मुख़बिर - 11 राज बोहरे द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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मुख़बिर - 11

मुख़बिर

राजनारायण बोहरे

(11)

मुख़़बिर

पुलिस बल के लोग सुबह पांच बजे जागे और दैनिक क्रिया के बाद स्कूल के मैदान में पंक्तिबद्ध खड़े होकर कसरत करने लगे ।

कुछ दिन तक मुझे और लल्ला पंडित को कसरत करते जवान अजीब से लगते थे, लेकिन एक दिन हमको मुंह दबा कर हँसते देखा तो बाद रघुवंशी ने हम को सुबह-सुबह की जाने वाली कसरत के फायदे बताये तो हमने भी कसरत करना शुरू कर दी । अब तो हमको भी आदत पड़ गयी है, सो रोज सुबह हम भी इन लोगों के साथ कसरत करने लगे हैं ।

सुबह नौ बजे हम लोगों ने चार-चार पूड़ी और सूखे आलू खा कर आगे के लिये प्रस्थान किया ।

वो दिन बड़ा खराब बीता ।

दिन भर में न तो कहीं खाना मिला, न ही कहीं घड़ी भर को बैठने की फुरसत मिली । हम लोग दिन भर चलते रहे । रघुवंशी जी जब भी वायरलैस उठाते, हर बार डांट पड़ती । उस दिन जाने क्यों पुलिस कप्तान बहुत खफा दिख रहे थे और अपनी सारी टुकड़ीयों को सख्ती से आदेश दे रहे थे कि वे लोग आज रूकें नहीं, लगातार चलते रहे ।

रास्ते में एक जगह ढोर चराते दो चरवाहे दिखे । हेतमसिंह दीवान ने लपक कर उन्हे घेर लिया । डरपते से उन दोनों ने झुककर दीवानजी को नमस्कार किया । हेतमसिंह का स्वर हेकड़ी से भरा था-’’ काहे रे, कलि रात बागी निकरे हते हिना ते, तुमने देखे का ?‘‘

’’ कतई नई सरकार ! हमने कबऊं न देखो उन्हे !‘‘

............और इस मनाही के कारण कुपित हो उठे हेतमसिंह ने गजब की फुर्ती दिखाई, उसने अजीब सी उछलकूद करते हुए इस तरह उन दोनों चरवाहो को चार-चार हाथ रसीद करे कि मैं दांतों तले अंगुली दबा गया था ।

उस दिन कृपाराम के गिरोह के साथ घूमते वक्त ऐसे ही चार चरवाहे मिले थे तो लपककर श्यामबाबू ने उन्हे घेर कर नाम-पता और जाति वगैरह बताने का हुकम दे दिया था । वे लोग बताने लगे - हम सब चरवाहे है दाऊ ! शेरसिंह के पुरा में रहतु हैं। कृपाराम बुदबुदाया- शेरसिंह के पुरा में तो कोई आदिवासी नहीं है। यह सुना तो संषयग्रस्त श्यामबाबू ने उन चारों की तलाशी ले डाली थी ।

हालांकि उन चरवाहों के पास ऐसा कोई सामान नहीं मिला कि उन्हे पुलिस का आदमी कहा जाता फिर भी उस दिन बागियों को जाने क्यों उन पर सन्देह हो गया था तो उनने भी बेचारे चरवाहों की बड़ी बेदर्दी से पिटाई की थी । बेचारे चरवाहे ! मुझे ऐसे मज़लूमों पर खूब तरस आया ।

शाम के पांच बजे होंगे जबकि कि हम सब हमीरपुर पहंुचे । वहीं एक मुखबिर खड़ा था, पुलिस वालों ने आपस में इशारा किया-‘खबरिया खडा है यहां । अब इस हरामी ने रात खराब करी अपनी। वैसे ही हम दिन भर से ऐसी-तैसी करा रहे हैं ।’

वह मुखबिर, बड़े दरोगा को एक तरफ ले गया । वे दोनों बड़ी देर तक घुसर-पुसर करते रहे, फिर एस ए एफ के सिन्हा को भी उधर बुला लिया गया । उन तीनों ने कुछ मंत्रणा की और एकमत से जो भी तय हुआ, बड़े दरोगा ने हुकुम सुना दिया-‘चलो इस पहाड़ी के उस पार चलना है, खबर है कि वहां के एक खंडहर में कुछ बदमाश छिपे हैं ।’

दल के हर व्यक्ति में जोश जाग गया था । उन सबने अपने-अपने पिट्ठू ढीले करके एक बार फिर से कसे और थकान को नकारते हुये आगे वढ़ चले ।

दो दल बनाये गये । सामने दिख रही जंगली झाड़ों से लदी पहाड़ी को दोनों ओर से घेरते हुये हम लोग आगे वढ़े । वही चीते जैसी बेआवाज और सधे कदमों की सतर्क चाल ।

ठीक दो घंटे बाद सब लोग एक दूसरे के सामने थे, खण्डहर में आदमी तो थे लेकिन वे बागी नही थे-संपेरे थे । हां उनके डेरे में एक आदमी जरूर बंधा पड़ा था । उसे देखकर रघुवंशी को शक हुआ और संपेरों की पिटाई कर जब पूछताछ शुरू की तो पता लगा कि बंधा हुआ आदमी कोई बदमाश था जो रात को दारू पीकर उनके डेरे पर आ गया था और संपेरों की औरतों को छेड़ने लगा था, मजबूरन संपेरों ने उस आदमी को धुन डाला और बांध दिया था । सपेरों की तलाशी में पुलिस को वहंा ऐसी कोई चीज नही मिली थी, जिससे पता चलता कि आज की बात क्या, दो चार दिन पहले भी वहां कोई बागी रूका होगा, या बागीयों से उनके कोई ताल्लुक होंगे। अब उन सब पुलिस वालों की हालत देखने लायक थी । बड़े दरोगा रघुवंशी से लेकर वायरलेस ढोने वाले सिपाही तक, सबकी आंखों में मुखबिर के प्रति भीषण गुस्सा था । रघुवंशी का धैर्य जवाब दे गया, वह दांत पीसते हुये मुखबिर पर चढ़ बैठा -‘‘ तू सारे मादरचो़.. हमेशा ऐसे ही परेशान करता है, बता किधर है तेरे बाप बागी ? ‘‘

कुछ कहने का यत्न करता मुखबिर सहम सा गया था, उसे चुप देख कर बड़े दरोगा का गुस्सा आग हो गया, उसने मुखबिर की उम्र देखी न उसकी दुबली पतली देह, बस गिरेबान पकड़ी और इस बुरी तरह से मारना शुरू किया कि मैं और लल्ला तो कंप ही उठे ।

याद आया कि बागी भी ऐसे ही करते थे, गलत खबर देने पर मुखबिरों पर सीधे हमला कर देते थे-एक साथ । मुख़बिरों की तो दोनों के सामने एक सी दशा है । बेचारे दोनों जगह से मार खाते हैं और दोनों का ही खास आदमी बन कर रहना पड़ता है उन्हे-यह तो तलवार की धार पर चलना जैसा लगता है मुझे ।

कृपाराम बताता था कि जो आदमी एकबार पुलिस के साथ चलता-फिरता या बतियाता दिख जाये, बागी तो हमेशा उस आदमी से दूर रहते हैं । पहले मेरी समझ में नहीं आता था, कि लोग मुखबिर बनते क्यों हैं ? क्योंकि मुख़़बिर बनने से जान का ख़तरा बढ़ जाता है । सूचना सही साबित न होने पर अपनी ही पार्टी से अपमान का ख़तरा तो सदा ही रहता है और समाज में प्रायः चुगलखोर कहा जाता है । लेकिन जबसे हम ज़बरन ही मुख़बिर बने पुलिस वालों के साथ घूम रहे है, तब से हमे अहसास होगया है कि जैसे बागी बनना अपने हाथ में नहीं, वैसे ही मुख़बिर बनना भी किसी की इच्छा पर निर्भर नहीं है। सबकी अपनी अपनी मजबूरियां होती हैं ।

श्यामबाबू ने तो उस मुखबिर को इतना मारा था कि बेचारा खून की उल्टी करता मर गया था और वे लोग उसकी लाश जंगल में छोड़के बेगानों की तरह यूं ही चल दिये थे । बस उस मुख़बिर का इतना सा कसूर था कि उसने किसी पकड़ लायक आसामी की हैसियत कुछ बढ़ा चढ़ा कर बता दी थी । जबकि दूसरे मुखबिर ने सही हालत स्पष्ट कर दी थी, कहा था-जिससे आप लोग पांच लाख मांग रहे हो उसकी हैसियत तो मुश्किल से पचास हजार रूपये की है ।

फिर क्या था, कृपाराम के दांये हाथ यानि कि गिरोह के कोतवाल श्याम बाबू ने पांव का जूता उतारा और साठ साल के उस बूढ़ेे आदमी को ऐसा मारा कि उसकी पतली देह चार-छह जूतों के बाद जमीन में बिछ गयी और वह बुरी तरह डकराने लगा, पर उन दंरिदों को दया कहां थी !

दया तो इन दरिंदों को भी नहीं है । हालांकि ये सही है कि दिन भर के थके हुये पुलिस दल के सब लोग इस खबर को सुनकर झुंझला उठे थे और गुस्सा तो मुझे और लल्ला को भी आ गया था

उसदिन रात दस बजे हम लोग अपने टारगेट वाले गांव में पहुंच सके । मजे की बात यह थी कि तो भी रघुवंशी को वायरलेस पर डांट पड़ गयी । मुखबिर के चक्कर में रास्ता छोड़कर अलग चल देने के वक्त चुप्पी के लिए हमारे दल ने वायरलेस बंद कर रखा था और इस तरह संपर्क कट जाने के कारण कंट्रोल रूम बेहद परेशान था । बाकी सारे पुलिसदलों को इस बीच खबर कर दी गयी थी कि रघुवंशी की टीम या तो कहीं रास्ता भटक गयी है, या फिर किसी चक्कर में फंस गई है।

गांव पहुंच कर गांव वालों को जगा कर भोजन बनबाया गया ।

बिस्तर पर पहुंचा तो रघुवंशी का मूड बिगड़ा हुआ था, पर वह कथा सुनना नहीं भूला, बोला ‘‘ सुनाओ गिरराज, तुम्हारी और क्या क्या ऐसी-तैसी हुयी !’’

डरते-डरते मैंने बात आगे वढ़ाई ।

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