मुख़बिर - 3 राज बोहरे द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

मुख़बिर - 3

मुख़बिर

राजनारायण बोहरे

(3)

पुलिस मुखबिर

इलाके का दरोगा आया तो यह खबर सच साबित हुई कि गणेश पुलिस मुखबिर था । दोनों दरोगाओं की आपसी सलाह हुई और दोनों ने उपलब्ध पुलिस बल के साथ तुरत-फुरत गांव के घोसी-गड़रिया जाति के घरों पर दबिस डाल दी । उन परिवारों के सारे मर्द घरों से बाहर थे, पूछने पर औरतों ने बताया कि मवेशी चराने हार में गये हैं । रघुवंशी का माथा ठनका ।

इलाके का दरोगा एक अन्य मुखबिर से मिलके सही बात जानने की गरज से वहां से चला तो रघुवंशी ने गणेश की लाश का पंचनामा बनाने की कार्यवाही शुरू की ।

आधा घंटे बाद दरोगा लौटा था तो एक नई सूचना उसके पास थी- बागी लोग ज्यादा दूर नही है, बस तीन किलोमीटर दूर की एक पहाड़ी पर डेरे जमाये पड़े हैं। रात की वारदात उनने ही करी है । अगर चाहें तो हम घण्टे भर में ही उन्हें घेर सकते हैं ।

मैंने अनुभव किया था कि यह खबर सुनकर दरोगाओं को छोड़कर सारे छोटे कर्मचारियों के चेहरे उतर गये। हेतम तो बाकायदा बहस पर उतर आया-अपुन इतने से आदिमी हैं, बताओ भला कहा लेंगे बागियों का ! उनिने कहूं गोली चलाय दई तो अपुन का लेंग्गे उनको ? कप्तान को खबर करके कुमुक बुलबाइ लो दरोगा जी !

लेकिन रघुवंशी नही रूका था, उसने हमको कूच का हुकम दे दिया ।

इस पहाड़ी को लक्ष्य मान कर हम लोग दोपहर बारह बजे वहां से चले थे और इतनी मेहनत के बाद पहाड़ी के ऊपर पहुंच कर पुराने कपड़ों से ठुंसा वह थैला मात्र बरामद कर सके थे ।

पहाड़ी की तलहटी में पहुंच कर पुलिस डॉग सदा की तरह भ्रम में फंस गये थे और अपनी थूथनी उठाये चारों ओर कुछ सूंघने का उपक्रम कर रहे थे। रघुवंशी अब हताश-सा खड़ा था । कुछ देर पहले औचक ही बंध गयी आशा अब निराशा में तब्दील हो गयी थी ।

छोटा दरोगा जाने किसको गालियां देने लगा था-‘‘ हरामी साले, कुत्ते की औलाद़, चोट्टे है पूरे ! ‘‘

श्यामबाबू बागी भी प्रायः ऐसे ही बिना कारण और बिना लक्ष्य के गालियां बका करता था।

गालियां ही नहीं, बाकी का सारा व्यवहार भी एक जैसा अनुभव किया है हमने - इनका और उनका ।

इस टीम में शामिल होकर हम टीम के इंचार्ज इसपेक्टर रघुवंशी के सामने आये थे, तो इसने छूटते ही अक्खड़ अंदाज में मुझसे पूछा था -‘‘क्या नाम है रे तेरा ? ‘‘

‘‘ साब मेयो नाम गिरराज है !‘‘

‘‘ अबे गिरराज के आगे-पीछे भी तो कुछ लगाता होगा ।‘‘

‘‘ गिरराज किशोर !‘‘

‘‘ अबे भोषड़ी वाले, सीधे काहे नहीं बता रहा कि कौन बिरादरी है तू ?‘‘

मैं खाई में गिरा था जैसे, फिर संभल कर बोला था-‘‘मैं कायस्थ हूं दरोगाजी !‘‘

‘‘ और ये दूसरा हुड़कचुल्लू कौन जात है ?‘‘

‘‘ ये पंडित है-पंडित लल्ला !‘‘

‘‘ हुं ! ‘‘ लम्बा हुंकारा गुंजाते हुए रघुवंशी ने सिर हिलाया था, और मैं इस उलटबांसी को बूझने लगा था कि इन खाकी वरदी वालों को बिरादरी से क्या मतलब ? वरदी का मतलब ही ये मानता हॅू मै कि इसे पहनकर हर आदमी अपनी पहचान भूल जाये, सब एक से दिखें ।

बागी कृपाराम ने भी इसने छूटते ही अक्खड़ अंदाज में ऐसे ही जाति का आधार लेकर पूछताछ शुरू की थी -‘‘ अब जल्दी करो सिग लोग । अपयीं-अपयीं बिरादरी बताओ सबते पहले ।‘‘

तब बस की भयभीत सवारियां अपना नाम न बताके जातियां बताने लगीं थीं । बस में आदमी नहीं थे -सिर्फ जातियां थीं !

मैंने अनुभव किया था कि जहां कुछ देर पहले बागियों के भय से थर-थर कांपते हुए हम लोग परस्पर निकट रिश्तेदार और एक परिवार के सदस्यों की तरह लग रहे थे, वहीं बागी ने जाति पूछी तो क्षण भर में कितने बंटे हुए और अलग-अलग से लगने लगे थे सब के सब। जाति का कितना गहरा रंग जमा है हम सब पर, यह प्रत्यक्ष देखा मैंने उस दिन ।

अचंभे की बात ये थी कि ज्यों ही बागी की विरादरी का पता लगा था त्यों ही हम सबका जाति बताने का अंदाज बिलकुल बदल गया था ।

उस वक्त बस का माहौल देख कर एकाएक मुझे लगा था कि जमाना सचमुच बदल गया है, जहां बरसों पहले, ब्राह्मन-ठाकुर जैसी विरादरी बताते वक्त हर आदमी अपनी छाती तान लेता था, वहीं अब उल्टा है, अब दीगर जातियों के लोग छाती तानते हैं अपनी । बस में जितने भी बड़ी जाति के लोग थे सबसे पहले वे ही भयभीत हो उठे थे यकायक । हरेक को लग रहा था कि इधर उसने जाति बताई, उधर बागी दन्न से उसके सीने में गोली उतार देगा ।

तब क्षण के एक छोटे से हिस्से में ही मुझको अपने बच्चे, जवान-जहान पत्नी और बूढ़े बाप-महतारी के चेहरे याद आ गये थे । विचार आया.... अगर अचानक मैं यहां खेत रहा तो उन सबका क्या होगा ? इस प्रश्न का उत्तर मुझे ढूढ़ं-ढूढ़े नहीं मिल रहा था ।

पुलिस-जवान थक के चूर हो चुके थे, सो साफ-सुथरी जमीन देखकर वे एक-एक करके नीचे बैठने लगे। मैं और लल्ला तो बैठते-बैठते धरती पर पसर ही गये । तीन बजने को थे, हम दोनों अपनी आंतों में उठती एक अजीब सी ऐंठन से परेशान हो चले थे-भूख बर्दाश्त से बाहर होने लगी थी । इस ऊंची-नीची बीहड़ जमीन में लगातार कई दिन से चलते रहने के कारण बदन में खून की जगह थकान दौड़ती महसूस हो रही थी हमे । लग रहा था कि सुविधा मिली और हम कहीं सो गये तो महीना भर तक नहीं जग पायेंगे ।

लल्ला ने चिरौरी की -‘‘साब, भूखि लग रई है ।‘‘

‘‘चिंता मत करो, आधा घंटा धीरज धरो । बस ये सामने की पहाड़ी पार करना है, उधर घाटी के गांव में अपन को खाना मिलेगा‘‘ नक्शा फैला के बैठा बड़ा दरोगा रघुवंशी कुछ झुंझला उठा था-‘‘ अब जंगल में इतना तो धीरज रखा करो यार! तुम भोषड़ी के बस, लुगाइयों की नाई मिमियाते हो ।‘‘

‘आधा घण्टा ! यानी कि तीस मिनट !! और फिर घड़ी देखके कौन चलेगा, आधा घंटे का पौन घण्टा भी हो सकता है । लगता है आज तो कंडा डल जायेगे ।‘ मेरे कान में फुसफुसाते लल्ला को फिर से रोना आ गया था ।

हमको उदास होते देख रघुवंशी मुस्कराया । नक्शा समेटते हुए होंठ टेड़े कर उसने हम पर व्यंग्य का कोड़ा फटकारा-‘‘तुम दोनों तो ऐसे नखरे करते हो यार, , जैसे किसी की बारात में आये होओ, …पहले नब्बै दिन बागियों की पकड़ में रहे थे तब भी तो ऐसे ही भटके होगे न ! उन हरामियों को टैम-टेबिल से कहां से खाना मिल पाता होगा! ये तो बताओ कि कौन-कौन आदमी खाना पहुंचाता था ? ‘‘ बोलते-बोलते उसके चेहरे पर मनुष्य की जगह किसी दरिंदे का क्रूर चेहरा उगता दिख रहा था।

‘‘तब तो आदित परि गयी हती साब, देर-सबेर खायबे मिलही जातु हतो‘‘ लल्ला बोला । खाना पहुंचाने वालों के नाम वह जानबूझ कर गोल कर गया ।

‘‘साब, बागियों के डरि से भूखि-प्यासि तो जाने किते बिलाय गयी थी तब।‘‘ मेरी हिम्मत बढ़ी तो मैंने भी स्पष्टीकरण सा दिया ।

दस मिनिट तक बिश्राम रहा, फिर एकाएक बड़ा दरोगा रघुवंशी उठ खड़ा हुआ । उसके पीछे-पीछे उनकी पूरी टीम बबूल से लदी उस पहाड़ी पर चढ़ने लगी, जिसके पीछे मुझे और लल्ला को अपने पेट में दौड़ रहे चूहों से निपटने का जुगाढ़ दिख रहा था ।

हर साल की गर्मियों में मैं मामा के घर अटेर जाता था तो बचपन से देखता आया हूं कि हर साल चम्बल में दिनोंदिन फैल रहे बीहड़ के उन्मूलन के लिए तहसील मुख्यालय अटेर में दिल्ली से एक छोटा हवाई जहाज आ जाता था, जो रात-बिरात नीची उड़ान भरके दक्खिनी बबूल कहे जाने वाले जेलियोहिलेरा बंबूलों के बीज बीहड़ों में छिड़क देता था। पिछले कुछ बरसों में इस हवाई बीजारोपण का असर दिखने भी लगा है । ये बबूल भारी संख्या में उग आये हैं अटेर और भिण्ड की ऊंची नीची भरको वाली बेहड़ जमीन पर । लेकिन इधर ये झाड़ियां नही दिखतीं, इधर देशी बबूल की झाड़ियां भरी पड़ी हैं, संभवतः इस इलाके मे जेलिया हिलेरा के बीज नही झिड़के गये है ।

पहाड़ी की गोद में बसा था सहरिया आदिवासियों का गांव जनपुरा । स्वभाव से गौ और शरीर से हष्ट-पुष्ट इस गांव के सहरिया पुलिस के दोस्त थे । हैड कानिस्टबल हेतम ने एक बार बताया था कि बीहड़ में दोस्त और दुश्मन भी जाति-विरादरी देख के बनाये जाते हैं । पुलिस का दोस्त वही हो सकता है -जिसकी जाति का कोई डाकू बीहड़ में न घूम रहा हो । फिलहाल सहरिया जाति का कोई बागी घाटी में नहीं था, इस कारण पुलिस वालों को इस गांव से कोई खतरा न था ।

पुलिस टीम जब जनपुरा पहुंची, पूरा गांव मिलजुल कर खाना बनाने में जुटा था। हम लोग एक तरफ बैठ गये । कुछ देर बाद पटेल ने आकर बताया कि खाना तैयार है । मैंने कनखियों से देखा कि अरहर की पतली पनियल दाल और चार नम्बर की रोटी (चार रोटी बराबर एक रोटी)लगभग तैयार हो चुकी थी ।

गांव के सरकारी स्कूल के दो कमरों को साफ कर पुलिस टीम ने अपने डेरे जमाये । कुछ देर बाद स्कूल की टाटपट्टियां बिछीं और आधी टीम भोजन को बैठ गयी। अब परसाई की प्रतीक्षा थी । उधर छोटा दरोगा, जनपुरा के रसोइयों को रोटी-दाल का एक-एक ग्रास खिला रहा था, यह इस जांच का एक हिस्सा था, कि भोजन में कुछ गलत चीज तो नहीं मिलाई गई है।

मुझे याद आया-ऐसी ही जांच तो बागी किया करते थे ! वे भी भोजन बनाने वाले को ही सबसे पहले खिलाते थे। इन बीहड़ों में भोजन में गलत चीज जांचने का शायद सबका एक ही तरीका है ।

बागी कहते थे कि इन बीहड़ों का कोई भरोसा नहीं है, जाने कौन आदमी दगा कर जाये, किसको ईनाम का लालच आ जाये...। कोई ताज्जुब नहीं कि कहो तो सगा मामा, सगा जीजा या सगा फूफा ही जहर खिला दे ।

भोजन के बाद रघुवंशी ने वायरलैस वाले सिपाही से हैडफोन लेकर कंण्ट्रोल रूम से सम्पर्क किया -‘‘ हैलो कंट्रोल रूम, हेयर ए डी टीम नम्बर सोलह ! आयम इंचार्ज रघुवंशी !‘‘

‘‘ मैं रामचंदर सिपाही नम्बर चार सौ सत्ताईस । नमस्कार श्रीमान !क्या खबर? बोलिये ! ‘‘ वायरलैस यंत्र से ऑपरेटर की आवाज आयी तो रघुवंशी अपनी सर्च की रपट बताने लगा ।

कंट्रोल रूम का निर्देश था कि आज रात जनपुरा के इर्द-गिर्द डाकुओं का मूवमेंट होने का अंदेसा है । सो पूरी रात सतर्क रहो । रघुवंशी बुदबुदाया -‘ आज की रात, जनपुरा में ही हाल्ट होगा ।‘

हाल्ट की खबर सुनकर पुलिस सिपाहियों ने अपना बेल्ट ढीला किया । कंधे पर टंगे पिट्ठू उतारे जाने लगे, सबकी बन्दूकें कोत-मास्टर के पास जमा होने लगीं । रात भर पहरेदारी करने के लिए संतरी के रूप में खड़े होने योग्य सिपाहियों के नाम पर बिचार होने लगा ।

सरदियों में तो, शाम के पांच बजे से ही रात उतरने लगती है । अंधेरा हुआ तो लोगों ने अपने बिस्तरे लगाना शुरू किया । कुछ लोग अपने सामान में से अगरबत्ती निकालकर संझा-आरती करने लगे थे- ओम जय जगदीश हरे !

कमबख्त यादें हम लोगों का पीछा नहीं छोड़तीं । याद आया कि डाकू लोग भी इसी तरह हर सांझ बिना नागा देवी मैया की आरती जरूर करते थे-

जय अम्बे गौरी, मैया जय अम्बे गौरी !

तुमको निसदिन ध्यावें, हरि ब्रहमा शिवरी !!

आरती के बाद हमने अपने थैले टटोले और दो कम्बल निकाल लिये । सोने के लिए हमने कमरे का दूसरा कोना चुना, और दोनों चुपके से उधर ही खिसकने लगे । यकायक बडे़ दरोगा रघुवंशी ने हमे टोका-‘‘ तुम दोनों को अलग-थलग नहीं लेटना यार ! आप लोग बीच में आओ! तुम दोनों का तो खास ख्याल करना है हमे, इन्हे जगह दो यार !‘‘

बीच में लेटे सिपाही एक तरफ को सरक गये, तो हम दोनों ने बीच में अपना बिस्तरा लगाया ।

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Suresh

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