नेत्र दान Sudarshan Vashishth द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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नेत्र दान

नेत्र दान

कहानियां

सुदर्शन वशिष्ठ

ऐसा आभास हो रहा था पुरोहित को कि उसने अभी अभी ख़बर पढ़ी है। बार बार ख़बर अख़बार से बाहर आ कर उसके सामने फुदक रही थी, व्याकुल चिड़िया की तरह। पुरोहित भी उस आदमी की तरह करना चाहता था। यह भी विचार आया, वह भी अख़बार में ख़बर दे दे। उसकी ख़बर भी चार लोगों के सामने अख़बार से बाहर आ कर फुदकेगी। कुछ तो असर होगा। पुरोहित की ख़बर लगाएगा कौन! वह कोई नेता, अभिनेता, मन्त्री, उद्योगपति नहीं। कोई आतंकवादी, हत्यारा, तस्कर या डॉन भी नहीं। यह तो कोई बड़ा आदमी था जिसने अख़बार में छपवाया था :

‘‘ वीरविक्रमप्रताप सिंह द्वारा नेत्रदान : वीरविक्रमप्रताप सिंह की हाल ही में सेंट पॉल्ज अस्पताल में सफल बाईपास सर्जरी हुई। वे अस्पताल में स्वास्थ्य लाभ कर रहे हैं। आज वे अपने प्रशंसकों से मिले। वे अपनी आंखों का दान करना चाहते हैं। प्रशंसकों के बीच उन्होंने भावविभोर हो कर अपने सब अंगों को दान करने की घोषणा कर डाली।‘‘

हैं..... इतने बड़े दानी भी हैं इस संसार में अभी, जो इतना सब दान करने को तत्पर हैं!

एकदम, तत्काल उसके मन में विचार आया कि अभी जो उसके पास है,वह एक दिन माटी में मिल जाएगा। इसे जला जलू कर राख बहा दी जाएगी। क्यों न वह भी अपनी आंखों का दान कर दें।

उसकी आंखें बहुत बड़ी बड़ी थीें, फैली हुईं, एकदम बाहर। जब पलकें उठतीं तो सीप सी खुलतीं। बीच में मछली की आंख की तरह झिलमिलातीं। पानी पारे सा थरथराता। लगता,वह नीचे झुकेगी तो आंखें एकदम से नीचे गिर जाएंगी।

वह लड़की उसे बार बार दिख रही थी। लड़की नहीं,सिरफ उसकी आंखें दिख रहीं थीें। इतनी सुंदर आंखें क्या दान की जा सकती हैं! लड़की एकदम साधारण,आंखें ऐसी कि उसके व्यक्तित्व में लाइट हाउस सी, जैसे तेज़ रोशनी के बल्ब चमक रहे हों, दूर दूर तक उजाला करते हुए। पहले एक विज्ञापन आता था, जिसमें ऐश्वर्य राय की आंखें दिखाई जातीं थीं। यह विज्ञापन उसे सभी विज्ञापनों में सबसे अच्छा लगता।

अरे, आदमी के मुर्दा शरीर की कोई कीमत नहीं। जानवर की बात और है। जानवर मरने पर और कीमती हो जाता है। कहा भी है हाथी जिंदा लाख को तो मरा हुआ सवा लाख का। जानवर का हाड,मांस,खाल,बाल सब काम आते हैं। जानवर मर कर और भी मंहगा और आदमी मर कर सड़ांध का ढेर। आदमी की तो जिंदा होने पर ही कीमत है।

लगा, जैसे बहुत विचार किया पुरोहित ने। लगभग उतना ही जितना कि बेटी के ब्याह के लिए किया जाता है। मन पक्का कर पत्नी से बात की। उसने जैसे सुना ही नहीं,बात बस हंसी में टाल दी। मित्र ने कहा, भाई तुम्हें इतनी कम उम्र में ही ऐनक लग गई थी... अब इतना मोटा लैंस लगा है, तुम्हारी इन मैली कुचैली आंखों को कोई क्योंकर लेगा!

निराशा और हताशा में वह जैसे बच्चा हो गया.... समय पीछे गया। माहौल बदला। शहर के किराये के दो कमरों से वह गांव के खुले घर में आ गया। बापू से कहा :

‘‘ बापू! हाऊं हाक्खी दान करणी...।‘‘

‘‘ क्या......!‘‘ बापू की आंखें विस्मय से फैल गईं। उनका मुंह खुला का खुला रह गया। वे जैसे आंखों से ही बोले :

‘‘मुआ तू दानवीर करण... हाखीं भी कोई दान करहां है ! जा कंजरा! बाहर खेल...पाग्गल...।‘‘

बापू ने कर्ण का ताना मारा है। सच, कर्ण तो युवा अवस्था में था। कवच कुण्डल उसने जीवित होते हुये शरीर से काट कर दान कर दिए। लेने वाले ब्राह्‌मण रूपधारी छलिए ने उनका क्या किया, इसका उल्लेख महाभारत में नहीं है। कर्ण तो कवच कुण्डल विहीन हो गया, उसका रक्षा कवच जाता रहा। इनका उपयोग किसी और ने किया हो, ऐसा उल्लेख नहीं मिलता। हां, अर्जुन को कवच कुण्डल विहीन कर्ण को मारने में आसानी रही।

पुराने समय में आंखें निकाल देने की सजा सुनाई जाती थी। कहते हैं,मारने वाले से बचाने चाला बड़ा होता है। कभी बेरहम जल्लाद भी मेहरवान हो जाते। वे हिरण की आंखें निकाल राजा को दिखा देते। अपराधी किसी दूसरे राज्य में जा कर दूसरी दुनिया देखता।

करवट बदलते ही वह फिर बड़ा हो जाता है। सोचता है, इन अंगों को दान करने की घोषणा तो कर दी,मान लिया। इन्हें दिया कैसे जाता होगा! मरने से पहले जो अंग दान किए जाते हैं,वे कैसे और कब दिए जाते होंगे! क्या तरीका होता होगा। अंग कौन और कैसे लेगा। क्या विधि होगी। आजकल तो मरने पर भी मरने नहीं दिया जाता। अंतिम सांस तक आस बनी रहती है। फिर वेंटीलेटर पर जबरदस्ती जिंदा रखा जाता है। किसी प्राईवेट अस्पताल में फंस गये तो मरे हुए को भी मरने नहीं देंगे जब तक घर वाले अधमरे न हो जाएं। कहां और कैसे मरना होगा, यह भी तय नहीं है। तुरंत अंगदान के लिए कौन अस्पताल पहंचाएगा। क्या ये अंग तब तक उपयोगी भी रहेंगे या खराब और सड़े गले अंग भी लिए जाते होंगे! अंगदान कैसे सम्भव होता है , इसका कोई खुलासा नहीं करता। क्या दानी दान कर पाते होंगे! और जिस आदमी की ताज़ा ताज़ा बाईपास सर्जरी हुई है, वह अपना बीमार दिल किसे दान करेगा। और कौन उसे लेगा। ले कर भी क्या करेगा। क्या बीमार और पुराने अंग भी दान में लिए जाते होंगे! उसकी पीठ में दर्द है। लगता है लकड़ी की तरह कभी भी टूट जाएगी। घुटनों में गठिया, मेदा हमेशा खराब रहता है,सांस फूलती है, एक किडनी काम नहीं करती...पुराने घिसे पिटे और बुरी तरह इस्तेमाल किये हुये अंग क्या दान करेगा......!

कहीं अख़बार में पढ़ा था, आप अपना मरा हुआ शरीर दान करना चाहें तो ऐसी ‘‘विल‘‘ कर सकते हैं। किसी ऐसे अस्पताल में, जहां मेडिकल कॉलेज हो, ऐसी विल देनी होगी। फिर या तो बॉडी मेडिकल कॉलेज में पहुंचा दी जाए और न पहुंचा सकते हो तो अस्पताल बॉडी ले जाने की व्यवस्था करेगा। किन्तु शरीर एक निश्चित समय से पहले पहुंच जाना चाहिए। फिर यह शरीर छात्रों को प्रेक्टिकल समझााने के काम आएगा। पुरोहित ने मुन्ना भाई एम.बी.बी.एस. में मुन्ना भाई के साथियों को बॉडी लाते देखा है। उसने प्री मेडिकल में अपने सहपाठियों को खरगोश काटते देखा है। मेंढक तो उसने खुद भी काटा था जब प्री यूनिवर्सिटी में मेडिकल ले रखा था। फेल होने पर आटर्‌स ले लिया। यानि मेढक की तरह शरीर की उपयोगिता हो सकती है। मेंढक से तो वह महान ही बनेगा। सवाल यह है मृत्यु ऐसे अस्पताल में हुई जहां से मेडिकल कॉलेज दूर हो तो! प्रदेश में तो एक ही मेडिकल कॉलेज वाला अस्पताल है। नजदीक भी हुई ता बॉडी अस्पताल कौन पहुंचाएगा। वह तो इस काबिल होगा नहीं कि खुद ही चला जाए। मुर्दे तो इस संसार में चला नहीं करते। घर वाले तो पूरा संस्कार किए बिना नहीं छोड़ेंगेे नहीं तो प्रेतमुक्ति कैसे होगी। फैंकने, जलाने के झंझट से तो अच्छा है बॉडी दे दी जाए। ऐसा करेगा कौन!...... आंखें तो भाई बहुत नाज़ुक चीज़ है। आंख के बिना तो कुछ भी नहीं। शरीर तो बस रोबोट है। आंख ही आत्मा है। जीव है, ब्रह्‌म है। बंद होने के तुरंत बाद एकदम निस्तेज हो जाती हैं। कैसे निकालेंगे, कैसे रखेंगे, भगवान ही जाने।

जैसे एक संस्था बनी थी जो बच्चों के पुराने कपड़े, खिलौने ले कर गरीब बच्चों में बांटती थी। जो चीज़ आपके काम की नहीं रही,जो फेंक दी गई है, उसे बांट कर आप क्या सिद्ध करना चाहते हैं! उन गरीब बच्चों के साथ ऐसा भद्‌दा मजाक क्यों कर रहे हैं। दान ही करना है तो कुछ नया खरीद कर करिए, चाहे कम कीमत का ही हो। ऐसे ही अंगदान के लिए भी संस्थाएं बनी हैं जो अपने सदस्यों को नहीं, गैरों को अंगदान के लिए प्रेरित करती हैं।

ऐसे ही हैं उसके अंग। घिसे पिटे,सड़े गले,जंग लगे। रिप्लेस और रिपेयर हुये। कई बार डेंटिंग पेंटिंग हो चुकी है। गाल ब्लैडर में बार बार पत्थर उग आते हैं। जैसे सूखी नदी हो भीतर। एक बार आपे्रशन भी करवा चुका है। डॉक्टर कहते हैं,बार बार पत्थरी होने की टेंडेसी हो जाती है।

और दिमाग.... बस पूछिए मत। बिल्कुल हिला हुआ। एकदक पेण्डुलम। हमेशा अनिश्चय की स्थिति में। कुछ भी निर्णय लेने में अक्षम। पल में तोला,पल में माशा। जरा सी बात हो तो दिल धक्‌ धक्‌ करता है। और तो छोडिए, बाजू और हाथ तक की नसें धक्‌ धक्‌ करने लगती हैं। नाड़ी में एक नस बार बार धड़कती है। बस एक जु़बान ही है जो पट्‌ पट्‌ चली रहती है।

जब गाल ब्लैडर का आप्रेशन हुआ,टांके सूखने पर एक शाम घूमते घुमाते आई.सी.यू. में पहुंच गया। वहां एक मरीज़ था जो देखने में हट्‌टा कट्‌टा लग रहा था। वह लेटे लेटे जोर जोर से कुछ बोल रहा था... पट्‌ पट्‌। एकाएक उसकी जीभ बाहर निकल आई, आंखें फिर गईं। उसकी छाती से लगी मशीन टूं... से बज उठी। डॉक्टर दौड़े हुए आए और आते ही उसकी छाती पर गरम कर दो चप्पू से जड़ दिए। वह एकबारगी तड़प उठा और दूसरे ही क्षण जाग गया। जागते ही फिर पट्‌ पट्‌ बोलने लगा। यह सब बस एक क्षण में ही घट जाता था। जीभ बाहर निकलती और छाती पर चप्पू चलते। वह जाग उठता,जैसे कुछ हुआ ही नहीं। वह लगातार बोले जा रहा था जबकि दूसरे मरीज सोए थे। केवल उनके सामने लगे कम्प्यूटर कभी घबरा जाते,कभी जोर से टूं... करते, कभी सामान्य हो जाते। उनकी ज़िदगी कम्प्यूटर में कैद थी। उन्हें किसी ने अस्पताल पहुंचा दिया था नहीं तो रामनाम सत्‌ था। अब वे गोदान नहीं कर सकेंगे, यह तय है।

लगातार बीमार रहने लगा तो अपनी जन्मपत्री एक पंडित जी को दिखलाई। जब भी वह अपनी पत्री दिखाता तो कहता, यह मेरे मित्र की कुण्डली है, वह बीमार रहता है बेचारा, जरा देखिए! ताकि अगला बिना लिहाज किए सच सच बताए। पंडित जी ने कुण्डली में ग्रह गोचर, दशाएं देखते हुए एकदम कहा :

‘‘ इस कुण्डली में तो शनि की क्रूर दृष्टि है। राहु भी ठीक नहीं। बहुत से ग्रह एक साथ शत्रुभाव में हैं। चंद्रमा भी खराब है। खड़ाष्टक योग है भईया, दूसरे पर भी पड़ेगा.....करवा सकते हो तो तुलादान करवा दो। यह आदमी तो बस मर मर कर जी रहा है।‘‘

‘‘अच्छा!‘‘ कहते हुए वह हैरान परेशान।

तुरंत दूसरे पंडित के पास गया.... शायद इसने कुछ गलत गणना की हो। दूसरा तो कुण्डली देखते ही एकाएक बोल उठाः ‘‘ अरे! इसे तो मृत्यु भाव में अत्यंत क्रूर ग्रहों को योग है। सीधा ‘मारकेस‘ बनता है... यह तो मरे हुए आदमी की कुण्डली है... उठाओ इसे।‘‘

.... इतना भी तो न कहिए पंडित जी... आदमी तो बहुत सी तमन्नाएं और अरमान लिए आपके सामने जीता जागता बैठा है।... कहने को हुआ। उसे चुप और सुन्न देख पंडित जी ने दिलासा दियाः ‘‘बस भई उस ईश्वर से प्रार्थना करो। कुछ दान पुन्न करवाओ, बस।.... क्या होता है यह तुम्हारा!‘‘

‘‘ मेरा जिगरी दोस्त है पंडित जी... बस समझिए मैं ही हूं।‘‘ उसने पत्री गोल करते हुए उत्तर दिया। पंडित जी ने दया कर या पता नहीं अचार्ज होने के डर से पैसे भी नहीं लिए।

शास्त्रों में दान की महिमा का वर्णन किया है। अभी कुछ समय पहले तक बड़े बड़े दानवीर थे। कोई धन्ना सेठ सदाव्रत लगाता। गरीब कन्याओं के विवाह पर दान दिया जाता। कोई कम्बल बांटता। कोई ज्यादा नहीं कर पता तो प्यासे को पानी ही पिलाता। जगह जगह प्याऊ लगे होते और लोग सुबह ही उसमें बाबड़ी या कुएं का पानी भरते। सोना, चांदी, मुद्रा दान तो बहुत पुरानी बात हो गई है। अब बड़े से बड़े अरब खरब पति हैं। दुनिया के धनाढ्‌यों में भारतीयों का स्थान बहुत ऊंचा है। दानी कोई नहीं रहा। ‘दान‘ शब्द या तो शब्दकोष में नहीं रहा या इसके मायने बदल गये।

वह अब कुछ जागा और दार्शनिक हो गया..... हम बाहर कम देखते हैं, भीतर ज्यादा। बाहर तो एक ही बार देखते हैं, भीतर कई बार। इसी तरह बाहर कम सुनते हेैं,भीतर ज्यादा। कई बार शब्द बार बार कानों मे गूंजते हैं। हथौड़े की तरह चोट करते हैं।

देखने से ही दुनिया है। न देखने से कुछ भी नहीं। जगत में तो सब कुछ है दृश्यमान, देखने के लिए आंख चाहिए। आध्यात्मिक लोग मन की आंख से देखने की बात करते हैं।

एक प्रलोभन जरूर है पुरोहित को....... मेरी आंखों से कोई कुछ नया, कुछ अच्छा अच्छा देखेगा। हो सकता है मेरी आंखें ऐसे व्यक्ति को मिलें, जो बहुत ही खुश्नसीब हो और अच्छा ही अच्छा देखे। क्या वह भी मेरी तरह अनचाहे, अनहोने दृश्य देखेगा... क्या दादा को कुर्की के वक्त छत पर छिपते देखेगा या दादी को गुपचुप मिठाई की तरह दवाई खाते या चाचा को मुफलिसी में घर से भागते या बेबस मां को धीरे धीरे मरते या पिता को पगलाए घूमते देखेगा।..... बहनों को सहम सहम जीते, भाई को उदण्ड होते , बच्चों को बार बार सवाल पूछते देखेगा।..... क्या हमेशा डरा डरा, दबा दबा, नीची नजरें किए जिएगा... नहीं, कभी नहीं।

वह ऐसा न देखे, जो मैंने देखा। वह देखे ऐसा, जो मैं नहीं देख सका। वह देखे भरा भरा संसार, ठण्डे मीठे झरने। उसे दिखाई दे हरा ही हरा.....मख़मली हरी घास, हरे हरे पेड़, चहचहाते परिंदे। वह न देखे बिल्ली बनते बुजुर्ग, बाघ बनते बच्चे। वह देखे आलीशान कोठियां, लम्बी गाड़ियां। वह न देखे बाज, उड़ते जहाज देखे। वह न देखे सूखी धरती, उड़ती आंधियां, तपते रेगिस्तान। वह न देखे गंदी बस्तियां, फुटपाथ पर सोते बच्चे, राशन की कतारों में खड़े लोग। वह न देखे लूटपाट, भ्रष्टाचार, दुराचार, घर में घुसता बाजार। वह न देखे अलसाते राजा, शातिर दरबान। न देखे मस्ती करते मन्त्री, चटोरे संतरी, मसखरे बजंतरी। वह न देखे दरबारी वर्कर, डरपोक अफसर, सरकारी तस्कर। न देखे आज के अख़बार, दूरदर्शन के समाचार। बड़े लोग न सही, छोटे छोटेे बच्चे देखे। पूरा आकाश न सही, एक खिड़की धूप देखे। पूरी धरती न सही, एक आंगन घास देखे। न देखे सिमटते गांव, जलते शहर न देखे। पंखे, ए.सी. न सही, पीपल की छांव देखे। बड़े आराम न सही, छोटे छोटे सुख देखे। वह देखे खिलते फूल, खेलते बच्चे। पीली सरसों और पतंग। होली के रंग, तितली के पंख।

अंततः वह अख़बार में विज्ञापन देने जा रहा है....तभी उसे किसी ने झकझोरा। हड़बड़ाहट में वह एकाएक जाग उठा। पत्नी उसे उठने को कह रही थी :‘‘ उठो... आज चश्मे का नम्बर चैक करवाने जाना है।‘‘

जब से चश्मे का नम्बर बढ़ा है, सपने देखने की आदत हो गई है।...भई, रात को चश्मा पहन कर सोया करो, सपने साफ साफ दिखाईं देंगे, मित्र हंसते। वह चश्मा पहन कर तो नहीं सोता, सिरहाने के आसपास जरूर रख लेता। कई बार नीचे आने से टेढ़ा मेढ़ा भी हुआ है।

आंखें मलते हुए उसने उठते ही चश्मा पहन लिया। सब कुछ पहले से साफ़ साफ़ नज़र आने लगा।

आज उसने सपने में सपना और सपने में सपना देखा।

94180—85595 ‘‘अभिनंदन'' कृष्ण निवास लोअर पंथा घाटी शिमला—171009