मुख़बिर - 29 राज बोहरे द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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मुख़बिर - 29

मुख़बिर

राजनारायण बोहरे

(29)

शिनाख़्त

छोटा दरोगा बोला -‘‘ चलो तुम्हारा किस्सा निपट गया !‘‘

मैंने मन ही मन सोचा कि किस्सा कहां निपटा था, असली किस्सा तो फिर शुरू हुआ था ।

जब बिस्तर पर पहुंचा, तो मेरी आंखों में नींद न थी । मेरी आंखों के आगे वह वास्तविक किस्सा घूम रहा था जो फिर षुरू हुआ था ।

उस दिन हमे घर लौटे हुये एक महीना हुआ था, कि अखबारों में खबर छपी ‘डाकू कृपाराम अपने साथियों के साथ समर्पण कर रहा है । ‘ लल्ला पंडित दौड़ते-दौ़ड़ते मेरे पास आये-‘‘ काहे गिरराज, किरपाराम कौ समर्पण देख आयें का ?‘‘

मैं अब बागियों से दूर ही रहना चाहता था । हालांकि श्यामबाबू ने हमे छोड़ते वक्त कहा था ‘‘ वैसे तो कुत्ता पालते हैं, तो उससे भी प्रेम हो जाता है, तुम तो मानुस के जाये हो ! तुम दोउअन से हमे बड़ो प्यार है गयो है । अब जब मौका मिलेगो, हम तुम्हारे गांव आके मिला करेंगे । मिलोगे न !‘‘

तब तो मजबूरी मैने हामी भर ली थी ।

पर अब मेरी कतई इच्छा न थी कि मैं बागियों से दूर से भी राम-राम करूं । मेरे पिता कहते हैं कि डाकू और पुलिस वालों से दूर की राम राम भी ठीक नहीं ।

लेकिन लल्ला पंडित माने नही थे, समर्पण का उत्सव देखने जबरन ही मुझे लिवा ले गये थे ।

हजारों के भीड़ जुटी थी हाई स्कूल के मैदान में । समर्पण का समय सुबह दस बजे का तय किया गया था, और वहां साड़े दस बज जाने के बाद भी कार्यवाही में बिलम्ब दिख रहा था । माईक से बार-बार कहा जा रहा था कि बस कुछ मिनिट धीरज धरें, जल्दी ही हेलीकॉप्टर से मुख्यमंत्री पधारेंगे, और उनके सामने दस्यु-सम्राट कृपाराम अपने साथियों के साथ सरेंडर करेंगे । धीरज के ये कुछ मिनिट, घण्टों में तब्दील हो चले थे, पर न मुख्यमंत्री का पता था, न बागियो ंका । किसी को पता भी न था कि इस वक्त बागी कहां होंगे ! मैं और लल्ला पूछते फिरे, पर किसी ने हमारी उत्सुकता का शमन नहीं किया, हैरान होकर हम दोनों एक तरफ बैठ कर इंतजार करने लगे ।

शाम चार बजे कलेक्टर और एसपी साहब की कारें मैदान में आकर रूकीं । वहां मौजूद अधिकारी उनकी ओर लपके । एक सज्जन माईक पर आये और घोषणा करने लगे-‘‘ सुनिये ! सुनिये ! एक जरूरी काम से हमारे सूबे के मुख्यमंत्री आज दिल्ली चले गये हैं, सो आज कृपाराम का गिरोह अब कलेक्टर साहब के सामने सरेडर करेगा ।‘‘

एकाएक मैदान में धूल से लथपथ एक मिनी बस ने प्रवेश किया, भीढ़ उधर ही लपकी । डाकू उसी में सवार थे ।

वही पुलिस जैसी खाकी वरदी, कमर का बेल्ट, पांव के भारी जूते और माथे की जटाओं को बांाधते वे ही कमांडो सैनिकों जैसे काले पटुका के साथ अभिमान से गरदन अकड़ाये चारों बागी मिनी बस से उतरकर मंच की ओर वढ़ गये । उनको चारों ओर से घेर कर उन्हे देखते पुलकित होते लोगों की भीढ़ गाढ़रों के झुण्ड की तरह ़ मंच तरफ चली आ रही थी ।

और मंच पर जनता के सामने जब अपने हथियार हाथेंा मे उठाये कृपाराम और बाकी डाकू सामने आये, तो मैंने अनुभव किया था कि श्यामबाबू हमारी तरफ घूर के देख रहा ह, ै वह षायद भीढ़ में से मुझे अपने पास बुला कर अभी हाल गालियां बकने लगेगा । मैंने ध्यान किया कि सारे-के-सारे बागी इस वक्त जोे हथियार हाथों में लिये हुए हैं, ये तो वे हथियार नही हैं, जो बीहड़ में वे लोग अपने कांधे पर लिये रहते थे । ऐसा लग रहा है, ये तो कोई दूसरे पुराने हथियार हैं । असली हथियार तो शायद, ये लोग कही और छिपा आये है। ऐसा काहे करेंगे ये........? मेरा मस्तिष्क देर तक इस सवाल को सुलझाता रहा, लेकिन सुलझााने में पूरी तरह असफल रहा और शांत हो गया । अब कोई भी कारण हो हमे क्या !

पास जाने का मौका मिला तो लल्ला पंडित तुरन्त ही मेरी अंगुली पकड़ के बागियों के पास तक जा पहुंचे थे और अपना महत्व प्रदर्शित करते हुए दूसरों को सुनाकर जोर से बोले थे -‘‘ मुखिया राम राम !‘‘

कृपाराम हमे पहचान गया । बोला-‘‘ राम राम लल्ला पंडित ! कहो कैसे हो ! .......काहे रे लाला, तैं नाही बोल रहो सारे ! भूल गयो का ?‘‘

‘‘ मुखिया आपको को न भूल सकतु हम !‘‘

‘‘ हां, को भूल सकतु है ‘‘कहते हुये कृपाराम खूब जोर से हंस उठा था ।

‘‘ चलो दूर हटो, कौन हो तुम लोग !‘‘ एक दरोगा हम दोनों को डांटकर वहां से भगाने लगा था, तो श्यामबाबू ने उसे डांटा था-‘‘ ये दरोगा जी, जरा ठीक से बोलो ! ये दोनों हमारे पुराने यार है, पूरे नब्बे दिन मेहमानी कराई हमने इन्हे !‘‘

यह सुनकर उस दरोगा ने एक बार फिर मुझे और लल्ला को घूर के देखा था । फिर उसने हम दोनों का नाम और गांव का नाम पूछा था, फिर जाने क्या याद आया कि बाकायदा जेब से डायरी निकाल के लिख लिया था ।

उसे अपना नाम पता लिखते हुए देखा तो मुझे कुछ अचरज सा लगा लेकिन भय के कारण मैं वहां बोला नहीं । यह तो तब पता चला था जब कि दो तीन-महीने बाद एक दिन एक सिपाही हमारे नाम का सम्मन लेकर गांव में आ पहुंचा था, जिसमें हम दोनेां को हुकुम दिया गया था कि हम लोग जेल में आकर डाकुओं की शिनाख्त करें !

अब बड़ी मुसीबत थी । यदि शिनाख्त को न जायें, तो पुलिस परेशान करेगी और जायें तो डाकू मार डालेगे । हर तरफ मुसीबत-ही-मुसीबत है। वहां जाकर सचमुच पहचान लेंगे तो डाकू हमारे दुश्मन बन जायेंगे ।

सम्मन मिले तो मैं आगबबूला होके, लल्ला पंडित पर चढ़ बैठा-‘‘ तुम्हे बच्चों जैसा जोश चढ़ता है लल्ला, जिद्द कर रहे थे-बागी देखने चलो, बागी देखने चलो ! अरे यार वे कोई अनजानी अजीब चीजें थीं क्या ? और फिर दूर से देख के घर लौट आते चुपचाप ! क्या जरूरत थी कि उनके पास जाके राम-राम करते। अब देख लिया अपने बचपने का नतीजा ! इधर कुंआ-उधर खाई ! बोलो अब कहां जाओ्रगे क्या करोगे ?‘‘

लल्ला पंडित की घिग्घी बंधी थी, वे क्या बोलते !

खैर, हम दोनों एस डी ओ पी के पास पहुंचे । एस डी ओ पी ने हमसे पूछा-‘‘ तुम उनको पहचान तो लोगे न !‘‘

‘‘ पहचान तो लेंगे, लेकिन हमारी इच्छा है कि हम इस झमेले से दूर रहें साहब!‘‘

डिप्टी साहब की त्यौरियां चढ़ीं-‘‘ पहचानते हुए भी अगर पुलिस की मदद नहीं करोगे तो समझ लेना सरकारी मेहमान बनने में देर नहीं लगेगी । तुम दोनों तो सरकारी कर्मचारी हो न ! सरकारी नौकरी मिनटों में चले जायेगी । तुम्हे तो वैसे भी सरकार की मदद करना चाहिए !‘‘

‘‘ मदद तो हम खूब करिवो चाहि रहे साहब, कहीं उनने हमे पहचान लियो तो हमारी खैर नही रहेगी ।‘‘

‘‘ उन हरामियों से तो डरते हो, और पुलिस की परवाह नही तुम्हे ?‘‘ पुलिस अफसर के स्वर में पुलिसिया अकड़ प्रवेश कर चुकी थी उस क्षण ।

हम दोनों चुप रह गये थे । कुछ देर बाद उसी अफसर की जीप में लद के हम लोग जेल ले जाये गये थे । वहां जेल में बन्द चालीस कैदी खड़े थे- सब के सब गर्दन तक कम्बल लपेटे थे और सबकी आँखों में भरी थी हिंसक पशुओं जैसी चमक ।

कैदीयों की शिनाख़्त परेड में मेरी और लल्ला की गवाही नोट करने एक जज साहब भी पधारे थे । अंदर जेल में चारों ओर पुलिस ही पुलिस थी ।

एक पंक्ति में खड़े उन कैदियों को दूर से देखते मुझे अचानक ही जाने क्यों रामकरन की निर्मम हत्या याद हो आई थी । कालीचरण और श्यामबाबू ने एक जानवर की तरह बेहिचक उस मेहनती आदमी को बिना कसूर ही मार डाला था, और इस अमानुसिक काम पर उन दोनों को कुछ कहने के बजाय कृपाराम ने अजयराम के स्वर में स्वर मिला कर इस काम को अच्छा ही करार दिया था।

नब्बै दिन का संग-साथ था, सो ज्यों ही हम बागीयों के सामने पहुंचे, हम दोनों ने बिना हिचक उन्हे पहचान लिया । नाम से पूछने पर हम दोनों ने स्पष्ट कहा कि ये कृपाराम है........ये श्यामबाबू........ये अजयराम......और ये कालीचरण ।

हमारी बात सुनके पुलिस हिरासत में होने के बाद भी श्यामबाबू गुर्राया-‘‘ लाला मादरचो़ देख लेंऊगों तोखों ! अगर बाहर निकलने का मौका मिला तो सबसे पहले तुम दोनों को खतम करूंगो !‘‘

हम दोनों सहमे हुए वहां से चल पड़े थे ।

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