मुख़बिर - 31 - अंतिम भाग राज बोहरे द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

मुख़बिर - 31 - अंतिम भाग

मुख़बिर

राजनारायण बोहरे

(31)

कृपाराम के मुखबिर

हेतमसिंह बताता है कि इगलैंड से ख़ास तरह की तालीम लेकर आये पुलिस के एक आई जी को इस अंचल में डाकू समस्या को निपटाने का काम सोंपा गया तो उनने पुलिस विभाग की एक आम सभा आयोजित की थी, जिसमें दीवान से लेकर डीआईजी तक की रैंक के पुलिसिया लोग सम्मिलित हुए थे । हर आदमी से सुझाव मांगे गये-आप लोग अपनी अपनी अकल से बताओ कि कृपारम गिरोह को कैसे खत्म किया जा सकता है?

हेतम बताता है कि हर आदमी ने अपने अपने सुझाव दिये, लेकिन यह तो दिखावा था, किसी को छोटे कर्मचारियों की बात भला कब मानना थी ! योजना वही अमल में आई जो विदेश से लौटे आईजी ने पहले से बना रखी थी-कृपाराम गिरोह को जड़ से मिटाने के लिए ये बहुत जरूरी है कि उसके किसी साथी को संग लेकर उन सब जगह पर धावा बोल दिया जाये जहां उसके होने की संभावना हो सकती है ।

महीना भर का समय दिया गया कि दरोगा लोग ऐसा कोई आदमी पकड़ के लायेंगे जो पहले कभी डाकू रहा हो ! लेकिन सब असफल रहे, अगले महीने की बैठक में ऐलान किया गया था कि डाकू नही मिल रहे तो अब उन आदमियों को तलाश करना है जो कभी खुद इसी इलाके में डाकू रहे है और जिनने आत्मसमर्पण कर दिया है या ऐसे लोग जो कृपाराम गिरोह की पकड़ में लम्बे समय तक रहे हों और जिनने उसके छिपने की हर जगह देख रखी हो, कृपाराम के हर मुखबिर से जो कभी न कभी मिल चुके हों ।

हेतम ने फुसफुसाते हुए बताया था कि सबसे ल्यादा लम्बे समय तक यानी कि तीन महीना तक सिर्फ हम लोग कृपाराम गिरोह के साथ रहे थे सो करम के मारे हम ही इस उलझन में बींध गये थे कि पुलिस के संग-संग बीहड़ों की खाक छानते फिरें ।

मुझको लगता है कि काश हम देानों बागियों का समर्पण देखने न जाते! काश हम लोग बागियों की शिनाख्त न करते । काश, हम अदालत में जाकर भी अपनी शिनाख़्ती से मुकर जाते । कितने सारे काश हैं हमारे सामने ।

लगातार भय ही भय लगता रहता है हमको इन दिनों ।

कई बार तो ये लगता है कि जिस क्षण डाकू सामने आयेंगे, तब इसके पहले कि वे गोली चलायें, शायद भय के कारण हार्ट अटैक से ही मर जायेंगे मैं और लल्ला पंडित !

एस ए एफ का लेफ्टीनेंट सिन्हा कहता है -‘‘ वे लोग तो किसी न किसी दिन मारे ही जायेंगे, यानी कि जिस दिन हमारे हाथ लग गये, उसी दिन या फिर किसी दुष्मन के हाथों से मर जायेेंगेे, बकरे की मां कब तक खैर मनायेंगी । तुम काहे को हलकान होते हो! निश्चिंत रहो, अगले दो चार दिन में हम किसी भी क्षण उन सबको मार गिरायेंगे ।‘‘

लल्ला पंडित मन ही मन प्रार्थना करता है कि सिन्हा की बात सच हो ।

मेरे मन में तमाम शंकायें हैं - एरिया के तमाम गांवों के लोगों से गिरोह के संबंधों को लेकर ! हम दोनों यह मानते है कि अब तोे हम लोग सिर पर कफन बांध कर घूम रहे हैं, केवल इस खुशफहमी में कि कहीं न कहीं हम बुराई को मिटाने वाली सेना के साथ निकले है -जो भी परिणाम आयेगा देखा जायेगा । हमारे चम्बल में खटिया गोढ़ने से ज्यादा अच्छी मौत आमने-सामने की भिड़ंत में हई मौत को माना जाता है, आल्हखंड में लिखा है-

खटिया पड़िके जो मर जैहो कोई नाम ना लेवनहार ।

रण चढ़के जो मरे सूरमा, होवे जनम-जनम जैकार ।।

लल्ला पंडित इन दिनों गीता का एक श्लोक प्रायः गुनगुनाते रहते हैं, जैसे हम संसारी नर पुराना कपड़ा त्याग कर नया कपड़ा धारण कर लेते है, वैसे ही आत्मा पुराना शरीर त्याग कर नया शरीर धारण करती है-

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय

नवानि गृह्नाति नरोेपराणि

तथा शरीराणि विहाय जीर्णा-

न्यन्यानि संयाति नवानि देही

(उप) संहार

पुलिस दल में से प्रायः लोग छुटटी लेकर घर जाया करते थे, लेकिन हमको वे लोग जाने क्यों वहां से लौटने नहीं दे रहे थे ।

घर से खबर आई कि अम्मां की तबियत खराब है, सो बड़ी हाथा-जोड़ी करके मुझे सात दिन को घर आने की मुहलत मिली । मै चला तो लल्ला पंडित रूआंसे हो उठे । मैंने रघुवंशी से उन्हे भी मेरे साथ भेजने का निहोरा किया लेकिन वो न माना । मजबूरन मैं अकेला चला आया ।

संग साथ रहने की आदत पड़ गई है सो मुझे लल्ला पंडित के बिना यहां गांव में अच्छा नहीं लग रहा, रह-रह के उनकी याद आ रही थी । गांव में आये दो ही दिन हुए थे कि एक रात सपने में वे गंदे-फटे कपड़ों में रोते-भटकते नजर आये मुझे । सुबह उठा तो दिन भर बुरा-बुरा लगता रहा ।

आज सुबह की बात है, मुझे अखबार में एक सनसनीखेज खबर पढ़ने को मिली, और तब से मैं स्तब्ध हूं। खबर पढ़ते ही मुझे लगा था कि पेट में जाड़ा घुस रहा है, वो जाड़ा बरफ बन कर पेट में जम गया है । मन में तमाम तरह के विचार आ रहे हैं, बहुत सी शंकायें हैं । मूल समाचार इस प्रकार छपा है-

डाकुओं से मुठभेड़: चार मरे एक घायल

मुड़कट्टा का हार चम्बल ( रविवार) 14 मार्च

पुलिस कार्यालय से मिली जानकारी मुताबिक गत रात पुलिस के खोजी दल और डाकू कृपाराम घोसी गिरोह की आमने-सामने हुई भिढ़न्त में चार आदमी मारे गये और एक जवान घायल हुआ। पुलिस के बड़े अधिकारी एनकाउंटर वाली जगह के लिए रवाना हो गये हैं । विस्तृत जानकारी उनके लौटने के बाद ही पता चलेगी ।

बताया जाता है कि कृपाराम की खोज में चलाये जा रहे पुलिस के विषेष अभियान ‘ऑपरेषन सर्च‘ की टीम नम्बर सोलह का सामना कल रात एकाएक कृपाराम गिरोह से हो गया । जब तक पुलिस दल सचेत होता, डाकुओं ने अंधाधंध गोली बरसाना शुरू कर दिया । लगभग दो घण्टे तक चली इस गोली बारी में पुलिस का एक जवान शहीद हुआ है, तथा दो डाकू मारे गये हैं । इन तीनों के अलावा एक अज्ञात सिविलियन भी इस गोलीबारी में मारा गया है। यह पता नहीं चला कि यह सिविलियन डाकुओं के साथ था, या पुलिस दल के साथ ! सवाल उठता है कि यह आदमी यदि पुलिसदल के साथ था तो जंगल गश्त के वक्त वहां क्या कर रहा था ? और डाकुओं के साथ था, तो यह उनका साथी था या कोर्इ्र अपहृत, या अभागा सामान्य राहगीर था, जो दो पाटों के बीच में फंस गया और वहां से भाग नहीं सका । ऐसे तमाम उलझे हुए से सवाल अभी सुलझना बाकी हैं जिनके जवाब आते ही कई बातें दूध की दूध और पानी के पानी की तरह साफ-साफ सामने आयेगी, क्योंकि कहने वाले लोग मृतक व्यक्ति के बारे मंे बहुत कुछ बातें कह रहे है।

अभी तो पुलिस अधिकारियों का केवल इतना कहना है कि जंगल में गश्त कर रही एडी टीम नम्बर सोलह ने अंधेरे में अचानक ही अपने ऊपर गोलीबारी होती देखी तो उन्हे भी आत्मरक्षार्थ गोली चलाना पड़ी । अपने को घिरा देखकर अंधेरे में डाकुओं ने ज्यों ही मौका पाया वे अपने एक साथी की लाश छोड़कर बीहड़ में भाग गये । सुबह होने पर जब पुलिस ने तलाशी ली तो उसे दो पुलिसमैन, एक डाकू और एक अज्ञात सिविलियन की लाश पड़ी हुई मिली । सिविलियन की लाश पाकर पुलिस हैरान है। छोटे स्तर के अधिकारियों ने मृतक नगरिक की पहचान से साफ इन्कार किया है, इस मामले में बड़े अधिकारियों के घटनास्थल से लौटने के बाद ही स्थिति स्पष्ट हो पायेगी।

लल्ला पंडित की घरवाली कल रात ही हमारे घर आई थी और मुझसे पूछ रही थी कि जैसे मैं छुट्टी पर आ गया, लल्ला पंडित कब आयेंगे ?

मैंने उसे पूरा आश्वस्त किया था कि मेरे पहुंचते ही लल्ला वहंा से चल देंगे ।

अखबार पढ़के मैं डर रहा हूं कि यदि वह आज फिर मेरे पास आ कर इस खबर का मतलब पूछने लगी तो मैं उसे क्या बताऊंगा ?

मैं मन ही मन प्रार्थनाऐं कर रहा हूं कि वह हमारे घर न आये ! अखबार में छपी खबर झूठी हो ! मरने वाला लल्ला पंडित न हो, कोई और मुख़बिर हो ! मुख़बिर का क्या है, उसकी तो मौत निश्चित होती है, अगर पोल खुल गई तो सामने वाला पक्ष तुरंत ही निपटा देता है, और डाकू चटकवा दिया, फिर पोल खुली तो डाकू के उत्तराधिकारी । कभी-कभार संयोग ऐसा हो कि रहस्य कभी न खुल पाये तो फिर वो अमर-अजर, लेकिन पुलिस के रिकॉर्ड में सदा मौजूद, जब तक कि कंडा न डल जायें मरघटा में, इलाके में कोई भी वारदात हो मुखबिर सबसे पहले तलब। मुझे यकायक लगा कि मै और लल्ला पंडित क्या है ? मुखबिर ही न ! या कोई दूसरे खबरची, जिनके लिए अभी चम्बल घाटी में कोई नाम नहीं तलाशा गया । चम्बल घाटी क्या पुलिस शब्दावली में भी शायद हम जैसों के लिए कोई शीर्षक मुकर्रिर नहीं हुआ है अब तक ।

मै लल्ला पंडित की लम्बी उम्र के लिए प्रार्थना कर रहा हूं इन दिनों-हर पल, हर छिन । मेरे होंठों पर लल्ला पंडित का प्रिय श्लोक गूंजता रहता है सदा-

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय

नवानि गृहणाति नरोेपराणि

तथा शरीराणि विहाय जीर्णा

न्यन्यानि संयाति नवानि देही

समाप्त