अल्हड़ Mukteshwar Prasad Singh द्वारा कविता में हिंदी पीडीएफ

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अल्हड़

तेज छिटकती बिजली
बादलों की गडगडाहट
हवा के झूले पर डोलती
वारिस की बूंदें आ बैठती है
चेहरे पर।
जलकणों से भीगता रोम रोम और सांसें
उतावली।
बार बार तेज चमक से चौंक
चुंधियाती आंखें मूंद जाती हैं बरबस
मूंदी आंखों के झरोखों में सज गयी हैं
वरषों की यादें जो ढंकी थी अरसों से
जलबूंदों से सिंचित सजीव हो गयी हैं।
फैलने लगे हैं हाथ
छूने को बिछरे हाथ।
भींगी रात की गहराई से झांकती
उमंगों भरी हंसी
मचल जाता है बाहों में समाने को
बावली।
2
जीवन जागरण
नित पूरब से पश्चिम तक आता जाता सूरज,
मानव को जगा जगा कर उर्जा देता सूरज ,
सदियों से प्रभात जागरण दुहराता है।
जीवन में भरने उल्लास निस दिन आता है ।
रे मनुष्य तोड़ो आलस ,
देती शक्ति सूर्यप्रकाश ,
जो कभी नहीं घटता है।
*
सूरज की लाली तुम्हें बुलाये,
शाम सबेरे याद दिलाये ,
इस जीवन का शाम निकट है,
सुबह जगाने निश दिन आये।

*
व्रत ले लो ना रहो सुस्त तुम,
प्रण ले लो ना रहो लुप्त तुम,
सांसें खींचो ,बाँहें तानो,
दृढ़ प्रतिज्ञ हो,अटल अभेद्य हो
आँखों में विश्वास हो दूना,
रेत से तब निकलेगा सोना।
3
मुस्कुराहट

पास हैं पर दूर हैं ,
दूर रह कर नूर हैं।
कब आयेगी वह सुबह ,
क्यों मिलने को मजबूर हैं।

सुबह के फूल की तरह दिनभर मुस्कुराओ,कि तेरी मुस्कुराहट पे मेरे दिल का चमन खिलते हैं

आकाश रंग गया नीला नीला,
उल्लास भर गया पीला पीला,
आँखों में जब से समाया चेहरा,
नर्म-मुलायम सा खिला खिला।

प्रेमसागर में डूबती गयी किस्तियां,
महसूसा नही दुनिया की फब्तियां,
जिस्म की मादक सुगंधों में खोकर,
मिट गयी सूनी सूनी सी तन्हाइयां।

नसीब के झरोखों से झांकती,
रूपसी सूरत को यूँ निहारती,
मेरी नज़रों से बरसती नेह में,
भींग भींग जाती हँसी शरारती।

जाते हुए लम्हों को सीने से लगा रखना,
जीवन के हिस्सों में एक फूल पिरो रखना।
बीता हुआ हर एक पल,है सुखद तुम्हारा कल,
इस कल को सदा अपने यादों में बसा रखना।

4
बर्सात की तन्हाई
बरसात में वह-
मेरे आँखों से आँखें यूँ टकरायी थी,
जैसे वर्षों की प्यास तृप्ति पायी थी।
निहारता रहा उसके हर अंग को,
तराशता रहा उसके रूप रंग को।
उसकी नैनों के टपकते तेज़ ,
मैं और मेरा अस्तित्व था निस्तेज।
पूरा रोम रोम सिहर उठा है ,
ना जाने क्यों लगता है
यह सच है या सपना है ,
किसी और की अमानत है या मेरा अपना है।
गुलाब की ख़ुश्बू वातावरण में फैल गयी,
अपनी मूरत मन में बनाकर निकल गयी।
मैं वहीं खड़ा अब भी बुत बना निहार रहा हूँ,
उस पुलकित पल की छवि सँवार रहा हूँ ।
किसी दिन मेरी तलाश पूरी ज़रूर होगी,
उसके अन्दर भी एक प्यास ज़रूर होगी ।
उसने मुझे भी तो जी भर के देखा है,
एक चाहत को उसके मन में देखा है।
तन्हाई में क्यों बादलों की दामिनी बीच,
अंगराई लेती उसकी तस्वीर बन गयी,
नाभी और उन्नत उरोजों के मध्य से टपकती
वर्षा की बूँदे मिल लकीर बन गयी।
तन पर चिपकी कंचुकी से झांकती मादकता,
फैलाकर अपनी बाँहें ।
बरबस उसके आने की आहट सुनाती है।
रात रात भर वर्षात में मुझे जगाती हैं।
जादुई नशा में नहायी ,वर्षात,
तुम और मेरी तन्हाई।
जवाँ हो उठी जीवन की सोयी ,
दबी आसनाई।
5
पीपल की पत्तियाँ

पीपल की चिकनी पत्तियों पर
बार बार फिसलते हवा के झोंके
डोलती पत्तियों के मध्य से
झांकती सूर्य किरणें ।

सूर्य किरणों पर सवार होकर
अदृश्य शक्तियाँ आती हैं नीचे
प्राणियों में ज्ञान -कर्म का बोध कराने
पर इन शक्तियों को ग्रहण करना
कहाँ संभव होता है सबके लिए।

पीपल की चिकनी पत्तियाँ
उस पर निवास करती तैंतीस हज़ार देव देवियाँ
निहारती है मानव की जन्म से लेकर मृत्यु तक
की कुकृत्यों और सुकृतियां।
पीपल तले खेलते कूदते अबोध बालकों में
ढूँढती हैं भविष्य की विशिष्टियां।
फूँकते हैं प्राणवायु और करती रहती हैं
रक्त की शुद्धियां।
परन्तु ना जाने क्यों बड़े होने के साथ
परिवर्तित हो जाती हैं अबोधों की ज्ञानेन्द्रियाँ
सद्गुगुणों से अधिक
अवगुणों की हो जाती है वृद्धियां ।

शीतल पीपल की पत्तियाँ
सदा दूर करती हैं
मानव की विपत्तियाँ
रृषि मुनियों की जप तप
सदियों से साधना रत
पाने को ईश्वरीय शक्तियाँ।
गढ़ते हैं कल्याणकारी उक्तियाँ
करते हैं यज्ञ अनुष्ठान
हरने को दुख संताप
करते हैं उपाय
चाहे ग्रीष्म हो या वर्षात या कि हो सर्दियाँ ।
6
अल्हड़ रूपसी
मोती सी दुधिया दाँत,हीरे सी चमकती आँख,
लाली लिए ओठ के ऊपर सुन्दर सुतवां नाक।

सुराहीदार सुडौल गर्दन,पर्वत से उभरे स्तन,
कमान सी कमर पर केशों के बलखाते फ़न ।

ऐसी एक रूपसी बाला,मन में मचाये हलचल।
जिया में उठती लहरें ,गाये गीत मचल मचल।

हर आहट में उसकी ख़ुश्बू ,हर साँस में तराना,
झरनों की तान जैसी,पायल का झुनझुनाना।

मासूमियत ऐसी कि झुकी नज़रों में मुस्कुराये,
उन्मुक्त चंचल अदाएं अल्हड़ घटा सी इठलाये

भींगा भींगा मौसम,भींगा भींगा तन।
वारीश के छींटे से बहक गया मन।
•••

यादों की झोली
भूली बिसरी बातें
हर रोज मुझे डुलाती हैं।
अपनी यादों की झोली से
अनगिन चित्र दिखाती हैं।
चाहे-अनचाहे बरबस
उन चित्रों में खो जाता हूँ।
छुटपन की हर इक आदत
तरतीबी से सजाता हूँ।
...जाड़े के दिन थे वे,
मैट्रिक की जब तैयारी थी।
हर घण्टे दिन रात,
चलती खूब पढ़ाई थी।
पछुआ हवा के साथ घुली
माघ माह की ठिठुरन,
सर्द भोर की तन्हाई में,
उठकर पढना लिखना मजबूरन।
अंधेरे में टटोल टटोल
ढूंढ लेता सलाई तीली,
लालटेन की बत्ती जलती,
रोशनी मिलती पीली।
ले अंगराई बाहर आता,
दृष्टि सीधी आकाश पर जाता (जाती)
सिर पर तीनडोरिया तारा देख,
साढ़े तीन का अनुमान लगाता।
इसी भोर की ताजगी में
लगातार पढ़ता रहता।
चारों तरफ नीरवता रहती
साथ में कलम काॅपी होती।
और मेरे दादा की खांसी
अकेलेपन में हिम्मत देती।
बीच-बीच में टोका टोकी-
‘‘पढ़ते हो कि सो गये’’
झपकी से मुक्ति देती।
दो घण्टे पढ़ने के बाद,
पड़ोसी सहपाठी की आहट पर
दरवाजे के बाहर आता,
अलाव की लहकती आग पर
थोड़ी देर हाथ सेंकता।
और चादर ओढ़े ओढ़े
कुछ देर फुस-फुस बतियाता।
उठकर चलने से पहले,
अलाव को ऐसे ढ़क देता,
ताकि दादा जान ना पाये
किसी ने अलाव को ताप लिया।
लगातार पढ़ते-पढ़ते ,
सुबह की लाली जब दिखती,
निकल पड़ता फिर नित्य क्रिया पर,
किताब काॅपी समेट सहेज कर।
रोज रोज़ होता यूंही, मेरे दिन का आगाज,
गांव से दो कोस दूर मेरा था स्कूल आबाद।
दस बजे से पहले पहुँचना,
पैदल रोज आना जाना,
शरीर का होता व्यायाम।
न बूशर्ट और ना पतलून,
पजामा कमीज वाला अफलातून,
स्कूल कक्षा में होता विश्राम।
पहले प्रार्थना, फिर हाजिरी,
शुरु होता पढ़ने का काम
शिक्षकों के शिक्षण से ही
मिलता भरपूर ज्ञान निष्काम।
गांवों की यह शिक्षा दीक्षा,
आज भी मेरे लिए वरदान,
ग्रामीण लिखाई पढ़ाई ही,
किया मेरा अस्तित्व निर्माण।


-मुक्तेश्वर मुकेश
11.05.2019

राहगीर
सड़क किनारे टूटी छप्पड़,
प्लास्टिक शीट से ढंकी,
धुंआ मिश्रित लकड़ी की ठंडी पड़ी आग,
टिप-टिप बरसते पानी से बचते-छिपते
उसी टूटी छप्पड़ वाली झोपड़ी में,
चुल्हे पर चाय की केतली देख घूसता है।
दरख्त के नीचे की छप्पड़ पर,
पत्तों से फिसलती बड़ी-बड़ी बूंदें
टप टप टूटी छप्पड से चूकर
नीचे ज़मीन पर आती भींगोती।
चुल्हे के पीछे एक काली जीर्ण शीर्ण
अर्द्धव्यस्क चायवाला,
मानो उनका ही इन्तजार कर रहा था।
आइये साहब सुबह से शाम होने को है,
वर्षात के कारण राहगीर आ जा नहीं रहे,
सभी घरों की ओर भाग रहे जल्दी जल्दी,
एक कप चाय अभी तक नही बिकी साहब।

आ गये हम अब
वर्षाती हवा की ठंडक में,
दो-दो कप कड़क चाय पीनी है।

जैसे कोई भगवान आ गया,
मुर्झाये चेहरे पर खुशी तैर गयी।
चुल्हे की बुझी ठंडी पड़ी आग,
फूंक से सुलगाने की चेष्टा में,
हाँफने लगा चायवाला।
एक छोटी लड़की अन्दर से बाहर आयी,
अपने बापू से आंटा के लिए रुपये मांगी।
-शाम हो रही है, आंटा नहीं है,
चायवाले ने कहा - साहब जी आ गये हैं,
चाय पी लेंगे तो रुपये दूंगा ,ठहर जा।
मरियल लिक लिक पतली बच्ची,
और दुबली-पतली काया का चाय वाला।

एक टक निहारता रहा दोनों को
आगन्तुक राहगीर,
अचानक मुंह से निकली,
ये लो बेटी - सौ का नोट बढ़ाया।
चायवाले ने रोका - बिना चाय पीये ,
चार कप के बीस के बदले सौ का नोट ?
माफ कीजिए साहब
आज की रात भी सो जाएंगे ख़ाली पेट,
कल का दिन तो ऐसा नहीं होगा,
वर्षात छूटेगी ना।

अरे नहीं आप खुद्दार हैं, पर मैं भी जिम्मेदार हूँ।
बेटी आपकी ही नहीं मेरी भी है।
चाय पी लेता हूँ।
रात से पहले आंटे के लिए यह नोट।
किसी दिन आऊँगा ,
चाय पिलाकर कर्ज उतार देना,
बच्ची का चेहरा खिल गया,
चायवाला भी संतुष्ट।

-मुक्तेश्वर मुकेश