Patjhad ke phool books and stories free download online pdf in Hindi

पतझड़ - के फूल

सुकून

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अरसे बाद देखकर सुकून मिला

मानो पतझड़ में कोई फूल खिला।

रिश्तों में अब भी वही गर्माहट संजो रखा है

जहाँ से राह बदलकर तूने मुझे फेंका है ।

कहाँ मैं हूँ कहाँ तुम पर फेसबुक पर देखा है

प्रोफाइल खोलकर तुझे छुआ परखा है

बहुत खाली खाली सा लगा संक्षिप्त फेसबुक लेखा है।

पर लगा जहाँ तुम छूटी थी अब भी वहीं है

चेहरे की झुर्रियां कहती है सब ठीक ठाक नहीं है

आखिर कौन सी राह फिर मुड़ गयी

कि तुम्हारी रंगत उड़ गयी

शेयर कर लें बाक़ी दिन हंस खेलकर

कही अनकही कुछ हैं बोझ दिलपर।

(2)

माँ भारत

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जय बोलो माँ भारत की

जय बोलो भारत माता की।

जिसने हमको जन्म दिया

अपने उस भाग्य विधाता की।

खेतों की हरियाली में,

बागों की खुशहाली में,

रंग बिरंगे सजे हुए ,

फूलों की लत्तर डाली में।

घास फूस से बनी हुई

और मिट्टी से लिपी हुई

झोपड़ियों की लाली में।

गायें देती दुग्ध सुधा सी

जीवन धन बदहाली में ।

कृषकों की मिहनत से सजती,

रोटी भात थाली में।

सौ में अस्सी बसते गाँवों में

जय बोलो धरती माता की।

जय बोलो माँ भारत की

जय बोलो भारत माता की ।

जिसने हमको जन्म दिया

अपने उस भाग्य विधाता की।

(3)

अपनी धरती
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अपनी धरती अपना अम्बर

अपनी वायु अपना तरुवर।

कल कल गाती देश की नदियाँ,

हरी भरी फसलों की बालियाँ ।

घर घर खुशियाँ किलक रही हैं,

पशु पक्षियाँ पुलक रहे हैं।

कभी ना मान गिरने देंगे,

कभी ना शान घटने देंगे,

वक्त पड़े तो कूद पड़ेंगे,

चाहे जितने शीश कटेंगे,

माँ!यह जान निछावर तुमपर,

अपनी धरती अपना अम्बर,

अपनी वायु अपना तरुवर।

(4)

विश्वास

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अटल विश्वास जब होता खंडित

टीस निकलती आहें बनकर।

मोह भंग हो जाता है ,

नफरत की अग्नि में जलकर।

जिस घमंड की ताकत पर,

ढ़ाल बना रहता लड़ कर।

एक झटके में उजाड़ गया,

राहों में अनगिनत कांटे बोकर।

अब घायल बोझिल मन पर ,

पछतावा रहेगा जीवन भर,

क्या देखा था क्या परखा था,

क्यों भाग गया धोखा देकर।

आगे पीछे कुछ ना सोचा

देता रहा सदा हँस हँसकर।

कैसे अचानक मारा पलटा,

रोम केशों में सूई चुभोकर।

(5)

सूरज का दामन

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अगस्त १५का दिन पावन,

छूलें सूरज का दामन।

मुक्त हुए हम आज के ही दिन

गुलामी जंजीरों से,

पर बेवश क्यों लगते हैं

आतंकी दुराचारी सिरफिरों से।

खुले गगन में सांसें लेकर,

हमने ना डरना सीखा,

पग पग खतरा कण कण सिहरा

क्यों नक्सल दहशतगीरों से।

मुक्त हुए हम---

जाति धर्म का ना हो झगड़ा,

सबको रोटी सबको कपड़ा,

सबको घर का लक्ष्य सुनहरा,

ऐसे भारत के हम वासी

क्यों डरें जहरीले कीड़ों से।

मुक्त हुए हम ---

महावीर और बुद्ध की धरती,

बिन्दुसार और गुप्त की धरती,

सम्राट अशोक और कुँवर की धरती,

गाँधी के सपनों की धरती,

इस बिहार का घर आंगन,

चमक रहा है विश्व में भारत,

बिहार के महान कर्मवीरों से।

मुक्त हुए हम---

तिरंगा फहर रहा नभ में,

छूने सूरज का दामन,

भारत के घर घर में खुशियाँ,

दिवस है कितना पावन,

मना रहे हैं जश्ने आजादी,

जो मिला है शहीदों वीरों से।

मुक्त हुए हम आज के दिन,

गुलामी की जंजीरों से।

(6)

कही अनकही बातें

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कही अनकही बातें

गुजरी हजार रातें,

वक्त वेवक्त जगाती

सोयी चुप जज्वातें।

यादों में डूबी जब भी

सामने आते अब भी,

खुश नहीं थी तब भी

खुश नहीं मैं अब भी।

चारों तरफ हैं काँटे

सुख दुख किससे बाँटें,

दूरी भली नहीं अब

आ खूब मुझको डाँटें।

मैं सदा रही समर्पित

दिन रात तुममें अर्पित,

पर तुम रहे भटकते

दे दी तलाक घृणित।

अब भी नहीं मैं भूली

जो नफरत मैंने झेली,

हाँ, विरोध मैंने की थी

पर तलाक तुने दे दी।

कही अनकही बातें

गुजरी हजार रातें,

वक्त वेवक्त जगाती

सोयी चुप जज्वातें।

(7)

समय

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समय कभी रूकता नहीं

समय कभी थकता नहीं।

जो आँख चुराता है

समय उसे छोड़ता नहीं।

घड़ी की सूई ना तो उल्टी घूमती है

ना ही सूस्त पड़ती है

हर सख्स को हर क्षण

उसकी कीमत याद दिलाती है।

(8)

मन की सिहरन

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मौसम और मन

हवा और जलन

पल पल सिहरन

बढ़ाती धड़कन ।

सांसों का कम्पन

और सीने की तड़पन

ऐसे हालातों में

हमदम की छुअन

मन और तन को

देता नव जीवन।

(9)

ठंड की चादर

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धुंध कुहासा,ठंड की चादर,सिकुड़ी सुबहा शाम दोपहर।

ठिठुराती रातों का कहर ,जीना कर दिया सबका दूभर।

चिथरों में लिपटी दुर्बल काया,उखड़ी साँसे मौत का साया।

इसी तरह हर ठंड बिताया,जीवन को जीवन ने ललचाया।

खेतों की फसलों पर पाले,कोप दिखाया ऊपर वाले।

विवश निहार रहे हैं निर्धन,फटी अंगोछा देह पर डाले।

ठंडक होती उनकी सुन्दर,तन पर जिनकी मंहगी स्वेटर।

सोने को हो मोटी बिस्तर और खाने को अंडे,ब्रेड-बटर।

(10)

वसंत की ख़ुशियाँ

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आया वसंत नभ नील अनन्त,

लाया खुशियाँ घर घर वसंत,

छिप गया सिमट डर से हेमंत,

दुखदायी ठंड का हुआ अंत।

फूलीं सरसों पीली पीली,

तीसी भी खिली नीली नीली,

हैं वृक्ष लताएँ हरी कजली,

हर डाल डाल पर लगी कली ।

गेहूँ की वाली गदराई,

मंजरी से महकी अमराई।

आया वसंत नभ नील अनन्त।

(11)

भूकंप

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पहली बार हुआ ऐसा,

मौत का स्वाद था इक जैसा।

कोई इधर गिरा कोई उधर गिरा

काम ना आया पद और पैसा

जीवन का यही सत्य है

तब फिर आपाधापी कैसा।

भूकंप के बस थोड़े झटके ने

बता दिया औकात है क्या।

(13)

ज़मीं पर गिरता

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हाथ पकड़ चलना सिखलाया आज कुलांचे भरता है ,

वेतरतीबी इस हरकत पे मेरा मन कुछ डरता है ।

उड़ान वही भर सकता सच्चा दिशा ज्ञान जो रखता है ,

वरना उछल उछल कर पुन: जमीं पर गिरता है ।

(14)

माँ -बेटा

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हँसकर निकला था घर से

लौट के फिर माँ आउँगा

तेरे हाथों की रोटी को

बड़े स्वाद से खाउँगा ।

आयी है चित्कार लौट के

जीवन का उपहार लूट के

उठ बेटा हँसकर बोलो

दे रोटी मैं खाउँगा ।

(15)

आनंद
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आनंद को आज मैंने मरते देखा है

वही आनंद जो दूसरों को खुशी देता है।

आनंद रो रहा था,छटपटा रहा था -

मैं नहीं मरूँगा,मुझे कोई बचा लो ---

वो मर जायेगा वो मर जायेगा मेरे बिना,

मैं उसे मरते नहीं देख सकता।

आनंद से जो भी मिला

हँसता रहा,लोट पोट होता रहा

पर आज सभी नि:शब्द हैं -

क्यों कि आनन्द मर रहा है।

पर आनन्द अब नहीं मरना चाहता

इसलिए कि वह अपने सामने किसी को

मरते नहीं देख सकता।

मैं रो रहा हूँ

अपने आनन्द के विछुड़ने का खौफ है।

मेरे खौफ को आनन्द ने देख लिया है।

आनन्द चिल्लाया -आनन्द कभी नहीं मरेगा

आनन्द कभी मरता नहीं

मैं तुम सबों के अन्दर सदा जीवित रहूँगा।

मुझे भुलाना नहीं।
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@ मुक्तेश्वर प्र सिंह
उर्फ़ मुक्तेश्वर मकेश

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