जिजीविषा - एक तलाश Mukteshwar Prasad Singh द्वारा कविता में हिंदी पीडीएफ

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जिजीविषा - एक तलाश

जीवन-

जिजीविषा,

एक खोज,

एक तलाश।

ढ़ूँढ़ो आस पास,

मत छोडो आस।

जीवन की प्यास,

अनन्त आकाश।

(1)

" कुहासे की परत "

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कुहासे की परत का लिपटी जिन्दगी,

कैसे लड़ती है ठड से नित दिन,

मोटे लिहाफों में घुसे लोगों को क्या मालूम ।

खामोश निगाहें सिर्फ देखती हैं सामने से गुजरती

ओवरकोटधारियों को,

सरदी में गर्मी का मजा देते उनके लबादे को,

और फिर उसकी गरमी से गरमाते हैं,

बीरबल की पकती खिचड़ी की तरह-

या फिर नहाते हैं तालाब के ठंडे पानी में

दूर किसी घर में जलती रोशनी की गरमी लेकर ।

जितनी मोटी चादर उतनी ही गहरी ठंड का असर,

पर वह तो सोया है गहरी नींद में ठंड से बेखबर।

कुहासे की चादर ही उनकी चादर है

औरफुटपाथ है उनका बिस्तर।

(2)

" याद करता हूँ "

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हाँ यह सच है मैं उन्हें याद करता हूँ,

क्यों करता हूँ मुझे पता नहीं -

पर हमेशा याद आती है

सुन्दर छवि,

सलोनी हँसी,

मोती से दाँत,

झील सी आँखें,

और आँखों से छलकता अपनापन।

अपनापन -

कैसा अपनापन,

कभी देखा भी तो नहीं,

कभी छुआ भी तो नहीं,

कभी बोला भी तो नहीं,

फिर भी बेकरार है निश्छल मन।

शायद ऐसी ही होती है -

रिश्तों की सुगंध,

फूल दिखे या ना दिखे,

वह फैल जाती है दिग दिगंत,

और मदहोश हो जाता है तन बदन।

हाँ याद आने की वजह है -

वजह है उसका खुलापन,

वजह है कि वही है मेरे सुख दुख का साधन।

जैसे पूर्णिमा की चाँदनी बिखेरता चाँदन,

अमावस के घने अंधेरे में तारों भरा गगन,

जज्वातों का करता है आलिंगन

पूर्णिमा और अमावस में कभी नहीं होता मिलन,

पर दोनों का मजबूत है रातों का बंधन।

मजबूत रातों का अटूट बंधन।

(3)

"संस्कार"

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भाषण देना चौक पर या टीवी,अखबार में,

कब बदलोगे इंसा तुम लगा बोली बाजार में।

कहावत है --

"चूतर पर तो ताल देना होता बहुत आसान है

पर ढ़ोलक बजाने का होता गुण कलाकर में।"

हाथ भाँजना,भौंहें चढ़ाना ये तो सिर्फ दिखावा है,

रहते तो है सदा खड़े निज स्वार्थ हित कतार में।

इंसानों की है यही नैतिकता,अन्दर कुछ और बाहर कुछ,

क्यों दौलत और औरत की खातिर रचते प्रपंच अंधकार में।

एक बार मैंने लिखा है --

"जमीन पर गिरा एक भी सिक्का,

जिस दिन कोई नहीं उठायेगा ।

समझो आतंक भय भ्रष्टाचार ,

उसी दिन जड़ से मिट जायेगा।"

पर अपने को बदल नहीं पाते,ताक लगाये रहते हैं,

बस कमी ढ़ूढ़ते फिरते हैं,शासन और सरकार में।

मैं पूछना चाहता हूँ -

बोलो कब तुम बदलोगे,

राहत और अनुदान की राशि, कब तुम लेना छोड़ोगे,

कसम खाओ किसी नारी पर बुरी नजर नही डालोगे,

भाषण और प्रदर्शन से कब तुम बाहर निकलोगे,

जाति -धर्म के नारों से कब तुम नाता तोड़ोगे,

अपने निश्छल,पवित्र मन पर दाग नहीं पड़ने दोगे,

अरे भई!सच की खातिर जी कर देखो,भरो प्रेम संस्कार में।


(4)

"जग भाग रहा"

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जग भाग रहा उसके पीछे,

जिसका है कोई अन्त नहीं,

तेरा तो अन्त मुकर्रर है,

फिर कैसी भागमभाग मची।

यह जीवन तो मृग तृष्णा है,

जिस तक कोई जा न सका,

नहीं बुझती प्यास मरुस्थल में,

वहाँ जलकण कोई पा न सका।

कब रुक जायेगी साँस तेरी,

कब तुष्टि पायेगी आस तेरी,

ऐसी उलझी इस दुनिया में,

बस रहती है पहचान तेरी।

(5)

"ज़िन्दगी ख़्वाब नहीं"

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जिन्दगी ख्वाब नहीं कि सिर्फ देखा जाये,

जिन्दगी आग है जिसमें क्यों ना जला जाये।

सतरंगी ख्वाब तो सिर्फ रातों में दिखते है.

दिन के उजालों में ही क्यों ना चला जाये।

डग भर-भर के जिस जमीं पर रोज चलते हैं,

उस जमीं के एहसान की क़ीमत चुकाया जाये।

हाथों की लकीरों से कभी तकदीर नहीं बनती ,

तकदीर बनाने के लिए हाथों को चलाया जाये।

(6)

" भोर की अलसायी हवा "

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भोर की अलसायी पुरवाई हवा

ना जाने कैसा जादू किया

कि महुआ की चादर बिछ गयी।

पर देह का पोर-पोर टूट रहा है आज।

पुरवैया हवा ने अलसा दी

उठने का मन नहीं होता।

कौन आकर चुपके चुन ले भागेंगे महुआ

छोरे छोरियाँ इसी ताक में तो रहते हैं।

मेरे बिना वह नहीं आयेगी,

दूर से ही देख लौट जाएगी।

हम दोनों के गाँव पास पास हैं

और रिश्ता कुछ खास खास हैं।

शाम में ही तो वादा की थी

कि मुझे फिर से जीना है अपना बचपन,

जिसे ले भागा है मेरा आधुनिक क्षण।

फिर ना जाने कब मौका मिले,

एक साथ महुआ की मह मह में-

साथ- साथ झुक- झुक कर चुनना

और मिठास से भरे दिन की यादें संजोना।

शायद आस अधूरी ही रह जाएगी,

कल तो फिर चला जाना है,

ना जाने कब फिर आना है।

कंक्रीटों के जंगल में खोखला जीवन जीना है।

महुआ की मीठी महक की मादकता अब कहाँ पाना है।

(7)

" खलिहान "

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हाँ वर्षों बीत गये हैं पर

खलिहानों के आनन्द दायक दिनों की यादें

आज भी ताजी और मुग्ध करती हैं।

गेहूँ चने मटर की बोझों से अलग अलग

टालें बनायी जाती।

फिर सज जाते खलिहान

जिसके लिए जरूरी होते

गाँव के बाहर खाली मैदान ।

जब तक फसल कटनी चलती

हम बच्चे धमाचौकड़ी करते,

खलिहान में लगी टालों के बीच

आँख मिचौनी,आस पास खेलते।

फिर खलिहान के पूर्ण रुप से भरते ही

बीच की खाली जगह में गड़ जाती मेह

खुल जाती बोझें

मेह के चारों तरफ बिथारी जाती बंधी फसलों के तने

और छोड़ दी जाती बैसाख की धूप में सूखने।

अपने और गाँव के किसानों बथान से ले आते

पाँच सात में बैलों को खलिहान में।

फिर जोड़ देते मोटे रस्से से बने कराम में,

जिनका एक सिरा मेह से बाँध शुरू होती दौनी।

शाम तक बैलों के घूमते रहने से खुरों से होती दौनी ।

दौनी के बाद महीन टुकड़ों में तब्दील सूखी डंठल

बन जाते भूसे

तब बालियों- छिमियों से निकले दाने

भूसे में साफ दिखने लगते।

लेकिन असल आनन्द जो बताना चाहता हूँ-

जो मुझे याद आते हैं

खिली बैसाख की चाँदनी में मेह के वृत में फैले मुलायम

भूसे की गद्देदार परत

बन जाते रातों सोने के बिछौने,

मैं भी आ जाता दरी जाजिम के साथ सोने,

शीतल स्निग्ध पंखा झलती हवा असीम सुख देता।

अब ना खलिहान है ना बोझों का मकान है,

खेत में खड़े ट्रेक्टर -थ्रेसर ही दौनी का साजो सामान है

उड़ते रहते हैं भूसे ,बोरों में बंद होते हैं अनाज

पर नहीं मिलती है तो मेरे संस्मरण के खलिहान

जिनसे सदा अनजान रह जाएगी हमारी संतान।

(8)

" पूजा-अर्चना "

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चहुँ ओर पूजा अर्चना,

माँ शारदे की वन्दना।

हो रही है हर घरों में,

वीणा पाणि की उपासना।

माँ के आगे नत हैं सब

मन में संजोये कामना ।

विद्या का वरदान दे दे,

है लक्ष्य हमको साधना ।

सदबुद्धि आये हर मनु में,

दुख का नहीं हो सामना।

हर तरफ उल्लास हो,

हर दिल में हो सद्भावना।

विद्वेष को जड़ से मिटाएँ,

माँ शारदे की शुभकामना।

मुक्तेश्वर प्र सिंह