साहिब हैं रंगरेज Sudarshan Vashishth द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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साहिब हैं रंगरेज

साहिब है रंगरेज़

कथा कहती कहानियां

सुदर्शन वशिष्ठ



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सुदर्शन वशिष्ठ

1ण्जन्मः 24 सितम्बर, 1949. पालमपुर हिमाचल प्रदेश (सरकारी रिकॉर्ड में 26 अगस्त 1949)। 125 से अधिक पुस्तकों का संपादन/लेखन। नौ कहानी संग्रहः (अन्तरालों में घटता समय, सेमल के फूल, पिंजरा, हरे हरे पत्तों का घर, संता पुराण, कतरनें, वसीयत, नेत्र दान तथा लघु कथा संग्रह : पहाड़ पर कटहल)।

2ण्चुनींदा कहानियों के चार संग्रह : (गेट संस्कृति, विशिष्ट कहानियां, माणस गन्ध, इकतीस कहानियां)।

3ण्दो लघु उपन्यास : (आतंक, सुबह की नींद)। दो नाटक : ( अर्द्ध रात्रि का सूर्य, नदी और रेत)।

4ण्एक व्यंग्य संग्रह : संत होने से पहले।

5ण्चार काव्य संकलन : युग परिवर्तन, अनकहा, जो देख रहा हूं, सिंदूरी सांझ और खामोश आदमी।

6ण्संस्कृति शोध तथा यात्रा पुस्तकें : ब्राह्‌मणत्वःएक उपाधिःजाति नहीं, व्यास की धरा, कैलास पर चांदनी, पर्वत से पर्वत तक, रंग बदलते पर्वत, पर्वत मन्थन, पुराण गाथा, हिमाचल, हिमालय में देव संस्कृति, स्वाधीनता संग्राम और हिमाचल, कथा और कथा, हिमाचल की लोक कथाएं, हिमाचली लोक कथा, लाहौल स्पिति के मठ मंदिर, हिमाचल प्रदेश के दर्शनीय स्थल, पहाड़ी चित्रकला एवं वास्तुकला, हिमाचल प्रदेश की सांस्कृतिक संपदा।

7ण्हिमाचल की संस्कृति पर छः खण्डों में ‘‘हिमालय गाथा‘‘ श्रृंखलाः देव परम्परा, पर्व उत्सव, जनजाति संस्कृति, समाज—संस्कृति, लोक वार्ता तथा इतिहास।

8ण्सम्पादनः दो काव्य संकलन : (विपाशा, समय के तेवर) ; पांच कहानी संग्रह : (खुलते अमलतास, घाटियों की गन्ध, दो उंगलियां और दुष्चक्र, काले हाथ और लपटें, पहाड़ गाथा)। हिमाचल अकादमी तथा भाषा संस्कृति विभाग हिमाचल प्रदेश में सेवा के दौरान लगभग सत्तर पुस्तकों का सम्पादन प्रकाशन। तीन सरकारी पत्रिकाओं का संपादन।

1ण्सम्मानः जम्मू अकादमी तथा हिमाचल अकादमी से ‘आतंक‘ उपन्यास पुरस्कृत; साहित्य कला परिषद्‌ दिल्ली से ‘नदी और रेत‘‘ नाटक पुरस्कृत। हाल ही में ‘‘जो देख रहा हूं'' काव्य संकलन हिमाल अकादमी से पुरस्कृत। कई स्वैच्छिक संस्थाओं से साहित्य सेवा के लिए सम्मानित।

1ण्देश की विगत तथा वर्तमान पत्र पत्रिकाओं : धर्मयुग, सारिका, साप्ताहिक हिन्दुस्तान से ले कर वागर्थ, हंस, साक्षात्कार, गगनांचल, संस्कृति, आउटलुक, नया ज्ञानोदय, समकालीन भारतीय साहित्य आदि से रचनाएं निरंतर प्रकाशित। राष्ट्रीय स्तर पर निकले कई कथा संकलनों में कहानियां संग्रहित। कई रचनाओं के भारतीय तथा विदेशी भाषाओं मेें अनुवाद। कहानी तथा समग्र साहित्य पर कई विश्वविद्‌यालयों से एम फिल तथा पीएचडी.।

1ण्पूर्व सचिव/उपाध्यक्ष हिमाचल कला संस्कृति भाषा अकादमी ; उपनिदेशक/निदेशक भाषा संस्कृति विभाग हिप्र।

2ण्पूर्व सदस्य : साहित्य अकादेमी दिल्ली, दुष्यंत कुमार पांडुलिपि संग्रहालय भोपाल।

3ण्वर्तमान सदस्य : सलाहकार समिति आकाशवाणी; हिमाचल राज्य संग्रहालय सोसाइटी शिमला, विद्याश्री न्यास भोपाल।

4ण्पूर्व फैलो : राष्ट्रीय इतिहास अनुसंधान परिषद्‌ भारत सरकार

5ण्सीनियर फैलो : संस्कृति मंत्रालय भारत सरकार।

1ण्संपर्क : ‘‘अभिनंदन‘‘ कृष्ण निवास लोअर पंथा घाटी शिमला—171009 हि प्र

2ण्फोन : 094180—85595 (मो) 0177—2620858 (आ)

3ण्ई—मेल : अेंीपेीजीेंनकंतेींद/लींववण्बवउ

प्रकाशक की कलम से

हिन्दी कहानी आज अपने पुराने और वास्तविक स्वरूप में लौटती प्रतीत हो रही है। वास्तविक स्वरूप यानि कहानी, कहानी बनती जा रही है। कहानी में यदि कथा तत्व नहीं है तो वह संस्मरण, रिपोर्ताज, निबन्ध कुछ भी हो सकता है, कहानी नहीं हो सकती। कथा तत्व ही कहानी का मूल है।

पिछली सदी के अंतिम दशक तक कहानी से कथा दूर होने लगी और एक एब्स्ट्रेक्ट सी चीज़ सामने आई। जादूई यथार्थ के नाम पर कुछ कहानियां ऐसी भी आईं जिनमें न जादू था न यथार्थ। सरल और सीधी भाषा या शिल्प में कही जाने वाली कथा गायब होने लगी। ऐसी भी स्थ्िति आ गई कि कई पत्रिकाओं में उलझा सा संस्मरण, भाषण का मसौदा भी कहानी कह कर परोसा जाने लगा। लगभग ऐसा ही कविता के साथ भी हुआ। एक गद्य के पैरे को कविता कह कर छापा जाने लगा।

शिल्प की अत्यधिक कसरत; कथा से दूर उलझावदार, पेचदार कथानक ने एक बार तो पाठकों को चमकृत कर दिया किंतु जल्दी ही इससे मोहभंग होने लगा। स्वयं कहानीकार भी इसका निर्वाह देर तक नहीं कर पाए। उन्हें कथा की ओर लौटना ही पड़ा। इस सदी के पहले दशक के अंत तक कहानी, फिर कहानी की ओर लौटी है। आज पत्रिकाओं में फिर से कहानी दिखलाई पड़ती है।

सारिका और धर्मयुग ने सशक्त कहानियां देने के साथ एक कहानी आन्दोलन भी खड़ा किया। सारिका ने प्रतियोगिताओं के माध्यम से प्रत्यक्ष रूप से तो धर्मयुग ने अप्रत्यक्ष तौर कहानी का एक आन्दोलन चलाया। इसी तरह की कहानी प्र्रतियोगिताएं साप्ताहिक हिन्दुस्तान ने भी कराईं।

धर्मयुग के माध्यम से कहानी का जो भीतर ही भीतर एक आन्दोलन चला उसने कई कहानीकार दिए। यहां पुराने और स्थापित कहानीकाराें के बराबर में नये कहानीकार भी आए। जैसाकि होता रहा है, शिवानी जैसे कुछ ऐसे भी कहानीकार थे जिनकी तरफ आलोचकों ने ध्यान नहीं दिया। बहुत से सम्भावनाशील कथाकार न जाने कहां लुप्त हो गए। अस्सी के उस दौर में से0रा0 यात्री, राकेश वत्स, स्वदेश दीपक, पानू खोलिया, देवेन्द्र इस्सर, चन्द्रमोहन प्रधान, सुदर्शन नारंग, डा0 सुशीलकुमार फुल्ल, संजीव, शिवमूर्ति, मनीषराय, सुदर्शन वशिष्ठ, रूपसिंह चंदेल, केशव, बलराम, चित्रा मुद्‌गल, राजकुमार गौतम, मालचंद तिवारी, प्रभुनाथ सिंह आज़मी आदि कितने ही कहानीकारों ने ध्यान आकर्षित किया। यह भी सत्य है कि इन में कुछ तो जम कर स्थापित हुए, कुछ का स्मरण कभी कभार किया जाने लगा और कुछ का किसी ने नाम नहीं लिया। किंतु उस युग में धर्मयुग में छपने का अर्थ था एकाएक लाखों पाठकों के समक्ष प्रस्तुत होना।

यूं तो सुदर्शन वशिष्ठ की पहली कहानी 1969 में छपी और पहला कहानी संग्रह 1979 में आया किंतु आठवें दशक में भौगोलिक सीमाओं को तोड़ते हुए वशिष्ठ ने राष्ट्रीय मंच में दस्तक दी और तमाम शीर्षस्थ राष्ट्रीय पत्रिकाओं मे यह नाम एकाएक उभर कर सामने आया। सारिका की ‘‘ऋण का धंधा'' हो या धर्मयुग की ‘‘सेमल के फूल‘‘, ‘‘पिंजरा'', ‘‘घर बोला'', ‘‘सेहरा नहीं देखते'' या साप्ताहिक हिन्दुस्तान की ‘‘माणस गन्ध'', योजना की ‘‘सरकारी पैसा''; एकाएक सभी पत्रिकाओं में यह नाम देखा जाने लगा।

धर्मयुग में पहली कहानी ‘‘सेमल के फूल'' 22—29 जून 1980 के अंक में प्रकाशित हुई जिसके बाद लगातार कहानियां लगभग हर वर्ष धर्मयुग के बंद होने तक आती रहीं। साप्ताहिक हिन्दुस्तान में ‘‘माणस गन्ध'' का प्रकाशन 31 मार्च—6 अप्रैल 1991 अंक में हुआ।

गत पैंतालीस बरसों से लगातार कहानी लेखन में सक्रीय वशिष्ठ ने एक लम्बा सफर तय किया है। अतिसंवेदनशील मानवीय मूल्यों की कोमल छुअन, घर और गांव का मोहपाश, शहर और गांव के बीच आकर्षण और बढ़ता हुआ विकर्षण, घर परिवार से दफतर तक का संसार, निर्मम सरकारी तन्त्र, राजनीति की विभिषिका, सब इनकी कहानियों में देखने को मिलता है। सम्बन्धों की रेशमी डोरियों से ले कर गहन और जटिल मनोवैज्ञानिक परिस्थितियों तक कथाकार ने एक यथार्थवादी किंतु अद्‌भुत और रोमांचक संसार का निर्माण किया है।

वरिष्ठ कथाकार वशिष्ठ का कथा संसार उनके लेखन की तरह बहुआयामी विविधताओं से भरा हुआ है। यह किसी सीमित दायरे में बन्ध कर नहीं रहता। वे कहानी, उपन्यास, कविता, च्यंग्य, निबन्ध, सांस्कृतिक लेख आदि कई विधाओं में एक साथ लिखते हैं। इसी तरह उनकी कहानियों की भावभूमि और ज़मीन अलग अलग रही है। वशिष्ठ की कहानियां बोलती है, कहानीकार नहीं। कहानी में कहानीकार होते हुए भी नहीं होता। परिवेश और परिस्थितियों के अनुरूप संवेदना, कोमलता, सादगी के साथ ताज़गी, धारदार व्यंग्य के साथ एक तीख़ापन इनकी कहानियों में दिखलाई पड़ता है।

अव्यक्त को व्यक्त करना और व्यक्त को अव्यक्त करना, पात्रों को चरम तक उभार कर रहस्यमयी परिस्थितियों में छोड़ देना इन की कला है। कम से कम शब्दों में अधिक से अधिक और बड़ी से बड़ी बात करना, प्रतीकात्मक ढंग से इशारे में कहना, कथ्य के अनुरूप वातावरण तैयार करना और काव्यमयी भाषा का निर्माण इन की कहानी कला में आता है। कहानियों के अंत प्रायः खुले छोड़ दिए जाते हैं जो पाठक को देर तक सोचने पर विवश करते हैं।

गुलेरी सा शिल्प का नयापन, यशपाल का लेखन का विस्तार, मोहन राकेश सी कसावट, निर्मल वर्मा सी कोमलता और दक्षता इनकी कहानियों में देखने को मिलती है।

शब्दों की मितव्ययता और कम से कम शब्दों में अधिक से अधिक बात कहने की क्षमता, निरर्थक संदर्भों के बखान से परहेज, अनावश्यक विस्तार से बचाव इनकी कहानियों की विशेषता रही है। पात्रों को परिस्थ्ििात के अनुरूप रिएक्ट करने के लिए खुला छोड़ना, कहानी में उपस्थित हो कर भी अनुपस्थित रहना, कहानियों की एक ओर विशेषता कही जा सकती है।

विषयों की विविधता के साथ बाल मनोविज्ञान, वृद्धों की मानसिकता, नारी मन की कोमल भावनाएं, मध्यम वर्ग और निम्न वर्ग की ऊहापोह; इन सब का विवेचन बदलते हुए मूल्यों और परिस्थितियों के साथ कहानियाें में नये नये आयामों के साथ परिलक्षित होता है।

सारिका, धर्मयुग और साप्ताहिक हिन्दुस्तान जैसी पत्रिकाओं का एक एक कर बंद होना साहित्य में एक दुखांत घटना थी। इस दुर्घटना के बाद साहित्य जगत में अन्धेरा सा छाया रहा। उस युग के बाद आउटलुक, कहानीकार, पश्यन्ति, पल प्रतिपल, विपाशा, साहित्य अमृत, हरिगन्धा, हिमप्रस्थ, मधुमति, साक्षात्कार, से ले कर सण्डे ऑब्जर्बर, जनसत्ता, अमर उजाला, नवभारत टाईम्ज, हिन्दुस्तान, दैनिक ट्रिब्यून, नई दुनिया जैसे पत्रों तक इनकी कहानियां छपती रहीं।

वशिष्ठ की कथायात्रा अब भी निरंतर जारी है। समकालीन भारतीय साहित्य हो या हंस, कथादेश या नवनीत, कादम्बिनी हो या वागर्थ इनकी कहानियां निरंतर देखी जा सकती हैं।

एक लम्बे समय और स्पेस में निरंतर लेखन के कारण इनकी कहानियों में पुरातन और नवीन का सामंजस्य स्थापित हुआ। समय और समाज के परिवर्तन के साथ आए भौतिक और मनावैज्ञानिक बदलाव इन कहानियों में सौ वर्ष से अधिक के कालखण्ड को अपने में समोए हुए है। इस दृष्टि से यह कथायात्रा, जो अभी भी जारी है, एक दस्तावेज के रूप में सामने आती है।

कहानी को किसी खांचे में कस कर खरीदे हुए धागों से बुनना कथाकार का अभीष्ट नहीं रहा। इन का धागा भी अपना है, रंग भी अपना है, खड्‌डी भी अपनी है और बुनावट का डिजायन भी अपना है। इन की ऊन में सिंथेटिक की मिलावट नहीं है कि ओढ़ते ही चिंगारियां निकलने लगें या किसी रंगरेज़ ने नकली और कच्चे रंग से रंगा भी नहीं कि एक बार धो पहन कर रंग फीेके पड़ जाएं । इन में असल ऊनी धागा है, असली और पक्के रंग है। कोई भी पाठक इसे सहजता से ओढ़ बिछा सकता है। इससे स्वाभाविक गर्माहट मिलेगी जो देर तक धीमे धीमे असर करती रहेगी।

यहां कहानीकार की नारी संवेदना को ले कर कुछ विशिष्ट कहानियां दी जा रही हैं जो अपने कथ्य और काव्यमयी भाषा के कारण विशेष ध्यान आकर्षित करती हैं। सभी कहानियों में समाज में नारी के प्रति संस्कार, संबंन्धों की जटिलता, का बड़ी सूक्ष्मता से वर्णन किया गया है।

साहिब है रंगरेज़

किस्सा उस समय का है जब शहर ने अंगड़ाई नहीं ली थी। बस अपने में सकुचाया और सिमटा हुआ रहता था। ठण्डी सड़कों में जगह जगह झरने बहते, जहां स्कूली बच्चे और राहगीर अंजुली भर भर पानी पीते। मुख्य बाजार में बहुत कम आदमी नजर आते। गर्मियों में गिने चुने लोग मैदानों से आते जिन्हें सैलानी नहीं कहा जाता था। कुछ मेमें छाता लिए रिक्शे पर बैठी नजर आतीं। इन रिक्शों को आदमी दौड़ते हुए चलाते थे। सर्दियों में तो वीराना छा जाता। माल रोड़ पर कोई भलामानुष नजर नहीं आता। मॉल रोड़ पर तो बीच से सड़क साफ कर रास्ता बना दिया जाता, लोअर बाजार में दुकानें बर्फ से अटी रहतीं। स्कूल कॉलेज बंद। वैसे भी ले दे कर लड़कियों का एक सरकारी स्कूल, लड़कों का डी.ए.वी. स्कूल और एक प्राईवेट कॉलेज था। दो चार कांवेंट स्कूल थे, जो सभ्रांत परिवारों की तरह अपने में ही रहते। इन में ऐसे बच्चे रहते जिनके माता पिता के पास उन के लिए समय नहीं था। सर्दियों की छुटि्‌टयों में होस्टल भी ख़ाली हो जाते। कभी कोई बदनसीब बच्चा पेरेंट्‌स की व्यस्तता से स्कूल में रह जाता जो अकेला डोरमेटरी से नीचे झांकता रहता। हां, कभी कभार कोई अंग्रेज परिवार मॉल रोड़ पर उसी शान से चहलकदमी करता। ऊंची ऊंची गोथिक शैली की इमारतों से सर्दियों में बड़े दिन को कुछ यूरोपियन चेहरे उदासी से झांकते । गिरजाघरों की घण्टियां बज उठतीं और रात को पादरी मुर्गे की टांग चबाते।

मुख्य बाजार से घर जाना हो तो समय रहते ही जाना होता। सर्दियों में जब शाम दौड़ती हुई आती है, घने जंगल, चुड़ैल बाबड़ी और भुतहा कोठियों का भय बना रहता जिनमें अभी भी अंग्रेजों के पुरखे रहते थे।

ऐसे माहौल में एक पहाड़ी के बीचोंबीच था मेरे यार का घर। जंगल और बाग के अजीब वातावरण में मौन प्रहरी सा खड़ा वह गेट, लम्बा अकेला रास्ता, कोठी के बाहर लम्बा बरामदा, भीतर ख़ामोश कमरे। किसी की आहट पाते ही यार की बिल्ली म्याऊं म्याऊं करती, पूंछ हिलाती आ जाती और पुराने सोफों पर हौले हौले पीठ मलती हुई चलती। बहुत बार ऐसा हुआ कि दोस्त के कमरे में जाने तक कोई आदमी नहीं मिला। न बूढ़ी नौकरानी, न माली, न ख़ानसामा, न गोरखा।

हां, कभी दोस्त भी कमरे में न हो तो बड़ी मायूसी हाथ लगती और दबे पैर वापिस लौटना पड़ता। कहीं रायसाहिब न देख लें। ऐसा होता कम था। दोस्त के भीतर होने पर एकदम पूरा घर जैसे ठाठें मार गाने और नाचने लगता।

प्रेम की तरह दोस्ती भी यकदम हो जाती है, पहली ही नज़र में। स्कूल या कॉलेज के दिनों में प्रेम और दोस्ती के मायने एक ही होते हैं। बहुत बार प्रेम से दोस्ती प्रगाढ़ होती है। यह जातपांत, ऊंच नीच, दीन धर्म, अमीर गरीब कुछ नहीं देखती।

मेरा और पुष्कर का साथ हो नहीं सकता था, पर हो गया। रोज सुबह साथ जाना, साथ आना। दिन भर कॉलेज में साथ रहना। यहां तक कि बहुत बार मैं रात को भी उसी के घर रहने लगा।

हमारा याराना तो दूसरे दिन ही हो गया। जैसे मैं शाख से टूटा खुश्क पत्ता था जिसे जमीन पर गिरने से पहले पुष्कर ने थाम लिया। नजदीकी प्रेम को बढ़ाती है, दूरी कम करती है, यह सच है। हमारे घर एक ओर थे। इसलिए एक ही रास्ते से साथ साथ कॉलेज जाते, साथ साथ वापिस आते। जाने से पहले मैं उसके घर पहुंच जाता। आने से पहले मैं उसके घर पहुंच जाता। साथ साथ चलने से ही हम साथी बन गए। मैं तो गांव से आ कर पढ़ाई के कारण चाचा के साथ उनके सरकारी र्क्वाटर में जबरदस्ती टिका हुआ था। पुष्कर का अपना घर था। घर कहना तर्कसंगत नहीं होगा। घर क्या ऊंचे देवदारूओं से घिरी लम्बी चौड़ी कोठी थी। ‘तारा वियू' एस्टेट नाम था जिसमें पूरी पहाड़ी पर सेब का बागीचा था। शहर में अब यह एक ही बागीचा था जिसमें सेब की फसल लगती थी। दादा रायबहादुर थे। खिताब मिला था अंग्रेजों से। लगते भी अंगे्रज ही थे। चूड़ीदार पेंट और हैट लगाए रहते। शहर में एक सिनेमा घर, कई दूकानें।

कोठी पहाड़ी के बीचोंबीच धरती पर बिछी हुई थी। साथ में सर्वेंट क्वार्टरज। मुख्यद्वार सड़क के साथ था जहां एक ओर गुमटी थी। यहां कभी पुलिस के नौजवान चौबीस घण्टे पहरे पर खड़े रहते थे। अंग्रेजी राज खतम होने के बाद इन्हें देसी सरकार ने हटा लिया। पिता के होम गाड्‌र्ज का कमांडैंट बनने पर उनकी जगह होम गार्डज के सिपाहियों ने ले ली।

कॉलेज में हमारी अपनी ही दुनिया थी। औरों से अलग, हो हल्ले, राजनीति से दूर अपने में ही मस्त। हड़तालों, जलसे जुलूसों में हम शामिल नहीं होते। किसी को हमें कहने की हिम्मत भी नहीं होती। कॉलेज में बहुत सी लड़कियां पुष्कर से बात करने, याराना करने के लिए तरसती थीं। वह किसी को घास नहीं डालता। औरों की तरह लड़कियों के पीछे भागना या उनके आगे पीेछे रहना हमारी दिनचर्या में नहीं था। वैसे भी उस जमाने में किसी लड़की से बात कर पाना बड़ी हिम्मत और जोखिम का काम था। बड़ों बड़ों के पसीने छूट जाते। इस फील्ड में हम भीरू थे।

ऐसे में समय ने मदहोश अंगड़ाई ली।

वह गुलाब की पंखुरी की तरह गिरी धीरे धीरे धीरेे। हवा में तितली के पंख की तरह उड़ी हौले हौले हौले.......।

हवा में न जाने कितने पंख, रूई पहने बीज, सूखे पत्ते उड़ते रहते हैं। हमें दिखलाई नहीं पड़ते। मौसम बदलने पर पतझड़ में, वसंत के बाद गर्मियां आते ही इस तरह की कई चीजें पेड़ों से नीचे गिरती रहती हैं।

जब भी कोई ऐसी चीज हवा में तैरती हुई नज़र आती, नीचे गिरने से पहले वह इसे हवा में थामने के लिए दौड़ता। यह उसकी पुरानी आदत थी। रास्ते में जाते हुए जब भी हवा में कोई पंख तैरता नजर आता, वह उसे हाथ में पकड़ने के लिए दौड़ता। कई बार ऊंचे देवदारों से, बान के पेड़ों से, पंख लगी कोई चीज तेजी से गोलाकार घूमती हुई नीचे उतरती। हवा में झपट्‌टा मार वह फुर्ती से मुट्‌ठी में बंद कर तेजी चिल्लाताः ‘‘ लो पकड़ लिया!.... इसे जमीन पर गिरने से पहले पकड़ लेना शुभ होता है.....।'' वह कहता और उसे कोट या जैकेट की जेब में सम्भाल कर रखा लेता।

जब मौसम ने अंगड़ाई ली, बर्फ पिघली, सर्दियों के बाद अप्रैल में कॉलेज खुले तो लक्कड़ बाजार के आगे लकड़ी की पुरानी बिल्डिंगों में जैसे फूलों की क्यारियां महक उठीं। कॉलेज के प्रांगण में लड़कियां तितलियों की तरह उड़ने लगीं।

ऐसे में एक दिन हम ख़ाली पीरियड होने से टहलते हुए लक्कड़ बाजार की ओर जा रहे थे, तो वह ऊपर से उतरी धीरे धीरे।

साधारण वेशभूषा में वह असाधारण थी। जैसे पर्वत की रूखी सूखी चट्‌टानों में खिला ब्रह्‌मकमल। जैसे कोई राजकुमारी दासी के कपड़ों में प्रजा का हाल जानने चोरी से निकली हो। सफेद सारस सी उठी हुई गर्दन, हिरणी सी बड़ी बड़ी आंखें, लम्बी पतली काया..... हम देखते ही रह गए।

‘‘बहुत मेजेस्टिक बॉडी है यार इसकी......।‘‘ पुष्कर भी देखता रह गया। एक दो नोट बुक्स छाती से लगाए वह धीमे धीमे हमारे सामने से गुजर गई। बात आई गई हो गई।

कभी कभार वह उसी साधारण वेशभूषा में दिखती तो पुष्कर के मुंह से निकलताः ‘‘बड़ी मेजेस्टिक बॉडी है यार!‘‘

हम उस समय बी.ए. पार्ट टू में थे। पता चला उसने प्री यूनिवर्सिटी में दाखिला लिया है। अतः हमारा उससे कोई नाता नहीं था सिवाय इसके कि कभी सामना हो जाता।

पार्ट वन के एक लड़के के एक बार पुष्कर से कहा कि वह उसकी इंट्रो किसी से करवाना चाहता है। पुष्कर ने मेरे साथ एक दो बार इसका जिक्र किया। मैंने सोचा किसी आदमी से इंट्रो करवाना चाहता होगा.... ‘‘तो क्यों नहीं मिलते, किसी दिन मिल लो।'' मैंने कहा। ‘‘हां, मिल लेंगे। ऐसी भी क्या जल्दी है.... पर वह होगा कौन!‘'

पुष्कर इस बात को मजाक में ही लेता रहा। यह मजाक नहीं था। एक दिन वह लड़का पुष्कर को क्वालिटी रेस्तरां में ले गया। यहां बैठने के लिए कुछ केबिन बने थे जिनमें हमेशा पर्दे लटके रहते। उसने पुष्कर को एक केबिन में भीतर भेज दिया। वह लड़का कहीं रफ्‌्‌फूचक्कर हा गया। मैं बाजार के चक्कर लगाता रहा। अंत में खीज कर अकेला घर आ गया।

दूसरे दिन बड़ी बेसब्री से मैं उसके घर जल्दी ही पहुंच गया। वह अभी अपने कमरे में सोया हुआ था।

‘‘कौन था! क्या बात हुई!'' मैंने उतावली में पूछा।

‘‘बैठो बैठो, बताते हैं....ऐसी भी क्या जल्दी है!'' उसने अंगड़ाई लेते हुए कहा।

मेरे सब्र की जैसे वह परीक्षा ले रहा था।

‘‘वही थी यार वही...'' ‘‘वही कौन!'' मैं फिर चौंका।

‘‘वही.... मेजेस्टिक बॉडी....मुझ से मिलना चाहती थी।'' चहका पुष्कर।

मुझे कुछ धक्का सा लगा। संयत हो बोलाः ‘‘ ये कैसे हुआ! वह लड़का कौन है उसका।‘‘

‘‘कजिन बता रहा था। जो भी हो हमें क्या।'' उसने लापरवाही से कहा।

इसके बाद वे तोता मैना हो गए।

शहर की सुनसान ठण्डी सड़कों से ले कर होटल रेस्तरां तक वे कभी छिप कर और कभी सरेआम इकट्‌ठे नज़र आने लगे। उस जमाने में यह कम बात नहीं थी। हालांकि आज की तरह चोंच से चोंच नहीं जोड़ते थे। कॉलेज में तो सब को पता था। एम्बेसी में उन दिनों नई नई बार खुली थी। अंदर के कमरे में दीवार पर उमर खैय्‌याम का बड़ा सा चित्र बना दिया था। बैठने के लिए लम्बा तख्तपोश। इसके आगे दो टेबल भी थे। पुष्कर पूरे कमरे को बुक करवा कर तख्तपोश पर उसके साथ बैठा रहता। बहुत बार मैं भी कुछ देर बार में बैठता और उन्हें अकेला छोड़ बाहर आ जाता।

बात बहुत आगे बढ़ने पर उसे समझाया भी : ‘‘ तुम तो दीवानगी की हद तक जाने लगे हो.... वह तुम्हारे काबिल नहीं है।... उतना ही रखो जितना जरूरी है, बहुत आगे न बढ़ो।‘‘

इन बाताें पर पुष्कर गुनगुनाने लगता ...सुराहीदार गर्दन कोयल सी है आवाज....तेरी हर एक बात पर मुझ को है बड़ा नाज।

सच ही उसकी आवाज बहुत मीठी और सुरीली भी, एकदम कोयल सी। खास अनुरोध कर वह बहुत बार गा देती। हम आंखें बंद किए सुनते रहते।

अब उसका कॉलेज आना कम हो गया। पुष्कर पहले ही अगले दिन का मिलन कार्यक्रम तय कर लेता। वैसे भी कॉलेज में उस पर कोई रिमार्क्स कसे तो वह मार पिटाई पर उतारू हो जाता। मुझे बहुत बार बीच बचाव करना पड़ता।

‘‘इतना साथ न करो भाई। ये ठीक नहीं।'' मैंने कई बार समझाया।

‘‘मुझे पता है तुम क्यों तिंगड़े हुए हो।'' वह उलाहना देता।

‘‘ऐसी बात नहीं है। मैं ठीक कह रहा हूं। ये तुम्हारे काबिल नहीं है।'' वह उसके बारे में मेरी भली बुरी बातें भी सुन लेता था, यह उसकी शालीनता और सहनशीलता थी।

रायबहादुर साहिब ने पार्टी रखी थी......तुम भी आना यार रात को। घर में रात यहीं रहने की बात करके आना.....पुष्कर ने अनुरोध और आदेश से कहा था।

रायबहादुर साहिब की बैठक बहुत बड़ी थी जिसमें पर्शियन कारपेट बिछी हुई थी। ऊपर बड़ा सा फानूस लटका हुआ था। दीवाराें पर बंदूक हाथ में लिए बड़े बड़े फोटो सलीके से तारों से लटके हुए थे। बीच में दोनों ओर हिरण के लम्बे सींगों वाले मुंह। रायबहादुर की बड़ी सी कुर्सी के नीचे शेर की खाल। किनारों पर लकड़ी के कलात्मक स्टैंड।

आसपास के राजे रजवाड़ों को आमन्त्रित किया गया था। मंहगी और विदेशी शराब का इंतजाम था। सूखा मीट, बोनलेस चिकन, सीख क्बाब का माकूल इंतजाम। बूढे़ राजाओं के शौक को देखते हुए नाच गाने का विशेष इंतजाम था। लोक गायक, तूरी और नट मण्डलियां बुलाई गई थीं।

गर्मियों के दिनों में शाम देरी से होती है। अतः आठ बजे तक लोग सजधज कर पहुंचने लगे। सेवकगण ठण्डा और गर्म ट्रे में लिए मुसतैदी से घूम रहे थे। बाहर से ठण्डा मगर तासीर में गर्म झट से उठाया जा रहा था। पार्टी में सरूर होने के बाबजूद भी सयंम और गरिमा थी।

थोड़ी देर बाद एक ओर बिछे दीवान पर गायक बैठ गए। दो लड़कियां या औरतें भी उनके साथ थीं जो चुनरी से मुंह ढंके हुए थीं। तबले और हारमोनियम वालों ने सुर आजमाए और मूंछों वाले बूढ़े गायक ने गाना शुरू कियाः

‘‘साहिब हैं रंगरेज़ चुनरी मोहि रंग डारी।''

देर तक वह एक ही बोल...साहिब है रंगरेज और एक ही राग अलापता रहा तो रायबहादुर ने फरमाईश की :

‘‘माठूराम! कोई प्हाड़ी राग सुणा यरा.... ए पक्के राग तो बोत सुणे। कोई देसी ठुमका लगाओ यरा।'' उन्होंने घूंघट में छिपी औरतों की ओर देखते हुए कहा।

माठूराम ने खुद हारमोनियम सम्भाला,सुर साधा और घूंघट काढे एक औरत गाने लगीं :

‘‘उडी जाणा बसंतिए तेरा रूमाल

ऐस खद्‌दरे री कुरती रा इतणा कमाल...उडी जाणा...।‘‘

महफिल गरमाने लगी तो एक औरत ने फर्राटी लगाई। उस पर नोटों की बारिश होने लगी। नाचते हुए उसका आधा घूंघट खुल गया। माठूराम ने मौका ताड़ लिया और हारमोनियम पर धुन बजा कर दूसरी से गाना शुरू कराया :

‘‘तेरी तेरी खातर खाणा बणाया, खाई के खुल़ाई के तू लंघी जाणा पार

तू हो जानी मेरे गल़ो रा हार....।''

यह क्या! यह तो जानी पहचानी आवाज है......मैं चौंका। वही आवाज, वही अंदाज।

मगर यह किसकी आवाज है.... तीन पैग लगाने पर मेरा दिमाग घूमने लगा था। मैंने पुष्कर की ओर देखा। होंठ तो उसके वैसे ही लाल रहते थे। इस समय गाल भी अंगारे की तरह सुर्ख़ थे। माथे पर पसीने की बूंदें थीं......शायद ज्यादा लगा ली है।

ढोलक की थाप के बाद गााने के अगले बोल कानों में पड़े :

‘‘तेरी तेरी खातर सेज बछाई

सेज बछाई ओ बलमा सेज बछाई

सोई के सुआई के तू लंघी जाणा पार.... तू ओ जानी मेरो....

गाते गाते वह नाचने लगी। एक अधेड़ ने आगे बढ़ कर नोट हवा में लहराए और उसकी चुनरी खींच ली।

यह क्या.....नाच एक क्षण को थम गया। वह जैसे वहीं फ्रीज हो गई। वह खड़ी थी जैसे शिकारियों के बीच बड़ी बड़ी आंखों वाली चकित हिरणी....वह खड़ी थी जैसे जंगल में उगी नाग छतरी....वह खड़ी थी जैसे पर्वत पर चट्‌टानों में खिला ब्रह्‌मकमल!

छत पर लगे झाड़ फानूसों में जैसे एकाएक बिजली को लोड़ बढ़ गया। चारों ओर जगमगाहट सी छा गई।

मैं अवाक्‌ रह गया। पुष्कर न जाने कब आगे आया और अधेड़ को धक्का मार परे धकेल दिया। वह एक ओर लुढ़क गया। मैं भी यन्त्रवत्‌ आगे आ खड़ा हुआ।

‘‘इन लड़कों को किसने लाया भई यहां!.....चढ़ गई है भई इसको। टल्ली हो गया है......ले जाओ यहां से.....,'' रायबहादुर की आवाज थी। पुष्कर को दो आदमी कठिनाई से पकड़ कर ले गए। उसका चेहरे से जैसे लहु टपक रहा था। मेरा सारा नशा जाता रहा। मैं छिपता छिपाता उसके कमरे में कब आ कर सो गया, सुबह ही पता चला।

रात का हादसा एक बुरे सपने की तरह याद था। सुबह उठे तो पुष्कर नॉर्मल था।

उसके बारे में हमारे बीच कोई बात नहीं हुई। अगले दिन वह कॉलेज में नहीं दिखी। पुष्कर ने उस लड़के को पकड़ कर पीट डाला जिसने इंट्रो करवाई थी। लड़के ने मार खा कर भी कुछ नहीं बताया।

आज, बहुत दिनों बाद शाम को हम साथ साथ घर लौटे। रास्ते में देवदार झुरमुट के नीचे से गुजर रहे थे तो पुष्कर तेजी से भागा। उसने झपट्‌टा मार ऊपर से गिरता हुआ एक पंख मुट्‌ठी में पकड़ लिया और फट से कोट की जेब में डाल लिया।

देर बाद इस क्षण उसके चेहरे पर मुसकान लौटी।