Mukhbir - 30 books and stories free download online pdf in Hindi

मुख़बिर - 30

मुख़बिर

राजनारायण बोहरे

(30)

मुकदमा

अदालत में मुकदमा चला था । तब तक छह महीने बीत चले थे, आरंभ में बीहड़ में सिंह के समान बेधड़क भटकते बागी अब चूहों से लगने लगे थे । सो हमारी हिम्मत भी वढ़ गयी थी और हम दोनों ने बेझिझक अदालत में भी बागियों की पहचान कर ली थी । रामकरन की हत्या के केस में हमारी ही गवाही के आधार पर सब बागियों को सजाये-मौत मिली थी। तो सबसे ज्यादा हम दोनों प्रसन्न हुये थे । हमको लगा था कि उनके दिल पर कई दिनों से रखा पर्वत अब जाकर उनके सीने से उतर पाया है । रामकरण की हत्या का प्रतिकार अब कर पायें है हम ।

अब इंतजार था कि बागीयों की अपील हाईकोर्ट से निरस्त हो जाये, तो छाती ठण्डी हो । उस दिन हमे बड़ी शान्ति मिलेगी जिस दिन उन चारों को फांसी होगी ।

हमारा यह इंतजार जल्दी ही खत्म हो गया था । उस दिन संभाग से आने वाले एक मा़त्र अखबार की एक प्रति लेकर लल्ला पंडित हांफते-कांपते मेरे पास आये । उन्हें देख कर मैं चौंका-‘‘ काहे लला पंडित, क्या हुआ ?‘‘

‘‘ जो....ज्जो....आज को अखबार देखो तुमने!‘‘पंडित बोलने में हकला रहे थे ।

मुझे कौतुहल हआ । लल्ला के हाथ से अखबार लेकर मैंने एक तरफ रख दिया, और लल्ला पंडित के कंधे पर सांत्वना भरा हाथ रखकर उन्हे अपने पास बिठाया । फिर भीतर से पानी लाकर उन्हे पिलाया -‘‘ तुम बहुत जल्दी घबरा जाते हो लल्ला !‘‘

‘‘ बात घबरायवे की ही है गिरराज, तुम अखबार तो पढ़ो ध्यान से!‘‘ उसका इतना ज्यादा आग्रह देख कर मैंने अखबार उठा लिया । खबर पढ़ते ही मैं चौंका ।

पुलिस हिरासत से डाकू गिरोह फरार: मिली भगत का संदेह

मुड़कट्टा का हार, चम्बल (निप्र) 27 जनवरी

एक अरसे तक पुलिस को छकाने के बाद आत्म समर्पण करने वाला डाकू कृपाराम अंततः अपने गिरोह के साथ पुलिस हिरासत से फरार हो कर फिर से बीहड़ में कूद गया है । जानकार सूत्रों का कहना है कि इस फरारी के पीछे किसी बड़े षड़यंत्र का सन्देह है ।

एक समय में चम्बल में आतंक और वर्णगत हिंसा का पर्याय बने डाकू कृपाराम घोसी ने मुख्ममंत्री के सामने हथियार डालने का विचार किया था लेकिन ऐन वक्त पर मुख्यमंत्री के दिल्ली चले जाने की वजह से कलेक्टर के सामने घोसी गिरोह ने आत्म समर्पण किया । गिरोह के सदस्यों के खिलाफ अदालत में कई मुकदमे चलाये गये जिनमें से एक में तो उनके द्वारा अपहृत किये गये लोगों की शिनाख्ती की वजह से पूरे गिरोह को मौत की सजा सुनाई गई थी । आज एक अन्य प्रकरण में पेशी से लौटते वक्त ज्यों ही मौका मिला कृपाराम गिरोह मुड़कटटा की घाटी में चलती बस में पुलिस सिपाहीयों की आंखों में लाल मिर्च का पावडर झोंक कर डाइवर को धमका कर जंगल में भाग गया है, जाते जाते गिरोह उन सिपाहियों की रायफल भी छुड़ा कर ले गया है, जो उसे धमकाने के लिये तैनात किये गये थे ।

इस घटना के पीछे तमाम तरह की बातें जन मानस मे व्याप्त हैं । कुछ लोग कहते हैं कि मुख्यमंत्री को दिल्ली में कोई काम नहीं था, दरअसल उनके बजाय जानबूझ कर कलेक्टर के सामने आत्मसमर्पण कराना प्रशासन की एक चाल थी, ताकि घोसी गिरोह के खिलाफ लंबित मामले समाप्त न करके बाकायदा अदालत में ट्रायल किये जायें । यही हुआ एक मामले में मौत की सजा पा कर हैरान रह गये घोसी गिरोह के सामने दुबारा बीहड़ में कूद जाने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा था । बागियों के इस तरह भागने के पीछे भी लोग किसी बड़े षड़यंत्र का कयास लगा रहे हैै, क्यों कि इतने दुर्धर्ष डाकू को पेशी पर लाने ले जाने के लिये किसी पुलिस वेन के बजाय सामान्य रोडवेज की बस का प्रयोग करना और चार डाकुंओं के लिये केवल तीन सिपाही भेजने की घटना को इस षड़यंत्र का हिस्सा मान कर इलाके के लोग इस घटना की न्यायिक जांच की मांग कर रहे हे।

कृपाराम के दुबारा बीहड़ों में पहुंच जाने के बाद सबसे ज्यादा डर उन गवाहों, पुलिस सिपाहियों और अदालती कर्मचारियों को लगने लगा है जिनके सक्रिय प्रयासों से इस गिरोह को उपयुक्त सजा दिलाई गई थी । हालांकि फिलहाल पुलिस के आला अधिकारियों ने उन सब लोगों को कड़ी सुरक्षा देने का वादा किया है जो इस मामले से किसी भी तरह जुड़े रहे थे ।

मैं ऊंची आवाज में यह समाचार पढ़ रहा था । समाचार पूरा होते होते, हम दोनों स्तब्ध हो उठे । अब तो मेरा भी नीचे का दम नीचे और, ऊपर का ऊपर रह गया था - अब मरे ! बागी सबसे पहले हमे ही ढूढ़ेंगे बाद मे दूसरा काम देखेंगे ।

लल्ला पंडित तो भोंकारा मार के रो ही पड़ा था ।

लेकिन रोने-गाने से क्या होता है !

उस समय तो हम दोनों को ही धीरज की जरूरत थी । सो एक-दूसरे को झूठे सच्चे दिलासा देकर हम दोनों समय काटने लगे । अब हमे एक और जरूरी काम मिल गया कि जब भी मौका मिलता, जिला मुकाम जाकर एसपी और कलेक्टर के सामने जाकर खड़े हो जाते, और अपनी जान की सुरक्षा की गुहार लगाने लगते ।

लेकिन इस तरह की प्रार्थनाये करते और अपना तबादला उस गांव से अन्यत्र किसी जगह कर देने के लिये गिड़गिड़ाते हमे महीनों बीत गये थे, पर कुछ न हो पाया था ।

हां, ये जरूर हुआ था कि नये जोश के साथ बीहड़ों में लौटे कृपाराम गिरोह ने अपनी हिंसक गतिविधियों में तेजी ला दी थी । मैं और लल्ला पंडित रोज के रोज बैठ जाते और प्रायः कृपाराम गिरोह से जुड़ी खबरों पर बातें किया करते थे, हमे हर दिन यही आशंका होती कि कृपाराम का अगला निशाना कहीं हम दोनों न हों ! लेकिन हम किस्मत वाले थे कि कृपाराम शायद हमे भूल चुका था, या उसने हमे निपटाने का काम दूसरे नम्बर पर रख लिया था । जबकि उसने पहले ही हमले में अपने गांव के पुराने दुश्मन हिककतसिंह का पूरा खानदान खत्म कर दिया था । रावत विरादरी के एक गांवमें छापा मारके उसने एक साथ दस आदमियों का अपहरण कर डाला था फिर उनमें से एक आदमी को इस संदेश के साथ रिहा किया था कि यदि चालीस लाख रूपये मिलेंगे तोही नौ आदमी छोड़े जायेंगे नहीं तो पूरे नौ आदमीयों की लाश संभालने के लिए पुलिस तैयार रहे ।

गांव-गांव में इस आशय की अफवाह फैल रहीं थी कि कृपारम गिरोह पूरे अंचल से नाराज है सो पता नहीं किस गांव में कब हमला कर बैठे । गांव के गांव रात रात भर जागते रहते, और जरा सी आहट पर उनकी हालत खराब हो जाती । जनता इतनी डर रही थी तो पुलिस भला कहां से हिम्मत रख पाती, पुलिस में भी भगदड़ मच गई -जो देखो चम्बल से बाहर तबादला कराके भागा जा रहा था । अखबारों में रोज के रोज घोसी गिरोह की गतिविधियां छप रही थीं । यह जानकर सबको बिस्मय हुआ कि इस बार कृपाराम के मन में कुछ राजनैतिक महत्वाकंक्षायें भी जनम ले गईं थीं, उसने एक नई मांग रखी थी कि उसकी बहन को उसके गांव से निर्विरोध सरपंच चुनवा दिया जाये तो नौ के नौ अपहृत बिना किसी फिरौती के छोड़े जा सकते है ।

पुलिस चैतन्य हुई, लेकिन गिरोह को पाना इतना सरल नहीं था, पुलिस डाल-डाल तो वह पात-पात । उसे न जिले की सीमा रोकती थी न प्रदेश की कोई परिधि । उसकी जहां मरजी होती वह वहां चल पड़ता । धीरेधीरे समय बीता तो गिरोह को चटकाने फिर रही पुलिस को यह चिन्ता लग गई कि ऐसा न हो कि गुस्सा हो के कृपारमा निरपराध अपहृतों को मार डाले उसने अपहृतों के परिजनों को चेताया कि वे तो हाथ पर हाथ धरके बैठ गये खुद भी तो अपने आदमियों को छुड़ाने के लिए कुछ करे। गांव का बच्चा-बच्चा सक्रिय हुआ और बाद मे पता लगा कि घर-घर से चंदा हुआ तब जाकर पच्चीस लाख रूपया इकट्ठा हुआ, जिसे चुकाकर अपने आदमियों को किसी तरह गांव में वापस लाया गया ।

अपहृतों के फोटो अखबारों में इसी बयान के साथ छपे कि वे बाकायदा पच्चीस लाख रूपये देकर आये हैं तो जनता भढ़क उठी ।

अब मजबूरी हो गई थी कि डाकुओं के खिलाफ कोई न कोई कार्यवाही की जावे, सो इसके लिये सरकार की ओर से पुलिस के एक तालीमयाफ्ता अफसर की तलाष की जाने लगी ।

-------------

अन्य रसप्रद विकल्प

शेयर करे

NEW REALESED