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लोकाख्यान में जीवन की खोज: कही ईसुरी फाग

लोकाख्यान में जीवन की खोज: कही ईसुरी फाग

इतिहास अथवा लोक प्रचलित आख्यान से किसी साहित्यिक कृति को यदि कथानक उपलब्ध हो जाने की सुविधा मिल जाती है तो वहाँ इस चिन्ता की चुनौती भी कम नहीं होती कि उसका मूल स्वरूप भी बना रहे और उसमें आज के जीवन-संदर्भ और प्रश्न भी आ जाएँ। वस्तुगत तथ्यरक्षा के दबाव उसकी हदों पर पहरेदारी करते हैं तो रचनात्मकता के सरोकार उससे बृहत्तर संसार में निकल आने का आग्रह करते हैं। इस द्वन्द्व का समाधान ‘कुछ हम मान जायें कुछ तुम मान जाओ ’ के समझौते के तहत नहीं होता बल्कि लेखक का रचनात्मक विवेक उसमें से संभाव्यता की दुनिया रचता है और उसके आशयों में से संवेदना के वे धरातल तलाशता है जो उसे स्थानीयता के साथ व्यापक बना देते हैं।

‘कही ईसुरी फाग’ में मैत्रेयी पुष्पा का रचनात्मक विवेक अपनी रचना-दृष्टि अथवा रचना-प्रयोजन की केन्द्रिकता के प्रति पूरी तरह सजग है। इसी रचनात्मक विवेक से उन्होंने ईसुरी से सम्बन्धित लोकाख्यान या मिथ का विश्लेषण और उपयोग किया है और तत्कालीन समाज और समय के सन्दर्भ में ऐसी संभावनाओं को कथारूप दिया है जो इस उपन्यास को इकहरी जीवन-कथा के बदले भरे-पूरे संसार का विस्तार करती है। इसी के साथ उसमें आज की व्याख्या भी शामिल है।

ईसुरी बुन्देली के अत्यन्त प्रतिभा सम्पन्न कवि हुए हैं। उनकी फागों में लोक जीवन की विविध अनुभूतियां बुन्देली की समर्थ अभिव्यक्ति के साथ इतने सहज रूप से व्यक्त हुई हैं कि वह बुन्देलखण्ड और उसके बाहर भी लोकाभिव्यक्ति के उद्धरण बन गए हैं। लोकभाषा में लिखने के कारण ईसुरी लोक कवि के रूप में सीमित कर दिए गए अन्यथा वह अपने काव्य विषयों में, कल्पनाशीलता में, संवेदना में, शिल्प में और अभिव्यक्ति की सहजता में बड़े-बड़े कवियों से ऊपर हैं, लेकिन केवल डेढ़ सौ साल के अतीत के ईसुरी के जीवन के बारे में कुछ तथ्यों और घटनाओं को छोड़कर हमारे पास सर्वथा निर्विवाद और प्रामाणिक वृत्त उपलब्ध नहीं है। उनके बारे में जो भी परिचयात्मक या रचनात्मक लिखा जाता रहा है उसमें बहुत से लोगों ने प्रायः अपने अनुमान अथवा ज्ञान को ही प्रमाण माना है।

जीवन दो चार पैराग्राफों का नहीं होता, उसमें जाने कितनी बातें, कितनी घटनाएँ होती हैं। ईसुरी के जीवन में भी बहुत कुछ घटित हुआ होगा, उसमें से कुछ लोक-श्रुति में जीवित है। ऐसी ही एक बहुत बड़ी घटना है- रजऊ नामक महिला से उनका प्रेम। रजऊ के बारे में लोकमान्यता है कि वह मुसाहिब जू की पुत्री थी, जिन मुसाहिब के यहां ईसुरी नौकरी करते थे। फागों में ‘रजऊ’ नाम और अनेक फागों का विषय प्रेम और शृंगार होना इस मान्यता का प्रमाण माना जाता है। कुछ लोग रजऊ को काल्पनिक मानते हैं, ईसुरी की फागों में प्रेम के आलम्बन के लिए आया हुआ केवल एक नाम।

अब जब कोई लेखक ईसुरी के इस कथानक पर कोई उपन्यास या कहानी लिखेगा तो वह उसके रचना-प्रयोजन पर निर्भर है कि वह उसमें से मनुष्यता के तकाज़ों और सरोकारों की तह तक जाकर उसका किस तरह उपयोग करता है।

‘कही ईसुरी फाग’ उपन्यास ईसुरी के जीवन-वृत्त के साथ जुड़े प्रसंगों के अलावा पूरे समय और समाज का विमर्श है। लेखिका ने प्रमुख रूप से रजऊ को हाड़-मांस का अस्तित्व देकर उसे व्यक्तित्व भी दिया है जिसका उल्लेख या तो सिर्फ ईसुरी की प्रेमिका के रूप में मिलता है या उनके काव्य की अशरीरी सम्बोधिता के रूप में। इस दृष्टि से इस उपन्यास के आशयों और लेखिका के रचना-प्रयोजन की सही समझ के लिए उपन्यास के कुछ उद्धरणों पर विचार करना आवश्यक है।

‘.......क्योंकि मेरे भीतर का हिस्सा रजऊ ने खोजकर कब्जे कर लिया था। मैं फागों में उसका वर्णन सुनकर सोचती थी कि औरत में इतना साहस होता है कि उसके पसीने की बूंद गिरे तो रेगिस्तान में हरियाली छा जाए, आंख से आंसू गिरे तो बेलों पर फूल खिल जायें। ’

‘..........मगर वहां ईसुरी के नाम पर तमाम नकली फागें चलायी जायेंगी जिनसे रजऊ का जुड़ाव बनेगा नहीं।’ ‘............हम भी यही चाहते हैं कि रजऊ का वह चेहरा सामने आये जो एक औरत का चेहरा होता है।’

‘सर, क्या अकेले ईसुरी ही प्रेम को इस तरह जीवन्त कर सकते थे ? प्रेम तो दो जनों के बीच होता है। आनन्द, उल्लास और इन्द्रिय बोध भी दोनों का शामिल होता है। मेरे हिसाब से रजऊ का सकारात्मक दृष्टिकोण ईसुरी के मुकाबले कम सघन नहीं। वह बाड़ों के भीतर रहकर बाड़ तोड़ने वाली औरत है।’

‘ जरूर रजऊ दृढ़ रही होगी। दृढ़ स्त्री की कल्पना कमनीयता के लोभियों को रास नहीं आती।’

’लेकिन रजऊ ईसुरी के काव्य में सिर्फ सम्बोधिता के रूप में थी अर्थात् जिसका अस्तित्व केवल शब्द हों और व्यक्तित्व श्रंृगार। बाकी मनुष्य की तरह कोई कार्यकलाप, न जीवन की जद्दोजहद और न दी गई स्थितियों से बाहर निकलने की चाह।’

‘...असल में लोग चाल चलन को ही जानते हैं और समझ लेते हैं कि किसी औरत के बारे में सब कुछ जान लिया। वह भी अपने हिसाब से जोड़ते घटाते हैं लोग। उस औरत के भीतर कितना कुछ छूटा रह गया, यह कौन बताये ? औरत की कथा, जो उसके भीतर हाहाकार मचाती रहती है, उससे कोई भी पागल हो जाये।’

ज्यामिति की भाषा में कहें तो इन उद्धरणों को उपन्यास की ’साधारण प्रतिज्ञा’ माना जा सकता है जो उपपत्ति से गुजर कर यही सिद्ध करना था कि स्थिति तक पहुंचती है। मैत्रेयी पुष्पा का प्रश्न है कि क्या रजऊ के रूप में स्त्री प्रेम की केवल मूक या निश्चेतन आलम्बन की तरह ही स्मरणीय है अथवा उसकी खुद की चाहतों और शक्तियों की भी पहचान जरूरी है। सामन्ती और पुरूष वर्चस्ववादी समाज में अपने अस्तित्व और व्यक्तित्व से वंचित स्त्री को मैत्रेयी दूर खड़ी होकर सुभाषितों की हमदर्दी नहीं देती हैं बल्कि उसके भीतर उतर कर उसकी कामनाओं को प्रतिबंधों और निषेधों की बाड़ के बाहर लाती हैं। रजऊ ही नहीं मैत्रेयी के सभी प्रमुख पात्र सामाजिक बदलाव की भूमिका में सक्रिय हैं।

एक बात और है जब किसी साहित्यिक रचना में इतिहास अथवा किसी लोक प्रचलित आख्यान के चरित्र को आधार बनाया जाता है तो लोगों की प्रायः यह धारणा या अपेक्षा होती है कि वह चरित्र ही केन्द्रीय भूमिका में होगा तथा जो भी उस कृति में और घटित होगा वहउस नायक के लिये ही या उसके कारण ही होगा। परम्परा से यह केन्द्रीय भूमिका नायक (पुरूष) को ही मिलती रही है आज की अधिकतर फिल्मों की तरह। यह तो स्वाभाविक है कि ऐसा कोई चरित्र प्रमुख होगा, लेकिन व्यक्ति निर्जन भूखण्ड में नहीं रहता। उसके आसपास छोटा-बड़ा समाज होता है जिसके साथ उसकी अन्तःक्रियाएँ होती हैं और उस समाज की सापेक्षता में उसकी समीक्षा होती है। रचना के ऐसे लोकतंत्र में निरपेक्ष सत्ताएँ न होकर पूरा सांस्कृतिक सामाजिक परिदृश्य उपस्थित होता है।

अप्रतिम रचना शीलता के कवि ईसुरी इस उपन्यास में आदि से अन्त तक हैं, प्रत्यक्ष भी और परोक्ष भी पर उनके साथ उनका समय और समाज भी है, अपनी पूरी हलचलों के साथ। रजऊ के प्रति प्रेम का जो महत्त्व ईसुरी के साथ जुड़ा है उस प्रेम का दूसरा पक्ष रजऊ भी इस उपन्यास में है और एक निश्चेष्ट, निर्जीव प्रसाधन सामग्री की तरह नहीं बल्कि परिवार और समाज में एक ओर प्रेम को पूरे अस्तित्व के साथ अनुभव करने के रूप में और फिर 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय महिला के रूप में। पूरा उपन्यास रजऊ के जीवन की खोज और उसका शोध है। यह उपन्यास देशपत बुन्देला का भी है, सरस्वती, मीरा और रामरती का भी है, गंगिया का भी है, करिश्मा बेड़िनी का भी है, आबादी बेगम का भी है और टीकमगढ़ की असाधारण गायिका अनवरी बाई का भी है। कथानक की दृष्टि से देखें तो यह उपन्यास ईसुरी और रजऊ के प्रेम की डूब का है, आज के बाजारवाद और उपभोगीकरण में लोककलाओं की व्यावसायिकता का है, 1857 के समय इस अंचल की क्रान्ति का है इस अंचल के जीवन के स्पंदनों में समायी ईसुरी की फागों का है, सामन्ती परिवेश में पलती हुई त्रासदियोें का है और इन सबके बीच से रजऊ के रूप में स्त्री के सशक्तीकरण का है।

ईसुरी और रजऊ की खोज में ऋतु अपने औपचारिक और तथाकथित अकादमिक शोध में भले ही सफल न हुई हो पर उसने जिस रजऊ को गांव गांव में अनेक लोगों के स्रोतों से खोजा है वह अभी तक लोगों की कल्पना में भी नहीं थी। इसलिये यदि हम इसे ईसुरी के जीवन तथ्यों पर आधारित उपन्यास की अपेक्षा से पढे़ंगे तो वह अध्ययन व्यर्थ होगा। सवाल यह भी नहीं है कि उसमें कितना तथ्य है और कितनी कल्पना। विचारणीय यह है कि यह कल्पना कथानक और समकालीन चेतना को कितनी सम्भाव्यता देती है।

आज स्त्री विमर्श बहुत प्रचलित शब्द बन गया है। मैत्रेयी जी स्त्री विमर्श को उस समाज और गांवों के व्यापक लोक में ले जाती हैं जहां उसकी सबसे ज्यादा जरूरत है। यही वह स्थल है जहां अस्मिता गुम हो चुकी है, जहां मुख्य सड़क तक पहुंचने के लिये लम्बी दलदली और कांटांे भरी पगडंडियां पार करनी पड़ती हैं, जहां बराबरी से नहीं सिर्फ अनुगत होकर चला जा सकता है। मैत्रेयी ने गांव को सुना नहीं देखा है, देखा ही नहीं जिया है, इसीलिये उन्होंने गाँंव के बने बनाये प्रारूप से अलग उसका ऐसा बायोडाटा बनाया जिसमें उसमें रहने वालों के संघर्ष, उनकी नैतिकता और उनके परिवर्तनकामी साहस का यथार्थ है। रजऊ, सरस्वती, गंगिया, करिश्मा, मीरा, आबादी बेगम, ऋतु सभी दी हुई दुनिया से बाहर आने की चाह से भरी हैं और उसके लिये छलकती जिजीविषा लिये अभिशप्त परिधियां तोड़ती हैं, अपनी सक्रियता द्वारा सार्थक सिद्ध होती हैं। मैत्रेयी ने रजऊ को विस्तार देकर उसे लाखों करोड़ों स्त्रियों में उतार दिया है- ‘असाधारण नायिका की कथा साधारण औरतों में आकर खुलती है। ......संस्कृति में जोड़ी गयी पौराणिक कथाएँं और स्त्री की ऐतिहासिक गाथाएँें मनुष्य रूप नारी के लिये बहुत बड़ा धोखा है। वह देवी सती रूपी शिला मानी गयी है या समाधियों में दबी पड़ी हैं। लोककथाएँ और लोकगीत फागों के पक्ष में गवाही देते हैं, माना, मगर लोक व्याप्ति में जीवन का करूण स्वर स्त्री के विरोध के रूप में ही संचरित होता रहा है, आज भी होता है। रानी पटरानियों तक के कण्ठ में साधारण औरत का स्वर सुनाई देता है।’ मैत्रेयी इसी साधारण स्त्री का करूण स्वर सुनती हैं और उसके पक्ष में खड़ी होती हैं।

ईसुरी और रजऊ का प्रसंग प्रेम का वृत्तान्त है। ईसुरी का प्रेम लोकाख्यान के अनुसार इतना सघन है कि वह अपनी कविता को रजऊ का पर्याय बना देते हैं, सामाजिक लांछन भी सहन करते हैं। मैत्रेयी इस प्रसंग में वे संभावनाएँ खोेज लेती हैं जिनमें प्रेम का पूरा पाठ भी रचा गया है और रजऊ को नायिका के अनाम सामान्यीकरण की जगह व्यक्तित्व भी दिया गया है। लोकाख्यान में रजऊ की ओर से इस प्रेम की अभिव्यक्ति का अभाव है, भले ही भीतर रहा हो पर मैत्रेयी ने रजऊ के अतलान्त प्रेम की ऐसी हिलोरें व्यक्त की हैं जो तन मन को सिक्त कर देती हैं। उसमें सब कुछ विस्मृत हो जाता है, निछावर हो जाने की सीमा तक प्रेम का यह आत्मावेग मैत्रेयी जी के पास बहुत निजता और मृदुलता के साथ रहता है, छलक छलक पड़ती ललक की तरह।

ईसुरी-रजऊ के प्रेम के इस उपन्यास में प्रेम का पूरा अन्तरिक्ष है जिसमें ऋतु माधव, प्रेमानन्द-कोकिला, तुलसीराम-मादुरी, शालिग्राम-सावित्री, जैसे अनेक युग्म है। ‘स्त्री पुरूष का यह प्रेम ही दुनिया भर की कलाओं का आधार है।’ ‘प्रेम के लिये देह जरूरी नहीं है पर देह के लिये प्रेम जरूरी है’ इस तरह के वक्तव्यों से मैत्रेयी प्रेम के तरल और विभोर कर देने वाले अहसास के साथ ही, अनिर्वचनीयता का

निर्वचन भी करती हैं और प्यूरिटन समाज के सामने नैतिकता को पुनर्परिभाषित भी करती है।

लोक जीवन में कलाएँ जीवन से जुड़ी होती हैं। ये कलाएँ आज अपनी सहजता और मौलिकता खोकर व्यावसायिक बाजार में विक्रय की वस्तु बनती जा रही हैं। मैत्रेयी का ध्यान इस चिन्ता की ओर है। ईसुरी लोकजीवन के असाधारण कलाकार हैं। उनकी फागें इस अंचल में प्राणगीत की तरह व्याप्त हैं। उपन्यास का आरम्भ ही फाग गायकों के दल को विदेशियों के सामने परोसने के लिये खरीदते दलालों के व्यापार से होता है। आदिम समाज की कलाएँ विशेष रूप से गायन और नृत्य आज अपने बदले और विकृत रूप में देश और विदेश की उच्छंृखल रूचियों के पोषण की वस्तु बनकर बिक रही है। आधुनिकता के विन्यास में अपनी पहचान खोकर ये कलाएँ एक बहुत समृद्ध परम्परा का विनाश कर रही हैं। उपन्यास की सरस्वती जैसी बुजुर्ग महिला कब तक प्रतिरोध कर पायेंगीं ? पूंजीवादी समाज में कला मानवीय संवेदनाओं से मूल्यांकित नहीं होती। वह सिर्फ उपभोग की वस्तु होती है। मैत्रेयी ने रजऊ को ईसुरी की कला कहा है, ऐसी कला जो किसी राजा या रजवाड़े की दासी नहीं हो सकती वह तो बगावत के लिये जन्म लेती है। कला अगन पारवी की तरह बार बार जिन्दा हो उठती है। कला आजादी की लड़ाई का हथियार है। इस कला के संरक्षण के लिए मुसाहिब जू तक कहते हैं- ’लोेक संगीत ही हमारा कुल देवता है। जन जन का जीवन इसमें ही बसा है।

मैत्रेयी जी का रचना फलक बहुत विशद होता है समय और समाज का भरा पूरा पन उनके उपन्यासों में संश्लिष्टता के साथ समाया रहता है। वे उस सत्य की तलाश में रहती हैं जो जीवन के साथ जुड़ा रहता है। जो मनुष्य के विकास में बदलाव के पक्षधर तत्त्व की भूमिका निभाता है। इस उपन्यास में भी संदर्भित समय का समाज शास्त्र है। ईसुरी 1857 के स्वाधीनता संग्राम के समकालीन थे मुसाहिबों और लम्बदारों के परिवेश में ईसुरी में मुक्ति संग्राम की चेतना अभिव्यक्त नहीं हुई तो उन पर यह बहुत बड़ा अभियोग नहीं है लेकिन इतनी बड़ी घटना उस समय के कथानक में उपेक्षित रह जाये यह अस्वाभाविक होता। खासतौर पर इसलिये क्योंकि उस समय उस क्षेत्र में देशपत दीवान अंग्रेजों के खिलाफ शक्तिशाली संगठन तैयार कर क्रान्तिरत थे। मैत्रेयी जी रजऊ और गंगिया को इस क्रांति के साथ जोड़कर उस समय का इतिहास भी लिखती हैं और रजऊ के चरित्र को बड़े आयाम में भी प्रस्तुत करती हैं, मन्दा और सारंग की तरह।

इस तरह व्यक्तिगत प्रेम से जीवन की सामाजिकता का सफर करता यह उपन्यास इकहरा न होकर बहुआयामी हो जाता है। वह सिर्फ अपने समय से हाँ में हाँ मिलाने वाला सम्वाद नहीं करता है बल्कि दृढ़ सोच और नैतिकता से टकराता हुआ रजऊ, गंगिया, मीरा, कोकिला, जैसी स्त्रियों के हक मांगता है।

कुछ लोगों द्वारा एक विचारणीय प्रश्न उठाया जाता है कि ईसुरी का व्यक्तित्व उपन्यास में पूरी तरह उभर कर नहीं आया। वे शायद रजऊ की तुलना में देखकर ऐसा सोचते हैं लेकिन उपन्यास में ईसुरी और रजऊ के चरित्र प्रतिद्वन्द्विता में है ही नहीं। प्राणों की पूरकता का यह युग्म प्रतिद्वन्द्वी हो ही नहीं सकता। मैत्रेयी तो स्त्री सशक्तीकरण की दृष्टि से और रजऊ को उपेक्षा के बीच से निकालकर बड़े अभिप्राय से जोड़ने की दृष्टि से उसे केन्द्र में लाती हैं। न ईसुरी रजऊ को भूल पाते हैं न रजऊ फगवारे को। उपन्यास में ईसुरी न तो उपेक्षित हैं न प्रतिपक्ष। ईसुरी ने फिरंगी शासन के चमचों को कभी अच्छा नहीं माना, अभावों और दबावों के बाबजूद भी नहीं मान पाए। .....जिन्दगी के चलते ही उन्होंने सोचा कि जहां कल मेमों के नाच होने वाले हैं, और साहब जगह जगह नाच घर बनाने वाले हैं। वहां वे फागों की ऐसी रंगोलियाँ रचेंगे कि फागें रची धरती खोदते हुए राज मजदूरों के हाथ थरथरा जायें। वे यह भी जानते थे कि उनके अभियान में पुरूषों की भूमिका दर्शक और श्रोता से ज्यादा नहीं होगी। हाँ स्त्रियां हिस्सेदारी निभा सकती हैं। यह हौसला उन्हें रजऊ ने दिया था सो वे आंखे मूंदकर भगवान से हर जगह एक रजऊ मांगते।

अपने अन्य उपन्यासों से अलग मैत्रेयी यहां शिल्प का अभिनव प्रयोग करती हैं। ईसुरी और रजऊ को लोक स्रोतों में खोजने के लिये शोध छात्रा ऋतु का जगह जगह भटकना और खोज के सिलसिले में अनेक संदर्भो का और अनेक कथाओं का मिलते जाना ईसुरी को ही पाना नहीं है बल्कि पूरे लोक जीवन को खोलना है। इतनी कथाओं और उनमें समाये इतने पात्रों के बाद भी यह मैत्रेयी जी का ही कौशल है कि उपन्यास की अपने केन्द्रीयता और एकान्विति सुरक्षित है। ईसुरी रजऊ के प्रेम जीवन की खोज दरअसल ऋतु माधव के अपने जीवन का ही प्रतिबिम्ब है। अन्त में एक जैसा - उधर ईसुरी और रजऊ का मिलनहीन अन्त और इधर ऋतु और माधव के अलग रास्ते।

मैत्रेयी के शिल्प में केन्द्राभिसारी बल की प्रमुख भूमिका है। जब कभी वह केन्द्रापसारी बल का प्रयोग करती हैं तब भी बाहर नहीं चली जातीं बल्कि परिधि का विस्तार ही करती हैं जिस पर हर बिन्दुं केन्द्र से समान दूरी पर होता है।

कही ईसुरी फाग के शिल्प का एक आकर्षण और भी है। ईसुरी-रजऊ के समय का अतीत भूतकाल की तरह वर्णित नहीं है। वर्तमान के पात्रों की स्मृति उस अतीत को पुनः प्रस्तुत करती है। यह वर्तमान अतीत का वंशज तो है ही, दोनों पीढ़ियां साथ साथ रहती सी भी लगती हैं। अतीत और वर्तमान के इस रिश्ते के रूप में ही ऋतु रजऊ में अपने व्यक्तित्व का अंतरण महसूस करती रहती है।

यह उपन्यास ईसुरी-रजऊ के आख्यान के बहाने लोक जीवन और जीवन से जुड़े सवालों के उत्तरों की खोज है।

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