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मुख़बिर - 2

मुख़बिर

राजनारायण बोहरे

(2)

गणेश रावत

आज का दिन सुबह से ही बुरा रहा ।

हम लोग पिछली रात करसोंदा-कलां गांव में रूके थे । पौ फटते-फटते वहीं आ गया था रोता-बिलखता सुरेश रावत । सुरेश रावत के बड़े भाई गणेश रावत को रात ग्यारह बजे श्यामबाबू घोसी ने घर से बुलाके गांव के बाहर ले जाकर बड़ी बेदर्दी से मार डाला था । सारा गांव देखता-सुनता रहा, लेकिन अपनी जान बचाने के लिए हर आदमी चुप बना रहा । सुबह लोग घर से बाहर निकले भी तो बस दुख जता के रह गये, सुरेश के साथ थाने जाने के लिए एक भी आदमी तैयार नहीं हुआ -, डाकू सिंगराम रावत की वजह से वैसे ही कृपाराम नाराज चल रहा है रावत विरादरी से बैठे-ठाले डाकुओं से कौन बैर बांध ले । सुरेश को पता लगा कि बागियों की खोज में जंगलों में घूम रही एक टुकड़ी करसोंदा-कलां में रूकी हैं तो वह नंगे पैरों हमारे दल के पास भागा चला आया था ।

पता लगा तो मैं कांप गया-इस तरह ऐलानिया किसी आदमी को मार देने के पीछे क्या मंशा होगी इस बागी की ?

हेतम ने बताया मुझे, किसी आदमी की दुर्दशा करने के पीछे बागियों की मंशा सिर्फ इतनी सी होती है कि उस घटना से पूरे इलाके में आतंक फैल जावे और उनकी दरिंदगी का ढिंढोरा पिट जाये । आयंदा कोई भला आदमी उनके ख़िलाफ पुलिस में किसी तरह की खबर देने की हिम्मत न कर सके ।

रघुवंशी ने सबसे पहले वायरलेस से इलाके के थाने को इस हत्या की खबर की फिर पुलिस कप्तान को इस वारदात की प्राथमिक सूचना दी । हुकुम मिला कि जब तक इलाके की पुलिस न आ जाये तुम उस गांव में जाकर लॉ-एन-ऑर्डर संभालो ! रघुवंशी ने अपने दल को कूंच करने का इशारा किया, और सुरेश की रहनुमाई में हमारी टीम उसके गांव के लिये चल पड़ी थी ।

पुलिस की मौजूदगी से गांव वालों को कितना सुकून मिलता है, इसका प्रत्यक्ष प्रमाण हमे सुरेश रावत के गांव करसोंदा-खुर्द पहुंचने पर पता चला ।

रघुवंशी ने अपने आदमीयों को निर्देश दिया था कि वे गांव की गलियों में गश्त लगाना शुरू कर दें, तो थोड़ी ही देर में एस ए एफ के सशस्त्र जवानों और पुलिस के सिपाहीयों के बूटों की धमक से गलियां गूंज उठी थीं । इस धमक का ही असर था कि अधुखुले दरवाजे खुलने लगे और बूढ़े-बच्चे-जवान बाहर निकलने लगे । गांव का जीवन सामान्य होने लगा । घर-घर से बाल्ट्टी-मटका लिये औरते निकलीं और कुंओं हैण्ड-पम्पों की तरफ उनके ठट्ठ-ठट्ठ बढ़ चले ।

गांव के दक्षिण तरफ तनिक सा बाहर निकलते ही स्कूल के मैदान के बीचोंबीच नीम का वह पेड़ था, जिसके तने से बांध के गणेश को गोली मार दी गयीं थी । हम लोग वहां पहुंचे तो लगभग पैंतालीस साल के गणेश की विकृत लाश और उस से बहकर चारों ओर जम गये गाढ़े खून को देख कर लल्ला पंडित के मुंह से सिसकारी निकल गयी । सच तो यह है कि रस्सी से बंधी और एक तरफ को गरदन लटकाये खून में सनी वह लाश देखकर दिल दहल उठा मेरा भी ।

गांव के कुछ लोग हमारे पास आते दिखे । सहसा रघुवंशी ने हम सब से कहा-‘‘आप लोग, बीच में मत बोलना, चुप रहना ।‘‘ फिर वह उन गांव वालों की ओर देखकर मुस्करा कर बोला ‘‘नमस्कार ! आइये, आइये ।‘‘

‘‘ जै राम जी की साब ! हम लोग इसी गांव के ब्राह्मण विरादरी के भाई-बन्धु है । ‘‘ माथे पर तिलक धारे, चोटी वाले एक प्रौढ़ सज्जन ने आगे वढ़ कर रघुवंशी को प्रणाम किया । उनके साथ वाले चार-पांच लोगों ने भी दरोगा जी को झुककर नमस्कार किया ।

रघुवंशी बहुत होशियार आदमी है, वह फुसफुसाते हुऐ बोला-‘‘ बैठो ! हमउ ब्राह्मण है दाऊ, सनाढ्य ब्राह्मण! देवेन्द्र शर्मा नाम है, तेनगुरिया सनाढ्य हैं हम । आप बेहिचक सच सच बताओ हमे, कि रात को कैसे क्या हुआ ? बात बाहर नहीं जायेगी । हम थाने के स्टाफ में से नहीं है, हम डाकुओं की तलाश में निकले हैं ।‘‘

जब उन लोगों को पता लगा कि पुलिस दल का बड़ा दरोगा शर्मा है और वह थाने के स्टाफ में से नहीं है, तो वे खुल कर बात करने लगे । उन सबने अपने अपने नाम और गोत्र बता कर बड़े दरोगा को अपना परिचय दिया ।

बड़े तिलकधारी प्रौढ़ व्यक्ति यानी कि पुजारी राधेश्याम ने बताया....... कि पूरे गांव को विश्वास है - गणेश पुलिस का मुख़बिर था । गांव में जब भी पुलिस आती, दरोगाजी उसके घर जरूर आते। जितनी देर पुलिस गांव में रहती, गणेश को हमेशा संग लगाये रहती ।... इस दोस्ती का खूब रौब गालिब करता था गणेश । पिछले चुनाव में तो वह सरपंच चुन लिया गया था इसी रौबदाब में । .....डाकू सिंगराम रावत का इलाका होने से वैसे इस इलाके में कृपाराम घोसी का गिरोह कभी नहीं आता, लेकिन पिछले दिनों पुलिस घेराव का मारा कृपाराम इधर ही आ मरा, तो राशन-पानी के लिये उसने अपने जाति भाइयों से संपर्क किया । उन लोगों ने बताया कि वे चोरी-छुपे ही गिरोह की मदद कर पायेंगे, क्योंकि इस गांव का एक आदमी गणेश रावत पुलिस का मुखबिर है, जो तुरंत ही थाने में जायेगा और हम सबको अंदर करवा देगा । इस संदेश के बाद कृपाराम बिना बात के ही गणेश रावत के खिलाफ हो गया । लगता है गणेश ने पुलिस से कुछ नही कहा था, क्योंकि इस बीच इलाके का थानेदार दो-तीन बार गांव में आया, लेकिन उसने घोसी-गड़रियों से कोई तहकीकात नहीं की, फिर भी किसी के षक को क्या कहे। हालांकि, तबसे गणेश रावत बड़ा सतर्क रहने लगा था । वह अपनी बारह बोर की बंदूक सदा साथ रखता था । बागियों का नियम है कि वे उस आदमी के किनारे को भी नहीं छूते जिसके पास बंदूक होती है, सो वे अब तक गणेश रावत से दूर-दूर बने रहे । कल की रात गणेश के घर बंदूक नहीं थी । गणेश का भाई सुरेश किसी रिश्तेदारी में गया तो अपने कंधे पर बंदूक लटका ले गया था । गिरोह को इसकी पक्की सूचना रही होगी । सो यह खबर पाकर श्यामबाबू और दो डकैत गांव में घुस आये ।

तब रात के ग्यारह बजे होंगे कि उन लोगों ने गणेश रावत की पौर के किवाड़ खटकाये । किवाड़ की दरार से गणेश ने बाहर झांका तो किसी परिचित को देख कर दरवाजा खोल दिया होगा और श्यामबाबू के कब्जे में आसानी से आ गया होगा ।

सहसा रघुवंशी ने पुजारी को टोका-‘‘ इसका मतलब ये हुआ कि गांव का कोई ऐसा आदमी बागियों के साथ था, जो गणेश का भी कोई विश्वासी आदमी रहा होगा ! पुजारी जी, बता सकते हैं कि कौन होगा श्यामबाबू के साथ ? ‘‘

इस एक प्रश्न ने पुजारी को मौन कर दिया । रघुवंशी ने लाख सवाल किये, लेकिन पुजारी जी एक शब्द न बोले थे उसके बाद । फिर हम लोग यहां-वहां की बातें करते रहे । अंत में राधेश्याम सिर्फ एक बात बोले- ‘‘ दरोगाजी, ....कहा कहें आप से । अब तो जा पूरे इलाके में नान्ह विरादरी के बागियन्न को बोलबालो है, और सवर्ण लोगन्नं के बड़े बुरे हाल है -खास तौर पर ब्राह्मणों की तो मट्टी पलीत हो रही है।‘‘

इसके बाद वे सब उदास से ही उठ कर चले गये ।

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