मुख़बिर - 8 राज बोहरे द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

मुख़बिर - 8

मुख़बिर

राजनारायण बोहरे

(8)

संवाद

हम दोनों दो घंटे के इंतजार के बाद एसपी साहब से मिल पाये ।

मन ही मन क्षोभ था कि आज हमारा स्वार्थ नहीं है, एसपी साहब से हमारा कोई काम नहीं अटका है, बल्कि खुद एसपी ने हमे बुलाया है, तब इतना इंतजार करना पड़ रहा है, अगर हमारा कोई काम होता तो इंतजार में ही शायद दो-चार दिन बैठना पड़ता ।

अचंभा तो ये था कि हमारे सामने ही एक देहाती आदमी आया, उसने पर्दा हटा कर भीतर झांका और बिना पूछे ताछे सीधे एसपी के कमरा में घुस गया । उस आदमी का रूतबा देख कर हमने दांतो तले अंगुली दबा ली थी- एक देहाती भुच्च आदमी की इतनी हिम्मत ! जरूर ये कोई नेता-वेता होंगे । लेकिन मन ने विश्वास नही किया था-ऐसे फटीचर आदमी भला कहां से नेतागिरी कर पायेंगे ! जिनके पास खुद खाने नहीं दिख रहा, वो दूसरों को कहां से टुकड़ा डालेंगे ! तो ! तो फिर ये गांव के कोटवार हो सकते हैं, और दूसरे कोई अहलकार हो सकते हैं, लेकिन ऐसा कोन सा अहलकार होता है गांव में ! शायद कोई नहीं ।

सहसा मुझे याद आया-ये तो भेदिया ही हो सकता है- भेदिया मायने मुखबर, मुखबिर, खबरिया ।

हां, पक्के तौर पर ये मुखबिर होगा-एसपी का सीधा मुखबिर । पिताजी बताते हैं कि पुलिस में सिपाही से लेकर आई जी तक हर स्तर का कर्मचारी अपने मुखबिर रखता है । तबादला होने पर बाकायदा मुखबिर भी चार्ज में दिये जाते हैं ।

उस मुख़बिर से मुझे मन ही मन ईर्ष्या सी हुई । कितना ऊंचा रूतबा है इस मुखबिर का, देखो तो ! न परची भेजी, न इजाजत मांगी, सीधा भीतर चला गया । इस तरह की रेंठ-पेंठ है तो यह भी हो सकता है कि यह आदमी एसपी से अपने किसी भाई-भतीजे के लिए कोई नौकरी भी पा गया हो, बन्दूक तो पक्के तौर पर मिल गयी होगी इसे । किसी मारे गये डाकू की संपत्ति मे से भी यह बहुत कुछ पीला पा गया होगा । गांव मे बड़ा रौब रहता होगा इसका ।

मैं मुखबिर की जनम पत्तरी बांच रहा था कि एसपी के संतरी ने हमें टोका-‘‘ जाओ, तुम्हे कप्तान ने बुलाया है ।‘‘

हड़वड़ाये से हम उठे और भीतर जा पहुंचे ।

हमने सोचा था कि जैसा कि छब्बीस जनवरी की परेड में देखाथा यहां भी कलफदार कड़क वरदी लगाये कोई झउआ मूंछो वाला अधेड़ अफसर अकड़ता बैठा होगा, लेकिन हमारा अनुमान गलत साबित हुआ । भीतर बिना वरदी का फिल्मी हीरो सा दिखता एक नौजवान आदमी खूब बड़ी सी टेबिल के पार बैठा उत्सुकता से हमको ताक रहा था । मैंने अनुमान लगाया-यही एसपी होगा । लेकिन...........ऐसा जवान-अल्हड़ दिखता अनुभवहीन सा आदमी भला कहां से हमारा जिला संभाल सकता है ? शंका हुई............! तो मन ही मन शंका का निवारण भी हुआ- एसपी में क्या सींग लगे होते हैं, जरूर यही एसपी होगा । वरदी न पहनने से क्या होता है । ये कौन मिलिटरी के अफसर हैं कि हर पल वरदी में सजे रहें ।

हमने झुक कर उनका अभिवादन किया ।

एसपी ने हम पर अहसान सा जताते हुऐ हमारा अभिवादन स्वीकारा। मैं आगे बढ़ा ।

-‘‘ सरकार, हमको बुलाया !‘‘

-‘‘ कौन हो तुम लोग ? दिखने में तो इसी ऐरिया के लगते हो, चम्बल के ही किसी गांव के हो ना!‘‘

-‘‘ जी सरकार ! कैसे पहचाना ?‘‘ लल्ला पंडित हैरान थे ।

एसपी मुस्कराया -‘‘चम्बल में ही तो सरकार लफ्ज़ की ऐसी-तैसी हो रही है । यहां तो जो देखो वो सरकार बना फिर रहा है । जितने मन्दिर हैं वे सब सरकार हैं, जितने बाबा हैं वे सब सरकार, जितने डाकू हैं वे सब सरकार हैं और सारे नेता वगैरह तो जाने कबसे सरकार कहे जाते हैं । खैर, छोड़िये ये सब, …क्या नाम है आप दोनों का ?‘‘

-‘‘ हुजूर मैं गिरराज और ये है लल्ला !‘‘

-‘‘ अच्छा ! तो तुम वो लोग हो जो पहले कभी कृपाराम घोसी की पकड़ में रहे थे । हां, तुम्हे एक खास काम से याद किया है हमने !‘‘

-‘‘ हुकुम करें हुजूर ! ‘‘

-‘‘ मुझे बताया गया है कि वो पूरा एरिया तुम्हारा ठीकठाक देखा हुआ है, जहां घोसी गैंग अक्सर मूवमेंट में रहती है, तुम लोग तो उसे अच्छी तरह से पहचानते भी होगे न !‘‘

-‘‘ अब हुजूर, पहचानने का ही तो झंझट है, कि हम उसकी हिट-लिस्ट में पहले नम्बर पर हैं ! वो हमे पहचानता है और हम उसे पहचानते हैं। क्या बतायें हुजूर ! पहले पुलिस के हुकम से न हम अदालत में जाके उसे पहचानते, न वो ससुरा हमे ठीक से पहचानता । हमे तो उसकी शकल से डर लगने लगा है आजकल ।‘‘

-‘‘ अरे, उस चूहे से मत डरो तुम लोग ! चिन्ता मत करो, पुलिस-फोर्स तुम्हारे साथ है । तुम्हारी सुरक्षा का जिम्मा अब हमारा है । बोलो क्या चाहते हो तुम लोग ?....किसी की नौकरी लगा दें ! या........ तुम को बंदूक के लायसेंस देदें, बोलो ! ‘‘

-‘‘ हमे कुछ नहीं चहिये हुजूर । बस जान बच जाये हमारी । वो चूहा नहीं है, बड़ा दिलेर है साब ! जो ठान लेता है, करके ही दम लेता है । हमाये तो प्राण सूख रहे हैं । हमारा गांव चारों ओर से वेहड़ से घिरा है । वो जब चाहे हम लोगों की गरदन नाप लेगा । ‘‘

-‘‘ अब वो बेचारा खुद अपनी घड़ी गिन रहा है, उससे क्या डरना ! हमारे एक हजार जवान उसकी तलाश में उसी बीहड़ में कूदने वाले हैं और हमारे तमाम आला अफसर भी हर रात उसी एरिया में कैंप करेंगे । हम एक खास कॅम्पेन अरेंज कर रहे हैं, इसमें सरकार को तुम्हारी मदद चाहिये !‘‘

-‘‘ हुजूर आदेश करें ।‘‘

-‘‘ आप लोग पुलिस टीम को वे सारी जगह दिखायेंगे, जहां चाहे जब पहुंच कर डाकू लोग छिप जाते हैं ।..........और हां, तुम्हारी सुरक्षा के लिए हमने ये निर्णय लिया है कि तुम लोग भी पुलिस की ड्रैस में रहोगे, जिससे अगर कहीं आमने सामने मिल जायें तो वे डाकू तुमको पहचान न पायें । रहा सवाल तुम्हारे परिवार का, तो उधर गांव में तुम्हारी परिवार की सुरक्षा का जिम्मा भी हमारा है, आपके घर पर हम दो सषस्त्र जवानो का पहरा बिठा देते हैं।‘‘

-‘‘ जैसी आपकी मरजी साहब ! वैसे तो उधर के बीहड़ का नाम सुनते ही हम लोगों को ज्वर सा चढ़ बैठता है । किरपाराम घोसी ऐसा सयाना है कि पुलिस की गंध उसे मीलों दूर से पता लग जाती है । जहां तक हमारी बात है, हमे पता है कि वो ढूढ़ना चाहे तो हमे सात पताल से ढूढ़ लेगा ।‘‘ अनमने से मन से मैंने पुलिस कप्तान को जंगल में जाने की सहमति दे दी, तो लल्ला मुझे घूरता रह गया था ।

-‘‘ ये लल्ला चुप-चुप क्यों है ? कम बोलता है क्या ।‘‘ लल्ला के चेहरे के भाव पढ़कर एसपी ने सवाल किया था ।

-‘‘ हओ साहब, हम थोड़े डरपते हैं, खास तौर पर तबसे, जबसे हमारी शिनाख़्ती की वजह से उन सबको सजा हुयी थी ।‘‘

-‘‘ गुड ! तुम लोग तो पहले से ही पुलिस की मदद करते रहे हो । जानते ही हो कि पुलिस की इमदाद करना हर भले नागरिक का फर्ज़ है । तुम जैसे लोग आगे नहीं आयेंगे तो ये बदमाश लेाग कैसे पकड़े जा सकते है। ‘‘

-‘ इसी फर्ज़ की वजह से तो हमारी मौत का हुक्मनामा जारी हुआ है साहब ‘ मैं कहना चाहता था किन्तु मैं चुप ही रहा, लल्ला पंडित ने जरूर सहमति में सिर हिलाया ।

-‘‘ तुम दोनों डरो मत, हम सब तुम्हारे साथ है, जहां जरूरत पड़े तुम दोनों सीधे मुझे फोन लगाना ।‘‘

हम कहना तो और भी बहुत कुछ चाहते थे, लेकिन इतने बड़े अफसर से कुछ कहना उचित न था सो हम सिर झुका कर उन्हे नमन किया और बाहर चले आये ।

बस में बैठते वक्त हम दोनों के मन में कितनी ष्षंकायें और कितने डर नागफनी की तरह सिर उठा रहे थे., लेकिन हम विवष से हो कर घर के लिए रवाना हो रहे थे, कि वहां जाकर सबसे ठीक से मिललें, पता नहीं फिर किसी से मिलना हो या नहीं !

‘ये क्या अषुभ और असगुन की बातें सोच रहा मैं ‘‘ सहसा मेरे मन ने स्वयं की विचार-श्रृंखला को तोड़ा, ‘अरे जब बागी जल्लादों के पास से वापस लौट आये तो ये तो हम सबके रक्षक लोग है, इनके साथ भला काहे का डर ? इन सबके भरोसे ही तो हम सब अपने घरों में निष्चिंत हो पांव फैला कर सोते हैं ।‘

घर पहुंचने तक हम इसी तर्क-वितर्क में फंसे रहे ।

--------