खुले आकाश के नीचे धड़कती जिन्दगी
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गाँवों या शहरों के बाहर किसी खाली बंजर सूने मैदान,बाग़ीचे या फिर रेलवे स्टेशन के छोर पर मालगुदाम के आसपास तनी तम्बुओं में मैले कुचैले, औरत -मर्द ,बच्चे ,जवान व बूढ़ों पर एकाध बार नजर जरूर पड़ी होगी।परन्तु गहराई से उसकी असल जिन्दगी में झाँकने का मौका नहीं मिला होगा।तो ले चलता हूँ उन तम्बुओं ,की वस्ती में जहां जिन्दगी धड़कती है।
सहरसा की हृदयस्थली में अवस्थित केन्द्रीय विद्यालय के पश्चिम खाली जमीन में 24-25 तम्बुओं का टोला दस दिनों से बसा है।वहाँ पहँचते ही शोरगुल करते,कूदते फाँदते अधनंगे बच्चों को देख महसूस किया कि उन लोगों के उन्मुक्त खेलकूद में ठंडक में ठंड का कोई प्रभाव नहीं।गर्मी खुले आकाश तो वर्षात में भीगते रहना नियति है।
तम्बुओं की दुनिया मे रहने वालों को ना तो पक्के घरों में रहने का नसीब है ना कभी चाहत।बस हाथों की हुनर के बूते दो जून रोटी की जुगाड़ करते हैं और अंधेरी तम्बुओं मैं बेखौफ सोते हैं।
अपने बीच मुझ अजनबी को देख वे अपने तम्बुओं में जा घुसे । हाथ में नोटबुक देख दो तीन बूढ़े वुजुर्ग कातर आवाज में कहने लगे।मेरे तम्बुओं को उखड़वाओगे क्या । ऐसा मत करो बाबू।यह आश्वस्त करने पर की ऐसा कुछ नहीं होगा।तब आत्मीय होकर बैठने का अनुरोध किया।एक महिला अन्दर से चटाई ले आयी।उस बूढ़े का नाम था भोई पारदी आदिवासी एवं महिला का नाम था लीला बाई आदिवासी।
धीरे धीरे कुरेदता रहा और तम्बुओं की जिन्दगी का राज खुलता गया।
घुमन्तुओं के 24-25 तम्बुओं में छोटे बड़े सभी उम्र के लगभग 150की संख्या में लोग 10 दिनों से यहाँ डेरा जमाये हैं।इनमें आधे से अधिक सागर,वर्धा और दमोह जिले मध्य प्रदेश के तथा बाकी उत्तर प्रदेश के मूल निवासी हैं परन्तु अपने पूर्वजों के गुजरात के होने के कारण सभी गुजराती बोलते हैं।
धीरे धीरे जिज्ञासावस बच्चे और कशोर किशोरियां मेरे इर्द गिर्द खड़े हो गये।पूछने पर पता चला कि इसमें किसी को भी अक्षर ज्ञान नहीं है।कारण कि नंगधड़ंग इन बच्चों को जन्म से लेकर बुढ़ापे तक घुमक्कड़ी जीवन के बीच कभी स्कूल जाने का अवसर ही नहीं मिलता।
सुबह मर्द औरत निकल जाते हैं गावों -मुहल्लों में चूड़ियाँ और हाथ से बने खिलौने गुलदस्ते बेचने।फेरी कर शाम होने के पहले लौटने के साथ झटपट ईंटों के चूल्हों पर लकड़ियां जलाकर रोटी भाजी बनाने में जुट जाती हैं।दूर चापा कल से बाल्टी,बड़े डब्बे में पानी लाना पड़ता है।शाम में सभी नहाती भी है।मेरे पूछने पर कि रात में रोशनी के लिए दीये लालटेन के लिए तेल कहाँ से लाते हैं।कहा आमलोगों को रोशनी की जरूरत नहीं।रात होने से पहले खा-पीकर सो जाते हैं।फिर भोर में ही उठते हैं।खाने में ये लोग रोटी,भात,तरकारी मछली माँस सभी कुछ खाते हैं।मशालों में मिरचाई का प्रयोग ज्यादा करते हैं।कुल मिलाकर दिन के उजाले में ही इनकी जिन्दगी गतिशील रहती है।
सिर्फ वर्षात के तीन चार माह अपने गाँव को लौटकर बिताते हैं।बाकी समय घुमक्कड़ जीवन जीते हैं।
छोटे छोटे बच्चे भले मैले कुचैले कपड़े पहने,अधनंगे तन हों , पर महिलाएं पूरे सजधज कर सामान बेचने निकलती हैं।जितनी भी महिलाएं मेरे सामने फेरी कर लौटीं सभी छरहरी बदन वाली लम्बी लम्बी अच्छे छापदार साड़ियों और डिजाइनर ब्लाज पहने,नाक में नथ कानों मे बूंदी ,गले में सिकड़ी एवं अच्छी चूड़ियां पहने लिपिस्टिक लगाये थी।यानी ग्राहकों के बीच अपना प्रभाव जमाने के लिवास में।
उन्होंने बताया शादी हम अलग अलग के घुमक्कड़ अपनी ही विरादरी में करते लेकिन तम्बुओं में नहीं अपने घर गाँव जाकर ।
पर्व त्योहार गुजराती संस्कृति के अनुसार मनाते हैं।गीतों की भाषा भी गुजराती ही होती है।
अब असल सवाल ये है कि सरकारी योजनाओं का कोई लाभ इन्हें नहीं मिलता ।राज्य राज्य शहर शहर घूमते अपने ही बूते दुख दर्द सहकर जिन्दगी जीते हैं। खुले में शौच कर ।
शौच मुक्त अभियान पर बाधा डालते।पेयजल भी शुद्ध मयस्सर नहीं।आखिर इस देश में प्राप्त होने वाले नागरिक सुविधा के हकदार ये तम्बुओं में रहने वाले घुमन्तू हैं कि नहीं ।इनके लिए भी नीतियां बननी चाहिये।
मुक्तेश्वर मुकेश
सहरसा
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यात्रावृतांत बैंगलुरु से ऊटी-कुन्नुर तक
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बेंगलुरु एक दम पहचाना सा आइ टी सीटी जिसे सिल्कोन भेली भी कह सकते हैं।कभी बागों का शहर था बंगलौर अब पूरी दुनिया भर की सॅाफ्ट शेयर कम्पनियों की शाखाएं बसती हैं यहाँ।मेरी अपनी एवं दर्जन भर सगे संबंधियों की पारिवारिक दुनिया यहाँ फल फूल रही हैं।पर मैं कभी नहीं आ सका क्योंकि लम्बी छुट्टी कभी मिल ही नहीं पाती पर इसबार यात्रा छुट्टी लेने में सफल रहा।
मैंने लोगों के सुझाव पर ध्यान दिये बिना प्लेन की जगह ट्रेन से यात्रा करने की योजना बना मुज्जफरपुर-यशवंतपुर
एसी थ्री में आरक्षण करवा अपनी पुत्री,पत्नी के साथ 17अक्टुबर2016 को खगड़िया स्टेशन से यात्रा आरंभ की।
मेरा पुत्र और पुत्रवधू अच्छे ओहदे पर है।वहाँ भी घर जैसा है।
मैंने ट्रेन से यात्रा को अपनी यायावरी के रुप में लिया।कुछ जानना और खोजना मेरी आदत रही है।जब भी दूरस्थ या निकटवर्ती जगहों की यात्रा की"यात्रा वृतांत" लिख कर प्रकाशित किया तथा शेयर किया।हालांकि हूँ रेलगाड़ी पर हर उस जगह को नजदीक से टटोला जिसे सिर्फ नक्शे में देखा सुना था।गहरी नीरव रात में जब सहयात्री नींद में हिचकोले ले रहे थे,मैं ट्रेन से उतर कर मोबाइल से फोटो लेता नीचे उतर कर ।मैंने इस बार बिहार,बंगाल,झारखंड ,उड़ीसा ,आन्ध्र प्रदेश,तेलांगना,तमिलनाडु व कर्नाटक को एकबारगी लाँघ लिया।उन शहरों को महसूसा जिनमें मुख्य हैं-कटक ,भुवनेश्वर,चिल्का लेक,बेहराम श्रीकाकुलम,विजयनगरम,विशाखापत्तनम,राजमुन्द्री,विजयवाड़ा,चेन्नई और बंगलौर अन्त में।कुछ तस्वीरें भी शेयर कर रहा हूँ।कर्नाटक से निर्दिष्ट पर्यटन स्थलों की यात्रा वृतांत बाद में।
बेंगलुरु से पहली पोस्ट
5..30 PM.19/10/2016
22 अक्तूबर को सुबह 5 बजे अपनी पत्नी बबीता,पुत्र हर्षवर्धन,पुत्रवधू शालिनी,एवं पुत्री पल्लवी के संग ऊटी और कुन्नूर की यात्रा पर निकल गया।
बेंगलूरू से ऊटी लगभग 350 किलोमीटर दूरी पर है जहाँ विजयवाडा के रास्ते पहुँचा जाता है।
"इनोवा " गाड़ी का ड्राइवर ही गाइड की भूमिका में था।गाड़ी रफ़्तार से मंज़िल की ओर बढ़ रही थी।चौड़ी समतल सड़क जगह जगह दिशा निर्देश देते बोर्ड अनजान यात्रियों के लिए गाइड का कार्य कर रहा था।सड़क के बग़ल नारियल के बाग़ीचे लगातार दिख रहे थे।इतनी बड़ी संख्या में नारियल के जंगल मैंने नहीं देखे थे।
सड़क किनारे बिल्डिंगें ,माल ,होटल विकास और आधुनिकता की गाथा सुना रहे थे।
क़रीब तीन घंटे बाद हम सब "बांदीपुर टाइगर रिज़र्व में प्रवेश करने वाले थे।फ़ारेस्ट गार्ड ने रोक कर हिदायत दी।जंगल में मोटर वाहन नहीं रोकेंगे,साथ ही इनोवा का विन्डो ग्लास बंद रखेंगे।यदि टायलेट ,वाशरूम जाना है तो गार्ड कैम्प में व्यवस्था है।उपयोग कर लें।
हम सब चेतावनी को ध्यान में रख जंगल में प्रवेश कर गये।क़रीब एक किलो मीटर ही आगे बढ़े कि हिरणों के झुंड कुलाँचे मारते अठखेलियाँ करते दिखे,कई हिरणों के झुंड लगातार दिख रहे थे जो बेख़ौफ़ घास चर रही थीं।मैंने हिम्मत कर चेतावनी की अवहेलना कर हिरणों के प्राकृतिक मौज मस्ती का विन्डो ग्लास नीचे कर विडियो बनाता गया।कुछ आगे बढ़े तो वनैले भैंसों के खूँख्वार दौड़ लगाते झुंड सड़क से क़रीब पचास फ़ीट की दूरी पर दिखाई ,स्टील फ़ोटो लेकर इनोवा की खिड़कियों को बंद कर कुछ गति देते आगे बढ़ते रहे।जब जंगल में आधे दूरी तय कर लिए तो विशालकाय छह हाथियों को सड़क पार करते देख लिया।ड्राइवर कुछ दूर पहले गाड़ी रोक दी।दिल दहल गया।पर यह क्या हाथी फिर लौट कर सड़क पर चलने लगे।लगा जैसे हमारी गाड़ी को देख इधर ही आ रहे हैं,पर नहीं वे सब पुन: उतर कर एक जंगली पेड़ की टहनी तोड़ने में लग गये।गाड़ी को द्रुत गति से ड्राईवर आगे बढ़ा दिया,फिर भी मैं झट खिड़की का शीशा नीचे सरका कर विडियो ले ली।शायद जीवन में ये पल दुबारा ना आ पाये।
साथ में लाये स्नेक्स को लेते हुए जंगल का नज़ारा देखते जा रहे थे,तभी मेरी बेटी जो पीछे दाँया तरफ़ थी चौंक कर बोली-पापा मोर देखिए।चूँकि मैं बाँयी तरफ़ फ्रोन्ट सीट पर था इसलिए लाइव विडियोग्राफ़ी तो नहीं कर सका पर फ़ोटो खींच ली।
हमें डर भी था और दूर से ही सही बाघ देखने की इच्छा भी थी।व्याघ्र अभ्यारण में बाघ देखने का अजब रोमांच होता।वैसे दर्जनों बार बाघों को सर्कसों में देखा है जिसमें रेमन सर्कस ,नटराज सर्कस आदि का नाम याद है।
क़रीब एक घंटा लगातार चलने के बाद बांदीपुर टाइगर रिज़र्व से निकल "मद्दुमलाई टाइगर रिज़र्व " में प्रवेश कर गये।
"बांदीपुर टाइगर रिज़र्व "का क्षेत्रफल कर्नाटक एवं तमिलनाडु राज्यों के बीच आधा-आधा है।पर "मद्दुमलाई टाइगर रिज़र्व" का सम्पूर्ण क्षेत्रफल तमिलनाडु है।
दोनों जंगलों में काफ़ी समानता थी।जंगलों के द्वार पर हन्टर जीपें वन विभाग एवं निजी लाइसेंस धारी मालिकों की बड़ी संख्या में लगी थी जो हज़ार रूपये लेकर घने जंगल की सैर कराकर बाघों सहित अन्य वनैले जानवरों को दिखाते।मैंने भी सम्पर्क किया पर बताया गया कि घुमाने में दो तीन घंटे लगते हैं।वन विभाग के फोरेस्ट गार्ड वाले सफ़ारी जीपें उपलब्ध नहीं थी कारण कि उन लोगों की सभी गाड़ियाँ निकल चुकी थी।मैं नौ बजे के बाद पहुँचा था तब तक सभी गाड़ियाँ बुक हो चुकी थी।जंगल का प्राकृतिक सौन्दर्य का दर्शन करते हुए "मद्दुमलाई जंगल"को पार करने के बाद पहाड़ी की घुमावदार चढ़ाई पर चढ़ने लगा।ज्यों ज्यों चढ़ाई पर ऊँचा चढ़ता रहा पहाड़ी की सड़कें तीखे मोड़ वाले होते गये।सामने से आनेवाला मोटर गाड़ियों को देखने के लिए मोड़ो पर बड़े बड़े मिरर लगे थे।धीरे धीरे चलने की सख़्त हिदायत वाले वार्ड लगे थे।चालक से ज्ञात हुआ कि इस पहाड़ी रास्ते पर रात सात बजे से सुबह चार बजे तक गाड़ी चलाना प्रतिबंधित है।
लगभग एक बजे ज़मीन तल से लगभग ८५० फ़ीट उंचाई पर बसे "ऊटी"हिल स्टेशन पहुँच गया।पूर्व से ही होटल आरक्षित कर लिया गया था।ऊटी में कंपकंपाती ठंड का सामना हुआ।हम सब बेंगलूरू से गरम जैकेट,स्वेटर ,कम्बल भी साथ में लाये हुए थे।होटल के अपने तीन आरक्षित कमरों में सामान रखा,सोलर सिस्टम से गर्म किए जाने वाले हाट वाटर के उपयोग का होटल में प्रबंध था। फ्रेस होकर खाना खाया ।थोड़ी देर के आराम के बाद निकल पड़ा "ऊटी" को देखने।
डोड्डा बेटा ऊटी से ६किलोमीटर उससे २५० मीटर और ऊँचे स्थान पर है।यहाँ आकर टेलिस्कोप से गहरी घाटी में दिखते मनोहारी दृश्य देखने पूरे भारत से हजारों पर्यटक रोज पहुचते हैं।आपसबों को भी वह दृश्य दिखाने की कोशिश करता हूँ।
दूसरे दिन यानी 23अक्तूबर2016 को ऊटी से आगे की यात्रा पर निकल पड़ा।साथ की इनोभा गाड़ी को घाटी मार्ग से कुन्नुर भेज दिया और स्वयं सपरिवार नीलगीरी पर्वतीय रेल से टॅाय ट्रेन (toy train)से चला।ऊटी स्थित उडगमडुम हिल रेल स्टेशन से कुन्नुर के बीच १९ किलोमीटर की दूरी है जिसके बीच पाँच स्टेशन हैं।तथा छोटे मझौले पाँच पहाड़ी सुरंगों से toy train एक घंटा में कुन्नुर पहुँचती है।रेल पटरियों के मध्य की दूरी के माप अनुसार इसे शॅार्टगेज कहते हैं।1908ई०में इस रेल की स्थापना हुई।इसे वर्ल्ड हेरिटेज रेल का दर्जा है।
लवडेल ,केट्टि,अड़वंकाडु ,वेलिंघटन::::::::,के बाद कुन्नुर(coonoor) पहुँच गये।रेल के दोनों किनारों के दृश्य -चाय बगान,पहाड़ी के चारों ओर सुन्दर मकान,घाटियों-नालों में उन्नत जनजीवन और विकसित रंग ढंग हमारे बिहार के किसी भी शहर से साफ सुथरा।
कुन्नुर में बहुतायत से चाय की खेती होती है पर यह कारपोरेट घरानों मसलन टाटा,लिप्टान,ब्रुकबांड एवं अन्य के पास लीज पर या नियंत्रण में नहीं हैं।चाय का उत्पादन कुटीर उद्योग के द्वारा किया जाता है।मैं रास्ते में पड़ने वाले कई फैक्टरी में जाकर प्रोसेसिंग देखा।विडियो क्लिप भी लिया।पहाड़ों के बीच चाय की खेतों में प्रकृति का अद्भुत नजारा देखा।
चाय के। साथ साथ चाॅकलेट बनाने के कुटीर उद्योग भी सैकड़ों की संख्या में मिला।उसके बनाने के तरीके भी अपनी आँखों से देखा।कच्चा माल के रूप में कोको,दूध,बटर,करंजा,कोप्रयोग में लाया जाता है।दो घंटे में क्वालिटी का चॅाकलेट तैयार हो जाता है।
कुन्नुर से मुक्तेश्वर मुकेश।