नरोत्तमदास पाण्डेय मधु जी का जीवन और व्यक्तित्व कृष्ण विहारी लाल पांडेय द्वारा जीवनी में हिंदी पीडीएफ

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नरोत्तमदास पाण्डेय मधु जी का जीवन और व्यक्तित्व

ऽ नरोत्तमदास पाण्डेय मधु जी का जीवन और व्यक्तित्व

नरोत्तमदास पाण्डेय ’’मधु’’ बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में बुन्देलखण्ड के ऐसे कृती कवि हुए हैं जिन्होंने प्रभूत परिमाण में उत्कृष्ट काव्य-रचना की है किन्तु उनकी ओर हिन्दी जगत का अधिक ध्यान आकृष्ट नहीं हुआ। हिन्दी साहित्य के इतिहासों में काल और प्रवृत्ति के आधार पर कविता का जो अध्ययन किया गया उसमें प्रतिनिधित्व के रूप में कुछ ही कवियों का नामोल्लेख होता रहा है। देश के विभिन्न अंचलों के अनेक प्रतिभा सम्पन्न कवियों का समावेश उसमें नहीं हो पाया। एक तो प्रकाशन के अभाव में उनका काव्य उपेक्षित रह गया। दूसरे, साहित्य के इतिहास में काल विशेष की प्रतिनिधि प्रवृत्तियों का ही अध्ययन विस्तार से किया गया तथा उसमें पूर्व युग की संक्रमित प्रवृत्त्यिों का अध्ययन केवल सन्दर्भ के रूप में कर दिया गया ऐसी स्थिति में ’’मधु’’ जैसी असाधारण प्रतिभा के कवियों का काव्य स्थानीय चर्चाओं तथा गोष्ठियों तक ही सीमित रह गया। उनके काव्य के मूल्यांकन के अभाव में हिन्दी जगत महत्त्वपूर्ण काव्य प्रदेय से वंचित रह गया।

कृतित्व के अनुशीलन में कृतिकार के व्यक्तित्व का विश्लेषण आवश्यक है। रचना कितनी भी निर्वैयक्तिक भाव भूमि पर प्रणीत हो उसमें रचयिता की मानसिकता अनेक रूपों में प्रकट हो ही जाती है। रचना-प्रक्रिया का स्वभाव ही ऐसा है कि उसमें रचयिता की संलग्नता होना आवश्यक है। जीवन के विविध व्यापारों के प्रति कवि की प्रतिक्रिया और इन अनुभवों के रूपायन में उसके व्यक्तित्व का आंतरिक पक्ष सहज रूप से क्रियाशील रहता है। कविता में वैसे तो मानव मात्र की भावनाओं और आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति होती है परन्तु उसमें कवि की निजी प्रतिक्रिया और जीवन-दृष्टि का भी समावेश रहता है। अपने मानसिक संस्कारों के अनुसार ही विभिन्न विषयों के प्रति उसकी द्रवणशीलता प्रकट होती है। वह अपने राग विराग के अनुसार ही वस्तु और विचारों का ग्रहण और अस्वीकार करता है। श्याम सुन्दर दास जी के शब्दों में साहित्य पर सबसेे महत्त्वपूर्ण प्रभाव साहित्यकार के व्यक्तित्व का पड़ता है। साहित्यकार जो कुछ लिखता है उस पर उसके अनुभव, विचारों और मनोभावों की अटक छाप लगी रहती है।1

ऐसे कवि के कृतित्व के अनुशीलन में जीवन और व्यक्तित्व के निरूपण की अधिक सार्थक आवश्यकता है जिसके जीवन और काव्य का समग्र उद्घाटन साहित्य जगत में अभी तक न हुआ हो। नरोत्तमदास पाण्डेय ’’मधु’’ जैसे प्रतिभा सम्पन्न और कृती कवि के जीवन और कृतित्व के अनुशीलन का यह प्रथम उपक्रम है। इसी के साथ एक बात और विशिष्ट है। ’’मधु’’ का जीवन और व्यक्तित्व सामान्य क्रिया व्यापारों का क्रम नहीं रहा है। उनके जीवन और व्यक्तित्व में असाधारणता और विशिष्टता रही है। काव्य प्रतिभा, जिज्ञासा, जीवन के प्रति दृष्टिकोण योग-साधना तथा अल्पवय में ही अपने हाथों प्राणान्त में अनेक असाधारण घटनाएँ घटित हुई हैं। इनका प्रभाव उनके काव्य में परिलक्षित होता है।

ऽ वंश परम्परा

’’मधु’’ का जन्म विद्वान् और कर्मकाण्डी जिझौतिया पंडितों के वंश में हुआ था। उनके पूर्वज बुन्देलखण्ड के महाप्रतापी और गुणाग्राही शासक महाराज छत्रसाल की प्रारम्भिक राजधानी मऊ महेबा के निवासी थे। महाकवि भूषण यहीं महाराज छत्रसाल से मिले थे। छत्रसाल स्वयं समर्थ कवि, गद्य-लेखक, विद्या-व्यसनी, कला पोषक और धर्मपरायण व्यक्ति थे। ’मधु’ के पूर्वज अपने पाण्डित्य के कारण छत्रसाल द्वारा समादृत थे और उन्हें राज्याश्रय प्राप्त था। जब छत्रसाल ने अपनी राजधानी महेबा से हटाकर पन्ना में स्थापित कर ली तो ’’मधु’’ के पूर्वज राज्याश्रय रहित होकर कुछ समय तक महेबा में रहने के बाद छतरपुर में बस गये। छतरपुर नगर महाराज छत्रसाल ने ही 1703 ई0 में बसाया था।

’’मधु’’ के पूर्वज सन् 1857 ई0 के लगभग 60-70 वर्ष पहले छतरपुर से आकर मऊरानीपुर में रहने लगे।2 तत्कालीन छतरपुर नरेश की अत्यधिक कर वसूली की माँगों से असंतुष्ट होकर यहाँ के व्यापारी और अन्य निवासी मऊरानीपुर चले आये।3 इन आब्रजकों में महाधनी सेठ दाऊवाले के साथ सभी जातियों के हजारों लोग थे। उस समय बुन्देलखण्ड के अनेक राजाओं ने सेठ दाऊवाले को अपने राज्य में बसने का आमंत्रण दिया, पर उन्होंने तथा अन्य लोगों ने झाँसी के मरहठा सूबेदार रघुनाथ राव हरि का आमंत्रण स्वीकार कर उनके ही अन्तर्गत मऊरानीपुर में बसने का निर्णय किया। सूबेदार ने आश्वासन दिया कि आब्रजकों के साथ सद्व्यवहार किया जायेगा और उन पर भारी कर नहीं लगाये जायेंगे।4 वर्तमान में मऊरानीपुर नगर झाँसी जिले की एक तहसील है।

’’मधु’’ के पितामह के प्रपितामह बाजूराय जी इसी समय छतरपुर से मऊरानीपुर आये। बाजूराय के एक मात्र पुत्र खुरखुरी पाण्डेय हुए। वह संस्कृत के विद्वान् तो नहीं थे परन्तु अर्थोपार्जन की दृष्टि से सफल पंडित थे। शान्त और संयत स्वभाव, मधुरवाणी तथा सदाचरण के कारण उनकी यजमानी का प्रसार लखपति घरानों मेें भी था। वह परस्त्री को माता या बाई कहकर पुकारते थे। लोग उन्हेें देवता की तरह सम्मानित करते थे। उस समय तुलसीकृत रामचरित मानस और विनयपत्रिका दुर्लभ ग्रंथ थे। खुरखुरी पाण्डेय ने अपने उद्योग से उन्हें प्राप्त कर लिया और उनके आधार पर कथा कहकर पर्याप्त यश और धन अर्जित किया। यह अल्पवय में ही पितृहीन हो गये थे। उन्होंने स्वयं के बल पर विद्योपार्जन और अर्थोपार्जन किया और स्वयं का तथा अपनी बहिन का विवाह किया। यह रामभक्त और तुलसी साहित्य के अनुरागी थे। मृत्यु के समय उनके मुख से तुलसी की यह पंक्ति निकली थी-’’जेहि जोनि जन्मों कर्मबस तेहिं राम पद अनुरागहीं।।’’

खुरखुरी पाण्डेय के दूसरे पुत्र नन्दकिशोर पाण्डेय कवि के प्रपितामह थे। उन्होंने काशी में संस्कृत की विधिवत् शिक्षा पायी थी। आसपास के क्षेत्र में विद्वान के रूप में उनका बड़ा सम्मान था। उस समय समाज मेे भगवन्निष्ठा व्याप्त थी। धार्मिक कृत्यों का पालन और अनुसरण होता था। पूजा-पाठ तथा भागवत् की कथा के आयोजन प्रायः होते रहते थे। नन्दकिशोर पाण्डेय को एक बार की कथा में एक हजार रूपये तक प्राप्त हो जाते थे। आज से लगभग डेढ़ सौ वर्ष पहले एक हजार रूपयों की क्रय-शक्ति आज की अपेक्षा कई गुनी अधिक थी।

नन्दकिशोर पाण्डेय पाँच भाई थे। सम्मिलित परिवार में पाँचों भाईयों के द्वारा पाण्डित्य वृत्ति से अर्जित धन काफी हो जाता था। घर में बहुत सम्पन्नता थी। कुछ समय बाद परस्पर सामंजस्य के अभाव में वह 1864 ई0 में भाईयों से अलग होकर उसी मकान के एक भाग में रहने लगे। इन्होंने पैतृतक सम्पत्ति में से कुछ भी नहीं लिया था। यहाँ तक कि पौथी-पत्रा भी नहीं लिये थे।

’’मधु’’ के पितामह बालाजी अपने पिता की की तरह संस्कृत के विद्वान्् तो नहीं थे, परन्तु तुलसी साहित्य के अच्छे ज्ञाता थे। साथ ही उनकी अध्यापन विधि बहुत प्रभावशाली थी। वह सात्त्विक वृत्ति के सीधे सच्चे व्यक्ति थे।

ऽ कवि-पिता तथा पितृव्य

अनेक विषयों के विद्वान् और श्रेष्ठ कवि आचार्य घनश्यामदास पाण्डेय ’’मधु’’ के पिता थे। वह संस्कृत, हिन्दी, अंग्रेजी, फारसी और उर्दू के अतिरिक्त अनेक भारतीय भाषाओं के सुधी ज्ञाता थे। संस्कृत वाङ्मय के तो सभी पक्षों का उनका गम्भीर अध्ययन था। उनके पाण्डित्य और कवित्व से शिक्षा ग्रहण करने वाले तथा उनकी कविताओं का विभिन्न समारोहों में पाठ करने वाले शिष्यों का एक बृहत् समुदाय था जो घनश्यामदास पाण्डेय मण्डल के नाम से प्रसिद्ध था। विधिवत् शिक्षा के रूप में उन्होंने हिन्दी मिडिल परीक्षा, उर्दू, मिडिल परीक्षा, संस्कृत प्रथमा परीक्षा, शिक्षक’-प्रशिक्षण की नार्मल परीक्षा और मैट्रिकुलेशन परीक्षा सभी में प्रथम श्रेणी प्राप्त की थी। नार्मल परीक्षा में तो उन्होंने सभी विषयों में विशेष योग्यता प्राप्त करके प्रथम श्रेणी में प्रथम स्थान प्राप्त किया। वह इस क्षेत्र में अपनी विद्वत्ता और काव्य के लिये अत्यन्त समाहत थे। शासकीय अधिकारी भी उनका बहुत आदर करते थे।

आचार्य घनश्यामदास पाण्डेय बहुत स्वाभिमानी थे। वैसे उनके स्वभाव में उचित विनम्रमता, शिष्टाचार और सौजन्य था परन्तु ज्ञानाराधन ने उन्हें स्पष्टवादी और निश्शंक बना दिया था। इसीलिये लोग उनकी अप्रिय बात को भी सहन करके उनका समादर करते थे क्योंकि उनका आलोच्य व्यक्ति न होकर कार्य या गुण हुआ करता था।

शास्त्रीय विषयों के पंडित होते हुए भी यह प्रगतिशील विचारों के व्यक्ति थे। उन पर स्वामी दयानन्द का बहुत प्रभाव था। धार्मिक पाखण्ड और सामाजिक रूढ़ियों के प्रति उनके मन में वैचारिक विद्रोह ही नहीं था बल्कि वह व्यवहार से भी रूढ़ि विरोधी थे। उन्होंने एक बार ऐसी ही सामाजिक प्रगतिशीलता का परिचय देकर नगर के रूढ़िप्रिय पंडितों का विरोध मोल ले लिया था। वह मंत्र और तंत्र के भी ज्ञाता थे। परन्तु वे धर्म के नाम पर जीविकोपार्जन तथा कथित पंडितों की निर्ममता से हँसी उड़ाया करते थे।

उनके विचारों में प्रखर राष्ट्रीय चेतना थी। उन्होंने स्वाधीनता आन्दोलन में केवल काव्यात्मक प्रेरणा ही नहीं दी, बल्कि उनका सम्बन्ध तत्कालीन सभी बड़े और छोटे स्वातंत्रय वीर से था। राष्ट्रीयता उनके काव्य की प्रमुख प्रवृत्ति है। वह सक्रिय रूप से भी स्वाधीनता संग्राम से जुड़े हुए थे। इसी कारण एक बार उनकी गिरफ्तारी का आदेश भी हुआ था।

आचार्य घनश्यामदास पाण्डेय प्रतिभा सम्पन्न कवि थे। नरोत्तमदास पाण्डेय ’’मधु’ के व्यक्तित्व और काव्य को उनसे बहुत प्रेरणा मिली।

कवि के पितृव्य पं0 लक्ष्मीनारायण पाण्डेय भी प्रतिभा सम्पन्न कवि और विद्वान् थे। वह रेल्वे विभाग में सेवा करते थे। वहाँ वह डिवीजनल टेलीग्राफ एण्ड ट्राफिक इंस्पेक्टर के पद पर प्रोन्नत हो गये थे। तत्कालीन जी0आई0पी0 रेल्वे का टेलिग्राफ विभाग का सर्वोच्च पद उन्होंने स्वास्थ्य खराब होने के कारण अस्वीकृत कर दिया था। वह अपने स्नेही और विनोदपूर्ण स्वभाव, कर्तव्यपरायणता, विविध विषयों के आधिकारिक ज्ञान और कवित्व शक्ति के कारण रेल्वे विभाग के बहुत लोकप्रिय अधिकारी थे। वह दौरे पर जहाँ भी जाते सरकारी कामकाज के बाद काव्य चर्चाएँ प्रारंभ हो जाती थीं।

वंशगत पाण्डित्य और कवित्व

’’मधु’’ के पूर्वजों की प्रमुख वृत्ति पंडिताई थी। उनके पितामह के समय तक यह प्रमुख व्यवसाय रहा और बाद में भी कुल की अनेक शाखाओं में पुरोहिती का कार्य होता रहा है पाण्डित्य इस वंश का प्रधान गुण रहा है। नन्दकिशोर पाण्डेय ने काशी में विधिवत् संस्कृत का अध्ययन किया था। वह अपने समय के प्रसिद्ध पंडित थे।

’’मधु’’ के पितामह के अग्रज नाथूराम पाण्डेय ’भागवत्’ के विद्वान होने के साथ ही सिद्ध अनुष्ठानी पंडित थे। वह बगलामुखी (पीताम्बरा) का अनुष्ठान भी करते थे।

काव्यत्व भी ’मधु’ का वंशगत संस्कार रहा है। पिता और पितृव्य के अतिरिक्त ’मधु’ के चचेरे भाई श्री रमाशंकर पाण्डेय भी संस्कृत, हिन्दी और अंग्रेजी के सुधी ज्ञाता के साथ ही श्रेष्ठ कवि भी थे। छात्र जीवन से ही वह उत्कृष्ट भावपूर्ण कविता लिखने लगे थे। उनकी साहित्यक समझ और कवता में गति की प्रशंसा उनके पितृव्य पं0 घनश्याम दास पाण्डेय भी किया करते थे। उन्होंने ’’ऋतुसंहार’’ का अनुवाद बहुत ललित और भावपूर्ण कविता में किया है-

अंगानि निद्रालस विभ्रमाणि

वाक्यानि किंचित् मदलालसानि,

भ्रूक्षेप जिह्मानि च वीक्षितानि,

चकार कामः प्रभदा जनानाम्।

ंअंग अंग में निद्रालस की

नव चेष्टाएँ मुद्राएँ।

माधव ने कर दी वचनों में

मुखरित मधुर लालसाएँ।।

भू विलास के संग बांँकपन

चितवन में भी आया है।

उन्मद प्रमदाओं में प्रमुदित

भर दीं भाव भंगिमाएँ।।

’मुध’ के एक पितृव्य पं0 कालीचरण पाण्डेय भी काव्य रचना करते थे। उन्होंने विभिन्न विषयों पर कवित-सवैया शैली में उत्तम काव्य रचना की है। उन्होंने समस्या पूर्तियाँ भी की हैं और फड़ साहित्य के अन्तर्गत सैरैं भी लिखीं हैं। वह अपनी कविता में ’’द्विजकाली’’ उपनाम का प्रयोग करते थे।

जन्म

नरोत्तमदास पाण्डेय ’’मधु’’ का जन्म चैत्र कृष्ण षष्ठी भौमवार सं0 1970 वि0 तदनुसार 17 मार्च 1914 को कोटा (राजस्थान) में हुआ था। उस समय उनके पिता कोटा में अध्यापक थे। ’’मधु’’ के जन्म के पाँच माह बाद उनके पिताजी नौकरी से त्याग पत्र देकर मऊरानीपुर आ गये थे। ’’बुन्देलखण्ड वागीश’’5 और ’’मधु’’ पर लिखे लेखों6 में उनका जन्म सम्वत् 1972 दिया गया है। जन्म कुण्डली में उनका जन्म संवत् 1970 है। यही तिथि सही है। ऐसा प्रतीत होता है कि ’बुन्देलखण्ड वागीश’ के सम्पादक ने पूछताछ के आधार पर यह तिथि दी है और बाद में लोगों ने अपने लेखों में उसी को उद्धृत कर दिया। शैक्षिक प्रमाणपत्रों में उनकी जन्म तिथि 8 मार्च 1914 ई0 अंकित है। विद्यालय में प्रवेश के समय सही अंग्रेजी तिथि का ध्यान न रहने के कारण अनुमान से 8 मार्च अंकित करवा दी गयी होगी।

बाल्यावस्था

घनश्यामदास पाण्डेय के तीन चार पुत्रों का शैशव में ही निधन हो चुका था। ’मधु’ के बाद भी उनके एक अनुज की बाल्याकाल में ही मृत्यु हो गयी थी। अपने अनेक पुत्रों के असमय अवसान से दुःखी माता-पिता की समस्त चिन्ताएँ और कामनाएँ ’’मधु’’ में ही केन्द्रित हो गयीं। ’’मधु’’ का बाल्यकाल सुख-सुविधाओं में बीता था। घर में किसी प्रकार का अभाव नहीं था। बाल्यकाल में वह वेशभूषा और आदतों के प्रति अधिक सावधान नहीं थे। उनके अटपटेपन की हँसी उनका अनुज, जो बहुत होनहार था, अक्सर उड़ाया करता था।

शिक्षा दीक्षा

आचार्य घनश्यामदास पाण्डेय का अपने इकलौते पुत्र की उत्तम शिक्षा दीक्षा के प्रति विशेष ध्यान था। ’’मधु’’ ने माध्यमिक स्तर तक की शिक्षा मऊरानीपुर में ही प्राप्त की। उन्होंने सन् 1930 में उत्तरप्रदेश की मिडिल (वर्नाक्युलर फाइनल) परीक्षा उत्तीर्ण की। उन दिनों वहाँ आगे की शिक्षा का प्रबन्ध नहीं था। टीकमगढ़ का सवाई महेन्द्र हाईस्कूल उस समय प्रसिद्ध शिक्षा केन्द्र था। स्वयं उच्च शिक्षा प्राप्त, विद्या व्यसनी तथा साहित्यमर्मज्ञ टीकमगढ़ नरेश वीरसिंह जू देव द्वितीय का शिक्षा के प्रति स्वाभाविक अनुराग था। उनके संरक्षण में संचालित इस हाईस्कूल में मऊरानीपुर के छात्र भी अध्ययन करने जाते थे। ’’मधु’ ने भी हाईस्कूल परीक्षा तक इसी संस्था में अध्ययन किया। उन्होंने वहाँ से सन् 1934 ई0 में अजमेर बोर्ड द्वारा संचालित हाईस्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण की।

इसी समय टीकमगढ़ नरेश (ओरछेश) ने उनकी काव्य प्रतिभा से प्रभावित होकर उन्हें राजकवि के रूप में टीकमगढ़ रहने का निमंत्रण दिया। आगे अध्ययन करने की इच्छा के कारण ’मधु’ ने और उनके पिताजी ने महाराज के आमंत्रण पर सविनय असमर्थता प्रकट की। उन्होंने अपने पितृव्य श्री लक्ष्मीनारायण पाण्डेय के पास जाकर आगरा कॉलेज आगरा में एफ0ए0 में प्रवेश लिया परन्तु कुछ महीनों के बाद ही अस्वथ हो जाने के कारण उन्हें अध्ययन समाप्त कर देना पड़ा और वह मऊरानीपुर लौट आये। उनकी विधिवत् शिक्षा अवश्य समाप्त हो गयी परन्तु उनकी अध्ययन तृषा अतृप्त बनी रही। इसलिये उन्होंने उत्तरप्रदेश के लोक शिक्षण विभाग द्वारा संचालित हिन्दी की विशेष योग्यता परीक्षा सन् 1936 ई0 में तथा सन् 1937 ई0 में उर्दू मिडिल परीक्षा उत्तीर्ण की। दीर्घकालीन व्यवधान के पश्चात् उन्होंने 1949 ई0 में उ0प्र0 बोर्ड इलाहाबाद से इन्टरमीडियेट परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की तथा संस्कृत में विशेष योग्यता के अंक प्राप्त किये।

’’मधु’’ का शैक्षणिक स्तर सभी विषयों में औसत से बहुत ऊँचा था।7 भाषाओं में उनकी विशेष रूचि थी। हाईस्कूल के अध्ययन काल में वह अपनी कक्षा के श्रेष्ठ विद्यार्थियों में गिने जाते थे।8

स्वाध्याय

नरोत्तमदास पाण्डेय ’मधु’ मेधावी और परिश्रमी छात्र थे। उनके घर में विविध विषयों के श्रेष्ठ ग्रन्थों का अच्छा पुस्तकालय था। उसमें दर्शन, काव्य, संस्कृत, ज्योतिष आदि पर आधिकारिक विद्वानों द्वारा अंग्रेजी और हिन्दी में प्रणीत दुर्लभ पुस्तकें थी। पिता के काव्य और पाण्डित्य से प्रभावित होकर अनेक कवि और विद्वान् घर आते रहते थे। वहाँ प्रायः ज्ञान चर्चा और विचार विमर्श होता रहता था। घर में अंग्रेजी का समाचार पत्र ’अमृत बाजार पत्रिका’’ और हिन्दी की उस समय की प्रमुख साहित्यिक पत्रिकाएँ इन्दु, सुधा, चाँद वाणी, सरस्वती, सुकवि, मधुकर, विशालमारत आदि नियमित रूप से आती रहती थीं। अध्ययन और ज्ञानार्जन के इस उपयुक्त वातारवण में ’मधु’’ को भी अध्ययन और मनन की प्रेरणा मिली।

छात्रावस्था के बाद भी अध्ययन में उनकी सर्वग्राही रूचि बनी रही। अंग्रेजी का उनको अच्छा ज्ञान था। सन् 1947 ई0 में राजकवि के पद से निवृत्त होकर कुछ समय तक उन्होंने अंग्रेजी साहित्य का विशेष अध्ययन किया। काफी रात बीतने तक और बहुत सबेरे से वह अंग्रेजी के उपन्यास पढ़ते रहते थे। अंग्रेजी बोलने का भी उन्हें अच्छा अभ्यास था। फिटजेराल्ड के द्वारा किये गये उमर खैयाम की रूबाइयों के अंग्रेजी अनुवाद का उन्होंने हिन्दी मेें अनुवाद किया है। इस अनुवाद से अंग्रेजी भाषा में उनकी गहरी पैठ का परिचय मिलता है।

कवि ने उर्दू के विधिवत् अययन के नाम पर उर्दू मिडिल की परीक्षा उत्तीर्ण की थी। इसके अतिरिक्त स्वाध्याय से उन्होंने उर्दू का अच्छा ज्ञान प्राप्त किया। उनके ’’हाला’’ काव्य में, ’पतंग और दीपक’ कविता में तथा अनेक सैरों में उर्दू भाषा का सुन्दर प्रयोग हुआ है। ’मधु’ के पिता उर्दू और फारसी के विद्वान थे। उनसे तथा उनके मित्र नूरमुहम्मद से, जिन्हें हिन्दी का भी अच्छा ज्ञान था, कवि ने उर्दू भाषा का ज्ञान प्राप्त किया। टीकमगढ़ में मौलवी मंजरसाहब के सम्पर्क में मधु रहे थे। उन्होंने उमरखैयाम का फारसी से उर्दू में अनुवाद किया था। उनसे भी ’’मधु’’ ने उर्दू सीखने की प्ररेणा ली। 1937 ई0 में जिस रजिस्टर पर वह अपनी कविताएँ लिखते थे उस पर उन्होंने उर्दू में मोटी कलम से अपना नाम लिखा है।

ज्योतिष

अंग्रेजी उपन्यासों के अध्ययन के बाद वह ज्योतिष के अध्ययन में प्रवृत्त हुए और तत्सम्बन्धी अनेक ग्रन्थों को उन्होंने आत्मसात कर डाला। ज्योतिष पर अंग्रेजी और हिन्दी में प्रकाशित अनेक पत्रिकाएँ वह नियमित रूप से पढ़ने लगे। उनका विचार था कि अगर कुंडली चक्र 12 कोष्ठकों की जगह 27 कोष्ठकों का बनाया जाये तो मास तो ठीक, दिन भर की गृहदशा भी निकाली जा सकती है। ’’मधु’’ के ज्योतिष ज्ञान के संबंध में कुछ तथ्य उल्लेखनीय हैं। उनके एक पडौसी ने एक बार अपनी जन्मकुण्डली उन्हें ग्रहदशा की गणना करने की लिए दी। ’’मधु’’ ने ग्रह नक्षत्रों का अध्ययन करके कहा-यह जन्मकुण्डली तुम्हारी नहीं है क्योंकि इसमें तो नेत्र दोष का योग है। संबंधित व्यक्ति के दोनो नेत्र ठीक थे। उन्होंने कहा-भैया, कुंडली तो मेरी ही है। ’’मधु’’ अपने निष्कर्ष पर अडिग थे। बाद में जब उन सज्जन ने यह घटना अपनी माँ को सुनायी तो उन्होंने कहा-वह ठीक कहते हैं। जन्म के समय तुम्हारी एक आँख की दोनों पलकें जुड़ी हुई थी। बाद में डॉक्टर ने आप्रेशन के द्वारा उन्हें अलग-अलग किया था।

’मधु’ का ज्योतिष ज्ञान उनके व्यक्तिगत जीवन में भी प्रमाणित हुआ। वह ज्योतिष के अध्ययन का अभ्यास और प्रयोग स्वयं अपनी कुण्डली पर किया करते थे। इसी के साथ परिवार के सदस्यों की जन्मकुण्डली पर भी अपने अध्ययन का फल देखा करते थे। इसी क्रम में ’’मधु’’ को लगा कि उनका जीवनकाल लगभग पूरा हो चुका है।

व्यवसाय

सन् 1934 में हाईस्कूल परीक्षा देने के बाद ही ’’मधु’’ को महाराज वीरसिंह देव की ओर से राजकवि के पद पर नियुक्ति का आमंत्रण मिला था, पर अध्ययन जारी रखने की इच्छा से उन्होंने यह आमंत्रण सविनय अस्वीकार कर दिया था। ओरछा नरेश को जब यह ज्ञात हुआ कि अब ’’मधु’’ टीकमगढ़ आना चाहते है तो उन्होंने पुनः उन्हें आमंत्रित किया। इस तरह वह सन् 1935 में टीकमगढ़ के राजकवि पद पर नियुक्त हुए और उन्हें मासिक वृत्ति मिलने लगी। यह कार्य ’’मधु’’ की रूचि के अनुकूल और सुविधाजनक था। यहाँ उन्हें काव्य सर्जना के लिए उपयुक्त वातावरण मिला। टीकमगढ़ में उन्हें होली, वसन्त और दशहरे पर आयोजित काव्य समारोहों में और कभी कभी अन्य अवसरेां पर भी जाना पड़ता था। शेष समय वह मऊरानीपुर में ही रहते थे। उनके पिता अपने इकलौते पुत्र को अत्यधिक स्नेह और ममता के कारण दूर नहीं रखना चाहते थे। टीकमगढ़ की इस नौकरी से पिता की यह इच्छा भी पूरी हो रही थी।

’’मधु’’ टीकमगढ़ के राजकवि पद पर सन् 1947 ई0 तक रहे। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् देशी राज्यों के विलीनीकरण के क्रम में टीकमगढ़ में भी 17 दिसम्बर 1947 को सत्ता का हस्तांतरण और लोकप्रिय सरकार की स्थापना हुई। ’’मधु’’ मऊरानीपुर आ गये।

इसी समय उनके पिता ने घनश्यामदास नरोत्तमदास पाण्डेय के नाम से एक फर्म का लाईसेंस लिया और आभूषणों को गिरवी रखने और लेन-देन का व्यवसाय प्रारम्भ किया। नरोत्तमदास पाण्डेय इसका संचालन करते थे। कभी कभी वह गल्ले के व्यापारियों के साथ अनाज का क्रय विक्रय भी कर लेते थे। उन्हें इस व्यापार में काफी हानि हुई। लक्ष्मी ने अप्रत्यक्ष रूप से साहित्य पर बहुत बड़ा उपकार किया।

सन् 1948-49 में वह कुछ समय तक मऊरानीपुर के गांधी विद्यालय हाईस्कूल में अध्यापक रहे। अगस्त सन् 1949 ई0 में वह मऊरानीपुर में पंचायत इंस्पेक्टर के पद पर नियुक्त हो गये। पंचायत निरीक्षकों की नियुक्तियाँ सन् 1949 के अप्रैल-मई माह में हुई थीं। उस समय इस पद के लिये इंटरमीडियेट अनिवार्य योग्यता थी। नरोत्तमदास पाण्डेय का इंटरमीडिएट का परीक्षा परिणाम जून 1949 में प्रकाशित हुआ और उत्तरप्रदेश के पंचायत विभाग केें डायरेक्टर श्री भगवतनारायण भार्गव ने तत्काल उनकी नियुक्ति कर दी। अन्य निरीक्षक प्रशिक्षण में जा चुके थे। ’’मधु’’ को बिना ट्रेनिंग के ही नियुक्ति पत्र मिल गया।9 यह नियुक्ति पत्र उन्हें ठीक रक्षा बन्धन के दिन प्राप्त हुआ था। देहावसान के समय वह इसी पद पर आसीन थे।

विवाह और सन्तति

’’मधु’’ का विवाह सन् 1930 में 16 वर्ष की अवसथा में जखौरा जिला झाँसी के प्रतिष्ठित दुबे परिवार में हुआ। इस समय ’’मधु’’ छात्र ही थे। ’’मधु’’ का दाम्पत्य जीवन बहुत सुखी और मधुर रहा। उनकी पत्नी सुशील, स्नेहपूर्ण, परिश्रमी और मृदु स्वभाव की महिला थीं। ’’मधु’’ के घर में पिताजी के आकर्षण और स्वयं अपने कारण रोज ही कवियों, विद्वानों और श्रद्धालुओं का जमघट रहता था। गार्हस्थिक कामकाज के अतिरिक्त अतिथियों के लिए जलपान, भोजनादि का भार भी पत्नी पर ही रहता था। स्वभाव से प्रसन्न ’’मधु’’ को पत्नी का सेवाभाव, साहचर्य, माधुर्य और विनोदी स्वभाव पूर्ण करता था। ’’मधु’’के दाम्पत्य जीवन का सामरस्य कभी असंतुलित या क्षीण नहीं हुआ। ’’मधु’’ की पत्नी जानती थीं कि उनका संवदेनशील, कोमल मृणाल मन क्षीण आघात भी सहन नहीं कर सकता। इसलिए अपने माधुर्य और समर्पण की भावना से वह उनकी प्रेरक शक्ति रहीं। ’’मधु’’ को जब अपने आसन्न अन्त का आभास हो गया था तब उन्होंने अपनी पत्नी से यह वचन लिया था कि वह उनकी मृत्यु पर रोयंेगीं नहीं। जिस घटना का समाचार सुनकर परिवार के ही नहीं सम्पूर्ण क्षेत्र के लोग फफक पड़े उसी असह्य आघात को ’’मधु’’ की पत्नी ने निरश्रु और निर्वाक् सहन किया। आँखों में आँसू न लाने का दुर्वह प्रण वह अन्त तक पालती रहीं।

उपनाम

कवियों में अपने वास्तविक नाम के साथ उपनाम रखने की परम्परा रही है। इसके द्वारा कवियों को प्रायः दीर्घ तथा अकाव्योचित वास्तविक नामों के स्थान पर अपनी रूचि के अनुकूल संक्षिप्त और काव्यात्मक संज्ञा मिल जाती है। काव्य में, प्रायः मुक्तक काव्य में, छन्दों में काव्य-नाम के व्यवहार की भी परम्परा रही है। छन्दानुरोध के कारण कवियों को या तो अपने वास्तविक नाम को ही संक्षिपत करना पड़ता था अथवा उपनाम धारण करना पड़ता था। मैथिलीशरण गुप्त जी ने रसिकेन्द्र उपनाम अपनाया था जो आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी के कहने से छोड़ दिया। बाद में उन्होंने ’’मधुप’’ और ’भारतीय’ काव्य नामोें से भी कुछ काव्य रचना की।10 मुंशी अजमेरी का उपनाम ’प्रेम’ था। सनेही त्रिशूल, शंकर, चन्द्र, हितेषी, हृदयेश आदि उस समय के प्रमुख कवियों के उपनाम थे।

नरोत्तमदास पाण्डेय ने ’’मधु’’ उपनाम धारण किया जो उनके काव्य और व्यक्तित्व का उपयुक्त वाचक था। सन् 1932-33 ई0 में छात्र जीवन की रचनाओं में उपनाम का प्रयोग नहीं है। कवि ने आरम्भ में गीति रचनाएँ लिखी हैं। जिनमें नाम की छाप नहीं डाली गयी है। 1935 ई0 में राजकवि नियुक्त हो जाने पर भी उन्होंने मुख्य रूप से गीत ही लिखे हैं। तदनन्तर वह अन्य कवियों की तरह कवित-सवैया छन्दों का व्यवहार करने लगे। कवि के आरम्भिक कवित्तों में सुकवि नरोत्तम और नरोत्तम नामों की छाप मिलती है।11 परन्तु कवित्त सवैयों की छन्द योजना में यह नाम संक्षिप्त और सुविधाजनक न होने से तथा अर्थ की दृष्टि से काव्योपकारी न होने से कवि ने ’’मधु’’ उपनाम धारण कर लिया। ’’मधु’’ नाम का प्रयोग 1937 ई0 में प्रकाशित रचनाओं में मिलता है।12 इससे ऐसा प्रतीत होता है कि कवि ने उपनाम उसके पूर्व 1935 ई0 अथवा 1936 ई0 में ही कभी अपना लिया था। ’’विजयपर्व’’ 1936 ई0 का गीत है। इसमें कवि ने अपने नाम के साथ ’’मधु’’ उपनाम अंकित किया है। यह गीत भी सुकवि में प्रकाशित हुआ है।13

’’मधु’’ उपनाम का प्रयोग प्रबन्ध कृतियों में प्रत्येक छन्द में तो नहीं हुआ है परन्तु अधिकतर छन्दों में मिलता है। मुक्तक काव्य में कुछ ही अपवादों को छोड़कर नाम की छाप सर्वत्र मिलती है। सैरों में ’’मधु’’ नाम कहीं नहीं आया है। उनमें नरोत्तम अथवा कहीं कहीं उत्तम नाम का प्रयोग हुआ है। सैर काव्य की रचना ’’मधु’’ उपनाम धारण कर चुकने के बाद हुई है, परन्तु फड़ के रूप में प्रतियोगितात्मक होने के कारण इस काव्य में वास्तविक नाम की ही छाप डाली गयी है। जिससे बाहर के स्थानों में होने वाले सैर सम्मेलनों में रचनाकार को उसके प्रचलित नाम से पहचान लिया जाये। कुछ गीतों में भी ’’मधु’’ नाम का प्रयोग हुआ है। परन्तु प्रायः गीतों में तथा गीतिपरक प्रबंध कृतियों में नाम का उल्लेख नहीं है।

’’मधु’’ शब्द से कवि को केवल उपनाम ही नही मिला बल्कि वह अपने अर्थ से भाव तथा कलात्मकता में भी सहायक हुआ है। उपनाम का प्रयोग कहीं तो केवल नामोल्लेख के लिये हुआ है और कहीं वह नाम के साथ ही प्रसंगानुसार अर्थ भी व्यक्त करता है। श्लेष के रूप में प्रयोग-

गूंँज उठा ’’मधु’’ मंदिर रक्त-

शिखा ध्वनि संग सबेरे सबेरे।14

मधुमंदिर-मधुशाला

यमक के रूप में प्रयोग-

आज ’’मधु’’ कौन मधुपान कर आईं तुम

राँची रस रंग अंग पुलकन छाई हो।15

साहित्यिक कार्य

नरोत्तमदास पाण्डेय ’’मधु’’ स्वयं में एक संस्था थे। साहित्यिक आयोजनों में उनका उत्साह और उनकी कार्यक्षमता देखते बनती थी। ऐसे अवसरों पर यह लघुकाय युवक योजना निर्माण से लेकर उसके सफल कार्यान्वयन तक की प्रक्रिया में अकेले जुटा रहता था। मऊरानीपुर में उन दिनों विराट कवि सम्मेलनों के अतिरिक्त जलविहार, शरद, होली आदि अवसरों पर काव्य समारोह होते रहते थे। ये समारोह कभी कभी प्रतियोगितात्मक सैर सम्मेलन के रूप में भी होते थे। सन 1937 में झाँसी में बुन्देलखण्ड प्रान्तीय कवि परिषद् की स्थापना हुई थी जिसकी सभानेत्री प्रसिद्ध कवयित्री श्रीमती रामकुमारी चौहान थी।16 ’’मधु’’ इस परिषद् के प्रतिष्ठित सदस्य और उनके पिता पं0 घनश्यामदास पाण्डेय उप सभापति थे। मऊरानीपुर में भी इस संस्था का गठन हुआ। नरोत्तमदास पाण्डेय ’’मधु’’ इसके प्रधानमंत्री थे। बुन्देलखण्उ प्रान्तीय कवि परिषद् के तत्त्वाधान में 13-14 सितम्बर 1943 को मऊरानीपुर में अखिल बुन्देलखण्ड प्रान्तीय कवि सम्मेलन हुआ। इस अवसर पर 47 प्रमुख सुकवियों ने कविता पाठ किया था। ख्याति प्राप्त राजकवि श्री नरोत्तमदास पाण्डेय ’’मधु’’ ने कविता पाठ के अतिरिक्त कार्यवाही का संचालन भी किया था।17

झाँसी और मऊरानीपुर में होने वाले सैर सम्मेलनों में वह आचार्य घनश्यामदास पाण्डेय मंडल का नेतृत्व और संचालन करते थे। आचार्य स्वयं तो बाहर बहुत कम जाते थे उनके युवा पुत्र ’’मधु’’ पर ही इन सम्मेलनों से अपनी काव्य शक्ति और मंडल के कुशल संचालन द्वारा विजयपताका लाने का भार रहता था।

किसी राजनेता, सामाजिक नेता अथवा साहित्यकार के मऊरानीपुर में आगमन और अभिनन्दन के समय ’’मधु’’ कार्यक्रम का सारा उत्तरदायित्व अपने ऊपर ओढ़ लेते थे। वह निश्चित करते थे कि कौन स्वागत गीत पढ़ेगा, कौन प्रमुख वक्ता होगा, कौन कविता पढ़ेगा और कौन धन्यवाद प्रस्ताव रखेगा। वह स्वयं सभी लोगों को कविताएँ लिखकर देते थे। ऐसे ही एक अवसर पर श्रीमती विजय लक्ष्मी पण्डित के मऊरानीपुर आगमन पर कवि ने उनके स्वागत में यह छन्द लिखा था-

पट पलकांे के और सुमनों के सुमनों को

सुख से सँजो के देवि तेरी अगवानी की।

क्षत हिय अक्षत की नव चाव चन्दन की

पूर्ति करता है अश्रु विन्दु पूत पानी की।।

कलित कहानी तेरी कीर्ति की उचारे ऐसी

क्षमता कहाँ है ’’मधु’’ आज मेरी वानी की।

विजय पराजितों की लक्ष्मी दीन देश की तू

दृग मोती मोती की सुनिधि रूपरानी की।।18

योगाभ्यास

प्रतिभा के क्षत्र में ’मधु’ के जीवन में क्रमिक परिवर्तन हुए। सफल कवि, भविष्यवक्ता, ज्योतिषी और योग साधक के रूप में उनके छोटे से जीवन के अनेक आश्चर्यजनक पक्ष हैं। टीकमगढ़ राज्य की सेवा से निवृत्त होकर उन्होंने ज्योतिष का अध्ययन किया। ज्योतिष से उनकी विरति का प्रसंग भी बहुत मार्मिक है। ज्योतिष के द्वारा स्वयं अपनी आसन्न मृत्यु का अनुमान करने से ’’मधु’’ अपने जीवन के प्रति निरासक्त निरीह और ज्योतिष विद्या की निरर्थकता से विचलित हो गये। उन्होंने अनुभव किया कि ज्योषित से भूत और भविष्य जाना भले ही जा सकता हो परन्तु दुर्भाग्यपूर्ण भविष्य को बदलने का ज्योतिष में कोई प्रावधान नहीं है। ऐसे ज्योतिष ज्ञान से क्या लाभ जिसमें हम यह तो जानते हैं कि हमारा अमुक अनिष्ट होने वाला है परन्तु हम उसके निवारण में असमर्थ होकर घटना के भयातुर दर्शक ही बने रहते हैं। अतः उन्होंने ज्योतिष का अध्ययन छोड़ दिया।

पुत्र की इस दुश्चिन्ता पर पिता आचार्य घनश्यामदास पाण्डेय ने कहा कि योग के द्वारा अनिष्ट का सूक्ष्म भोग बताया गया है। ’’मधु’’ के मन में योग साधना की उत्सुकता जागी और वह अपनी पूरी शक्ति और लगन के साथ उसमें प्रवृत्त हो गये।

’’मधु’’ की प्रकृति में ध्यान और योग के तत्त्व प्रवृत्ति के रूप में ही निहित थे। इसके संकेत उनके काव्य में अनेक स्थानों पर मिलते हैं-

श्वसुर पगन जो विशेष बिलखाय गिरी

मेघनाद वधू् द्रग सलिल विमोचनी।

ताकौ सुन क्रन्दन पुलस्त नंद नंदन के

गई दृग वंदन तें हरि मूर्ति रोचनी।।

’’मधु’’ ध्यान टारी दृग पूतरी उघारी ज्यों ही

सम्मुख निहारी भूमि लुण्ठित विसोचनी।

रतिमान मोचनी रूदन रस रोचनी

महिम मृग लोचनी सुलोचनी।।19

दृग मूंदकर इस भाँति हुई मग्न यह

पुण्य प्राणधन की सुछवि के प्रणय में।

आश्रम में आये दुरवासा उसी काल और

देखा कण्व कन्यका को ध्रुव ध्यान वय में।20

निज अनुपस्थिति के मूढ घटनाक्रम को

तब मुनि सोचने लगे स्वयोग बल से।21

आज के बौद्धिक तर्कप्रधान और वैज्ञानिक परीक्षण से निकले सत्य पर आस्था रखने वाले युग में योग साधन और उससे अर्जित शक्ति की बात अविश्वसनीय प्रतीत होती है। पदार्थ और उस पर परीक्षण से निकाले हुए निष्कर्षो की दृष्टि से यह अन्धविश्वास या अतिरंजन लग सकता है और इसके घटित होने के कोई चाक्षुष प्रमाण भी न मिल सकें पर ’मधु’ की योग साधना के बारे में उनके परिवार के लोगों तथा अन्य व्यक्तियों ने साक्ष्य के रूप में अनेक घटनाओं का वर्णन किया है। अतः उनका उल्लेख यहाँ इसी आधार पर और इसी रूप में किया जा रहा है। संभव और असंभव का विवेचन और निर्णय यहाँ उद्देश्य नहीं है। इस समय ’’मधु’’ पंचायत इंस्पेक्टर के पद पर सेवारत थे। उनका कार्यालय घर के बगल में ही था। अतः घंटों योगसाधना के लिये उन्हें अवकाश मिल जाता था। कुछ ही समय में उन्हें ’’ध्यान’’ लगने लगा। धीरे-धीरे उनका ’’ध्यान’’ का अभ्यास इतना बढ़ गया था कि वह आँखें बन्द करते और कुछ ही क्षणों में तीव्र प्रकाश देखने लगते।

एक दिन श्री रामेश्वर प्रसाद शर्मा, जो स्वाधीनता संग्राम के दौरान झाँसी जिले के प्रसिद्ध सेनानी, प्रमुख कांग्रेसी नेता और संस्कृत वांङ्मय के गंभीर अध्येता थे, ’’मधु’’ के घर आये। उन्होंने ’’मधु’’ से पूछा कि ध्यानावस्था में कुछ दिखाई देता है। ’’मधु’’ ने कहा कि जिसका भी ध्यान करता हूँ वही दिखाई देता है। शर्मा जी ने पूछा कि कुछ सुनाई भी देता है। ’’मधु’’ के निषेधात्मक उत्तर पर शर्मा ने कहा कि तब यह योग नहीं है क्योंकि योगसिद्धि से तो दूरदृष्टि और दूरश्रवण शक्ति प्राप्त हो जाती है। ’’मधु’’ ने उस दिन चार पाँंच घंटे तक ध्यान किया। उठने पर पत्नी से चाय बनाने के लिए कहते हुए बोले शर्मा जी कहते थे कि सुनाई नहीं देता। मैं तीन घंटे से देख रहा हूँ कि वह कहाँ कहाँ गये और जो कुछ उन्होंने इस बीच बातचीत की है वह भी सुन रहा हूँ।22़

मधु अपने शासकीय कार्य के अन्तर्गत एक गाँव का दौरा करने गये थे। रात्रि को उन्होंने अपने घर में प्रतिष्ठित भगवान की मूर्ति का ध्यान किया और देखा कि मूर्ति के मस्तक पर रामानन्दी तिलक न होकर चन्दन की गोल बिन्दी लगी है। उन्हें क्षोभ और निराशा हुई कि उनका ’’ध्यान’’ सच्चा नहीं है क्योंकि भगवान राम की मूर्ति को घर में बिन्दी नहीं बड़े रामानन्दी तिलक ही लगाये जाते थे। खिन्नता और अपनी असफलता के अवसाद से उन्होंने भोजन भी नहीं किया और बड़े सवेरे साईकिल पर ही घर लौट आये। घर आकर मंदिर में दर्शन करने गये तो देखा कि वास्तव में भगवान् को चन्दन की बिन्दी ही लगी है। पूछने पर ज्ञात हुआ कि उस दिन पूजा पिताजी की जगह माताजी ने की थी और उन्होंने मूर्ति को बिन्दी लगा दी थी।

वह योग विषय पर पंतजलि का ’’योगदर्शन’’ विवेकानंद का ’’राजयोग’’ और अंग्रेजी की ’’योग फिलासफी’’ आदि पुस्तकें पढ़ते थे। इस समय उन्हें अपनी आसन्न मृत्यु का विश्वास हो गया था। एक दिन वह योग साधना करके उठे और उन्होंने अपनी डायरी में लिखा-’’आज भगवान् राम के दर्शन हुए। यह शरीर शीघ्र त्याग देना होगा यही ज्ञात हुआ।23

योगाभ्यास की प्रक्रिया में उन्हें निद्रा-हानि होने लगी। वह रात को सोने के लिए आंँखे बन्द करते और उन्हें अत्यधिक प्रकाश दिखायी देने लगता। उनका स्वास्थ्य बिगड़ने लगा। शारीरिक क्षीणता और छटपटाहट के साथ ही वह मन की दुर्बलता अनुभव करने लगे। वह स्नायवरिक रोग ग्रस्त हो गये। उनमें वे लक्षण दिखायी देने लगे जिन्हें योग दर्शन में दुःख दौर्मनस्य श्वास प्रश्वास की समस्या कहा गया है।24

स्थानीय चिकित्सा के पश्चात् उन्हें जिला अस्पताल झाँसी में भर्ती किया गया। डॉ0 अवस्थी ने उनका विशेष उपचार किया। दिन भर पचासों लोग उनसे मिलने आते रहते।

इन दिनों ’’मधु’’ को विश्वास की सीमा तक मृत्यु की आशंका होने लगी थी वह अपने चचेरे भाई श्री रमाशंकर पाण्डेय से कहा करते-मैं तो दद्दा की तपस्या की कारण यहाँ आ गया। अब मैंने अपना काम पूरा कर दिया है।25 अपने मित्र धनंजय भट्ट से उन्होंने एक बार कहा-मैं सवाई महेन्द्र का राजकवि रह चुका हूँ। अब वहाँ इन्द्र ने मुझे बुलाया है मैं अब जा रहा हूँ।26

जिला अस्पताल झाँसी में हुई चिकित्सा से उन्हें शारीरिक व्याधि में कुछ लाभ हुआ। अस्पताल से मुक्त होकर मऊरानीपुर आते समय अनेक सुहृद कवि और मित्र उनसे मिलने आये। ’’मधु’’ के परिवार के एक घनिष्ठ सुन्दरलाल द्विवेदी मधुकर ने ’’मधु’’ से चलते समय कहा-’’अच्छा भैया, मिलेंगे। आप झाँसी आयेंगे या मैं ही मऊरानीपुर आऊँगा। तब मिलेंगे। ’’मधु’’ ने कहा ठीक है, और हँस दिये। द्विवेदी जी ने कारण पूछा तो उन्होंने कहा-कि हम लोग आखिरी बार मिल रहे हैं। और किसी ने तो फिर मिलने की बात नहीं कहीं। केवल तुमने कही। इसलिये तुम्हें बता रहा हूँ कि अब हम नहीं मिल पायेंगे।27

इस समय ’’मधु’’ की बातें लोगों को प्रलाप प्रतीत होती थीं परन्तु उनमें गंभीर अर्थ और आगत का संकेत होता था। जब लोग कहते कि चिकित्सा से वह बिल्कुल ठीक हो जायेंगे तो वह कहते-कोई फायदा नहीं होगा, सब व्यर्थ है। वह अपने बच्चों को अपने सामने नहीं आने देते थे। वह कहा करते थे कि ’’इन्हें मेरे सामने से हटाओ’’ इन्हें मत आने दिया करो। महाप्रयाण के लिए उद्यत ’’मधु’’ अपत्य-मोहजनित कष्ट से बचना चाहते थे।

देहावसान

नरोत्तमदास पाण्डेय ’’मधु’’ का प्राणान्त 14 अक्टूबर 1952 को 38 वर्ष 6 माह की आयु में हुआ। वह लौहप्रहार से अपेन प्राणानत की बात कहते थे। ’’मधु’’ ने रेल की पटरी पर गर्दन रखकर रेलगाड़ी के नीचे अपना प्राणान्त किया। कुछ लोगों ने इसे मस्तिष्क विकारवश आत्महत्या कहा।28 यह मस्तिष्क की विकृति नहीं थीं। ’’मधु’’ जानते थे कि लोग उन्हें मानसिक रूप से अस्वस्थ मानते हैं। इसलिए वह कहा करते थे कि जब मैं और सब काम सामान्यतया करता हूँ तब तुम मेरा दिमाग ठीक मानते हो लेकिन उसी तरह से जब मैं यह बातें कहता हूँ तब कहते हो मेरा मस्तिष्क ठीक नहीं है। मऊरानीपुर के एक अध्यापक स्व0 उदयभानु जैन ने ’’मधु’’ के मानसिक स्वास्थ्य की परीक्षा स्वरूप उन्हें गणित का एक सवाल हल करने को दिया। ’’मधु’’ ने कुछ ही क्षणों में कहा-कागज पर लगाकर बताऊँ या वैसे ही उत्तर बता दूँ? मस्तिष्क की विकृति इसे इसलिये भी नहीं माना जा सकता क्योंकि इस समय ’’मधु’’ ने काव्य रचना की है। इन कविताओं में किसी मानसिक असामान्यता के चिह्न नहीं मिलते।29 किसी ने उनकी मृत्यु का अत्यन्त हास्यास्पद कारण बताते हुए कहा कि स्व0 मधु ने दीपक और पतंग शीर्षक से कुछ छन्द लिखे थे और इसी रचना के बाद उनका निधन हुआ था। कदाचित् इस रचना में कोई दोष आ गया हो।30 पतंग और दीपक के छन्द ’’मधु’’ ने मृत्यु के लगभग 10 वर्ष पूर्व सन् 1942-43 में लिखें थे। ये छन्द श्रेष्ठ काव्य के उदाहरण हैं। उनमें किसी शास्त्रीय दोष की अटकल और उससे ’’मधु’’ की मृत्यु का सम्बन्ध जोड़ना कोरा बुद्धि विलास है।

देहावसान के दिन बहुत सबेरे वह चुपचाप घर से निकल गये और लगभग 4-5 कि0मी0 दूर निर्जन स्थान में रेल की पटरी पर लेटकर उन्होंने अपना प्राणान्त किया। कमजोरी के कारण जो व्यक्ति थोड़ी दूर भी नहीं चल पाता था वह 4-5 किलोमीटर पैदल चला गया।

अपने अनेक पुत्रों का बाल्यावस्था में ही निधन सह चुकने वाले ’’मधु’’ के पिता का हृदय इस प्रतिभाशाली और सर्वप्रिय पुत्र के दुःखद निधन का आघात नहीं सह सका। लगभग दो वर्ष बाद उन्होंने भी विरक्त वेश में दूर के एक नगर के कुए में डूबकर प्राणान्त कर लिया।

’’मधु’’ के अस्वाभाविक और असामयिक करूण निधन के समाचार से स्वजनों, परिजनों और हितैषियों सहित सम्पूर्ण क्षेत्र शोक-विह्वल हो उठा। शोक संदेशों का ढेर लग गया। कुछ शोक संदेशों से ’’मधु’’ की प्रियता का परिचय मिलता है।

पंचायत राज्य विभाग उ0प्र0 के तत्कालीन संचालक पं0 भगवतनारायण भार्गव का ’’मधु’’ के पिता घनश्याम दास पाण्डेय को पत्र-

’’हायरे नरोत्तम ! तूने यह क्या किया’’ मेरे हृदय से यही गूँज उठी जब आज स्वामी स्वराज्यानन्द व पुजारी जी का पत्र मिला। संसार आपके लिये सूना हो गया।........... पता नहीं किसकी कुदृष्टि नरोत्तम पर पड़ी थी जो उसकी यह दशा हुई। मुझे उसकी दिन-रात चिन्ता रहती थी। दोनों समय भजन करता था। सब व्यर्थ गया। इस समय दिमाग व्यथित है। अधिक क्या लिखूँ।

-भगवत नारायण भार्गव

संचालक पंचायत संचालनालय, लखनऊ

17.10.52

10 बजे प्रातः

दूसरा पत्र

लखनऊ

20.10.52

प्रियवर पाण्डेय जी,

नमस्कार

..................मैं अपने हृदय की दशा का वर्णन शब्दों द्वारा कर ही नहीं सकता।..........यहाँ ग्यासी से व दुर्जन रावत से मैं नरोत्तम की बात करता रहा वहाँ काम ही तमाम हो गया।...........नरोत्तम के विषय में लिखना या बोलना नहीं सुहाता। मौन विचार में ही शान्ति है। आपने ठीक ही लिखा कि नरोत्तम पूर्व जन्म का शत्रु था।.....

भगवत नारायण भार्गव

विंध्यप्रदेश के तत्कालीन गृहमंत्री पं0 लालाराम वाजपेयी का सन्देश

गृहमंत्री रीवा

विंध्यप्रदेश दि. 19.10.52

आदरणीय पाण्डेय जी

प्रणाम।

श्री भाई नरोत्तम के शोकजनक एवं असामयिक निधन का समाचार सुनकर दिल को बड़ा ही धक्का लगा। समझ में नहीं आता कि इस महान् शोक में आपको किस तरह धीरज बँधाऊँ।

भाई नरोत्तम मेरे लिये छोटे भाई की तरह थे। उनके उठ जाने से केवल मऊरानीपुर का ही नहीं बल्कि समस्त बुन्देलखण्ड का एक रत्न आज उठ गया।

आपका ही

लालाराम

वाजपेयी जी स्वयं मऊरानीपुर आये और ’’मधु’’ के पिता से कहा कि आप मुझे ही नरोत्तम मानें।

’’मधु’’ के निधन के बाद एक बार महादेवी वर्मा ने उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री गोविन्द वल्लभ पंत से ’’मधु’’ की प्रशंसा की और रूद्धकंठ से कहा कि सरकार राष्ट्रीय कवियों की सहायता नहीं करती।31

काव्य प्रेरणा

कविता ’’मधु’’ को नैसर्गिक प्रतिभा के रूप में प्राप्त हुई थी। अपने काव्य-प्ररोह के प्रस्फुटन और विकास के लिए उपयुक्त वातावरण उन्हें परिवार में ही प्राप्त हुआ। उनके पिता पं. घनश्याम दास पाण्डेय अपने समय के श्रेष्ठ कवि और आचार्य थे।

पितृश्री के आकर्षण से घर में अनेक कवियों और विद्वानों का जमघट रहता था। उस समय मऊरानीपुर में विभिन्न अवसरों पर काव्य समारोह होते रहते थे। पिता अपने एकमात्र पुत्र के श्रेष्ठ व्यक्तित्व-निर्माण और उत्तम संस्कारों के विकास के प्रति सचेष्ट थे। ऐसे वातावरण में ’’मधु’’ के काव्य संस्कार जाग्रत हुए।

’’मधु’’ अल्पावस्था में ही काव्य रचना करने लगे थे। हाईस्कूल में अध्ययन करते समय तो वह सुन्दर भावपूर्ण कविताएँ लिखने लगे थे। टीकमगढ़ में ’’मधु’’ की अपनी काव्य प्रतिभा के प्रस्फुटन के लिये उपुयक्त वातावरण मिला। महाराज स्वयं सुधी और साहित्य मर्मज्ञ थे। उनके संरक्षण में टीकमगढ़ साहित्यिक गतिविधियों का केन्द्र बना हुआ था।

टीकमगढ़ के सवाई महेन्द्र हाईस्कूल से उस समय ’वीर बुन्देल’ नामक स्तरीय पत्रिका प्रकाशित होती थी। उसमें ’’मधु’’ के गीत प्रायः प्रकाशित होते थे। नौवीं कक्षा में पढ़ते समय ’’मधु’’की गणना प्रतिभाशाली कवियों में होने लगी थी। सन् 1930 में स्थापित वीरेन्द्र केशव साहित्य परिषद, टीकमगढ़ के तत्त्वाधान में प्रतिवर्ष वीर वसन्तोत्सव का आयोजन किया जाता था। इस अवसर पर होने वाले कवि सम्मेलन में देश के प्रसिद्ध कवि सम्मिलित होते थे। ’’मधु’’ को छात्र होते हुए भी इतने बड़े काव्य समारोहों में काव्य-पाठ का गौरव मिलने लगा था। तृतीय वीर वसन्तोसव में उन्होंने कुम्हलाये कुसुम से गीत सुनाया था जो अधिवेशन की तृतीय वार्षिक रिपोर्ट में प्रकाशित भी हुआ। रचयिता के स्थान पर लिखा गया था श्री पं0 नरोत्तमदास पाण्डेय विद्यार्थी, टीकमगढ़।32 इसी अंक में मुंशी अजमेरी, महादेवी वर्मा, सुभद्राकुमारी चौहान तथा शान्ति प्रिय द्विवेदी जैसे कवियों की कविताएँ छपी थीं। ’’मधु’’ को यह सुयश 18 वर्ष की अवस्था में ही मिल गया था।

किस पर कहाँ निछावर कर दी तुमने ऊषा की लाली।

किस पर मुग्ध चित्त होकर पी गये हलाहल की प्याली।।

भग्नवेष की तंत्री ले गा रहे अटपटा कैसा राग।

हृदय पटल पर किस दुखिया के बोलो सुलगाते हो आग।।

देेखो आई पवन भिखारिन वनकर लेने मादकता।

वह जायेगी विमुख आज हा ! कैसी यह लोकप्रियता।।

नहीें दीख पड़ रहे विकसते स्वर्णिम आभा के वह जाल।

जिन पर होकर मुग्ध दिवाकर फेका करते थे करमाल।।

नहीं अभी तक किसी देव के सर पर चढ़कर तुम झूले।

और न अब तक किसी कामिनी के हृदयस्थल पर फूले।।

तुम्हीं कहो किन किन बातों का तुम्हें गिनावें हम लेखा।

अरे अभी क्या मुरझाते हो तुमने जग का क्या देखा।।33

इन समारोहों में महाराज वीरसिंह जू देव स्वयं उपस्थित रहते थे। ’’मधु’’ की काव्य प्रतिभा ने उन्हें इसी समय आकर्षित कर लिया था। सन् 1934 में सवाईै महेन्द्र हाईस्कूल के तत्कालीन प्रधानाध्यापक श्री लक्ष्मीनाथ मिश्र ने ’’मधु’’ के विषय में लिखा था-उनमें अच्छे हिन्दी कवि की प्रतिभा है और अगर उनकी उस क्षमता को पूरी तरह विकसित होने का अवसर मिले तो मुझे विश्वास है कि वह असाधारण योग्यता के कवि के रूप में अपना स्थान बनायेंगे।34

यह छायावाद के चरमोत्कर्ष का युग था। प्रसाद, पंत, निराला और महादेवी अपने काव्य से नये युग के प्रर्वतक कवियों के रूप में प्रतिष्ठित हो चुके थे। गीतिशैली इतनी प्रभावपूर्ण और लोकप्रिय हो चुकी थी कि नये कवि तो उसका अनुसरण कर ही रहे थे कवित्त, सवैया और संस्कृत वृत्तों की शैली के कवि भी कभी कभी गीत लिख लेते थे। ’’मधु’’ ने भी अपने काव्य जीवन के प्रारंभ में इसी प्रकार के वैयक्तिक अनुभूति प्रधान गीत लिखे हैं। इस समय का उनका एक गीत उनकी आरंभिक काव्यप्रेरणा का परिचायक है-

अरी मेरी सुस्मृति झंकार, कसकती है क्यों बारम्बार।

नाचती आती है तू कौन, साथ में लिये व्यथाएँ मौन।

कहाँ जाती इस अंचल मध्य, छिपाकर मेरा सुख संसार।

अरी मेरी सुस्मृति झंकार, ..............

हृदय पर सुलगाती है आग, पटल पर गाती है क्या राग

सींचती किस अनन्त की ओर कौन जा रहा कहाँ किस पार

अरी मेरी सुस्मृति झंकार, ..............

हमारा स्वर्ग सदृश जीवन, न घोलो इसमें मादकपन

और मत छेड़ो तीखी तान, अहो तुम हो अतीत के प्यार

अरी मेरी सुस्मृति झंकार, ..............35

इस गीत का भाव, उसका द्वन्द्व और उसकी भाषा छायावादी काव्य के उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है।

सन् 1935 में टीकमगढ़ राज्य के राजकवि हो जाने के बाद भी कुछ समय तक ’’मधु’’ की काव्य-रचना गीतिपरक ही रही। ’’विजयपर्व’’ इसी समय का एक श्रेष्ठ गीत है जिसकी रचना सन् 1936 में हुई। दशहरे के अवसर पर टीकमगढ़ के सभी राजकवि उपस्थित होते थे और दरबार की ओर से आयोजित काव्य समारोह में अपनी कविताएँ पढ़ते थे। वहाँ अन्य राजकवि घनाक्षरी और सवैया शैली में कविता पढ़ते थे वहीं ’’मधु’’ कविता की इस नवीन शैली की अभिव्यक्ति क्षमता को प्रमाणित कर रहे थे। उन्होने बाद के काल में भी गीत लिखे हैं परन्तु ये पूर्ववर्ती काल के गीतों से भिन्न विषय प्रधान गीत हैं यद्यपि भाव-सौष्ठव की दृष्टि से वे गीत भी श्रेष्ठ हैं।

इस समय खड़ी बोली की प्रधान कविता धारा के अतिरिक्त पद्माकर और पजनेस की काव्य शैली का भी बहुत से कवि अनुसरण कर रहे थे। विषय की दृष्टि से तो इन कवियों ने रीतियुगीन विषयों के साथ ही आधुनिक विषयों को भी अपनाया परन्तु उनकी अभिव्यक्ति का माध्यम अभी ब्रजभाषा और घनाक्षरी सवैया शैली ही थी। बुन्देलखण्ड के इस अचंल में भी उस समय ब्रजेश, बिहारी, मुंशी अजमेरी, घनश्यामदास पाण्डेय, सेवकेन्द्र, घासीराम व्यास, नाथूराम माहौर, मित्रजी आदि ख्यात कवि इसी परिपाटी की काव्य धारा से जुड़े थे। झाँसी, मऊरानीपुर तथा टीकमगढ़ में विभिन्न अवसरों पर ऐसे काव्य समारोह आयोजित होते रहते थे जिनमें ये कवि ब्रजभाषा की अलंकृत शैली की कविता प्रस्तुत कर रहे थे। ’’मधु’’ ने इस वातावरण से प्रेरित और प्रभावित होकर बाद में घनाक्षरी और सवैया छन्दों में ब्रज और खड़ी बोली में काव्य सृजन किया। कवि सम्मेलनों में समय-समय पर उनकी भेंट महादेवी वर्मा, सुभद्राकुमारी चौहान और सुमन जैसे आधुनिक काव्यधारा के कवियों से होती रहती थी। परन्तु सनेही जी ’’सुकवि’’ के माध्यम से जिस काव्यधारा का सातत्य बनाये हुए थे।’’मधु’’ ने बाद के वर्षों में उसी को अपना लिया।

’’मधु’’ की काव्य प्रतिभा में भावपूर्णता और कलात्मकताके साथ ही स्वतः स्फूर्ति और आशुसृजन के गुण थे। इसीलिये अल्पवय में ही उनके काव्य की प्रतिष्ठा हो गयी थी। 17 दिसम्बर 1936 को उन्हें ग्राम सुधार विभाग द्वारा आयोजित काव्य समारोह में समस्यापूर्ति का प्रथम पुरस्कार और प्रमाण पत्र मिला।

’’मधु’’ने ’’सुधार में’’ समस्या की पूर्ति इस प्रकार की थी-

देखो देखो जीवन जहाज पथ भ्रष्ट हुआ

आकर फसा है घोर कष्ट पारावार में।

संकटो के काले काले मेघ चारों ओर घिरे

सब बहे जाते वायु वेग अधिकार में।।

अभी है समय फिर बचना कठिन होगा

सम्हलो पड़ा़े न व्यर्थ सोच में विचार में।

हमारे तुम्हारे प्राण जिनसे लगे हैं लग

जाओ उन्हीं डाँड़ रूपी ग्रामों के सुधार में।।36

’’मधु’’के आशु कवित्व के विषय में साहित्य महोपाध्याय श्यामसुन्दर बादल ने एक घटना का उल्लेख किया है। मऊरानीपुर के नझाई बाजार में नगरपालिका के तत्कालीन एक्जीक्यूटिव आफीसर बाबू केदारनाथ की अध्यक्षता में कवि सम्मेलन हो रहा था। अन्त में अध्यक्ष ने एक समस्या देकर घोषणा की जो कवि दस मिनिट में इसकी पूर्ति कर देगा उसे पुरस्कार में खादी की पोशाक दी जायेगी। बादल जी और ’’मधु’’ अखाड़े में उतरे। ’’मधु’’ ने नौ मिनिट में ही छप्पय छंद में समस्या की पूर्ति कर दी जबकि बादल जी ने घनाक्षरी छन्दकी रचना दस मिनिट में की।37

’’मधु’’ के द्रुत और स्वतः स्फूर्त सृजन का एक उदाहरण वह प्रसंग है जिसने उन्हें दुर्लभ यश प्रदान किया। टीकमगढ़ में अखिल भारतीय काव्य समारोह आयोजित था। उसमें अनेक ख्याति प्राप्त कवि उपस्थित थे। वीरसिंह देव ने अपने राजकवियों से बुन्देलखण्ड पर कविता लिखकर लाने का अनुरोध किया था। कवि सम्मेलन की पूर्व रात्रि में ’’मधु’’ ने अतिथि विश्रामगृह में जहाँ सभी कवि ठहरा करते थे, ब्रजेश जी से पूछा कि उन्होंने क्या लिखा है। उन्होंने बुन्देलखण्ड पर लिखे अपने छन्द सुनाये। ’’मधु’’ इस बार कुछ नया लिखकर नहीं ले गये थे। अतः रात में ही उनकी कविताधारा का वेग उमड़ा और उन्होंने प्रातःकाल से पूर्व ही बुन्देलखण्ड पर अनेक छन्दों की रचना कर डाली। वह एक छन्द लिखते थे और दूसरे छन्द का भाव तथा अन्तिम चरण मस्तिष्क में उमड़ पड़ता था। वह पूरा हो इसके पहले ही अगला समापक चरण बन जाता था।

अगले दिन कवि सम्मेलन में सभी राजकवियों ने बुन्देलखण्ड सम्बन्धी कविताएँ सुनायीं परन्तु वे प्रभावहीन रहीं। महाराज को अपने कवियों की प्रभावहीनता से निराशा हुई अब ’’मधु’’ की बारी आई तो उन्होंने ’मुरली माधुरी’ के छन्द सुनाने को कहा। उनका अनुमान था कि जब अन्य कवियों की कविता नहीं जमी तो युवक ’’मधु’’ की कविता भी अप्रशंसित ही रहेगी। ’’मधु’’ बुन्देलखण्ड पर ही रचित छन्द सुनाना चाहते थे परन्तु क्षुब्ध महाराज के निर्देशानुसार उन्होंने ’मुरली माधुरी’ और ’शशिशतक’ के कुछ छन्द सुनाये। अन्त में उन्होंने बुन्देलखण्ड सम्बन्धी कविता सुनाने की आज्ञा माँगी। किंचित रूष्ट से महाराज ने अनुमति दी।

’’मधु’’ने काव्य पाठ प्रारम्भ किया एक दो छन्दों के बाद ही वाह, वाह का प्रशंसा स्वर गूँजने लगा। प्रारम्भ में महाराज ने अपने क्षोभ की मानरक्षार्थ वाहवाही नही की, यद्यपि उन्हें भी वे छन्द प्रिय लग रहे थे, किन्तु जब ’’मधु’’ ने यह छन्द पढ़ा-

मानी मदान्ध अनी की अनीत से

जो दुवी में दुख दाहें उठी थीं।

तो यहीं के प्रजा पालकों की

उन्हें मेटने हेतु निगाहें उठी थी।

जीत वसुन्धरा को ’मधु’ व्योम के

जीतने हेतु उमाहें उठी थीं।

विंध्य की चोटियों का बहाना किए

वीर बुन्देलों की बाहें उठी थीं

तो वीरसिंह देव प्रसन्नता में मुक्त कण्ठ से कह वाह करते हुए उठ कर खडे हो गये।

व्यक्तित्व

व्यक्तित्व मनुष्य की जीवन धारणाओं, रूचियों, स्वभाव, आसक्तियों और उसके विचारों का प्रतिनिधित्व होता है। बाह्य रूप में व्यक्तित्व से आकृति वेशभूषा आदि का बोध होता है। वस्तुतः व्यक्तित्व आकृति और प्रकृति का अविभाज्य और समग्र रूप है।39 कलाकार का व्यक्तित्व उसकी कला की प्रकृति को प्रभावित और निर्धारित भी करता है और उसका परिचायक भी होता है। ’’मधु’’ के व्यक्तित्व और काव्य में यह संश्लिष्ट सम्बन्ध स्पष्ट परिलक्षित होता है। कोमल भावों से उच्छ्वसित काव्य की तरह उनके व्यक्तित्व में भी स्निग्धता, कोमलता, मधुरता और सुरूचि सम्पन्नता थी। वह भीतर और बाहर से समरूप थे।

आकृति एवं वेशभूषा

लगभग पाँच फीट पाँच इंच का मध्यम कद, इकहरा शरीर, व्यवस्था और स्वच्छन्दता के बीच आचरण करते केश, नुकीली नाक, गेहँुंआ रंग-आँंखों में सौहार्द का आमंत्रण और सौम्य चेहरा, ’’मधु’’ के व्यक्तित्व में सहजता का दुर्निवार आकर्षण था। रामसेवक रावत के शब्दों में-दुबला पतला शरीर, सदैव प्रसन्न मुद्रा, मुख और होठों पर विनम्रता जनित खेलती सी हलकी सी मुस्कान, निश्छल निष्कपट व्यवहार, वाणी में भीगी हुई सरसता, यौवन में वसन्त और कल्पना में मादकता की सिहरनंे-यही तरूण कवि कलाकार नरोत्तमदास पाण्डेय ’’मधु’’ की हल्की स्मृति शेष है। वह प्रायः धोती और बंगाली कुर्ता या कमीज पहिनते थे। धोती की तिन्नी का छोर कुरते की जेब में पड़ा रहता था। वह कमीज के गले में सुनहले बटन लगाते थे तथा बाहों में उस समय के प्रचलित ’’कफलिंक्स’’ लगाते थे। वह हमेशा खादी के वस्त्र ही धारण करते थे।

रूचि

’’मधु’’ की रूचियों में परिस्कार और आभिजात्यथा। घर की आर्थिक स्थिति अच्छी थी और पिता का अपने एकमात्र पुत्र पर विशेष स्नेह था। 19-20 वर्ष की अवस्था तक ’’मधु’’ को पाश्चात्य वेश-भूषा के प्रति अनुराग था। उन दिनों उनके पास गर्म कोट, पेंट और वेस्टकोट के 8-10 थ्री पीस सूट रहा करते थे। वह अपनी कमीजों में ऐसा कालर लगवाते थे जो अलग किया जा सकता था और किनारे पर दो बटनों की सहायता से फिर जोड़ा जा सकता था। वस्त्रों की स्वच्छता के प्रति वह सचेत रहते थे। उनके कपड़े हमेशा धोबी के यहाँ धुला करते थे। उनकी कुछ नोटबुकों में कविता और धोबी को दिये गये कपड़ों का हिसाब साथ-साथ लिखा मिलता था। अपनी अभिजात रूचि के अनुसार वह टूथपेस्ट और ब्रश का प्रयोग करते थे। उन दिनों अपेक्षाकृत पिछड़े परिवेश में और मध्यवर्गीय पंडित परिवार में यह शौक अंग्रेजियत माना जाता था। विन्ध्यप्रदेश के भूतपूर्व गृहमंत्री पं0 लालाराम वाजपेयी ’’मधु’’ के इस शौक का संस्मरण सुनाते हुए कहते हैं कि एक बार वह बिनवारा (वाजपेयी जी का गाँव) में टूथ पेस्ट कर रहे थे। गाँंव की औरतों ने देखा तो बोलीं यह आदमी साबुन क्यों खा रहा है।

उन्हें चाय और ध्रूमपान का व्यसन था। वह अधिकतर सिगरेट पीते थे परन्तु मौका पड़ने पर बीड़ी को भी वही स्नेह देते थे। बाद के दिनों में वह कभी कभी तम्बाकू भी खाने लगे थे। परन्तु मर्यादा का निरपवाद पालन करते हुए वह अपने पिता ही नहीं पितृव्यों आदि गुरूजनों के सामने कभी धू्रमपान नहीं करते थे।

स्वस्थ और ज्ञानद साहित्य के अध्ययन में उनकी गहरी रूचि थी। वह नियमित रूप से सबुह और रात को विभिन्न विषयों के ग्रन्थों का अध्ययन करते थे। लेखन में वह कीमती पैन और काली नीली तथा हरी कई रंग की स्याही का प्रयोग करते थे। पहले साधारण कागजों पर लिखने के बाद वह सुन्दर स्वाक्षरों में अपनी कविताएँ छोटी छोटी डायरियों पर लिख लेते थे। उनका लेख स्पष्ट और आकर्षक था। उनकी सुरूचिप्रियता उनकी लिखावट में झलकती थी। कभी कभी तो वह अपनी रचनाओं की कई प्रतियाँ बनाते थे।

स्वभाव

’’मधु’’ संज्ञा कवि के काव्य और स्वभाव दोनेां के सम्बन्ध में सार्थक हैं। उनके स्वभाव में मधुरता, कोमलता और सरलता थी। परिवार के सभी सदस्यों के प्रति उनके मन में असीम प्रेम था।40 माँ के प्रति उन्हें विशेष ममता थी। कभी कभी जब पिता और माँ के बीच वाक्युद्ध छिड़ जाता था तो ’’मधु’’ माँ का पक्ष लेकर पिता से शान्त होने का आग्रह करते थे। बड़ों के प्रति उनके मन में श्रद्धा थी।

परिवार में प्रसन्नता देखकर उन्हें बहुत हर्ष होता था। त्योहारों पर आनन्द से उनका उत्साह दुगना हो जाता था। त्योहार की आनन्दपूर्ण निष्पत्ति के लिये वह सबेरे से ही आयोजन में जुट जाते थे। वह सभी का ध्यान रखते थे। उन्हें स्वजनों के सुख का हेतु बनने में सुख मिलता था। स्निग्धता और उदारता ने उन्हें सर्वप्रियता प्रदान की थी। वह जब टीकमगढ़ से लौटते तो अपने साथ परिवार के लिये कुछ न कुछ अवश्य लाते थे। दिवाली के अवसर पर उनके द्वारा लाये गये पटाखों की बच्चों को उत्सुकतापूर्ण प्रतीक्षा रहती थी।

विनम्रता और शिष्टता ’’मधु’’ के स्वभाविक गुण थे। पर्याप्त यश और साधन सम्पन्नता पाकर भी उन्हें अहंकार नहीं था। उनके पिता स्वभाव से स्वाभिमानी थे उनकी पाण्डित्यजनित स्पष्टवादिता कभी कभी उग्रता की सीमा तक पहुँच जाती थी। इसलिये साधारणतया लोग उनके सामने कुछ संकुचित रहते थे। उनकी आलोचना में निर्भीकता और संकोच के स्थान पर स्पष्टवादिता थी। उससे आहत लोग प्रतिशोध के लिये उनके काव्य में दोष ढूँढने लगते थे। ऐसे विवादों की स्थिति में ’’मधु’’ तटस्थता अथवा शिष्ट मध्यस्थता का निर्वाह करते थे। साहित्य महोपाध्याय श्यामसुन्दर बादल ने ऐसे ही एक प्रसंग में ’’मधु’’के स्वभाव का उल्लेख करते हुए लिखा है कि उनकी यह वृत्ति शिष्टता और विनम्र व्यवहार सदैव स्मृतिपटल पर अंकित रहेगा।41 दर्पहीनता और परदुःखकातरता उनके स्वभाव के भूषण थे।

’’मधु’’ अपने सौम्य, शिष्ट, शीलयुक्त और निश्छत स्वभाव के कारण अजातशत्रु थे। उन्हें घर और बाहर सदैव स्नेह और आदर मिला। उनमें बड़ों के प्रति श्रद्धा, छोटों के प्रति सहज स्नेह और समवयस्क मित्रों के प्रति निष्कपट अंतरंगता का भाव था।

दूसरों के कार्य में वह निःस्पृह भाव से लगे रहते थे। ’’मधु’’ के कोमल रससिक्त काव्य के साथ ही उनके नवनीत से व्यक्तितत्व की प्रियता के कारण अवस्था और पद में बड़े लोग भी उनका सम्मान करते थे। ’’मधु’’ का स्वभाव कुछ ऐसा था कि उनके पिताजी तथा परिवार के अन्य गुरूजन उन्हें स्नेह के साथ आदर की सीता तक मान्यता देते थे। इसका कारण ’’मधु’’ की प्रतिभा तथा स्वभाविक शील और मृदुता थी। वह अत्यन्त भावुक थे। भावुकता उनके काव्य में भी प्रधानरूप से व्यक्त हुई है। भावुकता के कारण वह कभी कभी विह्वल होकर रो उठते थे।

उत्तरदायित्व

अपने कर्तव्य के प्रति उनमें ईमानदारी थी। वह शरीर से सुकुमार थे, परन्तु अपने सेवाकाल में वह अत्यन्त कर्तव्यपरायण रहे। पंचायत विभाग में वह उच्चकोटि के कार्यकर्ता माने जाते थे। वह पंचायत निरीक्षक थे, परन्तु जिला पंचायत अधिकारी उनको अपनी बराबरी का मानते थे।42 उत्तरदायित्व के अनुभव और उसके निर्वाह की भावना उनमें पारिवारिक मामलों में भी थी। पारिवारिक निर्णय उनके बिना नहीं लिये जाते थे। पिताजी तो प्रायः कहीं आते जाते थे नहीं, ’’मधु’’को ही पारिवारिक मामलों का संचालन करना पड़ता था।

लगन

’’मधु’’ लगनशील और धुन के पक्के थे। अपनी शारीरिक क्षमता से अधिक कार्य वह अपनी इसी संकल्प शक्ति के कारण कर लेते थे। कई घंटो के योग ने उन्हें इस तरह की ऊर्जा दी थी। इसी के साथ वह अपने कार्यालय में बैठकर तथा दौरा करके शासकीय सेवा का अपना कर्तव्य पूरा करते थे। अंग्रेजी साहित्य के अध्ययन की और उनकी प्रवृत्ति हुई तो सुबह और रात को घंटों वह तल्लीन होकर अंग्रेजी कथा साहित्य पढ़ा करते थे। ज्योतिष में रूचि हुई तो उसमें भी अपनी लगन के द्वारा उन्होंने असाधारण दक्षता प्राप्त कर ली।

मऊरानीपुर के किसी साहित्यिक या सांस्कृतिक आयोजन में भी उनकी लगन का परिचय मिलता था। वह छोटी औपचारिकताा से लेकर बड़ी आवश्यकताओं की पूर्ति स्वयं करते थे। उनमें अपने काम के प्रति आवेगपूर्ण व्यग्रता थी। जब तक वह अपना इष्ट सम्पन्न नहीं कर लेते थे तब तक वह अस्थिर और कार्यतत्पर बने रहते थे। यही धुन उनके विचारों में भी थी। वह अपनी सही धारणा और निर्णय के लिये लोगों से घंटांे बहस करते रहते थे। और अपनी बात मनवा कर ही रहते थे। वह कभी कभी पिताजी से भी बहस में उलझ जाते थे। परन्तु यह असाधारण संयम और शील की बात है कि ’’मधु’’ ने ऐसे क्षणों मे कभी भी मर्यादा और औचित्य को नहीं भुलाया।

यह आश्चर्यजनक ही है कि इतनी कार्यशीलता वाले ’’मधु’’ स्वभाव से घोर आलसी भी थे। ’’मधु’’ में आलस्य और लगनशीलता का अद्भुत संयोग था। उनका पालन पोषण सुख सुविधाओं में हुआ था। उन्हें किसी प्रकार का अभाव नहीं था। अपने बचपन में उन्हें घर का कोई काम नहीं करना पड़ता था। इसके कारण बाद तक भी वह अपने मित्र वर्ग में घोर आलसी के रूप में विख्यात रहे। यह आलस्य उनके कवित्व में बहुत सहायक रहा। उन्हें घंटों बैठे रहने में कोई परेशानी नहीं होती थी। अपनी वस्तुओं की साज सँभाल में भी उनका आलस्य और भुलक्कडी कभी कभी रोचक प्रसंग उपस्थित कर देती थी। विजयदशमी के अवसर पर टीकमगढ़ के राजकीय अतिथिगृह में रामाधीन खरे, अम्बिकेश, ब्रजेश आदि सभी राजकवि उपस्थित थे। सभी लोग महाराज के पास काव्य समारोह में कविता सुनाने के लिये जाने की तैयारी कर रहे थे। ’’मधु’’ बिल्कुल तैयार होकर अचानक रामाधीन खरे से बोले-’’हमारी डायरी न जाने कहाँ है।’’ ’’मधु’’ काव्यपाठ सदैव डायरी में पढ़कर किया करते थे। रामाधीन जी ने हाथ जोड़कर कहा-हे ईश्वर ! तेरा बड़ा अनुग्रह है। उस अवसर पर उपिस्थत ’’मधु’’ के मित्र पं0 कृष्णकिशोर द्विवेदी के पूछने पर रामाधीन जी बोले-’’ईश्वर का बड़ा अनुग्रह है कि उसने इस लड़के के हाथ पैर इसी के शरीर में लगा दिये, वरना यह मुझसे पूछता कि हमारे हाथ पैर कहाँ हैं।’’ वह प्रायः अपनी वस्तुओं का ध्यान भूल जाते थे। इसका कारण यह था कि वह अधिकांश समय अपनी धुन में खोये रहते थे। वह धुन कभी कविता की होती थी और कभी किसी और ध्येय की। उनकी यह मानसिक अनुपस्थिति प्रायः प्रकट हो जाती थी।

’’मधु’’ को काव्य रचना की मनः स्थिति सहज और सतत् रूप से प्राप्त थी। कविता लिखने के लिए उन्हें किसी विशेष समय अथवा ’मूड’ की प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती थी। वह अक्सर गुनगुनाते रहते थे। अनेक लोगों की उपस्थिति में भी उनमें अपना मन केन्द्रित कर सकने की क्षमता थी। इसलिये उनके काव्य में आयासजनित कृत्रिमता न होकर सहज भाव सम्पन्नता है। कवि की यह बेखुदी स्वयं उनके शब्दों में व्यक्त हुई है-

मैं निज रंग में हो मख्मूर

सुरूर हमेशा लिये रहता हूँ।

बेखुदी भी इतनी बढ़ती

खुद का भी न ख्याल दिये रहता हूँ।

आपका जामे इनायत पाके ही

यों कुछ ढंग लिये रहता हूँ।

है मुझसे दुनिया कहती कि

बिना पिये ही मैं पिये रहता हूँ।।43

भावुकता ने ’’मधु’’ को व्यवहार में मृदु, सम्बन्ध-निर्वाह में तत्पर और प्रिय बनाया था। वह दूसरों की भावनाओं का पर्याप्त ध्यान रखते थे। अपनी मित्र मंडली मेें उन्हें स्नेह और आदर प्राप्त था। उनके अधिकतर मित्र साहित्य प्रेमी और कवि थे। वह बिना किसी औपचारिकता के अपने मित्रों के घर पहुंँच जाते थे और घंटो बैठक जमाते थे। सांध्य अटन के समय नदी की रेत में मित्र मंडली की ये बैठकें अक्सर होती थीं। इसमें ’’मधु’’ अक्सर अपनी कविताएँ सुनाते थे। श्री रामचरण हयारण ’’मित्र’’ की ’’मधु’’ स प्रथम भेंट ऐसी ही एक गोष्ठी में हुई थी।44

कृतियाँ

’’मधु’’ ने 16-17 वर्ष की अवस्था में काव्य रचना प्रारम्भ कर दी थी। सन् 1935 में देव पुरस्कार-प्रदाताा ओरछेश वीरसिंह देव द्वितीय के राजकवि हो जाने के बाद से उनका काव्य सृजन सतत् रूप से होने लगा। वैसे तो वह सन् 1951 तक स्फुट रूप से कुछ लिखते रहे परन्तु उनके लेखन का सातत्य सन् 1947-48 तक ही रहा। इसके पश्चात् 3-4 वर्षो में उन्होंने कुछ फुटकर कविताएं, सैरें तथा प्रचलित धुनों पर भावपूर्ण कीर्तन, गीत ही लिखे हैं। इस तरह उनकी सतत् काव्य-रचना का काल 10-11 वर्षो का है। इस संक्षिप्त काव्य-जीवन में ही ’’मधु’’ ने जिने परिमाण में काव्य-रचनाकी है उससे उनकी सृजन क्षमता का परिचय मिलता है।

काव्य विषय

’’मधु’’ के काव्य में कथ्य की विविधता और व्यापकता है। उन्होंने अनेक पौराणिक और ऐतिहासिक आख्यानों को अपने काव्य का उपजीव्य बनाया है। एक ओर उनके काव्य में रीतियुगीन परम्परा में अभिजात विषयों का प्रतिपादन हुआ है, दूसरी ओर नवजागरण युग की परिवर्तित चेतना, उत्कट राष्ट्रीयभावना और नवीन जीवनादर्र्शों का चित्रण है।

’’मधु’’ ने वर्तमान सामाजिक दैन्य और दुरवस्था तथा आर्थिक विषमता पर भी संलग्न भाव के साथ लिखा है। प्रकृति के रम्यचित्र, विभिन्न पर्वोत्सव, उमर खैयाम का नियतिवादी दर्शन, देव-स्तोत्र, हिन्दी के पोषक वीरसिंह देव की प्रशस्ति, चन्द्र-चकोर, पतंग-दीपक जैसे प्रेमादर्श, बुन्देलखण्ड का वैभव तथा वर्तमान युग के प्रमुख प्रेरक व्यक्तित्व और घटनाएंँ ’’मधु’’ के विषय वैविध्यके कुछ उदाहरण हैं।

प्रकाशन

’’मधु’’ की कुछ कविताएँ सुकवि, मधुकर, विशाल भारत, आदर्श आदि तत्कालीन पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं। उनका अधिकांश काव्य उस समय के अनेक कवियों के काव्य की तरह काव्य समारोहों के माध्यम से सम्प्रेषित होता रहा। ’’मधु’’ के देहावसान के बाद एक बार वीरसिंह देव ने उनके काव्य को प्रकाशित कराना चाहा था और उनकी पाण्डुलिपियाँ लेकर ’’मधु’’ के पिता पं0 घनश्यामदास पाण्डेय को टीकमगढ़ आने का निमंत्रण दिया था।45 परन्तु किसी कारणवश वह सुयोग नहीं आ पाया। बनारसी दास चतुर्वेदी ने एक बार बुन्देलखण्ड के कुछ प्रसिद्ध कवियों के काव्य को सुरक्षित रखने के लिये ’’मित्र’’ जी को लिखा था............मेरा यह ख्याल है कि जीवितों के अभिनन्दन के बजाय यदि हम लोग दिवंगतों का स्मरण करें तो अत्युत्तम हो। कालपी सेे बढ़िया हाथ का बना कागज मंँगाकर दस्तावेजी स्याही से स्मृति ग्रंथ तैयार कराये जावें-स्व0 घासीराम जी व्यास, रसिकेन्द्र जी, ’’मधु’’ जी तथा शील जी प्रभृति के और सुविधा होने पर उनकी पांँच पाँंच टाइप कराकर किसी शिक्षा संस्था में सुरक्षित रख दी जायंे तो बहुत बड़ा कार्य हो जाये।46

काव्य-रूप

बन्ध की दृष्टि से काव्य के दो भेद माने गये हैं-प्रबन्ध और मुक्तक। प्रबन्ध काव्य में कथा का तारतम्य रहता है। उसके छन्दों में पूर्वापर सम्बन्ध होता है। प्रबन्ध काव्य को महाकाव्य और खण्डकाव्य में वर्गीकृत किया गया है। मुक्तक काव्य में कथानक योजना नहीं रहती है। उसके छन्द भाव की दृष्टि से अपने आप में स्वतंत्र और पौर्वापर्य निरपेक्ष होते हैं। मुक्तक काव्य को प्रमुख रूप से पाठ्य और गेय दो भेदों में विभाजित किया गया है।47

’’मधु’’ की प्रबन्ध कृतियाँ दो प्रकार की हैं। एक प्रकार की तो वे रचनाएँ हैं जिन्हें आकार और विषय निरूपण की दृष्टि से खण्ड काव्य की संज्ञा दी जा सकती है। ’’मधु’’ के खण्ड काव्यों में सर्गांे का विभाजन नहीं है। संस्कृत के मेघदूत और हिन्दी के सुदामाचरित, उद्धवशतक और पंचवटी आदि काव्यों की तरह ये खण्डकाव्य एक प्रवाह में चलते हैं। कवि की दूसरे प्रकार की कृतियाँ वे हैं जिनका स्वरूप और प्रतिपाद्य खण्ड काव्यों के परिमाण से अपेक्षाकृत छोटा है। इन कृतियों में कथानक योजना तो है, परन्तु इनमें कवि ने किसी पौराणिक अथवा ऐतिहासिक प्रसंग लेकर उसके अन्तर्वर्ती भाव को आदर्श के रूप में उद्घाटित किया है। इन्हें लघु आख्यान काव्य की संज्ञा दी जा सकती है।

’’मधु’’ का मुक्तक काव्य प्रबन्ध काव्य की अपेक्षा परिमाण में बहुत अधिक है और विविधरूपी है। उन्होंने एक ही विषय पर अनेक मुक्तक छन्द भी लिखे हैं और विभिन्न विषयों पर स्फुट छन्दों की रचना भी की है। समस्या पूर्ति काव्य की परम्परा में उन्होंने समय समय पर समस्या पूर्ति भी की है। झाँसी, मऊरानीपुर और छतरपुर में होने वाले सैर सम्मेलनों में घनश्यामदास पाण्डेय मण्डल के लिये उन्होंने सैकड़ों सैरें भी लिखी हैं। इसके अतिरिक्त उन्होंने गीतिकाव्य और प्रचुर स्फुट काव्य की भी रचना की है।

स्वयं कवि के द्वारा नामांकित कृतियों के अतिरिक्त उनके शेष काव्य का वर्गीकरण विषय और स्वरूप के आधार पर ही किया गया है। इस प्रकार के अध्ययन से कृतिपरक मूल्यांकन के अतिरिक्त कवि के सम्पूर्ण काव्य का विवेचन हो गया है।

प्रबन्ध काव्य

(अ) खण्ड काव्य

’’मधु’’ ने छै खण्डकाव्यों की रचना की है। इनमें से ’’उत्तर रामचरित’’ और ’दुर्गा’ अपूर्ण है। उनमें कथानक की दृष्टि से विषय-निर्देश ही हो सका है। यद्यपि विषय निर्देश भी कवि ने विशद् रूप से किया है।

शुकन्तला, उत्तर रामचरित, दुर्गा, सुलोचना सौरभ, झाँसी का विभीषण, रानी कुँअर गणेशदेवी।

(आ) लघु आख्यान काव्य

’’होलिका दहन’’ भक्तवर कालीनाग, और अर्जुन मोह भंग

मुक्तक काव्य

(अ) विषयाश्रित कृतियाँ

शशिशतक, मुरली माधुरी, होली माला, मधु सूक्ति संग्रह, बुन्दलेखण्ड दर्शन, विंध्यं बावनी, बेतवा बावनी, और हाला।

(आ) समस्या पूर्ति काव्य

(इ) प्रशस्ति-काव्य

(ई) गीति काव्य

(उ) सैर काव्य

(ऊ) स्फुट काव्य

स्फुट काव्य में अनेक विषय और प्रवृत्तियाँ परिलक्षित होती हैं। अतः अध्ययन की सुविधा के लिये उसे भी अलग अलग कोटियों में वर्गीकृत कर लिया गया है। प्रमुख रूप से कवि के स्फुट काव्य की प्रवृत्तियाँ इस प्रकार हैं-

(अ) प्रार्थना परक काव्य

(आ) अभिजात काव्य

(इ) राष्ट्रीय काव्य

(ई) प्रेमादर्श निरूपक काव्य

(उ) व्यंग्य-हास्यपरक काव्य

(ऊ) प्रकृतिपरक काव्य

(ए) अन्योक्ति काव्य

(ऐ) अन्य काव्य

अनुवाद:-

उमर खैयाम की रूबाइयों का अनुवाद

-0-

सन्दर्भ

1- साहित्या लोचन- श्याम सुन्दरदास, पृष्ठ-34

2- कवि पिता पं. घनश्यामदास पाण्डेय कृत वंशावली (अप्रकाशित)

3- उत्तरप्रदेश गजेटियर्स, झाँसी, 1965 पृष्ठ-354

4- वही, पृष्ठ, 354

5- बुन्देलखण्ड वागीश-सं. रामपाल सिंह चन्देल ’प्रचण्ड’ पृष्ठ-17

6- राजकवि स्व0 नरोत्तमदास पाण्डेय ’’मधु’’-श्याम सुन्दर बादल-दैनिक जागरण 24 सितम्बर 1967 तथा ’उदय और विकास-रामचरण हयारण मित्र, पृष्ठ-265

7- सवाई महेन्द्र हाईस्कूल टीकमगढ़ के अंग्रेजी शिक्षक आर.सी.माथुर का प्रमाणपत्र 28 सितम्बर 1934

8- सवाई महेन्द्र हाईस्कूल टीकमगढ़ के प्रधानाचार्य लक्ष्मीनाथ मिश्र का प्रमाणपत्र 27 सितम्बर 1934

9- पं. भगवत नारायण भार्गव, भूतपूर्व संचालक पंचायत विभाग उ0प्र0 शासन का पत्र दिनांक 14 फरवरी 1974

10- मैथिलीशरण गुप्त-व्यक्तित्व और कृतित्व-डॉ0 कमलकान्त पाठक पृष्ठ-10

11- ’कवीन्द्र पंचक’ आहें, मातृभूमि वन्दना आदि कविताएँ

12- तारागण कविता-सुकवि में प्रकाशित, अगस्त 1937 ई0

13- सुकवि, सितम्बर 1937 ई0

14- स्वाधीन, झाँसी 22 सितम्बर 1943

15- स्फुट काव्य-विजय लक्ष्मी के प्रति कविता

16- उमर खैय्याम का अनुवाद, 3

17- होलीमाला, 22

18- कवयित्री रामकुमारी चौहान-व्यक्तित्व और कृतित्व-डॉ0 सियाराम शरण शर्मा, पृष्ठ 191 (अप्रकाशित शोध प्रबन्ध)

19- सुलोचना सौरभ-15

20- शकुन्तला-23

21- शकुन्तला-26

22- मधु की पत्नी से चर्चा

23- मधु के चचेरे भाई रमाशंकर पाण्डेय से चर्चा

24- राजयोग अर्थात् अन्तः प्रकृति की विजय-स्वामी विवेकानन्द, अनुवादक रामविलास शर्मा पृष्ठ 125

25- रमाशंकर पाण्डेय से चर्चा

26- मोतीलाल भट्ट ’धनंजय’’ से चर्चा

27- सुन्दरलाल द्विवेदी-’मधुकर’, झाँसी से हुई चर्चा

28- राजकवि नरोत्तमदासस पाण्डेय-’मधु’ श्री श्यामसुन्दर बादल, दैनिक जागरण, झाँसी 24 सितम्बर 1967

29- ’जैतमाता’ कविता (1951), सैरें और राष्ट्रीय गीत

30- राजकवि नरोत्तमदासस पाण्डेय-’मधु’ श्री श्यामसुन्दर बादल, दैनिक जागरण, झाँसी 24 सितम्बर 1967

31- उत्तरप्रदेश के पंचायत विभाग के भूतपूर्व संचालक-पं. भगवत नारायण भार्गव का पत्र दिनांक 14.02.1974

32- श्री वीरेन्द्र केशव साहित्य परिषद् ओरछा राज्य टीकमगढ़ (मध्यभारत) की तृतीय वार्षिक रिपोर्ट सं. 1989 वि. (1932-33ई.) पृष्ठ 33

33- गीतिकावरू-’कुम्हलाये कुसुम से’

34- श्री लक्ष्मीनारायण मिश्र का प्रमाणपत्र, 27 सितम्बर 1934

35- गीति काव्य-’झंकार’

36- समस्यापूर्ति काव्य-’सुधार में’

37- राजकवि नरोत्तमदासस पाण्डेय-’मधु’ श्री श्यामसुन्दर बादल, दैनिक जागरण, झाँसी 24 सितम्बर 1964

38- बुन्देलखण्ड दर्शन, 19

39- मैथिलीशरण गुप्तःव्यक्तित्व और कृतित्व-डॉ0 कमलाकान्त पाठक, पृष्ठ 57

40- ’माता पिता प्रिया पुत्र पाँचऊ सुभाग्य भरे

चाहौं चिरजीवी सब भाँत सुखदाता के’ -स्फुट काव्य

41- राजकवि नरोत्तमदासस पाण्डेय-’मधु’ श्री श्यामसुन्दर बादल, दैनिक जागरण, झाँसी 24 सितम्बर 1967

42- उत्तरप्रदेश के पंचायत विभाग के भूतपूर्व संचालक-पं. भगवत नारायण भार्गव का पत्र दिनांक 14.02.1974

43- हाला-51

44- उदय और विकास-रामचरण हयारण ’मित्र’ पृष्ठ 265

45- वीरसिंह देव का पत्र दिनांक 07.05.1953

46- प्रेरक साधक-सं.श्री मन्नारायण, पृ. 529-30

47- काव्यय के रूप-गुलाबराय एम.ए., पृ. 19

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