एक कारीगर की ख़ामोशी Arpan Kumar द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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एक कारीगर की ख़ामोशी

एक कारीगर की ख़ामोशी

अर्पण कुमार

भला इतने महँगे वार्डरोब बनवाने की क्या ज़रूरत है हरिराम?” अपने खर्चे से कुछ उकताया हुआ मैंने उससे साफ-साफ पूछा।

जिनके पास पैसे कम हैं, वे अपने घरों में लोहे की कोई अलमारी लाकर रख देते हैं। जिनके पास पैसे ही नहीं हैं, वे बिना उसके ही रह लेते हैं।

हरिराम सुथार ने बड़े सहज भाव से यह बात कही। हरिराम सीकर का एक कारीगर है और इन दिनों मेरे फ्लैट में मॉडुलर किचन, वार्डरोब और शो-केस बना रहा है। मुझे उसकी साफगोई निश्चय ही थोड़ी चुभी मगर कहीं-न-कहीं अच्छी भी लगी। लंबे लंबे और बीच में खाली छूटे दाँतोंवाला कारीगर हरिराम अपनी धुन में आगे बोलता चला जा रहा था, इतना महँगा वार्डरोब बनवाने से आख़िर फ़ायदा क्या है!

यार, तुम तो अपने धंधे पर ख़ुद ही कुल्हाड़ी मार रहे हो। अगर सभी लोग तुम्हारी तरह ही सोचने लगें तो तुम्हारी रोजी-रोटी का क्या होगा?” मैं उसकी आँखों में संशयपूर्वक झाँकता हुआ बोला। मगर उसकी थकी और लकड़ी के महीन बुरादों से भरी आँखों में एक अपराजेय चमक थी। उसमें एक हुनरमंद का आत्मविश्वास चमक रहा था। अविजित भाव से उसने आगे बोला, ऐसा नहीं है सर। जिसको काम करवाना होगा, वह तो करवाएगा ही ना। आपलोगों के सामने भला मेरी क्या औकात है! आप जैसे सेठ भला मेरी बात क्यों सुनने लगें!

इस समय मेरे लिए उसका सेठसंबोधन मुझे किसी गाली से कम नहीं लग रहा था। मैं पिछले सोलह दिनों से उसके कामों का बारीक पारखी था, जिसे आप एक पैसिव ऑबजर्वरकह सकते हैं। मगर वह तो नियंता था। चौरस और बेजान बोर्डों को आकर्षक रूप देने में माहिर। ख़ुद अपने परिवार को गाँव में छोड़ दस बाइ बारह के एक कमरे में रहते हुए जाने कितने फ्लैट्स को वह मॉडर्न फर्नीचर से सजा-संवार चुका था। मध्यमवर्गीय सशंकित भाव से उसके पूर्ववर्ती कुछ कामों को देखता हुआ मैंने उसे यह काम दिया था। अविश्वास से विश्वास की ओर बढ़ता हुआ। मगर क्रमशः मुझे उसकी ईमानदारी और हुनरमंदी ने प्रभावित किया। मैं बीच-बीच में अपने कॉलेज से छुट्टी लेकर किसी एक बोर्ड पर बैठा उसके और उसके साथी के कामों का मज़ा लिया करता था।

"आदमी कमाता काहे के लिए है? शौक के लिए ही ना! बस इतनी सी बात है।" हरिराम ने अपनी ऐनक के पार झांकते और मुझे कुछ तौलते हुए कहा। मुझे लगा, एम.ए. अंतिम वर्ष का कोई विद्यार्थी मुझसे सवाल करता हुआ मानो स्वयं ही जवाब भी दे रहा हो। मुझे इस समय उसकी आँखें कुछ अतिरिक्त रूप से बड़ी लगीं।

.......... .......... ...........

"थाली 12 इंच की आती है। बड़ी से बड़ी। कोई सी भी इन दराज़ों में रख दो। आराम से आएँगी।" हरिराम ने मुझे मेरे मॉडुलर किचन की विशेषता समझायी।

"पड़ोस के झा जी वाले की ट्रे में थाली नहीं आतीं। बस प्लेटें आती हैं।" उसने स्वयं अपनी पीठ थपथपायी।

किचन में काम चल रहा था। ज़ोर शोर से। शीशे की खिड़कियों से जाड़े की धूप छनकर किचन तक आ रही थी। हरिराम के तेल से तह किए केशों को पीछे दीवार से टिककर खड़े खड़े ही मैंने बड़े ध्यान से देखा और उससे पूछा, "उनके कारीगर ने क्या ग़लती की?"

"उनके कारीगर ने दोनों ट्रे के बीच पूरी जगह नहीं छोड़ी। एक दो इंच जगह कम हो गई।"

"अच्छा! ये किसने कहा कि थाली नहीं आती?" मैंने अगला सवाल किया।

स्लैब के नीचे सर झुकाकर काम करते हरिराम ने उधर से ही कहा, "मैं देख कर आया था।"

.................. ...................

मेरे फ़्लैट की दोनों बालकनी पश्चिम की तरफ़ खुलती थीं। शाम के साढ़े पाँच बज रहे थे। लकड़ी की घोड़ीपर बैठा मैं कुछ सोच रहा था। दिन की जाती हुई धूप सेंक रहा था। तभी हरिराम का कारीगर अज़ीम आया और पच्च से नाक का पानी बाहर निकाल दिया। शुक्र था, मैं एक तरफ़ बैठा था। हालाँकि उसने नीचे देखकर थूका था। मुझे अंदाज़ हुआ कि अज़ीम की नाक बह रही है।

सिर पर टोपी लगाए और स्वेटर पहने अज़ीम चुपचाप अपना काम करता रहता था। एक दोपहर जब वह उकड़ू बैठकर पहले से तैयार दरवाज़ों में कब्ज़े लगा रहा था, मुझे उसका अंडरवियर दिख रहा था। सूती पतले कपड़े के अंडरवियर से कोई चार इंच नीचे उसकी पैंट सरक आई थी। मैंने ग़ौर किया...उसके पैंट में कोई बेल्ट नहीं लगा हुआ था। बस वह अपने काम में मगन था और आदतन बिना पूछे अपनी ओर से कुछ न बोलता हुआ अक्सरहाँ श्रमरत रहता था। जब वह अंतिम रूप से स्लैब में बाहर पहले से ही नाप-जोख कर बनाए गए दरवाज़ों को फिट करने लगा, तो एक-एक कब्ज़े को बाहर से पुनः लगाकर वह उनका मिलान करने लगा। उसे ग्रुपिंगका विशेष ध्यान रखना था। किचन के ऊपर बने पत्थर के स्लैब पर पालथी मारे मैं यह सबकुछ देख रहा था। किसी हुनर में ऐसी आस्था के आगे मैं नतमस्तक था। इस समय उसके किचन में हेड मिस्त्री हरिराम समेत कुल चार लोग बैठे हुए काम कर रहे थे। दरवाज़े के एक-एक पल्ले को अज़ीम ऐसे उठा रहा था जैसे कोई पेंटर अपनी तैयार पेंटिंग को उठाता हो। मुझे लगा, आख़िरकार यह उसके लिए पेंटिंग ही तो है। कोरे बोर्ड को यूँ अपने हिसाब से आकार देना, उसमें सनमाइका लगाना, उसे सुखाना, हर पल्ले पर नंबर देना...ये सब काम उसने इन कुछेक दिनों में तो पूरा किया ही है ना! तभी मेरी नज़र उसकी ओर गई। लगे हुए पल्लों को वह वापस खोल चुका था। मैंने पूछा, "इन्हें खोल क्यों दिए?"

अपने काम से बग़ैर नज़र हटाए उसने कहा, "ठीक करके देना पड़ता है न! सबकुछ सेट करके।" दबे होठों से अज़ीम ने धीरे से कहा।

मुझे लगा, कोई साधक साधना में लीन रहकर अपनी आँखें बंद किए कुछ कह रहा हो। अबतक अज़ीम से मैं कई बार उसकी ख़ामोशी को कुरेदनी चाही। मगर वह हर बार चुपके से मेरी बात को टाल दिया करता। उसके साथ उसके दो अन्य साथी फुंदन और सिकंदर भी काम किया करते थे। उन्होंने भी इस बारे में कभी कुछ नही बताया। वे दोनों बरेली के थे। अज़ीम पीलीभीत का था। तीनों में दाँत-कटी रोटी के कई दृश्य मैं इनके काम के बीच होनेवाले मध्यांतर के दौरान देखा करता था, जब वे एक साथ खाना खाया करते थे। हरिराम ने इसी अपार्टमेंट के दो अन्य फ्लैटों में भी काम ले रखा था। वह एक जगह टिककर नहीं रह पाता था। कुछ घंटे एमरेल्ड टावर के किसी फ्लैट में तो कुछ घंटे रूबीटावर के किसी फ्लैट में। अमूमन वह लंच नहीं लाया करता था। कभी कारीगरों के इस समूह में तो कभी उस समूह में खाना खा लिया करता था। ये सभी कारीगर, उसके नियंत्रण में ही काम किया करते थे। मगर ये तीनों बिला नागा एक साथ खाना खाया करते थे।

अज़ीम अमूमन कम बोला करता था। ख़ासकर मुझसे तो लगभग बिल्कुल नहीं। शायद मुझसे एक परदा रखता हो। बहुत पूछने पर कुछ बोल देता। मैं उसे सहज करने की कोशिश करता, मगर उदासी का कोई काला बादल उसपर हमेशा मँडराया करता था। एक शाम अपने काम में डूबा वह बोर्ड के पल्लों को किनारे से काटता जा रहा था और उसके किनारे में फेवीकॉल से चिपभी चिपकाता चला जा रहा था। उसे काम में यूँ डूबा हुआ देख फुंदन ने फब्ती कसी, "जिसने अपने हाथ से फेवीकॉल नहीं लगाया और मुँह में कील नहीं रखी, वह कारीगर नहीं। क्यों अज़ीम, तुम क्या कहते हो?"

अज़ीम हल्का सा मुस्कुराकर रह गया। वह जान रहा था कि यह उसे लक्षित करके ही कहा गया है। फुंदन ने मेरी ओर देखा और मैं भी धीमे से मुस्कुरा दिया। हमॆं ऐसा लगा कि अज़ीम को हँसाकर हमने दुनिया जीत ली हो। वह वापस अपने काम में लग गया। चुप्पी की चादर उसने अपने ऊपर फिर से ओढ़ ली थी, मानो चंद्रमा को बादल के घने टुकड़े ने कुछ देर बाद पहले की ही तरह ढँक लिया हो। मानो कई घंटों बाद बिजली आई हो और अपनी एक झलक दिखाकर कुछ सेकंड्स में ही वापस गुल हो गई हो।

रात के साढ़े सात बजे फुंदन ने अपनी यह पंच लाइन मारी थी। सुबह से खड़ा-खड़ा मैं अब थकने लगा था। मेरे ललाट में हल्का दर्द उठ चुका था। आज ठीक से लंच भी नहीं किया था। घर से लाया एक बोतल पानी कब का समाप्त हो चुका था। प्यास के मारे मेरे होंठ सूख रहे थे। बोर्ड कटने से लकड़ी के बुरादे अज़ीम के चेहरे और बाल पर फैले हुए थे। फुंदन की यह पंक्ति सुन मेरे सूखे होंठों पर अचानक मुस्कुराहट तैर गई थी। पत्रकारिता की क्लास लेते हुए और हमेशा पंच लाइन से अपनी ज़िंदगी जी रहे मुझको उसकी यह पंक्ति ख़ूब भाई। मैं कुछ देर के लिए अपनी थकान भूल बैठा।

मैं अपने आसपास कार्यरत इन नियंताओं को बड़े ग़ौर से देख रहा था। वक़्त ने इन्हें आधुनिक बना दिया था। अपने कई काम ये अब अत्याधुनिक मशीनों की मदद से करने लगे थे। कुछ सालों पहले नफ़ासत के कई कामों को करने में इन्हें वक़्त अधिक लग जाया करता था। श्रम भी ख़ूब लगता था। मगर तेजी से बदलती दुनिया में इधर कारपेंटरीभी ख़ूब बदली है। इनका काम पहले की तुलना में आसान और ज़्यादा आकर्षक हुआ है। सभी कारीगरों के हाथों में मोबाइल हैं और वे उनसे गाना सुनते हुए अपना काम करते हैं। मुझे अपने घर में बच्चों द्वारा मोबाइल का बजाया जाना एकदम पसंद नहीं है, लेकिन इन कारीगरों द्वारा मोबाइल बजाए जाने का मैं बुरा नहीं मान रहा था। मैं ख़ुद अपने भीतर के इस विरोधाभास की स्पष्ट व्याख्या करने में असमर्थ था, मगर अनुमान लगा सकता हूँ कि मैं शायद कार्य करते हुए इनके संगीत सुनने को इनका हक़ मानता हूँ।

जब मॉडुलर किचन के स्लैब के नीचे पल्ले भी अंततः लग गए, तब उन्हें बाहर से सही लेबलिंग करने के लिए फुंदन उनकी घिसाई करने लगा। पत्थरों की घिसाई होते मैंने देखी थी, मगर लकड़ी के बोर्डों की घिसाई मेरे लिए नई बात थी। मैं कुछ उत्साहित और पुलकित हुआ। फुंदन जब किचन से बाहर निकला, उसका पूरा शरीर बुरादे से भरा हुआ था। उसे देख ऐसा लग रहा था मानो वह आटे की चक्की से काम करके निकला हो।

इधर काम करवाते-करवाते मेरी कचूमर निकल गई थी। मेरी तनख़्वाह यद्यपि अच्छी है, मगर उसके हिसाब से अधिक खर्च और बैंकों के लोन कुछ ज़्यादा ही हो गए इन दिनों। बहुत मुश्किल हो रही थी, गृह प्रवेश कैसे करूँ! इस बीच हरिराम और उसके इन कारीगरों से कुछ दोस्ती सी हो गई थी। इनसे अपनी परेशानी भी शेयर किया। बड़े दुकानदार और माल-आपूर्तिकर्ता तो कुछ दिनों में पेमेंट न होने पर त्राहि-त्राहि मचाने लगते थे। जबकि इनमें से हरेक को मैं हर बार मोटी राशि का भुगतान किया करता था। अगर ये कुछ दिनों के लिए उधार देने पर राज़ी भी होते, तो ऐसे मानो मुझपर कोई बड़ा अहसान कर रहे हों। ऐसे में हरिराम ने मेरी बड़ी मदद की। उसने कहा, आप तो काम करवा लो प्रोफेसर साहब। पैसे बाद में देते रहना। मेरे कारीगर भी बड़े संतोषी हैं। पैसे लेने के लिए कोई हील-हुज़्ज़त नहीं करते। और अज़ीम। वह तो ऐसा सीधा है कि उसके ज़्यादातर पैसे मेरे पास ही रहते हैं। जब वह गाँव जाता है, तब ज़रूरत के मुताबिक मुझसे ले लिया करता है। मैंने ज़्यादा कुछ नहीं कहा, मगर हरिराम के इतना कह भर देने से मुझे बड़ी तसल्ली मिली।

एक दिन अज़ीम काम पर नहीं आया। मुझे इतने दिनों में उसकी ख़ामोश उपस्थिति की आदत हो गई थी। मुझसे रहा नहीं गया। मैंने हरिराम से पूछा, हरिराम, आज अज़ीम क्यों नहीं आया?”

हरिराम ने सहज भाव से कहा, आज महीने का पहला शुक्रवार है ना! वह बरेली गया है। वह हर महीने के पहले शुक्रवार को अपने माता-पिता के मज़ार पर ज़ियारत करने और वहाँ चादर चढ़ाने जाता है। एक दंगे में उसके माता-पिता की मौत हो गई थी। अपने परिवार का एकमात्र सदस्य वही था, जो उस रात ज़िंदा बच गया था।

मेरी आँखों में कौंधते प्रश्न को वह समझ रहा था, मदरसे में गर्मियों की छुट्टियाँ थीं उन दिनों। वह अपनी ख़ाला के पास गया हुआ था। इसलिए भगवान ने उसे बचा ली।

थोड़ा रुककर हरिराम कहने लगा, क्या हिंदू और क्या मुसलमान बाबूजी! जाने कितने हिंदुओं की रसोई को यह अज़ीम सजा-संवार चुका है। और हर दूसरे घर में रखे जाने वाले लकड़ी के मंदिरों पर ऐसी नक्काशी करता है कि इसके बराबर क्या कोई हिंदू कारीगर टिकेगा! कई हिंदू सेठ आगे बढ़कर इसको लेकर आने का मुझे ख़ास हिदायत दिया करते हैं। धरम-वरम सब बकवास है प्रोफेसर साहब, अगर उसकी वज़ह से कहीं कोई दंगा-फसाद होता हो। किसी निर्दोष की जान जाती हो। हम तो कारीगर लोग हैं बाबूजी। हमारा करमही हमारा धरमहै। बंदे की जात-पाँत से नहीं, हाँ उसकी हुनर से हमारे यहाँ ऊँच-नीच ज़रूर चलता है। उसमें भी हम अपने से पीछेवाले को अधिक से अधिक काम सिखाने की कोशिश करते हैं। कोई मेरी माने तो यह जो धरमहै न वह एक अँकुड़ा है। वही अँकुड़ा, जो हमारे बुनकर भाइयों के काम आता है। अब वे अँकुड़े हमारे शातिर नेता और धरमगुरुअपने साथ रखने लगे हैं। ये उसी अँकुड़े से सीधे-सादे लोगों को फँसाते हैं। वरना आप ही बताएँ हिंदू-मुसलमान के ख़ून में क्या कोई अंतर है! इस हरिराम और अज़ीम में कोई भेद है? उल्टे मैं तो यह मानता हूँ कि जब से मेरे साथ यह अज़ीम आया है, मेरे काम में बरकत ही बरकत हुई है।

अपनी प्रोफेसरी भूल मैं चुपचाप हरिराम की बातों को तौल रहा था। मुझे आज अज़ीम की चुप्पी का रहस्य पता चल गया था और उसे जानकर मैं भी ख़ामोशी की किसी गहरी और अंतहीन सुरंग में प्रवेश कर चुका था।

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