मुख़बिर
राजनारायण बोहरे
(5)
लल्ला पंडित
लल्ला पर मुझे बेहद तरस आता है, पिता के इकलौते लड़के, पिता एक जाने माने कथा वाचक थे, संगीत में डुबाकर जब वे माकिर्मक कथाऐं सुनाते तो सुनने वाले का दिल फटने फिरता, यही जादू सीखना चाह रहे थे लल्ला पंडित, सो उन्होने न तो पढ़ाई मे ध्यान दिया न ही खेती बारी में ।... और दोनों ही उजर गये । खेती पर गांव के अड़ियल गूजर ने अपनी भैंसों का तबेला बना लिया और रोज रोज कथा में जाने के कारण स्कूल जाना बंद हो गया, और धीरे धीरे तीस साल के हो बैठे लल्ला महाराज ।
डोकर की चलती थी इलाके में, सो अपने चेले-जिजमानों से कह सुन के एक कम उमर की लड़की से बेटा तो ब्याह लिया, लेकिन कथा वाचन की कला घोट के पिर्लाइ न जा सकती थी, और उसके लिए थोड़ा बहुत पढ़ा-लिखा होना जरूरी था, लेकिन लल्ला तो पढ़ पथ्थर, लिख लोढ़ा रह गये थे। सो किसी तरह सत्यनारायण कथा की पूजा और कथा पढ़ना सिखा के वे चलते बने।
कुछ दिन तो चला फिर लोग सत्यनारायण की कथा भूलने लगे महीनों बीत जाते कोइ्र जिजमान कथा का बुलौआ लेकर न आता। लल्ला महाराज चेते, अब नया क्या सीखें । पता लगा कि जो लोग हर मंगल हनुमान चालीसा के पाठ के साथ किसी जिजमान का चोला चढ़ाते हैं, उन्हे तुरंत इक्कीस रूप्ये दक्षिणा मिलते हें। काम तो इीक है, लेकिन बजरंगवली बड़े कर्रे देवता है, गाव के गनपत कक्का ने हनुमान चालीसा के पाठ मे गलती कर दी सो जिंदगी भर से पागल बने घूम रहे हैं. न न न ऐसो खतरनाक काम नही करने !...तो क्या करें...? एक दिन रास्ता चलते एक साधु टकरा गये तो उनके पांव छूके उन्हे बीड़ी पेष करी फिर उनकी बुद्धिमत्ता, त्याग, तपस्या की झूठी-मूठी तारीफें करते रहे, फिर उनसे पेट पालने का उपाय धीरे से पूछ लिया, तो साधु ने झठ से बता डाला, ‘ सुंदरकांड का पाठ हनुमानजी को सुनाओ जल्इी प्रसन्न् होते है। समय कम हो तो किष्किंधाकांड का पाठ कर लो, हनुमानजी तुम पर प्रसन्न और जिजमान भी झालांझल।’
नुस्खा हाथ लगा तो लल्ला महाराज ने अपने यार इोस्तों से ही आरंभ किया, सबसे पहले मेरे घर उन्होने किष्किंधाकांड सुंदरकांड का पारायण किया, आवाज सुनी तो आस पास के मोहलले के ताममा लोग इकटठा हुऐ ।
गांव के गम्मतया अपने हारमोिनयम-ढोलकी-मंजीरा लेकर आ गये थे, सो समा अच्छा बंध गया, लोगों को गम्मत से ज्यादा मजा आया। मेरे दादा ने खुष होकर इक्कीस रूप्ये चढ़ाये, मैंने इक्कीस ही पोथी पर रखे, और दस-ग्यारह रूप्ये आरती में आ गये तो, लल्ला महाराज का पचास का हिल्ला हो गया ।
फिर क्या था, लल्ला महाराज के सुंदरकांड गाहे’बगाहे गांव मे गूंजने लगे, जिससे उनके परिवार का उदर पोषण होने लगा, लेकिन पूर नहीं पड़ती थी। पूर तो उसी अनाज से पड़ती थी जो वे पिता के साथ से ही ग्वालियर के वा पार जाकर मांगके लाते थे ।
तय हो गया कि लल्ला पंडित और मैं साथ साथ चलेंगे।
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पुलिस दल की पूरी रात और अगला दिन सतर्क रह कर गांव की गष्त करते बीता, लेकिन पुलिस दल के कैम्प के पास भला डाकू फटक भी सकता है कभी! कौन समझाऐ इन दल इंचार्ज रघुवंशी और कंटोल रूम में बैठे रणनीतिकारों को जो वहां अपने टेबिल पर एक गलत-सलत मॉडल बनाये बैठे हैं और डाकूओं की उपस्थिति की कल्पना करते हुए अपने हाथ में पकड़ी में लकड़ी की पुतलियो को पुलिस की टुकड़ियो के घेरने के अंदाज यहां से वहां रखते जा रहे हैं ।
दिन बीत चला था, पुलिस दल बोर हो चुका था ।
अपने दल की मनथिति जानकर छोटे दरोगा ने गांव के पटेल से पूछा कि आसपास के किसी गांव मे कोई नाचने-गाने वाली बाई या बेड़नी नहीं रहती क्या, आज रात उनके नाच का जष्न मनाया जायेगा ।
रात नौ बजे बेड़नी का नाच आरंभ हुआ तो बीहड़ में दूर-दूर तक नगरिया की धमक गूंज गई ।
मशालों की रोशनी में बेड़नी रात भरा थिरकती रही, जिसके साथ साथ कई नौजवान सिपाही भी कमर मटकाकर नाचते रहे और सुबह के तारे चमकने तक माहौल में मस्ती और उन्माद भरा रहा । नैन मटकाती वेड़नियों को गांव के पटेल ने बाकायदा विदाई थी और वे पुलिस जवानो का अपने गांव का पता देती हुई पांव पैदल ही अपने साजिदों के साथ रवाना हो गई थीं ।
रात भर की जाग ने सबको थका दिया था, नहा धोकर भोजन करके सब सोने के लिए लेटे तो सदा के आलसी पुलिस वाले जल्द ही घुर्राने लगे थे।
मैं तो जब भी इस तरह विराम पाता मेरा मन लौट - लौट के अपने साथ घटे हादसों में उलझ जाता था, एक - एक घटन दुबारा साकार होने लगती थी मेरे सामने। तनिक - सी आंख मूंदी तो फिर से वे ही चुनाव के दिन थे और भारी - मन से विदा होता मैं... ।
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