मुख़बिर - 28 राज बोहरे द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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मुख़बिर - 28

मुख़बिर

राजनारायण बोहरे

(28)

कृपाराम की चिट्ठी

चम्बल की घाटी में एक बात प्रचलित है कि जिस घर का आदमी बागियों ने पकड़ लिया हो, उस घर पर बागियों की सतत नजर रहती है, सो कोई काहे को अपना नाम ऐसे आसामी के हितुओं के रूप में लिखवाये जो डाकुओं के दुश्मन हैं ।

दद्दा बिन बुलाये ही अगले दिन पन्द्रह किलोमीटर पैदल चल कर पुलिस थाने गये और अपनी नेहरू-कट जाकेट की ऊपरी जेब में मेरा फोटो धर ले गये थे । वहां ऐसे ही फोटो इकट्ठे किये जा रहे थे । मेरा कद-काठी और हुलिया लिख कर दरोगा ने दद्दा को झूठा-सच्चा आश्वासन देकर रवाना कर दिया और निर्देश भी दिया कि ज्यों ही डाकुओं से कोई खबर मिले तो वे सबसे पहले थाने में आकर सूचित करें ।

.............और दद्दा मन ही मन रोते-बिलखते घर लौट आये थे । रास्ते में वे जहां भी रूके, जी भर के रोये, क्यों कि पुलिस के सामने रोने-गाने का तो कोई मतलब नहीं होता, और घर की औरतों के सामने रोयेंगे तो उन्हे कौन धीरज बंधायेगा ? वे और ज्यादा कमज़ोर होंगी । उनके सामने तो दृड़ बने रहना होता है हर हाल में ।

घर लौट कर दद्दा ने घर वालों को पुलिस का झूठा-सच्चा आश्वासन कह सुनाया और अगले ही दिन से अपने स्तर पर मेरी खोजबीन शुरू कर दी ।

लेकिन वे पूरी तरह नाकामयाब रहे, उन्हे कोई सूचना नहीं मिली । मिलती भी कहां से, हम तो उन दिनों मास्टर की कोठी में पन्द्रह दिन की कैद काट रहे थे ।

दद्दा बताते हैं कि हमारी पकड़ के साठ दिन बाद उन्हे कृपाराम की चिट्ठी मिली जिसमें पूरे पांच लाख रूपये फिरौती मांगी गई थी । चिट्ठी पढ़के दद्दा काठ हो गये । अपना गुरिया-गुरिया भी बेच देंगे तो भी पांच लाख नहीं जुटा पायेंगे वे । जाने क्या सोच कर घर के दूसरे लोगों से चिट्ठी की बात छिपा गये । बताया कि दो लाख रूपये भेजने की खबर आयी है, सो जुटा रहे हैं । घर वाले परेशान हो उठे कि दो लाख भी कहां से आयेंगे ? खेती की जमीन भी पूरी की पूरी बेच दें तो भी दो लाख न जुट पायेंगे । फिर कैसे छूट पायेगा इस घर का चिराग ! उस रात घर में कोई सो न सका ।

दद्दा पगलाये से सारे नाते-रिश्तेदारों में फिरते रहे । कृपाराम घोसी के डर से कोई आदमी उनकी मदद के लिए तैयार ही नही होता था । दद्दा ने जमीन का मोल करवाया तो तीन बीघा के तीन लाख रूपये लगे, उनने फिलहाल गिरवी रखने की बात कही तो गांव का साहूकार झट से आधे पर यानी कि डेढ़ लाख पर उतर आया वो भी दो रूपया सैकड़ा हर महीना ब्याज चुकाने की शर्त पर । दद्दा मान गये लेकिन उनने भी खूब सौदेबाजी करी और दो लाख लाकर घर में धर लिए, पता नही कब खबर आये और जाना पड़े ।

फिर मेरी ससुराल से मेरे साले का बेटा आया, उसके हाथ साले ने एक लाख रूपये भिजवाये थे । दद्दा सनक उठे- मैं बूढ़ा डोकरा कहां बीहड़ों में फिरूंगा? अपने बाप से कहना कि अपनी बहन के सुहाग का खयाल है तो रूपया भी लावें और खुद चले आवें । जि रकम उनके पास पहुंचाइने पड़ेगी न !

लिहाज करते हुए मेरे साले हमारे घर आये तब तक मेरे बड़े भैया भी गांव आ चुके थे, लेकिन दद्दा ने जाने क्या सोच कर उन्हे हार में नही आने दिया, साले को लेकर खुद चले आये । घोसी गिरोह की तलाश में वे कई-कई दिन बीहड़ों में भटकते रहे लेकिन गिरोह तक न पहुंच पाये । एक दिन बीहड़ में ही उन्हे मेरे साथ अपहृत हुए ठाकुरों के परिजन मिले तो दो के चार साथी हुए फिर एक दिन लल्ला पंडित का साला भी मिल गया, इस तरह पांच आदमी भेले हुए और पांच के पांच जंगल में भटकने लगे ।

इस बीच कई बार पुलिस के लोग उन्हे मिले और हर बार ऐंठ कर यही सवाल करते-तुम पांच लोग इस जंगल मे काहे को फिर रहे हो साले !

दद्दा इस बीच खूब कर्रे हो चुके थे, वे अकड़ कर सचाई बताते, तो पुलिस वाले उन्हे अपने रास्ते जाने देते ।

एक दिन तो पुलिस के डीआईजी वगैरह मिल गये । पुलिस सिपाहीयों का वही रवैया -क्यों बे कौन हो तुम ? कहां घूम रहे हो इस जंगल में ?

अब तो दद्दा रो ही पड़े- साहब करमों की गति का कहं ? हमारे बेटा को उठा ले गया है कृपाराम घेासी । तुम लोग तो नहीं छुड़ा पाये, अब हमही इंतजाम करि रहे है, जौ भी न करें का हुजूर !

डीआईजी साहब एक बाप का दर्द जानते थे, उनने दद्दा से क्षमा मांग ली और अपना प्रयास करते रहने को कहा ।

दद्दा बताते हैं कि जंगल में उन्हे जो भी चरवाहा या आदिवासी मिलता एक ही सवाल पूछता-क्या ढूढ़ रहे हो दाऊ!

दद्दा कहते- हमारी छै भैंसे हिरा गई है वे ही ढूढ़ रहे हैं !

और ऐसे ही संवाद से कृपाराम घोसी से मिलने के सूत्र मिले ।

एक मारवाड़ी चरवाहे के प्रश्न के जवाब में जब दद्दा ने भैंसे खो जाने की बात कही तो वह हंस कर बोला था-तुम्हारी भैंसे नही हिराईं, तुम्हारे छै आदमी हिरा गये हैं । कृपाराम घोसी ने पकड़ेे हैं तुम्हारे छै आदमी, सच्ची है न !

दद्दा बोले-हां सच्ची बात है, तिम बताओ भैया कै उन से कहां मुलाकात हुइये !

उसी चरवाहे ने बंदोबस्त किया और दद्दा की कृपाराम और श्यामबाबू से मुलाकात हुई । पांच पकड़ के बदले बीस लाख मांगे श्यामबाबू ने तो दद्दा साफ नट गये, बोले -हम सब अपने बाल-बच्चों तक को बेच देवें तो भी बीस लाख न दे पायेंगे दाऊ ! तुम लोग बनिया-व्यापारी थोड़ी हो, कै मुनाफा-नुक्सान जोड़ते फिरो । हम अपनी बिसात से जो करि पाये वो दे रहे है। अब ले लेउ, और पहले हमे अपने लरिका-बच्चा दिखा देउ ।

श्यामबाबू चौका-तो क्या तुम रूपया पहले नहीं देउगे !

दद्दा साफ झूठ बोले- नहीं, भग थोड़ी रहे, देखो जे धरे रूपैया ?

कृपाराम नर्म पड़ा- ठीक है चलो हम पकड़ दिखा देते हैं ।

मुझे याद है कि उस दिन कृपाराम के साथ मेरे दद्दा और दूसरे लोग आये थे अैेर हम लोगों को देख कर कितने खुश हुए थे । हमारे मैले -चीकट कपड़ा और बड़ी बड़ी जटायें देख कर भारी अफसोेस हुआ था उन्हे ।

फिर दद्दा ने सबको इशारा किया था तो सबने रूपये निकाल कर धर दिये थे । कुल मिला कर पन्द्रह लाख रूपये जुट पाये थे । गिरोह ने देर तक मशविरा किया, और ताज्जुब हुआ कि हाथ आये रूपये वापस कर उनने दद्दा सहित सब को लौटा दिया था-इस निर्देश के साथ कि जिस दिन बीस लाख जुड़ जायें, मास्टर के पास जाकर जमा करा देइयो ।

वे लोग निराश होकर लौट गये ।

इस बीच रामकरन की हत्या हो गई थी, कहीं न कहीं बागियों को इस हत्या का अफसोस था । हम लोगों को संग लटकाये-लटकाये कृपाराम को तीन महीना बीत गये थे और इन तीन महीनों में बागी हमसे ऊब भी गये थे शायद, सो उनने मास्टर को खबर करी कि पन्द्रह लाख ही ले ले और गिरोह को खबर भेज दे । मास्टर की खबर मिली तो दद्दा तुरंत ही बाकी आदमियों को संग लेकर मास्टर से जाकर मिले ।

वे लोग तीन दिन वही पड़े रहे, मास्टर की जीप जंगलों में हमे खोजती फिरती रही । फिर जब हम मिले तो तुरंतई चल पड़े ।

मै अंदाज लगा रहा था कि मास्टर के यहां हम सबका मुण्डन करने के लिए नाई मौजूद होगा । मास्टर ने हम सबको नये कपड़ा मंगाये होंगे । पकड़ को आजाद करते वक्त ऐसा ही करने का रिवाज है हमारे बीहड़ों में । बताते हैं पहले तो आजाद करते वक्त बागी लोग पकड़ के गले में सोने की एक गंज (ताबीज) डाल देते थे, जिस पर उस डाकू का नाम लिखा होता था, जिसे देखकर उस आदमी को कोई दूसरा डाकू जिंदगी में कभी न पकड़ सके ।

लेकिन मुझे ताज्जुब हुआ कि ऐसा कुछ नहीं था, ये नये जमाने के डाकू थे । इन्हे न पुराने नियम कायदे याद थे न कोई रिवाज । हम सब को वैसे ही बड़े बड़े बालों में गंदे और बदबूदार कपड़ा लत्ता पहनाये विदा कर दिया डाकुओं ने ।

हां, चलने के पहले डाकुओं ने हमे बार-बार यह जरूर सिखाया कि पुलिस को हमे सिर्फ इतना बताना है कि डाकुओं को सोता पाकर मौका देखा तो हम सब भाग आये । हमे किसी भी हालत में फिरौती की रकम और डाकुओं छुपने की जगह नहीं बताना है । अगर उनके मिलने जुलने वालों के नाम और जगहों का पता बता दिया तो वे हमे कहीं का न छोड़ेगे ।

और हमने यही किया, पुलिस को कभी भी फिरौती की रकम, मध्यस्थ का नाम, डाकुओंके दोस्तों के नाम और छुपने की जगह नही बतायीं ।

अब इसे हेतम हम सबकी गलती माने तो मानता रहे, हमे अपनी जान बचानी है । उस तीन महीने के नरक में दुबारा नहीं जाना चाहते हम, जिसमें एक-एक मिनट एक-एक बरस की तरह काटा था हमने ।

बागी खुद उस नरक को नरक ही मानते थे। कृपाराम कहता था-हम तो चलती फिरती लाश हैं लाला ! जा नरक में जी रहे हैं ! का पतो कब मौत आ जाये ! सो हम सब ने तय करी है कै जब लो जियेंगे शान से जियेगे । अखबारन में चरचा तो होवे हमारी, नही तो काहे के बागी चुइंया-मुइया से!

अब नरक को तो हर आदकी नरक ही कहेगा न !

हर पल मौत से डरते रहना, जरा सी आहट पर चौंक पड़ना, अपने सगे संबंधियों पर भी षक करना और सबसे बड़ी बात महीनों तक न नहाना न धोना, ऐसे ही अघोरी बनके भटकते रहना, नरक में ही तो रहना कहलायेगा ।

मैने फिल्मों में वे डाकू देखे थे जो उम्दा कद्दावर घोड़ों पर बैठे घूमते थेे, जिनके डेरों पर सुरा और सुंदरियों के ऐसे दौर चलते थे कि उनकी जिंदगी से हर बेरोजगार को रष्क हाता था, लेकिन कृपाराम के साथ के नब्बे दिन हमारी जिंदगी के ऐसे दिन थे जब हमने जीते जी नरक के दरषन कर लिये । जब भी किसी मंदिर-मस्जिद के सामने से निकलते हम यही प्रार्थना करते -हे ईष्वर, किसी दुष्मन को भी कभी फरार न होना पड़े, हमारे षत्तुर बैरी भी कभी किसी डाकू की पकड़ में न रहें । दूसरी दुख तकलीफ दे देना लेकिन ऐसी जलालत भरी जिंदगी से बचाना ।

हमे ताज्जुब तो यह होता था कि ऐसी जिंदगी के बाद भी बागियों की हार्दिक इच्छा थी कि किसी तरह वे समर्पण कर दें और षान से चुनाव लड़ें । जिस तरह का परिदृष्य हमारे देष की राजनीति में आज हमें दिखाई देता है, उनकी यह इच्छा और उसका पूरा होना असंभव भी नहीं लगता था मुझे ।

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