि जाति-पांँति का भेद मनुष्यकृत और संयोगाधारित है। व्यावहारिक रूप से भी उसका पालन यत्र तत्र होने लगा। नारी के प्रति मध्ययुगीन धारणा में भी अन्तर आया। एक और परम्परा के रूप में नारी समाज में अशिक्षा, विधवा-जीवन का अभिशाप तथा गृह कारावास की परम्परा जीवित थी तो ब्रह्म समाज, आर्यसमाज और गांधीवाद का प्रभाव भी क्रिया रूप ले रहा था। इस नगर की अनेक महिलाएंँ स्वाधीनता आन्दोलन में सक्रिय रूप से सम्मिलित हुई। बौद्धिक चेतना सम्पन्न तथा प्रगतिशील विचारों के लोग तथा साहित्यकार सामाजिक कुरीतियों के उन्मूलन की दिशा में सचेष्ट रहे।
इस नगर में आर्यसमाज का पर्याप्त प्रभाव रहा है। स्थानीय आर्यसमाज मंदिर में प्रत्येक रविवार को एकत्र होकर लोग हवन करते थे तथा प्रवचनों का आयोजन भी किया जाता था। आर्यसमाज का प्रभाव यहाँ के स्वतंत्रता आन्दोलन के कार्यकर्ताओं पर विशेष रूप से रहा है। आर्यसमाज में आस्था और वैष्णव धर्म के विभिन्न उपचारों का पालन एक साथ होता रहता था। यह एक विचित्र संयोग ही कि यहाँ के अनेक लोग आर्य समाज के सिद्धान्तों को भी मानते थे और वैष्णव धर्म के विधि विधान का पालन भी करते थे। आर्यसमाज ने भी लोगों में वैचारिक औदार्य उत्पन्न किया और अनेक सहज निवारणीय कुरीतियों का उन्मूलन किया। आर्यसमाजी दृष्टिकोण और अवतारवादी आस्तिकता की सहभागिता ने अधिक व्यवहार्य और स्वीकार्य आचरण पद्धति प्रदान की। आर्यसमाज ने नये युग की बौद्धिक और तार्किक प्रवृत्ति को सन्तुष्ट किया और पुरातन आस्तिकता ने जीवन को पारमार्थिक आश्रय और सन्तोष दिया।
खान-पान की कट्टरता तो अवश्य विभिन्न जातियों में थी परन्तु सामाजिक संश्लेषण करने वाली भावना विभिन्न जातियों में ही नहीं सम्प्रदायों में भी दिखायी देती थी। हिन्दू और मुसलमान अपने-अपने धर्मांे का पालन करते हुए एक दूसरे के धार्मिक आयोजनों में सम्मिलित होते थे। दीर्घकाल मेें मुसलमान भी रहन-सहन, वेशभूषा और आचार-व्यवहार में हिन्दुओं के काफी निकट आ चुके थे। यहाँ जल विहार के अवसर पर मुसलमान विमानों में सम्मिलित होते थे, रामलीला देखते थे और हिन्दू ताजियों मेें भाग लेते थे। हिन्दू तो उर्दू और फारसी का अध्ययन करते ही थे अनेक मुसलमान भी हिन्दी और संस्कृत का अध्ययन करते थे। मऊरानीपुर के नूर मुहम्मद हिन्दी के उत्कृष्ट विद्वान् थे। श्री अल्लाबख्श ने संस्कृत में एम0ए0 किया था। हिन्दू और मुसलमानों में भाई चारा था। वे सम्मिलित रूप से व्यापार भी करते थे। सामान्य रूप से हिन्दू और मुसलमानों में कोई साम्प्रदायिक द्वेष नहीं था क्योंकि दैनिक जीवन के अधिकांश व्यवहार में उन्हें कहीं कोई विरोध या भेद का अनुभव नहीं होता था। साम्प्रदायिकता तो धर्म के स्वार्थी ठेकेदारों तथा राजनीति के द्वारा पनपाया गया विष वृक्ष है।
सामाजिक और धार्मिक आयोजन सामाजिक सम्मेलन के उपलक्ष्य होते थे। मानस-सम्मेलन, रामलीला, शरदोत्सव, जलविहार, कजली आदि दैनिक एकरसता से मुक्ति और उल्लास के साधन थे। वर्ष में अनेक बार होने वाले कवि सम्मेलनों और प्रायः होने वाली कवि-गोष्ठियों तथा ख्याल, सैर, फाग आदि के सम्मेलनों से निर्मित काव्य संस्कार यहाँ केे समाज में इतने सन्निहित थे कि रामलीला के प्रचलित संवादों के स्थान पर पं0 घनश्यामदास पाण्डेय द्वारा रचित पद्यात्मक संवादों का प्रयोग किया जाता था। वाटिकाओं में आयोजित गोष्ठियों में पर्वोचित और स्वतंत्र काव्य-पाठ होता था। सन् 1950 के आसपास यहाँ अनेक कीर्तन मण्डल भी स्थापित हुए। प्रत्येक कीर्तन मण्डल में एक दो अच्छे कवियों का सहयोग था। इनमें सिनेमा की लोकप्रिय धुनों पर आधारित गीत गाये जाते थे। इनकी भी प्रतियोगिताएँ प्रायः आयोजित होती रहती थीं। इन मण्डलों का स्तर और स्वरूप साहित्यिक था। ’’मधु’’ बजरंग मण्डल के लिये कीर्तन व गीत लिखा करते थे। सभी गीत धार्मिक ही नहीं होते थे। विभिन्न त्योहारों और धार्मिक विषयों के अतिरिक्त राष्ट्रीय विषयों पर भी गीत लिखे जाते थे। इन अवसरों पर भी विशाल जनसमूह इक्ट्ठा होता था। ’’मधु’’ जैसे कवियों ने इन कीर्तन मण्डलों को भी काव्यात्मकता प्रदान की और उन्हें युगीन चेतना से जोड़ दिया। उनके गीत कीर्तन मण्डलों में बहुत प्रशंसित हुए थे-
भारत माँं के माथे केशर तिलक तुल्य कश्मीर है।
व्यवसायिक दृष्टि से गल्ले का व्यापार यहाँ का प्रमुख व्यापार रहा है। रेल्वे लाइन पर होने के कारण यहाँ आसपास के ग्रामीण क्षेत्रों से किसान अपना उत्पादन बेचने आते हैं। मरहठा शासनकाल में छतरपुर से हजारों आब्रजकों के आने से पहले मऊरानीपुर हरखनपुर के नाम से एक छोटा सा गांव था। इन आब्रजकों में बहुत बड़े सेठ दाऊ वाले के साथ कोरी और छीपा आये जो कपड़ा बुनने और रंँगने का काम करते थे। धीरे धीरे यह नगर भी सम्पन्न होता गया। आज भी कपड़ा बुनना और छींट, खारुआ तथा जौमर्दी की रंँगाई यहाँ का प्रमुख व्यवसाय है। खारुआ के लिये यह नगर दूर दूर तक प्रसिद्ध रहा है। सन् 1896 के आसपास इसे पिंडारियों ने लूटा तथा सन् 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में ओरछा राज्य की सेनाओं और हमीरपुर से आने वाली अंग्रेजी फौज ने भी इस नगर को बुरी तरह रौंदा।29 उस समय यह जिले का सबसे बड़ा नगर था। सन् 1896 में पड़ौसी कस्बे रानीपुर को मिलाकर यहाँ नगरपालिका स्थापित की गयी। सन् 1912 में रानीपुर को अलग कर दिया गया और यह नगर मऊरानीपुर ही कहा जाता रहा।
प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के समय इस नगर की सम्पन्नता का परिचय इसी बात से मिल जाता है कि उस समय यहाँ 72 लखपति लोग थे। कपड़े की बुनाई और रंगाई प्रमुख व्यवसाय होने के कारण यहाँ सूत कातने वालों और कोरियों को बारहों महीने काम मिल जाता था। विधवा-स्त्रियाँं तो रहंँटा (चरखा) के ही सहारे जीविका चलाती थीं। सूत बुनने का काम अमीरों तक की स्त्रियांँ करती थीं। उस समय साधारण गृहस्थी का आया खर्च स़्ित्रयाँं स्वयं श्रम करके चलाती थीं। साधारणतः लोग मित्तव्ययी थे, परन्तु विवाह तथा मृत्यु भोज के अवसर पर मुक्त हस्त से खर्च करते थे।
नरोत्तमदास पाण्डेय ’’मधु’’ के जीवन काल में हिन्दी कविता प्रयोगवाद तक पहुंँच चुकी थी। इन काव्य प्रवृत्तियों के परिचय के साथ ही उनका छायावादी तथा प्रगतिवादी कवियों से व्यक्तिगत परिचय भी था। ’’मधु’’ के अनेक गीतों तथा ’गरीब की दुनिया’ और ’पेट का रोना’ जैसी कविताओं पर इन काव्य प्रवृत्तियों का प्रभाव दिखायी देता है। पुनर्जागरण की चेतना तथा राष्ट्रीय सांस्कृतिक भाव-धारा ने उन्हें विशेष रूप से प्रभावित किया है। इसी के साथ उनके काव्य में परम्परागत अभिजात काव्य प्रवृत्ति के भी दर्शन होते हैं।
हिन्दी कविता ने वर्तमान शताब्दी के प्रथमार्द्ध में अनेक भंगिमाएँं बदलीं किन्तु देश के विभिन्न अंचलों के अनेक कवि वर्गों में यह परिवर्तन पूरी तरह प्रभावशाली नहीं हो सका। बुन्देलखण्ड में इस काल में व्यक्तिगत रूप से अनेक कवियों ने छायावादी और प्रगतिवादी प्रवृत्ति की कविताएँं लिखीं, किन्तु समग्र काव्य-वातावरण पर ब्रजभाषा काव्य की परम्परा का अधिक प्रभाव रहा। यद्यपि युग की चेतना के अनुसार राष्ट्रीयता और सामाजिक पुनर्जागरण का स्वर व्यक्त हुआ, छन्द प्रयोग में भी वे कवित्त-सवैया से आगे बढ़़े, खड़ी बोली का स्वीकार भी हुआ किन्तु अभिजात विषयों का तथा ब्रजभाषा का प्रयोग चलता रहा।

छन्द-विधान और कलात्मक अभिव्यक्ति में परम्परागत काव्य संस्कारों से प्रभावित होते हुए भी यहाँं के कवियों ने विषय की दृष्टि से युग-चेतना के प्रति पूर्ण सम्म्पृक्ति प्रकट की है। स्वाधीनता आन्दोलन के समय इन कवियों ने प्रभूत परिमाण में काव्य रचना की है। ऐसी कोई भी विशेष घटना अथवा स्वातंत्र्य सैनिक नहीं जिस पर यहाँं के प्रायः सभी कवियों ने कविताएंँ न लिखीं हों। राष्ट्रीयता के उस युग में देशी राज्यों के कवियों को अंग्र्रेजों और अपने नरेशों के भय से वीरता के प्रसंग में छत्रसाल तक ही रूक जाना पड़ता था। झाँंसी जनपद के कवियों ने स्वाधीनता-संग्राम में शान्ति और क्रान्ति मार्गांे के वीरों का खुलकर अभिनंदन किया। सैर काव्य की प्रतियोगिताओं में भी राष्ट्रीयता की भावना की प्रधानता थी। ’’मधु’’ ने तो ओरछा के राजकवि रहते हुए भी अंग्रेजों के विरोध में तथा उत्कट राष्ट्रभक्ति की अभिव्यक्ति मेें निर्भीकता का परिचय दिया है। इस सन्दर्भ में डा0 बलभद्र तिवारी ने लिखा है।-’’अनेकानेक कवि राज्याश्रित रहे हैं परन्तु उन्होंने राष्ट्र प्रेम की अभिव्यक्ति राज्याश्रय की परवाह किये बिना की है। राज्यकवि स्व0 मुंशी रामाधीन खरे, राज्य कवि स्व0 नरोत्तमदास पाण्डेय ’’मधु’’ इसी परम्परा के कवि हैं।।30

फड़ साहित्य:-
पर्वांे, शिशु जन्म, देव-पूजन और विवाहादि उपलक्ष्यों से जुड़े पारंपरिक लोक गीतों के अतिरिक्त लोक से जुड़ा बहुत सा काव्य ऐसा है जो अपने समय के प्रख्यात कवियों द्वारा रचित है। लोकास्वादन और लोक गायन से जुड़ी इन काव्य विधाओं में ख्याल, लावनी, फाग और सैर अधिक प्रचलित रही हैं। सैर काव्य की रचना बुन्देलखण्ड के अन्य स्थानों पर भी होती रही है किन्तु झाँसी, मऊरानीपुर और छतरपुर इसकी प्रतियोगिताओं के प्रमुख केन्द्र रहे हैं। इन प्रतियोगिताओं को दंगल और फड़ भी कहा गया है और डा0 गनेशीलाल बुधौलिया ने इसे फड़ साहित्य कहा भी है और फड़ साहित्य की अन्य विधाओं के साथ सैर काव्य की प्रतियोगितात्मक परम्परा का विस्तार से वर्णन भी किया है।31
हिन्दी कविता का प्रसार और संवर्द्धन फड साहित्य के रूप में भी बहुत हुआ है। फड़ साहित्य का अर्थ है विभिन्न काव्य दलों के द्वारा प्रतियोगिता के रूप में प्रस्तुत साहित्य। इन प्रतियोगिताओं में सैर, ख्याल, फाग, मंज, तड़ाका आदि लोक काव्य विधाओं के दंगल हुआ करते थे। इस क्षेत्र के झाँसी, मऊरानीपुर, छतरपुर और गुरसरायं नगरों में ख्याल और सैर सम्मेलन नियमित रूप से आयोजित होते रहे हैं। कालान्तर में प्रसिद्ध कवियों के आश्रय से यहाँ सैर-काव्य को ही प्रमुखता मिली।
प्रांरभ में छतरपुर में गंगाधर व्यास तथ परमानन्द पाण्डेय के और मऊरानीपुर में दुर्गा पुरोहित के काव्य मण्डल थे। उनकी मृत्यु के पश्चात् मऊरानीपुर के घासीराम व्यास छतरपुर के दल के लिये सैर काव्य लिखने लगे और दुर्गा पुरोहित के दल को पं0 घनश्याम दास पाण्डेय का आश्रय मिला। इसी समय झाँंसी में श्री नाथूराम माहौर के आश्रय से ’माहौर मण्डल’ चलने लगा। पहले विभिन्न काव्य दलों में प्रतियोगिता के रूप में पद्माकर, पजनेस आदि कवियों के छन्द सुनाये जाते थे। इनमें प्रमुख्यतया नायिका वर्णन, ऋतु वर्णन और विभिन्न पर्वोत्सवों से संबंधित विषयों का समावेश होता था। जब इन काव्यदलों कोा गंगाधर व्यास, घनश्यामदास पाण्डेय, नाथूराम माहोर और घासीराम व्यास का संरक्षण प्राप्त हुआ तो अन्य कवियों के स्थान पर स्वयं इन्हीं कवियों के छन्द पढ़े जाने लगे। मऊरानीपुर में वर्षाकाल में पावस-गोष्ठियाँं हुआ करती थीं जिनमें विभिन्न सन्दर्भांे में वर्षा, झूला और जलविहार पर काव्य पाठ होता था। इन प्रतियोगिताओं में एक दल जिस विषय का छन्द सुनाता था दूसरे दल को उसका उत्तर उसी विषय पर देना पड़ता था। छन्दों के भाव और कला-सौष्ठव के आधार पर जय-पराजय का निर्णय होता था। कवित्त-सवैया छन्दों की यह काव्य-प्रतियोगिता परम्परा बहुत समय तक चलती रही। बाद में इन प्रयोगिताओं का रूप सैर सम्मेलनों ने ले लिया।
सैर लोकगायकी का रूप है परन्तु बुन्देलखण्ड के इस अंचल में व्याप्त राजनीतिक चेतना से और श्रेष्ठ कवियों के सम्पर्क से उसे भाव और कला दोनों स्तरों पर साहित्यिक रूप प्राप्त हुआ। सन् 1930-31 में स्वाधीनता आन्दोलन की उत्कटता के समय से सैर सम्मेलनों मंे राष्ट्रीय विषयों पर सैरें गायी जाने लगीं। उस समय में जलियाँंवाला वाग, वारडोली सत्याग्रह, भगतसिंह, चन्द्रशेख्र आज़ाद और सुभाषचन्द्र बोस, लाला लाजपत राय, तिलक, गांधीजी, जवाहरलाल नेहरू और सरदार पटैल तथा छत्रसाल, गुरू गोविन्दसिंह, शिवाजी और झांँसी की रानी पर राष्ट्रीय सैरें लिखी जाने लगीं। वर्षा, शरद, जलविहार, विजय दशमी, रामनवमी आदि विभिन्न पर्वो का वर्णन भी राष्ट्रीय संदर्भ में किया जाने लगा। इनके अतिरिक्त पारम्परिक विषयों में नायिका-वर्णन, प्रकृति चित्रण तथा अन्य स्वतंत्र विषयों पर भी सैरें लिखी जाती रहीं।
सैर का रचना-विधान बिहारी छन्द पर आधारित है। इस मात्रिक छन्द में 21 मात्रायँ होती हैं। सैर को स्वयं ही छन्द कहा जाने लगा। मदनमोहन द्विवेदी ’मदनेश’ ने लक्ष्मीबाई रासो के छठवें भाग में इसे सैर छन्द ही कहा है- ’’इति श्री बाई लक्ष्मी राय छै विरचित सिहर छन्दानुसारेण पत्रगमनागमन नाम षष्ठ भाग सम्पूर्ण शुभं भवतु मि0पा0 कृ0 30 मृगो सं0 196132 उन्हांेने सैर की एक इकाई में एक दोहा, बिहारी छन्द में दो चरणों की टेक और फिर उसी छन्द में आठ आठ पंक्तियों के चार सम्पद रखे हैं। आठवीं, सोलहवीं, चौबीसबी और बत्तीसवीं पंक्ति टेक की है। सैर के अनेक रूप प्रचलित रहे हैं, परन्तु बाद में प्रायः सर्वमान्य रूप में एक दोहा और सैर के सोलह चरण रखे जाने लगे। ये सोलह चरण चार इकाईयों में विभजित रहते हैं। हर इकाई का अन्तिम चरण वही रहता है जो टेक का काम देता है। कभी कभी सैर में एक दोहा, एक सोरठा, चार चरणों का एक छन्द और फिर सोलह चरण भी रखे जाते हैं। सैर को राधिका छन्द भी कहा गया है।
कभी-कभी तो काव्य प्रतियोगिता फौजदारी का रूप ले लेती थी। इसलिये तत्कालीन छतरपुर नरेश विश्वनाथ सिंह ने लिखित आदेश दिया था कि ये दोनों दल कभी एक साथ नहीं बैठेंगे। उसी समय मऊरानीपुर में दुर्गा पुरोहित का मण्डल था। झांँसी में भग्गी दाऊजी श्याम बड़े अखाड़िया कवि थे। बाद में मऊरानीपुर में घनश्यामदास पाण्डेय और घासीराम व्यास तथा झाँसी में नाथूराम माहौर के अलग-अलग मण्डल हो गये। सैर सम्मेलनों का रूप बहुत रोचक होता था। प्रायः आठ नौ बजे रात से प्रारंभ होकर ये सम्मेलन दूसरे दिन नौ दस बजे तक चलते रहते थे। विभिन्न दलों में प्रतियोगिता के कारण श्रोताओं को विशेष आनन्द मिलता था। सैर-सम्मेलनों के लिये विषय प्रायः पूर्वनिश्चित होते थे। सामान्यतः प्रचलित विषयों पर प्रत्येक मण्डल के पास पहले से ही रचनाएँ तैयार रहती थीं। कभी कभी किसी विषय पर उत्तर देने के लिये यदि सैर तैयार नहीं होती थी तो उसी समय उसकी रचना कर ली जाती थी। एक दल एक बार में लगातार चार सैंरे पढ़ता था। इस अन्तराल में अन्य पार्टी को तत्काल रचना करने का अवसर मिल जाता था।
एक अवसर पर मऊरानीपुर में गंगाधर व्यास की पार्टी की ओर से सैर में प्रश्न किया गया- अम्बा को मिली चूड़ामणि किससे बताना, इस पै ही हार जीत मीत आज मनाना।33
दुर्गा पुरोहित का उस समय तक स्वर्गवास हो चुका था। उनके शिष्य बोधन सुनार के पास उत्तर तैयार नहीं था। वह अविलम्ब प्रसिद्ध संस्कृतज्ञ पं0 गणपति चौबे के पास गये और चूडामणि की उत्पत्ति पूछ आये। चौबे जी ने बताया कि उसकी उत्पत्ति क्षीरसागर से हुई है। बोधन सुनार ने लौटकर तुरन्त एक सैर लिख डाली। जब पुरोहित जी के दल की ओर से वह सैर पढ़ी गयी तो गंगाधर व्यास के दल के रामदास दर्जी खड़े होकर बोले-यदि चूड़ामणि की उत्पत्ति क्षीरसागर से हुई हो तो हम दंगल में अपनी पराजय स्वीकार कर लेगें। बोधन सुनार को चौबे जी की विद्वता का बल था। उन्होंने भी चुनौती स्वीकार करते हुए कहा कि अगर यह सत्य न हो तो हम हार मान लेंगे। वास्तव में दोनों ही पक्ष अपने अपने अभिप्राय में सही थे। रामदास दर्जी का प्रश्न था कि सीता को चूड़ामणि कहांँ से मिली। तो वह उन्हें अनसूयासे प्राप्त हुई थी। बोधन सुनार ने हड़बडाहट में सीताजी का संदर्भ छोड़कर चूडामणि की मूल उत्पत्ति का óोत ढूंँढ लिया था। वहांँ तक रामदास दर्जी के ज्ञान की पहुंँच नहीं थी। गंगाधर व्यास दोनों का आशय समझ रहे थे। उन्होंने रामदास दर्जी को शान्त किया परन्तु फिर उस दिन आवेश बढ़ जाने के कारण सम्मेलन आगे नहीं चला। दूसरे दिन पण्डितों ने लिखित प्रमाण दिये कि चूडामणि की उत्पत्ति क्षीरसागर से ही हुई है।
इन सैर सम्मेलनों में सिद्ध कवियों की प्रतिभा के द्वारा उत्कृष्ट साहित्य की रचना हुई है। कुछ स्वाभाविक रूप से भी और प्रतियोगिता की भावना के कारण सैरों में इन कवियों की कल्पनाशीलता, सूझबूझ उक्ति-चातुर्य और कलात्मकता का श्रेष्ठ रूप प्रकट हुआ है। प्रतियोगिता की भावना के कारण प्रायः ऐसी रचनाएंँ की जाती थीं। जिनसे बढ़कर भाव की दृष्टि से विरोधी दल सैर न पढ़ सके। कभी कभी सैरों में प्रहेलिका का प्रयोग भी किया जाता था। अनुत्तर की स्थिति में उस दल की पराजय मान ली जाती थी।
घनश्यामदास पाण्डेय और नाथूराम माहौर के मण्डलों में सैर प्रतियोगिताएंँ बहुत हुई हैं। नरोत्तमदास पाण्डेय ’’मधु’’ भी पाण्डेय मण्डल के लिये सैरें लिखा करते थे। घासीराम व्यास का भी मऊरानीपुर में दल था परन्तु पाण्डेय मण्डल के साथ प्रतियोगिता होने पर व्यास जी का दल और माहौर मण्डल प्रायः सम्मिलित रहते थे। सैर-सम्मेलन मऊरानीपुर में जल विहार के अवसर पर और झाँंसी में तुलसी जयंती पर तो होते ही थे। वर्ष में अनेक बार अन्य उपलक्ष्यों में भी आयोजित किये जाते थे। यह साहित्यिक प्रतियोगिता कभी कभी साहित्यकला से च्युत होकर व्यक्तिगत आरोपों और प्रत्यारोपों में बदल जाती थी। तब माहौर के विष और महावर तथा घनश्याम के बादल और कृष्ण अर्थ लेकर एक दूसरे पर कटु व्यंग्य किये जाते थे। ऐसी सैरों में प्रायः अपने नाम की छाप न देकर मण्डल के अन्य लोगों का नाम दे दिया जाता था। पाण्डेय जी ने ऐसी सैरों में शत्रुघन पुजारी तथा प्रागदास के नाम दिये हैं। इस काव्य स्पर्धा से कवियों के पारस्परिक व्यवहार में कटुता नहीं आती थी। माहौर जी जब भी मऊरानीपुर आते थे घनश्यामदास पाण्डेय के घर अवश्य जाते थे तथा उनके प्रति आदर प्रकट करते थे।
इन प्रतियोगिताओं के संदर्भ में डॉ0 भगवानदास माहौर ने श्री नाथूराम माहौर अभिनन्दन ग्रंथ में जो वर्णन किया है उसका स्पष्ट आशय यह है कि कवित्त-सवैयों और सैरों की प्रतियोगिताओं में आक्रमण की पहल हमेशा पाण्डेय-मण्डल की ओर से हुआ करती थी और माहौर जी की रचनाएंँ केवल उत्तर के रूप में पढ़ी जाती थीं। उन्होंने यह भी सिद्ध करने की चेष्टा की है कि माहौर जी ने सदैव सटीक उत्तर दिये। यद्यपि डा0 माहौर ने बाद में यह स्वीकार किया है कि यह कहने से पं0 घनश्याम दास पाण्डेय जी के साथ कुछ अन्याय सा हो जा सकता है, परन्तु उनके वर्णन से अपराध भार पाण्डेय जी पर ही पड़ता है।34
उनके वर्णन से ऐसा भी प्रतीत होता है कि घासीराम व्यास और घनश्याम दास पाण्डेय के मण्डल एक साथ थे। वास्तवकिता यह है कि व्यास जी का दल और माहौर जी का दल सम्मिलित रूप से पाण्डेय मण्डल के विरूद्ध प्रतियोगिता में उतरता था। यह स्वयं स्व0 नाथूराम माहौर के पत्र से स्पष्ट है। उन्होंने मऊरानीपुर के श्री हल्काई रठा को पत्र में लिखा था-आप किसी बात की चिन्ता न करना खूब अच्छी तरह से उनके साथ फड़बाजी करना है श्री व्यास जी से भी सैर लिखाने की कोशिश करना। मैं लश्कर से आकर सैर आपकी सेवा में जैसे आप चाहते हैं वैसे ही भेजूँगा यदि हो सका तो मैं स्वयं हाजिर होऊँगा।35 इस पत्र में माहौर जी ने कुछ सैर भी लिखी हैं जिनें माहुर (महावर और विष) की प्रशंसा की है। एक सैर में अन्योक्ति का व्रत लेकर घनश्याम की निन्दा की गयी है-
अन्योक्ति के कहन कौ ’माहुर’’ ने व्रत लियो।
घनश्याम की बहिन ने घनश्याम पति कियो।।
यहाँ तथ्य की दृष्टि से कुछ स्पष्टीकरण आवश्यक है। अनेक अवसरों पर सैर सम्मेलनों का निमंत्रण लेकर झांँसी से कोई व्यक्ति केवल एक या दो दिन पहले आता था। जब पाण्डेय जी की ओर से यह कहा जाता था कि समय बहुत कम है तो तर्कपूर्ण आग्रह किया जाता था कि प्रतियोगिता की घोषणा कर दी गयी है और चन्दा भी एकत्र कर लिया गया है। इतना अल्प समय इसलिये दिया जाता था जिससे पाण्डेय जी का दल पूरी तैयारी न कर सके। तब घनश्यामदास पाण्डेय और उनके पुत्र नरोत्तम दास पाण्डेय की रचना क्षमता निर्झरिणी की तरह प्रवाहित होने लगती थी। तब एक एक दिन में साठ सैरें तक लिखीं गयीं। चार लोग लिपिकार होते थे। जब तक वे अपनी अपनी सैरें उतारते तब तक उन्हें पिता-पुत्र दूसरी सैरें लिखकर दे देते थे।36
झांँसी में सैर सम्मेलन चल रहा था। ’’मेंहदी’’ विषय पर सैंरे पढ़ी जा रही थीं। इस विषय पर पाण्डेय जी की पार्टी बहुत भावपूर्ण सैरें पढ़ रही थी। माहौर जी के दल ने विषय बदला। ’माहुर समक्ष मेंहदी को रंग भंग है’। यह विषय परिवर्तन भी था और पाण्डेय मण्डल पर व्यंग्य भी था। ’मधु’ ने तुरन्त उत्तर लिखा- ’घनश्याम भलौ माहुर को मजा बिगारो’ श्रोताओं ने इस उत्तर की बहुत प्रशंसा की।
मऊरानीपुर केे एक सम्मेलन में, जिसमें माहौर जी स्वयं उपस्थित थे, उनकी पार्टी ने छत्रसाल की तलवार पर एक सैर पढ़ी। इसमें तलवार के ऊपर एक ही नायिका के लक्षणों का आरोप किया गया था। ’’मधु’’ ने तुरन्त उत्तर तैयार किया-
मुग्धा समान बान म्यान की सुरंग में।
इस सैर में छत्रसाल की तलवार पर नौ नायिकाओं के लक्षणों का भावपूर्ण आरोप किया गया है। एक अन्य सैर भी तत्काल रचित हैं-
है सैर नरोत्तम की तत्क्षण उछाल की।
कुलटा समान घूमेे असि छत्रसाल की।।
इसमें ’मधु’ के आशुकवित्व का परिचय मिलता है। विशेषता यह है कि उनकी सैरों में काव्य पक्ष भी बहुत समृद्ध है।
घनश्यामदास पाण्डेय की यह सैर माहौर के दल को दिया गया उत्तर है, अपनी ओर से रखा गया प्रश्न नहीं। माहौर जी की ओर से प्रश्न किया गया कि वर-पूजन (वट वृक्ष का पूजन) में नायिका संकोच क्यों कर रही है। इसका उत्तर मुग्धा नायिका के लक्षणों के आधार पर दिया गया-
मुग्धा पतिव्रता है, है वयस नदानी।
प्रतिपक्ष की ओर से समस्या प्रस्तुत की गयी कि पूर्णमासी की रात में नायक-नायिका के मुख को चन्द्र के समान कहता है तो नायिका खींझकर भीतर क्यों चली जाती है। पाण्डेय दल की ओर से उत्तर दिया गया-
हंँस रही कुमोदिनि है शशि की प्रभा लखात।
चढ अटा एक दंपति छवि देखत अवदात।।
पति शशि सौ मुख तिय कौ कहै नारी रिसयात।
सुन लेहु हेेतु पिय तज तिय घर में घुस जात।।

उत्तर में कहा गया है कि नायिका नायक से मानपूर्वक कहती है कि मेरे मुख को चन्द्रमा के समान क्यों कहते हो। चन्द्रमा तो कलंकी है। वह घटता बढ़ता भी रहता है। इतने में ही एक सखी कहती है कि तुम्हारे निष्कलंक मुख को देखकर राहु वास्तविक चन्द्रमा को छोड़कर उसे ही ग्रस्त कर लेगा। इसलिये नायिका घर के भीतर चली जाती है।
प्रतिपक्ष की ओर से प्रश्न किया गया कि वसन्त ऋतु में गुलाब को क्यों सींचा जा रहा है। ’’मधु’’ ने सुरत प्रिया नायिका का हेतु लेकर कवि-सिद्धि के आधार पर उत्तर दिया-
जो हो वसंत में गुलाब तरू का सिंचन।
उसमें न फूलते तो उस वर्ष पुष्प गन।।
बतलाते हैं कान लगा सुनो सभा जन।
मधुमास में गुलाब सींचने का कारन।।।37
रतिप्रिया नायिका को आशंका है कि खिलते हुए गुलाब के फूलों की चटकन को सुनकर प्रातःकाल का आभास पाकर प्रिय जाग उठेगा और प्रिया के सदन से चला जायेगा। कवि-सिद्धि के अनुसार वसन्त ऋतु में गुलाब को सींचने पर उस वर्ष उसमें फूल नहीं लगते। जब फूल ही नहीं लगेंगे तो चटकन की ध्वनि भी नहीं होगी। ’’प्रातहिं जगावत गुलाब चटकारी दैैंे’’ में इस सूक्ष्य ध्वनि को सुना गया है। इसी प्रश्न का उत्तर मालिन के संदर्भ में भ्रम अलंकार के प्रयोग से भी दिया गया है-
भ्रम मांँह भ्रमी भोरी दृग खोले मीचै।
ना छुअत तिन्हें भीति मान जिय के बीचे।।
तिनको बुझायवे फिर जलधार उलींचे।
मालिन बसंत मंे गुलाब या तें सींचै।। ।
इन प्रतियोगिताओं में समस्याएँ दोनों पक्षों की ओर से प्रस्तुत की जाती थीं। इसी में सैर सम्मेलनों की रोचकता और सजीवता थी। प्रश्न उपस्थित करने और किसी प्रश्न का उत्तर देने में कवि-सिद्धियों तथा काव्यशास्त्र का ज्ञान, विविध लोकानुभव और आशुकवित्व की आवश्यकता पड़ती थी। कल्पनाशीलता और अनोखी सूझ का प्रयोग इन सैरों के प्रभाव में सहायक होता था। पाण्डेय जी के सैरकाव्य को देखने से पता चलता है कि उनकी ओर से भी प्रश्न उपस्थित किये गये हैं-
मस्तक सौ नहिं बार सिर ऋषिमुख रसना चार।
दस हजार हैं पाँंव सौ कहौ कौन वह नार।।
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को प्रानी हाथ भर कौ भेद खोलौ ज्ञानी।
है शरद पूर्णिमा में निज साज संवारा।
यह देख दृश्य रमणी ने पति से उचारा।
तुम शशि न लखौ मैं न लखौं नभ में तारा।।
-
घनश्याम कहौ हेतु ज्ञान लखैं तुम्हारा।।
-
शारदी चन्द्र निकसो छवि छारही गगन।
तिहिं निरख रहे दंपत्ति अति प्रेम भरे मन।।
शशि मंे है कौन बैठो यह पति के पूछतन।
हाँतन में प्रिया ढाँक लेत प्रिय को आनन।।
-
घनश्याम कहौ कौन नायिका करौ मनन।।
आचार्य घनश्याम दास पाण्डेय हिन्दी संस्कृत के उद्भट विद्वान थे। चार पाँच भाषाओं के ज्ञान के साथ उनका काव्यशास्त्र, दर्शन ज्योतिष आदि विषयों पर असाधारण अधिकार था। उनके प्रश्नों में उनकी बहुज्ञता की झलक है। कभी कभी यह प्रतिपक्षी को निरूत्तर करने के लिये गंभीर समस्या रख देते थे-
घनश्याम भेद पूछत साहित्य प्रधानी।
ध्वनि अविवक्षित वाच्य भेद कहौ बखानी।।
अब ध्वनि का अविवक्षित वाच्य भेद तो वही बता पायेगा जिसने ध्वनि के आचार्य आनन्दवर्द्धन को पढ़ा हो। साहित्य का पाठ्यक्रमीय अध्ययन करने वाले भी वहाँ तक नहीं पहुंँच पाते। यह तो इन प्रतियोगिताओं का एक रूप था। इसमें जब व्यक्तिगत आक्षेप होने लगे तो मैथिलीशरण जी गुप्त ने माहौर जी और पाण्डेय जी को अलग अलग पत्र लिखकर आग्रह किया था कि वे अपनी काव्य प्रतिभा का इस प्रकार अपव्यय न करें। गुप्त जी, पाण्डेयजी और माहौर जी समवयस्क थे। विषय की दृष्टि से सैर काव्य में पर्याप्त वैविध्य है। उसमें राष्ट्रीयतापरक सैरों की प्रधानता है। इन सम्मेलनों के उपलक्ष्य से झाँंसी मऊरानीपुर और छतरपुर में बहुत विशाल परिमाण में सैरें लिखी गयी हैं। अधिकांश सैर काव्य तो प्रायः अप्राप्त हो गया है। अन्य स्फुट कवियों के सैर काव्य के अलावा गंगाधर व्यास, नाथूराम माहौर, घासीराम व्यास, घनश्यामदास पाण्डेय और उनके प्रतिभाशाली पुत्र नरोत्तमदास पाण्डेय मधु ने ही हजारों सैरों की रचना की है और सैर काव्य को लोक काव्य की सीमा से निकाल कर परिनिष्ठित साहित्य का स्तर प्रदान किया है। इस काव्य का लोप हिन्दी काव्य परम्परा की अपूरणीय क्षति है। इन प्रतियोगिताओं के माध्यम से कविता के आस्वाद का रोमांच ही अद्भुत होता था।

ऽ ओरछा राज्य-टीकमगढ़: साहितय का केन्द्र:-


बुन्देलखण्ड के राज्यों में ओरछा राज्य अनेक कारणों से विख्यात रहा है। इस राज्य में वीरसिंह देव प्रथम जैसे असि-धर्मा नरेश हुए। नारी की पावनता प्रमाणित करने के लिए विषपान करने वाले हरदौल इन्हीं वीरसिंह देव प्रथम के पुत्र थे। आचार्य केशवदास ओरछा नरेश रामशाह के भाई इन्द्रजीत सिंह के आश्रित थे। ओरछा नरेश विक्रमाजीतसिंह ने सन् 1783 में ओरछा से राजधानी हटाकर टीकमगढ़ में स्थापित की। राजधानी के स्थान परिवर्तन के बाद भी टीकमगढ़ राज्य ओरछा राज्य ही कहा जाता रहा।
ओरछा राज्य के लोकप्रिय शासकों की परम्परा मंे वीरसिंह देव द्वितीय ने सन् 1930 से सन् 1947 तक शासन किया। नरोत्तमदास पाण्डेय ’’मधु’’ इन्हीं के राजकवि थे। वीरसिंह देव द्वितीय सुशिक्षित, आधुनिकता प्रिय, विद्वान् और गुणग्राही राजा थे। उनके समय में टीकमगढ़ साहित्य का प्रमुख केन्द्र बना हुआ था। बनारसीदास चतुर्वेदी, यशपाल जैन, कृष्णानंद गुप्त आदि हिन्दी के व्रती साहित्यकार वहीं नियमित रूप से वर्षो रहे हैं। वीरसिंह देव द्वितीय स्वयं गंभीर अध्येता, हिन्दी के उन्नायक, साहित्य मर्मज्ञ और अच्छे लेखक थे। ’’मधु’’ का इस राज दरबार से जुडना अर्थप्रेरित न होकर अपनी काव्य प्रतिभा के विकास और प्रदर्शन के अनुकूल वातावरण के आकर्षण के कारण था।

ऽ वीरसिंह देव की अध्ययन प्रियता और उनका साहित्यानुराग
अन्य अनेक देशी नरेशों की तरह वीरसिंह देव द्वितीय सामंती वैभव में डूबे रहने वाले शासक नही थे। राज्य कार्य की व्यस्तता के बाद भी वह नियमित रूप से अध्ययन करते थे। कभी कभी वह 14-14 घंटे तक मोटी मोटी पुस्तकों में खोये रहते थे। उनकी स्मरण शक्ति भी बहुत अच्छी थी।
महाराज का निजी पुस्तकालय बहुत बड़ा था। उसमें विविध विषयों के श्रेष्ठ ग्रंथ थे। हिन्दी साहित्य के अतिरिक्त उनके पुस्तकालय में रूडयार्ड कियलिंग, स्टीवेंसन, आस्कर वाइल्ड, डिकेंस विक्टर, ह्यूगो, अनातोले फ्रांस का साहित्य भी संकलित था। कथा सरित्सागर, ओशन आव स्टोरीज, कैम्ब्रिज हिस्ट्री आव इंडिया, एनसाइक्लोपीडिया, कोष, अरेबियन नाइटस और फोटोग्राफी, पक्षियों, खेल, मशीन, कृषि आदि पर श्रेष्ठ पुस्तकें भी उनके पुस्तकालय में उपलब्ध थीं। उस समय प्रकाशित होने वाली हिन्दी और अंग्रेजी की प्रमुख पत्रिकाएँ भी महाराज के पास आती थीं। अंग्रेजी की पंच पत्रिका की तो उन्होंने जिल्दें बनवा लीं। ओरछेश के लिये पुस्तकें सजावट की सामग्री नहंीं, आनन्द की वस्तु है। बुडहाउस ओरछेश का प्रिय लेखक है। कहना चाहिए कि वे उसके भक्त है।38

विद्या व्यसन के साथ ही ओरछेश का साहित्यानुराग भी अटूट था। साहित्य प्रेम उन्हें पैतृकदाय के रूप में मिला था। उनके पिता भगवंतसिंह जू देव साहित्य मर्मज्ञ और कवि थे। वह वीर रस के प्रेमी थे। जब वह अपनी ओजस्वी वाणी में पृथ्वीराज रासों का पाठ करते थे तो सुनने वालों की भुजाएँ फड़कने लगती थीं। ओरछेश की प्रारंभिक शिक्षा में ही साहित्य का समावेश हो गया था। दीवान पं0 रामनेत की प्रेरणा से उन्होंने बहुत से छन्द याद कर लिये। राज्य के कवि पीताम्बर भट्ट ने उन्हें काव्य शिक्षा दी थी। ओरछेश ने ’’वृत्त प्रभाकर’’ और ’’मान मंजरी’’ का अध्ययन किया। बनारसीदास चतुर्वेदी की जो डेली कालिज इन्दौर में उनके हिन्दी अध्यापक थे, प्रेरणा से उनके साहित्य संस्कार दृढ़ हुए। अजमेर में ओरछेश चन्द्रधर शर्मा गुलेरी के सम्पर्क में आये।
उन्होंने ग्रामगीतों तथा उर्दू और हिन्दी की प्रिय कविताओं का स्वाक्षरों में अपना संकलन तैयार किया था। स्व0 पं0 बालकृष्ण देव भट्टाचार्य के शब्दों में ’’यदि आपको एक ही समय पर हिन्दी के महान कवियों का रसास्वादन करना हो या उर्दू के अनूठे शेरों की सैर करना हो या ग्राम्यगीतों का गौरवज्ञान करना है तो ओरछेश के अश्वय ही दर्शन कर यह अलम्य लाभ लीजिए।’’ कैबिनेट या मंत्रीमण्डल की कोई भी ऐसी बैठक न हुई होगी जिसमें राजकाज के पश्चात् कविता कलाप न चलाया गया हो। भोज के समय, क्रीड़ा के समय, साधारण गोष्ठी के समय जब देखिये ओरछेश का कविता प्रेम ही दर्शित होगा।39
महाराज को बच्चन जी की कविता बहुत प्रिय थी। एक बार उन्होंने वृन्दावन लाल वर्मा को बच्चन जी का एक पूरा काव्य बिजली के लेंप के प्रकाश में खड़े खड़े सुनाया था।40
गीता और रामचरित मानस ओरछेश के स्वाध्याय-ग्रंथ थे। तुलसी साहित्य का उन्हें गहरा अध्ययन था।
ऽ गद्य लेखक वीरसिंह जू देव
ओरछेश अच्छे गद्य लेखक थे। अनेक प्रकाशित लेखों के अतिरिक्त उन्होंने हॉकी पर एक पुस्तिका और एक ग्रंथ लिखा।
टीकमगढ़ 10.01.33
’’क्या कहना है विधुर जी महाराज ! सब कवित्ता लिखा है। कलम तोड़ दी, दावात लुड़का दी, कागज नोच खाया। कहाँ तक तारीफ करूँ....फक्कड़ हूँ इसीलिए आपत्ति नहीं करता, क्योंकि
मैं खूब समझता हूँ तेरी रूसवागरी को साकी।
काम करती है आँख नाम है पैमाने का।41
टीकमगढ़ में विशूचिका का संक्रामक रोग फैल जाने पर बनारसीदास चतुर्वेदी ने ओरछेश को पत्र लिखा कि वह कुछ दिनों के लिये टीकमगढ़ छोड़ दें। महाराज ने उत्तर दिया-
............आपने टीकमगढ़ छोड़ जाने की जो शुभ सलाह दी तदर्थ पुनः धन्यवाद! किन्तु सविनय निवेदन है कि मैं ऐसा करने में असमर्थ हूँ। इस समय प्रजा को मेरी आवश्यकता है। यह मैं जानता हूँ कि न तो मैंं उनकी दवा कर सकता हूँ और न ही उनकी एक्टिव सर्विस ही करता हूँ और जो प्रबंध रोग दूर करने के लिए अभी हो रहा है उसमें मेरे चले जाने से न किसी प्रकार की त्रुटि ही आ सकती है, तब भी मेरे रहने से प्रजा को बड़ा भारी ’’मोरल सपोर्ट’’ है। मेरे रहते हुए भी प्रजा में हताशायुक्त भय फैला हुआ है फिर यदि मैं यहाँ से छोड़कर चला जाऊँ तब तो उसकी सीमा ही न रहेगी। अतः ऐसे साँकरे में मेरा कर्त्तव्य मुझे यही बताता है कि मैं यहाँ जमा रहूँ अतः-
’’डगमगहिं डिगहिं हिन्दू तुरक, नहिं पहार डुल्लहि डगहि’’ 42
वीरसिंह देव के पत्रों से उनकी साहित्य प्रियताा का परिचय तो मिलता ही है उनसे उनकी स्वाभाविक विनम्रता और सज्जनता प्रकट होती है।
टीकमगढ़ 10.07.33
.....जो मेरी विनती पे ध्यान न दओ जाय और आपके मन में जेह भर रई होय कै आँ हाँ करजा चुकाउनेइ है तो जो आप समय समय पै लेख लिखकें दीनन की सेवा करत रात और जो साहित्य सेवा कर रय ओइ से मोरी करजा पाई पाई में चुक जै। मों से पूँछत तो ई के सिवा और कोऊ तरकीब सें मोरी करजा नेइ चुक सकत।
...........होंय चाय वे कोउ होंय और वे चाय जो लिखावें पै ऊसें होत का है। जनता की आँखन में घूर डारवों कबू हाँसी खेल नैयाँ। जो तो संसार है। की की कौ मौ पकर लेबी। और फिर बात जा है के काउ के कय को का बुरऔ मानवौ। कीचड़ में पथ्रा फेंकबे से अपनोह आँग बिगरत।
जा मानी के मोय एक से हजार ठकुर सुहाती केवै बारे मिल सकता पै मैं खुद उनसें दूर रात। मोय ठकुर सुहाती तनकऊ नेह सुहात।
अपुन पूछी है के हमारो तुमारो का रिस्ता है। भला जोइ का कछू पूंछवे की बात है। सेव्य सेवक कौ का रिस्ता होत है।43
ओरछा परेश के साहित्यानुराग और साहित्य के विकास और उन्नयन में उनके सहयोग के कारण हिन्दी जगत में उनका बहुत आदर था। 24 से 27 मार्च 1934 तक दिल्ली में आयोजित हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अधिवेशन में सभापति पद के लिये वीरसिंह देव द्वितीय का नाम बार-बार आ रहा था। ’’सुकवि’’-संपादक ने महाराज की हिन्दी सेवा की प्रशंसा करते हुए लिखा-’’हमें यह कहने में तनिक भी संकोच नहीं कि वर्तमान भारतीय नरेशों में महाराज वीरसिंह का हिन्दी प्रेम एक आदर्श प्रेम है। आप हिन्दी के लिये बहुत कुछ कर रहे हैं और करने की अभिलाषा रखते हैं..........हिन्दी वाले भी कृतध्न नहीं है। उन्होंने महाराज की हिन्दी की लगन पर मुग्ध होकर आप ही के कर कमलों द्वारा आचार्य द्विवेदी जी को अभिनंदन ग्रंथ समर्पित कराया, यह अभी कुछ ही दिन की बात है।44
कुछ लोग यह समझते थे कि महाराज अभी इस गौरव के योग्य नहीं है। वे लोग प्रचार कर रहे थे कि महाराज को यह पद स्वीकार नहीं करना चाहिए और किसी श्रेष्ठ हिन्दी सेवी को यह गौरव मिलना चाहिए। वास्तविकता यह थी कि वीरसिंह देव नरेश होते हुए भी हिन्दी के प्रति जो भी कर रहे थे उसमें उनका विनम्र भाव था। वह उनकी आसक्ति थी जिससे उन्हें आत्मपरितोष मिलता था। हिन्दी साहित्य सम्मेलन का अध्यक्ष होना देव पुरस्कार प्रदाता के लिये कोई बड़ा गौरव नहीं था। तथ्य यह है कि उन्होंने स्वयं अध्यक्ष पद अत्यंत विनम्रता सहित अस्वीकार कर दिया था। सुकवि- सम्पादक ने इसीलिए अपील निकाली थी कि वह यह पद अवश्य स्वीकार करलें।45


ऽ साहित्यिक योजनाएं
राज्य कार्य संभालते ही वीरसिंह देव ने अनेक साहित्यिक योजनाओं में व्यक्तिगत रूचि लेकर उन्हें अपना संरक्षण प्रदान किया। उनके शासन ग्रहण करते ही राज्य में साहित्य और हिन्दी भाषा के प्रसार तथा संवर्द्धन के आयोजन आरम्भ हो गये।
वीरेन्द्र केशव साहित्य परिषद्-इस परिषद् की स्थापना ओरछेश के शासनारंभ में ही उनके प्रथम जन्म महोत्सव के अवसर पर 15 अप्रैल 1930 को हुई।46 इसकी स्थापना का श्रेय ओरछा राज्य के तत्कालीन दीवान तथा हिन्दी के महारथी रायबहादुर पं0 श्याम विहारी मिश्र को था। परिषद् के प्रथम सभापति राज्य के सिविल और सेशंस जज श्री सुरेन्द्र नारायण त्रिपाठी तथा मंत्री पं0 जयकृष्ण देव और गौरीशंकर द्विवेदी ’’शंकर’’ हुए। इन साहित्योपासकों के उत्साह से परिषद् शीघ्र ही साहित्य जगत की प्रमुख संस्था मानी जाने लगी। इस परिषद् की सक्रियता इस तथ्य से ही प्रमाणित है कि प्रथमवर्ष में ही इसकी प्रबन्धकारिणी समिति की 19 बैठकें तथा सर्वसाधारण सदस्यों की 13 बैठकें हुई। इसके 17 साधारण बृहत् तथा 10 विशेष बृहत् अधिवेशन हुए।47 वर्ष भर अनेक काव्य समारोह आयोजित किये गये जिनमें लगभग तीन हजार उर्दू, हिन्दी कविताएँ पढ़ी गईं। कुंडेश्वर मेले (वीर वसंतोत्सव) के अवसर पर बाहर के कवियों की लगभग 50-60 कविताएँ प्राप्त हुई जिनमें से कुछ तो क्वेटा, बिलोचिस्तान (अब पाकिस्तान) जैसे सुदूर स्थानों से आयी थीं।
परिषद्् का वार्षिकोत्सव वसंतपर्व के समय होता था। इस अवसर पर कुंडेश्वर में मेला आयोजित किया जाता था और वहीं वीर वसंतोत्सव का साहित्यिक समारोह होता था। ओरछेश की साहित्य प्रियता वैसे तो दैनिक कामकाज और बातचीत में भी अभिव्यक्त होती रहती थी, परन्तु दशहरा तथा वसन्त के अवसर पर टीकमगढ़ साहित्य नगर बन जाता था। इस समय अखिल भारतीय कवि सम्मेलन प्रमुख आकर्षण होता था। सन् 1933 के वीर वसन्तोसव में बाहर से शताधिक कवि और विद्वान् उपस्थित हुए जिनमें सुकवि सम्पादक श्री सनेही (कानपुर), रसिकेन्द्र (कालपी), मुंशी अजमेरी, हृदयेश (कानपुर), रामसहाय पाण्डेय ’चन्द्र’ (लखनऊ), अम्बिकेश (रीवा), श्रीमती सुभद्रकुमारी चौहान तथा महादेवी वर्मा के नाम उल्लेखनीय हैं। विभिन्न प्रान्तों के कवियों की लगभग पन्द्रह सौ रचनाएँ डाक से प्राप्त हुईं।48 नरोत्तमदास पाण्डेय ’’मधु’’ को इस कवि सम्मेलन में कवितापाठ करने का गौरव मिला था, यद्यपि इस समय वह स्थानीय हाईस्कूल में नवमी कक्षा के छात्र थे।
इन अवसरों पर पढ़ी गई कविताओं के लिये पुरस्कार का निर्णय भी किया जाता था। तृतीय वीर वसन्तोसव पर हुई काव्य प्रतियोगिता के निर्णायक मण्डल में रायबहादुर श्यामबिहारी मिश्र कर्नल जयेन्द्र सिंह, सनेही जी, रसिकेन्द्र तथा ’’मधु’ के पिता आचार्य घनश्यामदास पाडेय थे। निर्णायकों ने हृदयेश (कानपुर), रामसहाय पाण्डेय चन्द्र (लखनऊ), सुभद्रा कुमारी चौहान (जबलपुर) तथा नवीन (सीतापुर) को क्रमशः पुरस्कार योग्य घोषित किया। इन कवियों को प्रमाणपत्र और पदक प्रदान किये गये। इन प्रसिद्ध कवियों द्वारा इस प्रतियोगिता में सम्मिलित होना टीकमगढ़ के साहित्यिक सम्मान की श्रेष्ठता प्रमाणित करता है। इस अवसर पर सुभद्राकुमारी चौहान ने अपनी प्रसिद्ध कविता ’’प्रेम श्रृंखला’’ का पाठ किया था-
’’क्या कहते हो, आ न सकोगे तुम मेरी कुटिया की ओर।
किन्तु सहज ही तोड़ सकोगे, कैसे प्रबल प्रेम की डोर।।
उक्त प्रतियोगिता में परिषद् के पदाधिकारियों, निर्णायकों मुंशी अजमेरी तथा महादेवी वर्मा की कविताएँ सम्मिलित नही थीं। महादेवी जी की ’अतृप्ति’ कविता इस अवसर पर बहुत सराही गयी थी। ओरछेश ने अजमेरी जी के काव्य से प्रसन्न होकर उन्हें 1000 रूपये प्रदान किये तथा राजकवि की उपाधि के साथ 50 रूपये मासिक जीवन पर्यन्त देने की घोषणा की। इसके पूर्व द्वितीय वसन्तोसव पर अजमेरी जी को उनकी ’’बुन्देलखण्ड’’ कविता पर स्वर्णपदक दिया गया था। इन उत्सवों पर राज्य की ओर से हजारों रूपये व्यय किये जाते थे।
वीरसिंह देव का साहित्यानुराग केवल काव्य समारोहों तक ही सीमित नहीं था बल्कि उनमें साहित्य के समर्पित साधक की चेतना थी। उन्होंने गौरीशंकर द्विवेदी शंकर के अधीन गवेषणा कार्य आरंभ कराया। इस योजना में टीकमगढ़ के भूतपूर्व नरेश विक्रमादित्य के सम्पूर्ण काव्य की खोज की गई और ’’विक्रम ग्रन्थावली के नाम से प्रकाशित कराने का निर्णय भी किया गया। गौरीशंकर द्विवेदी का ग्रन्थ बुन्देल वैभव ओरछेश की साहित्य संलग्नता का ही फल है। यह लेखक ने स्वयं स्वीकार किया है।49
सन् 1933 में परिषद् के प्रोत्साहन से शिक्षा विभाग ओरछा राज्य के द्वारा ’’वीर बुन्देल’’ नाम की पत्रिका का प्रकाशन हुआ। एक अन्य पत्रिका ’’कमला’’ के प्रकाशन की भी योजना बनाई गई। बाद में ’’मधुकर’’ जैसी प्रतिष्ठित पत्रिका भी इसी संस्था के तत्त्वाधान में निकली। वीरसिंह देव के कुछ अन्य साहित्यिक संकल्प भी थे जो उनके इच्छित रूप में पूर्ण नहीं हो सके।
गोस्वामी तुलसीदास जी और उनका काव्य-ओरछेश की यह प्रबल इच्छा थी कि गोस्वामी तुलसीदास पर ऐसे ग्रन्थ का प्रणयन किया जाए जो अपने आप में सम्पूर्ण हो। उसमें गोस्वामी जी के जीवन तथा उनके सम्पूर्ण काव्य से सम्बन्धित सब कुछ इस तरह समाविष्ट हो कि फिर इस विषय में किसी अन्य ग्रन्थ को देखने की आवश्यकता न रहें। इस विराट कार्य का भार उन्होंने पं0 लोकनाथ सिलाकारी को सौंपा परन्तु यह विराट कल्पना साकार न हो सकी। इसी सम्बन्ध में ओरछेश ने बालकृष्ण देव तेलंग को तुलसी काव्य में प्रयुक्त शब्दों की संख्या की गणना करने और उनकी प्रकृति का परिचय देने का कार्य सौंपा। उनकी यह हार्दिक इच्छा थी कि रामचरित मानस का अद्वितीय सचित्र संस्करण प्रकाशित हो तथा स्थान-स्थान पर तुलसीदास समितियाँ गठित की जायें और तुलसीदास का गवेषणापूर्ण अध्ययन नियम पूर्वक किया जाए।


अंग्रेजी के एनसाइक्लोपीडिया की तरह का समस्त विषयों से संबंधित बृहत् कोष भी ओरछा नरेश का एक संकल्प था।
बुन्देली कोष
बुन्देलखण्ड, उसकी भाषा और उसके साहित्य के प्रति ओरछेश का प्रकृत्यानुराग था। वह चाहते थे कि बुन्देली के शब्दों, मुहावरों, कहावतों, गीतों और कथाओं का एक उत्कृष्ट संग्रह तैयार किया जाए। इस दिशा में कृष्णानंद गुप्त तथा समाधिया जी ने काफी कार्य किया किन्तु वह कल्पित रूप में संगृहीत और प्रकाशित नहीं हो सका।


देव पुरस्कार
शासन ग्रहण करने के दो तीन वर्ष में ही वीरसिंह देव का साहित्यानुराग तथा हिन्दी के प्रति प्रेम और उदार संरक्षण सम्पूर्ण हिन्दी जगत में विख्यात हो चुका था।ं सन् 1933 में काशी में महावीर प्रसाद द्विवेदी का अभिनन्दन समारोह आयोजित किया गया। ओरछेश की हिन्दी सेवा के कारण इन्हें द्विवेदी जी को अभिनंदन ग्रंथ समर्पित करने का सम्मान मिला। उक्त अवसर पर महाराज ने हिन्दी के लिये कुछ पत्र-पुष्प अर्पित करने की विनम्र इचछा प्रकट करते हुए दो हजार रूपये का वार्षिक ’’देव पुरस्कार’’ घोषित किया। उन्होंने अपने भाषण में कहा-मैं जानता हूँ कि यह भेंट बहुत ही साधारण है परन्तु मातृ मंदिर में जहांँ मणि-माणिक्य अर्पित किये जाते हैं वहाँ ’’पत्रं पुष्पं फलं तोयं’’ के लिये भी स्थान है। ’’देव पुरस्कार’’ दीर्घकाल तक हिन्दी का सर्वाधिक राशि वाला सम्मानजनक पुरस्कार बना रहा। लोगों का यह अनुरोध था कि यह पुरस्कार महाराज के नाम पर ’’वीरसिंह देव पुरस्कार’’ कहा जाये। महाराज के प्रबल विरोध के बाद यह निश्चित हुआ कि उसे ’’देव पुरस्कार’’ की संज्ञा दी जाये।
नियमानुसार यह पुरस्कार वर्ष के ब्रजभाषा और खड़ी बोली के सर्वोत्तम काव्य ग्रंथ के लिये क्रम से देय था। एक वर्ष ब्रजभाषा को और दूसरे वर्ष खड़ी बोली के काव्य ग्रन्थ को पुरस्कार प्रदान की योजना बनायी गयी। इसके लिये केवल जीवित कवियों की रचनाएंँ ही विचारार्थ स्वीकृत की जाती थीं। पुरस्कार निर्णय के लिये नौ निर्णायकों की समिति का गठन इस प्रकार किया गया-(1) आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी, (2) पं0 मदनमोहन मालवीय, (3) हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग का एक प्रतिनिधि, (4) नागरी प्रचारिणी सभा काशी का एक प्रतिनिधि, (5) मध्यभारत हिन्दी साहित्य समिति, इन्दौर का एक प्रतिनिधि, (6) नागरी प्रचारिणी सभा, आगरा का एक प्रतिनिधि, (7) हिन्दी प्रचार सभा, मद्रास का एक प्रतिनिधि, (8), वीरेन्द्र केशव साहित्य परिषद, टीकमगढ़ का एक प्रतिनिधि और (9) ओरछा राज्य का एक प्रतिनिधि।
इस योजना का प्रथम पुरस्कार दुलारेलाल भार्गव की ’’दुलारे दोहावली’; को मिला था। सन् 1936 में खड़ी बोली के काव्य ग्रंथ ’’चित्ररेखा’’ (रामकुमार वर्मा) को यह पुरस्कार प्रदान किया गया। इस वर्ष प्रतियोगिता में ’’नूरजहाँ’’ (गुरू भक्त सिंह भक्त) ’’रेणुका’’ (दिनकर) जैसी कृतियांँ सम्मिलित थीं। किसी वर्ष पुरस्कार योग्य ग्रंथ उपलब्ध न होने पर पुरस्कार की राशि साहित्यिक संस्थाओं को दे दी जाती थी। हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग द्वारा आधुनिक कवि माला का प्रकाशन इसी राशि से हुआ था। रायकृष्ण दास की कला विषयक पुस्तक भी इसी प्रावधान के अन्तर्गत प्रकाशित हुई थी।
श्री रामकुमार वर्मा ने देव पुरस्कार प्राप्ति के अवसर पर धन्यवाद स्वरूप ’महाराज ओरछा के प्रति’ शीर्षक कविता का पाठ किया था। जिसमें वीरसिंह देव की साहित्य सेवा की सराहना की गयी है। उक्त कविता की कुछ पंक्तियाँ इस प्रकार है-
सभी राज्य पतियों के सम्मुख स्थित नवीन आदर्श किया।
कविता की नवीन जागृति से जाग्रत भारतवर्ष किया।।
काव्य प्रशंसा करने से ही आप प्रशंसित हुए महान्।।
यद्यपि अपनी कीर्ति श्रवण से आप तटस्थ रहे मतिमान।।
श्रद्धांजलि अर्पित है मेरी इस अवसर पर हे श्रीमान्।।
इसी भाँति करते रहियेगा अपनी हिन्दी का सम्मान।।50

हिन्दी भाषा को महत्व
वीरसिंह देव की यह निश्चित धारणा थी कि न्यायालयों और अन्य राजकाज में प्रयुक्त होने वाली भाषा और लिपि तथा जनता की भाषा और लिपि एक ही होनी चाहिए।51 इनमें भिन्नता होने से शासक और शासित के बीच बहुत बड़ा व्यवधान हो जाता है। ओरछा नरेश ने इस व्यवधान को मिटाने और हिन्दी के उत्कर्ष के लिए एक व्यक्ति का नहीं अपितु एक महती संस्था का कार्य किया है। उन्होंने शासन भार ग्रहण करते ही समस्त राजकीय कार्यवाही को हिन्दी भाषा तथा नागरी लिपि में किये जाने का आदेश दिया। महाराज की आज्ञाा के विपरीत एक बार टीकमगढ़ राज्य के किसी अफसर ने एक फाइल पर अंग्रेजी में टिप्पणी लिख दी। उस पर महाराज ने यह अभ्युक्ति दी...’’मेरी कई बार आज्ञा हो चुकी है कि नागरी लिपि का ही प्रयोग होना चाहिए परन्तु फिर भी यह रिपोर्ट अंग्रेजी में लिखी गई है। वैताल ने ठीक ही लिखा है कि ’’वैताल कहै विक्रम सुनो चतुर चुप्य कैसे रहें।’’
उन कर्मचारियों के लिये जिन्हें हिन्दी में कार्यवाही करने में कठिनाई होती थी वीरेन्द्र केशव साहित्य परिषद् की ओर से एक रात्रि पाठशाला संचालित की गई। राजकीय कार्यवाही की तकनीकी शब्दावली के निर्धारण के लिये राज्य के चीफ आडीटर श्री प्रसाद सिपाहा ने लगभग 4-5 हजार शब्दों का एक कोष निर्मित किया जिसमें उर्दू शब्दों का हिन्दी और अंग्रेजी में अनुवाद तथा उनके पर्यायवाची शब्द दिये गये। राज्य के सिविल और सेशंस जज पं0 सुरेन्द्र नारायण तिवारी ने कुछ कानूनों का हिन्दी रूपान्तर भी किया था जो प्रकाशित भी हुआ।
हिन्दी की शब्द दरिद्रता महाराज को खलती थी परन्तु वह उसकी सम्पन्नता के प्रति आशावान् थे। उनका दृढ़ सिद्धान्त था कि किसी भाषा के जीवन को रक्षित और पुष्ट रखने के लिये यह अत्यन्त आवश्यक है कि वह इधर-उधर के बोझों से न लादी जाये। वह हिन्दी में अरबी-फारसी के अप्रचलित तथा अज्ञात शब्दों के प्रयोग को भाषा के लिये घातक मानते थे। इसी तरह भारी भरकम संस्कृत के शब्द भी उनके अनुसार हिन्दी की स्वतंत्र गति में बाधक थे।
भारत के अधिसंख्य लोग अपने मालिकों की अंग्रेजी भाषा के ज्ञान को गौरव और प्रतिष्ठा का प्रतीक मानने लगे तथा हिन्दी को पिछड़ी हुई असभ्य भाषा माना जाने लगा। किसी देशी नरेश की ऐसी ही विदेशी अनुरक्ति पर ओरछेश ने व्यंग्य किया है-
टीकमगढ़ 11.09.34
.......राजा साहब..........का कुछ न कहें। वे हिन्दी पढ़ना ठीक नहीं समझते। शायद उनका यह ख्याल है कि हिन्दी का विशेष अध्ययन करने से उनकी इंग्लिश खराब हो जायेगी और फिर वे ’होम’ जो हो आये हैं। छी ! छी ! वे क्या हिन्दी सी गंदी भाषा पढ़ेगें।52
वीरसिंह देव द्वारा हिन्दी के लिए किये जाने वाले कार्य की सराहना देश की प्रमुख पत्र-पत्रिकाएँ कर रहीं थीं। ’’हिन्द राजस्थान’ में लिखा था...’’वर्तमान महाराजा ओरछा को हिन्दी से प्रेम ही नहीं वरन् उस पर वे मुग्ध हैं। सारे राज्य में उन्होंने आज्ञाओं द्वारा यह घोषित कर दिया है कि प्रत्येक कर्मचारी के लिये यह आवश्यक है कि वह शुद्ध हिन्दी भाषा में लिखा पढ़ी करें। हिन्दी लिपि तो बहुत पहले ही से अपने राज्य में प्रचलित कर चुके हैं। महाराजा के विशेष ध्यान देने से वहाँ श्री वीरेन्द्र केशव साहित्य परिषद् का जन्म हुआ। महाराजा ने इस संस्था में हजारों रूपयों की सहायता दी है। यह परिषद् केवल ओरछा ही के लिए नहीं वरन् हिन्दी संसार के हित के लिये साहित्य में बहुत कार्य कर रही है। ........अन्य हिन्दू राज्यों को भी इसी प्रेम और उत्साह के साथ हिन्दी की सेवा करनी चाहिए।53
सन्दर्भ
1. संक्षिप्त कांग्रेस का इतिहास-पट्टाभि सीतारमैया पृ.2
2. राष्ट्रीय आन्दोलन का इतिहास-मन्मथनाथ गुप्त-पृ.72
3. वही, पृ. 60
4. भारतीय राजनीति-रामगोपाल एम.ए. पृ. 72
5. राष्ट्रीय आन्दोलन का इतिहास-मन्मथ नाथ गुप्त, पृ. 245
6. संस्कृति के चार अध्याय-रामधारीसिंह दिनकर, पृ. 543
7. वही, पृ. 545
8. वही, पृ. 559
9. हिन्दी साहित्य का इतिहास-डॉ. नगेन्द्र पृ. 457
10. आधुनिक काव्य धारा-डॉ. केसरी नारायण शुक्ल, पृ. 11
11. हिन्दी साहित्य का इतिहास-सं. डॉ. नगेन्द्र, पृ. 501
12- सुकवि, अक्टूबर 1933, पृ. 13
13- वही, पृष्ठ 56
14- शंकर सर्वस्व-पं. हरिशंकर शर्मा, पृ. 5
15- वही, पृ. 5
16- आधुनिक ब्रजभाषा काव्य-डॉ. जगदीश गुप्त, पृ. 176-177
17- ब्रजभाषा बनाम खड़ी बोली-डॉ. कपिल देवसिंह, पृ. 222
18- विशाल भारत, अक्टूबर 1934 पृ. 393-94
19- सुधा, फरवरी, 1955 मुख पृष्ठ
20- गान्धी गौरव-घनश्यामदास पाण्डेय पृ. 13
21- भूतपूर्व संसद सदस्य पं. भगवत नारायण भार्गव का पत्र दिनांक 14.2.74
22- गांधी गौरव-घनश्यामदास पाण्डेय पृष्ठ 14
23- वही पृष्ठ 15
24- विंध्यप्रदेश के राज्यों का स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास-श्यामलाल साहू पृ. 53
25- वही, पृ. 56
26- वही, पृ. 65
27- मधुकर, अगस्त-सितम्बर 1945, पृ. 219
28- वही, पृ.
29- उत्तर प्रदेश डिस्ट्रिक गजेटियर्स झांसी 1965 पृ. 354
30- बुन्देली ग्रन्थ परम्परा (द्वितीयखण्ड) डॉ. बलभद्र तिवारी पृ. 2
31. बुन्देलखण्ड का फड़ साहित्य-डॉ0 गनेशीलाल बुधौलिया पृ. 18-31
32. लक्ष्मीबाई रासो-सं. डॉ. भगवानदास माहौर, पृ. 86
33. बुन्देलखण्ड का फड़ साहित्य-डॉ. गनेशीलाल बुधौलिया पृ. 28
34. श्री माहौर अभिनन्दन ग्रन्थ सं. गौरीशंकर द्विवेदी शंकर आदि, लेख-माहौर जी और उनकी काव्य साधना-भगवानदास माहौर पृ. 2, 23
35. नाथूराम माहौर का स्वयं लिखित पत्र
36. पाण्डेय मंडल के प्रमुख गायक चौखेलाल ताम्रकार से संवाद
37. ’मधु’ का सैर काव्य
38. ओरछेश स्मृति ग्रंथ- कृष्णानद गुप्त का लेख, पृ. 56 से 60
39. वही’ पं0 बालकृष्ण देव भट्टाचार्य का लेख पृष्ठ 44
40. वही वृन्दावनलाल वर्मा का लेख, पृष्ठ 14
41. वही बनारसीदास चतुर्वेदी पृष्ठ-26
42. वही बनारसीदास चतुर्वेदी को लिखा पत्र पृष्ठ 27
43. वही बनारसीदास चतुर्वेदी को लिखा पत्र पृष्ठ-28
44. सुकवि नवम्बर 1933, पृष्ठ 56
45. .........वही............
46. श्री वीरेन्द्र केशव साहित्य परिषद ओरछा की तृतीय वाष्रिक रिपोर्ट 1932 ई. पृ.1
47. वही, प्रक्ष्य वार्षिक रिपोर्ट 1930 ई. पृ. 6
48. वही, पृष्ठ-7
49. वही, तृतीय वार्षिक रिपोर्ट 1932 ई. पृ.6
50. सुकवि फरवरी 1936 ई. पृ. 6
51. श्री वीरेन्द्र केशव साहित्य परिषद ओरछा की तृतीय वार्षिक रिपोर्ट 1932 ई.
52. ओरछेश स्मृति गं्रथ-पं. वनारसीदास चतुर्वेदी को लिखा पत्र पृष्ठ-26
53. श्री वीरेन्द्र केशव साहित्य परिषद ओरछा की तृतीय वार्षिक रिपोर्ट 1932 ई. से उद्धृत पृ. 45