औरतें Sudarshan Vashishth द्वारा कविता में हिंदी पीडीएफ

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औरतें

औरतें

सुदर्शन वशिष्ठ



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अनुक्रमणिका

1ण्सुदर्शन वशिष्ठ

2ण्आंगन बुहारती औरतें

3ण्रसोई घर में औरतें

4ण्अतिथि और औरतें

5ण्औरतें रोती हैं

6ण्औरत और पति

सुदर्शन वशिष्ठ

24 सितम्बर 1949 को पालमुपर (हिमाचल) में जन्म। वरिष्ठ कथाकार। नौ कहानी संग्रह, दो उपन्यास, दो नाटक, चार काव्य संकलन, एक व्यग्ंय संग्रह। चुनींदा कहानियों के चार संकलन। हिमाचल की संस्कृति पर विशेष लेखन में ‘‘हिमालय गाथा'' नाम से छः खण्डों में पुस्तक श्रृंखला के अतिरिक्त संस्कृति व यात्रा पर बीस पुस्तकें। पांच कहानी संग्रह और दो काव्य संकलनों के अलावा सरकारी सेवा के दौरान सत्तर पुस्तकों का सपांदन।

जम्मू अकादमी, हिमाचल अकादमी, साहित्य कला परिषद्‌ (दिल्ली प्रशासन) तथा कई स्वैच्छिक संस्थाओं द्वारा साहित्य सेवा के लिए पुरस्कृत।हाल ही में हिमाचल अकादमी से ‘‘जो देख रहा हूं'' काव्य संकलन पुरस्कृत।

कई रचनाओं का भारतीय तथा विदेशी भाषाओं में अनुवाद। कथा साहित्य तथा समग्र लेखन पर हिमाचल तथा बाहर के विश्वविद्‌यालयों से दस एम0फिल0 व पीएचडी।

1ण्पूर्व उपाध्यक्ष/सचिव हिमाचल अकादमी तथा उप निदेशक संस्कृति विभाग। पूर्व सदस्य साहित्य अकादेमी, दुष्यंत कुमार पांडुलिपि संग्रहालय भोपाल।

2ण्वर्तमान सदस्यः राज्य संग्रहालय सोसाइटी शिमला, आकाशवाणी सलाहकार समिति, विद्याश्री न्यास भोपाल।

3ण्पूर्व फैलो : राष्ट्रीय इतिहास अनुसंधान परिषद्‌।

4ण्सीनियर फैलो : संस्कृति मन्त्रालय भारत सरकार।

5ण्सम्प्रतिः ‘‘अभिनंदन'' कृष्ण निवास लोअर पंथा घाटी शिमला—171009.

094180.85595ए 0177.2620858

ई—मेल : अेंीपेीजीेंनकंतेींद/लींववएबवउ

आंगन बुहारती औरतें

एक

औरतें आंगन बुहारती हैं।

मरदों के सोये भीतर बुहारना अपशकुन है

इसलिए मुंह अन्धेरे औरतें आंगन बुहारती हैं

मरद सोए रहते हैं भीतर खर्राटें भरते हुए दिन च़ढे औरतेंं आंगन बुहारती हैं।

बीती सांझ बरसाती है सूखें पत्तों की फुहार पूरे आंगन में सो जाते हैं नामरद पीले पत्ते जिन्हें जगाने के लिए औरतें आंगन बुहारती हैं।

सुबह सबेरे आने वाले भीखू मंगते जो भी यह न बोलें नहीं हुआ साफ औरत के रहते आंगन इसलिए औरतें आंगन बुहारती हैं।

दो

सड़क किनारे पेड़ से बन्धी मैली चादर से की चारपाई घर है

औरतें सुबह उठते ही सड़क बुहारती हैं

औरतें आंगन बुहारती हैं।

आंगन हो चाहे मुश्तरका

चार घरों का अकेला

या हो आगे बस सड़क

औरतें बुहारती हैं।

सड़क, जिसमें खेलते हैं बच्चे दिन भर

अपने आंगन की तरह

समुंदर टापू गरम पिट्‌ठू

सूखने डाली जाती है जहां मांगी हुई जिंस

या बच्चों द्वारा मांगा हुआ कचरा

रोज हट फिर कर सड़क बुहारती हैं

हां, औरतें आंगन बुहारती हैं।

तीन

आंगन बुहारती औरतों के पैरों में

फटी हैं बिबाईयां

हाथ हो गए हैं चितकबरे

फिर भी वे आंगन बुहारती है

पानी में पाले में धूप में धूल में

औरतें आंगन बुहारती हैं।

चार

आंगन है बहुत लम्बा औरतों का

पूरा खेत, खलिहान आंगन है

पड़ोसन का गलियारा आंगन है

रास्ता, पनघट, जो भी हो आंगन है

सारी पृथ्वी ही हो जाए आंगन बेशक

औरतें बुहारती हैं

हां, औरतें आंगन बुहारती हैं।

महीन से महीन कचरा

देखने की आदत हो गई है औरतों को

कूड़ा देख तुरंत बुहारना नियति

इसलिए औरतें आंगन बुहारती हैं।

रसोई घर में औरतें

यह कविता उनके नाम, जो रहती हैं रसोई में

रसोई और घर के दो चार कमरे

या बहुत हुआ तो आंगन

ही है उनका संसार।

मां करती बेटे का इंतजार

पत्नी पति का, भाई का बहन

दहलीज लांघना है

उनके लिए पहाड़ लांघना।

डरते हुए पूछती हैं सब्जी का स्वाद

नमक कम तो नहीं

मिर्च ज्यादा तो नहीं

वे खाना नहीं, प्यार परोसती हैं

जो खाते हैं नमक

नमक हरामी करते हैं।

उन्हें नहीं कुछ लेना देना

सुबह उठते ही जुट जाती हैं रसोई मे

रात गहराते तक रहना है

वहीं बतियाना है सुस्ताना है

हंसना है रोना है निाल होना है।

तभी रसोई को रसोई घर कहते हैं।

उन्हें नहीं मालूम

कोई बाहर कर रहा इंतजार

उनके लिए आरक्षित हैं सीटें बसों में

सभाओं में विधानसभाओं में

वे बन सकतीं हैं मॉडल विश्वसुंदरियां

वे बन सकतीं हैं मन्त्री प्रधानमन्त्री।

उन्हें नहीं जाना बाहर

उन्हें सिरफ मां बनाना है

बहन बनना है बहु बनना है।

उन्होंने इंतजार में

छलछलानी हैं आंखें पथरानी हैं

उन्होंने छिपाए रखना है प्यार ताउम्र

उन्होंने देखना है घूंघट की ओट से साजन।

हां, वे जाती हैं बाहर

जब उन्हें हो जाती है ख़ून की कमी

या दुखने लगती है कमर, घुटने, अंग अंग

या पति की मृत्यु पर हरिद्वार

उनके फूलों संग।

अतिथि और औरतें

औरतें जानती हैं अतिथि का सत्कार

जानती हैं अतिथि का संस्कार।

खाना खिलाती बार पहचानती हैं

अतिथि की नज़र।

किस सलीके से कैसा और कितना खाया

कितनी खाई सब्जी या चपाती

गड़प से नीचे उतारा या

स्वाद लगा लगा कर खाया

अन्न पर बैठ नकल निकाली या

चुपचाप खाया सब बिना नमक

क्या हाथ धोए खाने से पहले

उंगलियां चाटीं खाने के बाद

कितना छोड़ा जूठा

क्या प्रभु स्मरण किया, परसाद लगाया

या रखा कौए कुत्ते को ग्रास

भूखे होते हुए पहले इंकार किया या

भरे पेट और डकार।

कैसा बैठा अतिथि

कैसे कब उठा कैसे बतियाया

कहां दौड़ाई नज़र

कैसे सोया कब उठा।

इस सब से जान लेती हैं

औरतें सत्कार से पहले

अतिथि के संस्कार।

औरतें रोती हैं

बात बात में रोती हैं औरतें

बात बात में हंसती हैं

हालांकि बहुत कठिन है

एक साथ हंसना एक साथ रोना।

औरतें रोती हैं

बच्चे के होने पर बच्चे के खोने पर

बिछुड़ने पर रोती हैं तो मिलने पर भी

गाने की रस्म हैं इनके जिम्मे तो रोने की भी

कोई भी जिए या मरे ये ही गाएंगी ये ही रोएंगी।

औरतें रोती हैं

अपनों पर सपनों पर जिनसे नहीं कोई नाता

ऐसे बेगानों पर।

कभी अपने में ही हंस देती हैं

अपने में ही रो देती हैं

बहुत कठिन है जानना

अब क्यों रोईं अब क्यों हंसीं।

अम्बर से गहरा है औरत का मन

बीज से बड़ा है

औरत सबके लिए ाल है

अन्धेरे में मशाल है।

94180—85585

‘‘अभिनंदन''

कृष्ण निवास

लोअर पंथा घाटी

शिमला—171009

औरत और पति

पति को पीठ पर उठाया था उसने।

जबलपुर की दर्शनबाई

उसे धर्मक्षेत्र में स्नान के लिए लाई है

धड़ से नीचे शरीर नहीं है पति का

आधा आदमी है वह, आधे बाजू आधी टांगों वाला

सिर पूरा का पूरा सलामत है

तभी पीठ पर सवार है।

एक अंग या अंगवस्त्र भी साबुत पति माना जाता है

(इसलिए कटार के साथ विवाह हो जाता था)

ग्रहण देखने आई दर्शनबाई को ग्रहण लगा है

दर्शनबाई बिल्कुल नज़र नहीं आएगी कभी

वह डायमण्ड रिंग नहीं बनेगी, न कोरोना

ग्रसी रहेगी पूरी की पूरी

पुण्य कमाने आई

दर्शनबाई के लिए सदा सूर्य ग्रहण है।

उम्र भर पति को पीठ पर उठाए रखती हैं औरतें

पति, जिनकी सवारी है पत्नी

जैसे गणेश का चूहा

पत्नी की पीठ पी पति सवार रहता है हमेशा

आज भी कम नहीं हुए चटोरे

जिनके लिए पत्नी

मर्तबान में बंद अचार की खुश्बू है।

दुनिया दूर तक पहुंची है

ग्रहण एक खेल है अब

फिर भी एक ओर विश्वसुंदरी आती है

बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के विज्ञापन बेचती

दूसरी ओर दर्शनबाई है।

94180—85595

‘‘अभिनंदन''

कृष्ण निवास

लोअर पंथा घाटी

शिमला