क्रांति चेतना के कवि कबीर
कबीर के अप्रतिम व्यक्तित्व और मूल्यप्रेरित काव्य का समग्र और सही विश्लेषण करने वाले विद्वान् हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है कि हिन्दी साहित्य के हजार वर्षों के इतिहास में कबीर जैसा व्यक्तित्व लेकर कोई लेखक पैदा नहीं हुआ। यह असाधारणता उनके व्यक्तित्व और काव्य दोनों का गुण है। जैसा विलक्षण और प्रखर उनका व्यक्तित्व है वैसा ही सत्यान्वेषी उनका काव्य है। मुक्ति की भावनापूर्ण भूमि पर स्थित होते हुए भी वह विवेक और विचार से निरन्तर सचेत है। यह कबीर के जीवन की आश्चर्यजनक महत्ता है कि जहाँ जीवनोचित स्थितियों के निषेध और सामाजिक स्वीकृतियों की उपेक्षा से सामान्य मनुष्य कंुठित, असामान्य और हीनता बोध से ग्रस्त हो जाता है वहीं कबीर ने विषम परिस्थितियों में भी अदम्य आत्म विश्वास तथाकथित ज्ञानियों को भी निरूत्तर कर देने वाली अनुभूत ज्ञान और निर्भीकता अर्जित की। मसि, कागज और कलम के अवसरों से वंचित इस संत कवि की साधना में सत्य से सीधा साक्षात्कार है। कबीर का सत्य दार्शनिकों के सत्य की तरह जटिल बुद्धि-विलास नहीं है बल्कि कथनी और करनी की एकता प्रतिपादित करने वाला जीवनानुभव है।
कबीर की क्रान्ति चेतना न तो व्यक्तिगत जीवन की प्रतिक्रिया है न मठ स्थापना की महत्त्वाकांक्षा। उसमें किसी युगान्तरकारी व्यक्ति की वह व्यापक कल्याण भावना है जिसके अंतर्गत वह वर्तमान की विसंगतियों से विक्षुब्ध होकर नये निर्माण की अनिवार्यता से प्रेरित होता है। कबीर अपने समय के सबसे बड़े समीक्षक थे। उन्होंने देखा कि आध्यात्मिकता के क्षेत्र में बड़ी साधनाओं और उपासनाओं की परिणति बाह्याचार और पाखण्ड में हुई है। विभिन्न पक्षों, सम्प्रदायों और धर्मों के तथाकथित पण्डित, योगी, मौलवी, मिथ्याचार में रत दंभी और भ्रमित हैं। सत्य के मार्ग से स्वयं भटके हुये ये लोग दूसरों का मार्गदर्शन कैसे कर सकते हैं ? कबीर इन सभी विसंगतियों पर निर्भीकता के साथ प्रबल और अकाट्य तर्को से प्रहार करते हैं। बाह्याचार और पाखण्ड का उपहास करने वाले उनके व्यंग्य आक्रामक होते हुए भी इतने सटीक और सच है कि उनका विरोधी पक्ष बनता ही नहीं है। उनकी उक्तियों में अहंकार नहीं है बल्कि गलत का विरोध करने का असाधारण साहस है। ऐसा साहस प्रायोजित नहीं होता इस साहस के लिये अपना घर जलाकर लुकाठी लेकर निकल पड़ने और अपना सिर उतार कर रख देने का निःस्पृह फक्कड़पन आवश्यक है।
यह फक्कड़पन सत्य की पक्षधरता, अदम्य आत्म विश्वास और निर्भीक निर्ममता क्रान्तिकारी चेतना के अनिवार्य तत्त्व हैं। कबीर के व्यक्तित्व में इन सबका मिश्रण है। क्रान्ति न तो सुविधाजनक समझौता है न टूट फूट की आंशिक मरम्मत। क्रान्ति जड़ता और अनाचार के प्रति असह्यता की भावना से उत्पन्न नयी रचना की संकल्पना है। विसंगतियों के निवारण में कबीर इसीलिये समझौता नहीं करते। जब सुधार की संभावना नहीं रह जाती है तब बदलाव जरूरी हो जाता है।
कबीर की क्रांति चेतना के विवेचन में प्रायः उनके उस पक्ष के ही उदाहरण दिये जाते है जो पाखण्ड और बाह्यचार विरोधी है, कबीर की क्रांति चेतना का यह रूप तो है ही और वह प्रबल भी है, किन्तु उनकी मौलिक वैचारिकता की क्रांतिधर्मिता यहीं तक सीमित नहीं है, उनके अधिकतर प्रस्थान नये आरंभ है।
द्विवेदी ने लिखा है कि जो दुनियादार किये कराये का लेखा जोखा दुरूस्त रखता है वह मस्त नहीं हो सकता। जो अतीत का चिट्ठा खोले रहता है वह भविष्य का द्रान्तदर्शी नहीं बन सकता। अतीत गुज़रा हुआ निरपेक्ष कालखण्ड नहीं है। रूढ़ियों के रूप में निरर्थक हो जाने के बाद भी यदि वह हमारी चेतना में सम्मान्नीय रहकर हमारे जीवन को परिचालित करता रहता है तो वह अतीत न होकर निरन्तर वर्तमान बना रहता है। अतीत मुक्ति क्रांति की देहरी है। कबीर न अतीत से मुग्ध हैं न आतंकित। परीक्षण और अनुभव को आधार मानने वाला व्यक्ति अतीत का अन्धानुसरण कर भी नहीं सकता। उनका ब्रह्म निराकार, निर्गुण है किन्तु प्रेमपूर्ण भक्ति से वह अनुभव गम्य है। पूर्व प्रचलित साधना पद्धतियों की जटिलता और शुष्कता की जगह उन्होने भावना पूर्ण भक्ति को अवलम्ब माना। भावनात्मकता के इस निक्षेप से हृदय की निर्मलता, सरलता और शुचिता का स्वाभाविक आसंग हो गया। हार्दिकता और बौद्धिकता के संयोग से परिपूर्णता आ जाती है। इसलिये कबीर ज्ञान और प्रेम का अद्भुत संयोग करते है।
कबीर ने प्रचलित मान्यताओं से प्रस्थान करते हुये यह भी सिद्ध किया कि परमात्मा की प्राप्ति के लिये वैराग्य धारण आवश्यक नहीं है। गृहस्थ के रूप में व्यक्ति का सांसारिक कर्तव्य है, यह भी उसका धर्म है । कबीर गृहस्थ रहे, जीवन यापन के लिये कपड़ा बुनते और बेचते रहे तथा गंभीर आध्यात्मिक तत्त्वज्ञान की काव्यात्मक अभिव्यक्ति करते रहे। कोई आध्यात्मिकता या कोई पारलौकिकता ऐसी नहीं होती जिसमें लौकिकता से सर्वथा विच्छिन्नता हो। संसार हमारे साथ हमेशा रहता है। मुक्ति भी संसार में ही होती है संसार से नहीं। ‘घर में जोग भोग घर ही में घर तज वन नहिं जावे, घर में जुक्त युक्त घर ही में जो गुरू अलख लखावें।’
कबीर ने ऐसी ही समसाधना की थी। यही उनकी सहज-साधना थी। ऐवलिन अंडरहिल ने कबीर की सार्थक समीक्षा करते हुए लिखा है कि वे उस आत्मविस्मृतिकारी परम उल्लासमय साक्षात्कार के समय भी दैनन्दिन व्यवहार की दुनिया को छोड़ नहीं जाते और साधारण मानव जीवन को भुला नहीं देते। उनके पैर मजबूती के साथ धरती पर जमे रहते हैं । कबीर की मूल प्रतिबद्धता इसी जगत और उसके जीवन से है। निर्गुण की साधना इसी जीवन को निश्छल और उच्चतर बनाने के लिये एक उदात्त साधन है।
कबीर का विश्वास आंखों देखे सत्य पर है, कागज पर लिखे हुए की अंधभक्ति पर नहीं ‘‘मैं कहता हूँ आंखिन देखी तू कहता कागज की लेखी।’’ शास्त्रों के प्रति कबीर की यह अस्वीकृति इसलिये नहीं है कि निरक्षर होने के कारण उन्हें शास्त्र पढ़ने का अवसर नहीं मिला था। यदि मिला होता तो वह संभवतः शास्त्रों की आलोचना उदाहरणों के साथ और अधिक करते। वेद और शास्त्रों के प्रति कबीर का अस्वीकार इसलिये था क्योंकि शास्त्र मार्ग का आशय है एक बंधी बंधायी ऐसी अपरिवर्तित परिपाटी जिसके बारे में कोई प्रश्न नहीं किया जा सकता जिसकी समीक्षा नहीं की जा सकती। शास्त्र यथास्थिति का आदेश देते हैं। प्रचलित रूढ़ मूल्यों को चुनौती देने वाले क्रान्ति चेता कबीर इसलिये शास्त्रों के आलोचक है। वह यह भी जानते है कि शास्त्र ग्रंथ अनुभूत और परीक्षित जीवन-सत्य नहीं है। शास्त्र कोरे बौद्धिक ज्ञान के प्रतीक हैें और ऐसा ज्ञान अनुभूति का सहयात्री नहीं हो सकता। पण्डित्य का कबीर पर आतंक नहीं है क्योंकि वह जानते हैं कि वास्तविक पाण्डित्य प्रेम के ढाई अक्षरों की अनुभूति में है, पोथियों को पढ़ लेने में नहीं। वह कहते हैं-
गगन गरजे तहां सदा पावस झरे होत झनकार नित बजत तूरा
वेद कत्तेब की गम्म नाहीं तहां कहे कबीर कोह रमै सूरा
कबीर की क्रान्ति चेतना पूरे आक्रोश के साथ धार्मिक आडम्बर और निरर्थक बाह्याचार के प्रत्याख्यान में व्यक्त हुई है। यहां उनकी सामाजिक भूमिका अधिक स्पष्ट और प्रत्यक्ष है। कबीर ने देखा कि विभिन्न सम्प्रदाओं और धर्मांे के लोग कर्मकाण्ड में ही लिप्त है, जबकि कर्मकाण्ड तो भावना रहित जड़ क्रिया है। यही नहीं विभिन्न धर्मांे के लोगों ने पूरे जगत में व्याप्त एक ब्रह्म को अलग-अलग नाम रूपों में विभाजित कर लिया है। इससे सामाजिक स्तर के भेद उत्पन्न हो गये हैं। मूर्ति पूजा, तीर्थ, व्रत, स्नान, जप, माला, वेष सभी व्यर्थ हैं, भक्ति में इन प्रसाधनों की आवश्यकता ही नहीं है।
‘अरे इन दोउन राह न पाई ’ वाले प्रसिद्ध पद में कबीर हिन्दू और मुसलमान दोनों को उनके अज्ञान के कारण खुल कर धिक्कारते हैं। ऐसी तटस्थता से बुराई की आलोचना वही कर सकता है जिसकी दृष्टि मानवतावादी है। मनुष्य के लिये सबसे जरूरी भाव है करूणा।
हिन्दू की दया मेहर तुरूकन की दोनों घट सो त्यागी
वे हलाल ये झटके मारे आगि दुना घर लागी
जो खोदाय मसजीद बसतु है और मुलुक केहि केरा
तीरथ मूरत राम निवासी बाहर काहे को हेरा
दिल में खोज दिलहि मैं खौजो रहे करीमारामा
सिर मुंडाने से पत्थर पूजने से, माला फेरने से ऊँची आवाज में परमात्मा को पुकारने से ही यदि उसकी उपलब्धि हो जाती तो यह बहुत सरल उपाय है। इसलिये कबीर ने योगियों को भी उनके बाह्याचार के लिये फटकारा है--
मन न रंगाये रंगाये जोगी कपड़ा
दाढ़ी बढ़ाय जोगी होई गेले बकरा।
इस पाखण्ड की निन्दा करते समय कबीर की चिन्ता केवल आध्यात्मिक नहीं है बल्कि वह समाज के लौकिक जीवन के भ्रष्टाचार से भी चिन्तित हैं, उसके विखण्डित होते स्वरूप से भी दुखी हैं। जाति और जन्म संयोग से मनुष्य का निर्धारण और विभाजन किसी भी तर्क से उचित नहीं है, फिर कबीर तो अपनी अक्खड़ता में सीधे जैविक जनन का ही तर्क रख देते हैं।
क्रांतिचेता कबीर की मूल्य दृष्टि का एक और महत्त्वपूर्ण पक्ष है। उन्होंने कविता को कलागत मूल्यपरकता और प्रशस्ति से निकालकर उसे मानवीय प्रतिबद्धता से जोड़ा। अपने देशकाल के संदर्भो में कबीर ने कविता के प्रयोजन को व्यापक बनाया। भक्ति का विषय भले ही वैयक्तिक हो और उसका फलक आत्मिक हो किन्तु इस भक्ति के स्वरूप में जाति, वर्ण, कुल ऊँच नीच के भेदों के ऊपर एक समान समाज के मनुष्य की कल्पना है। इस मनुष्य के कल्याण की चिन्ता ही कबीर की प्रतिबद्धता है। कविता करना कबीर का उद्देश्य नहीं था। जब तुलसीदास जैसा शास्त्रज्ञ भी व्यापक लक्ष्य के सामने कवित्व को गौण मानता है तो कबीर तो कविता के शास्त्र से वैसे भी अनभिज्ञ थे, कबीर खुद कहते हैं-
‘तुम जिन जानौ गीत है यह निज ब्र्रह्म विचार।’
फिर भी कबीर की कविता में काव्य का प्रभावपूर्ण, मार्मिक, व्यंजनापूर्ण और सशक्त रूप दिखायी देता है।
भाषा के प्रयोग में भी कबीर परम्परामुक्त है। उन्होंने भाषा ग्रंथों से नही सीखी थी। व्यापक समाज जिस भाषा को समझता है, जिसका प्रयोग करता है, कबीर ने उसी भाषा का उपयोग किया था। कबीर की कविता में भाषा का प्रवहमान और अन्तर्क्षेत्रीय रूप अपनी पूरी शक्ति के साथ उपस्थित है। कबीर सत्य की अभिव्यक्ति के लिये जिस भाषा का प्रयोग करते हैं उसमें आवश्यकतानुसार उनका ही अनुशासन चलता है। हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है-कि भाषा पर कबीर का जबरदस्त अधिकार था वे वाणी के डिक्टेटर थे जिस बात को उन्होंने जिस रूप में प्रकट करना चाहा है उसे उसी रूप में भाषा से कहलवा लिया....भाषा कुछ कबीर के सामने लाचार सी नजर आती है।
इस प्रकार कबीर उन सभी स्थापित मूल्यों का विरोध करते हैं जिनकी अर्थवत्ता सभी के ििलये न होकर वर्ग विशेष के लिये हैं। उनका विरोध सभी प्रकार की शास्त्रीयता से है क्योंकि शास्त्रीयता परिवर्तन की सभी सम्भावनाओं और आवश्यकताओं के दरवाजे बन्द कर देती है।
कबीर का कथ्य बौद्धिक व्यक्ति का अनुभूतिशूण्य तर्कजाल नहीं है। वह यदि जाति भेद, ऊँच नीच छूआछूत या साम्प्रदायिक वैषम्य पर चोट करते है तो वह उनका अपना स्वयं का अनुभव होता है। कबीर को ही साम्प्रदायिक एकता की अवधारणा का पुरोधा माना जायेगा। यहां भी कबीर की अपनी क्रान्तिकारी थीसिस है। वह समझते हैं कि साम्प्रदायिक रूढ़ियों और उन्हें श्रेष्ठ मानना ही कट्टरता को जन्म देता है। यह सत्य है कि सबकी विशेषताओं को रख कर मानव मिलन की साधारण भूमिका नहीं तैयार की जा सकती। जाति, धर्म, सम्प्रदाय आदि की अधिकतर विशेषताओं को छिन्न करके ही वह आसन बनाया जा सकता है जहां एक मनुष्य दूसरे से मनुष्य की हैसियत से मिल सके।
कबीर सचमुच महान् मानववादी विचारक और कवि थे और वह भी वेहद विषम परिस्थितियों में ।
-0-