Aayo Hindi ka Tyohaar Sudarshan Vashishth द्वारा हास्य कथाएं में हिंदी पीडीएफ

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Aayo Hindi ka Tyohaar

आयो हिन्दी का त्यौहार

व्यंग्य

सुदर्शन वशिष्ठ

लो, हिन्दी का त्योहार फिर आ गया। यह भी खू़ब है कि यह त्योहार प्रविष्टे के हिसाब से नहीं आता नहीं तो दूसरे त्योहारों की तरह यह पता ही नहीं चलता कि किस दिन है। जन्माष्टमी की तरह कोई एक दिन मनाता, कोई दूसरे दिन। यह त्योहार ‘डेट‘ के हिसाब है, चौदह सितम्बर को ही होगा, न एक दिन पीछे, न एक दिन आगे।

हां, चौदह सितम्बर 1949 का ही वह दिन था, जब संघ के संविधान में हिन्दी को राष्ट्रभाषा नहीं, ‘राजभाषा‘ का दर्जा दिया गया। मेरा जन्म चौबीस सितम्बर हो हुआ, इस घटना के ठीक दस दिन बाद। तो मेरे जन्म से दस दिन पहले, कहते हैं, हिन्दी की राजभाषा के रूप में विजय एक मत से हुई। भारत के संविधान में इसकी व्याख्या की गई और ‘क‘ वर्ग में हिन्दी पट्‌टी में अर्थात्‌ हरियाणा, हिमाचल, दिल्ली, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, बिहार, राजस्थान तथा संघ शासित प्रदेश शामिल हुए।

सौभाग्य से मेरा जन्म भी ‘क‘ प्रदेश में हुआ। बीए में हिन्दी ली तो हम दो ही लड़के थे, शेष तीस पैंतीस लड़कियां ही लड़कियां थीं। दोस्त मजाक उड़ाते। इससे बचने के लिए मैं उनके साथ पॉलिटिकल की क्लास में बैठा रहता। हां, हिन्दी में एमए करना फलित हुआ। नौकरी भाषा विभाग में मिली। ख़ूब ‘हिन्दी हिन्दी' खेल खेला। हिन्दी के राजभाषा बनने का एक नोट मेहनत से तैयार किया जो हर वर्ष हिन्दी दिवस पर काम आता। सन्‌ बदल कर उसे हर साल नये मुख्यअतिथि को भेज दिया जाता। कोई ध्यान न दे तो सन्‌ भी वही रहता।

हिन्दी को संघ ने राजभाषा तो माना, मगर बोला कि अंग्रेजी भी साथ साथ चलेगी। हुआ उल्टा, अंगे्रजी साथ साथ न चल कर आगे बढ़ गई, हिन्दी पीछे हो गई। विभागों के हिन्दी नाम रोमन में लिखे जाने लगे। अंग्रेजी का साथ नहीं छूटा। संविधान ने बार बार अंगे्रजी के साथ को सहचरी की तरह बढ़ाया गया। अंग्रेजी ने तो आगे होना ही था, सो स्कूलों से ही नींव पक्की होने लगी। पब्लिक स्कूलों में हिन्दी बोलने पर ‘केनिंग' होने लगी जहां हिन्दी प्रेमियों के बच्चे शिक्षा ग्रहण कर रहे थे।

हां, हिन्दी के राजभाषा बनने पर फायदे भी हुए। केन्द्र सरकार के सभी मन्त्रालयों व विभागों में, बैंकाेंं में, हिन्दी राज्यों में, राजभाषा विभाग बने और ‘हिन्दी अधिकारियों‘ के पद सर्जित हुए। हिन्दी, जो कभी रत्न भूषण के मध्यम से केवल लड़कियों का ही विषय हो गया था, लड़कों को भी आकर्षित करने लगा। हिन्दी सेवी राजभाषा या हिन्दी अधिकारी बनने लगे। बैंकों में तो ऐसे अधिकारियों को अच्छा ग्रेड भी दिया गया। संसदीय राजभाषा समिति के साथ केन्द्र के सभी विभागों में राजभाषा समितियां बनीं जिन में कहीं कहीं एकाध हिन्दी के साहित्यकार को भी सदस्य बनने का गौारव प्राप्त हुआ। संसदीय राजभाषा समिति के साथ साथ यह सभी समितियां गर्मियों में पहाड़ों पर हिन्दी के निरीक्षण हेतु दौरे पर आने लगीं। भाषा के साथ ‘राज' भी तो लगा है। बैंकों में तो इन समितियों के ठाठ ही अलग हैं।

राजभाषा के उत्थान के लिए कुछ संस्थाएं बनीं जो वर्ष में एक दो 'अखिल भारतीय सेमिनार‘ करवाने लगीं। कुछ पहुंच वाली संस्थाओं ने हिन्दी को पंचसितारा होटलों तक पहुंचाने का बीड़ा उठाया। ऐसी संस्थाएं केन्द्र सरकार और राज्य सरकारों के निगम, बोडोर्ं से उनके खर्चे पर और फीस ले कर प्रतिनिधि बुलाने लगीं । पंचसितारा होटलों में सेमिनार, साथ में घूमने घुमाने का जिम्मा। डेलिगेट सपरिवार होटल में आते ही पर्यटक स्थलों की जानकारी ले कर प्लान कर लेते। सरकारी विज्ञापन से सजी स्मारिका और हर सत्र में कोई न कोई मन्त्री अध्यक्ष।

चौदह सितम्बर के लिए नामी ग़रामी लेखकों की बुकिंग भी होने लगी। कुछ अध्यक्ष, कुछ वक्ता। साठ पैंसठ के बाद स्थायी अध्यक्ष बने लेखक डकारते हुए कहते सुने जाते :‘‘ भईया! हम कमिट कर चुके हैं। आपने पहले नहीं बताया न। स्टील अथारिटी वाले बाई एयर बुलाए रहे हैं। बुकिंग भी करवा दी ससुराेंं ने.... अरे! अगली बार सही। यह कौन कुम्भ का मेला है जो बारह बरस बाद ही आएगा।''

लेखक और ख़ासकर कवि तो नवरात्र और श्राद्ध की तरह नये नये धोती कुरते निकाल ऐसे व्यस्त दिखते हैं कि कविता जैसे तैसे पढ़ते ही जाने को व्यग्र हो जाते हैं। जैसे नवरात्र में पुरोहित पाठ के लिए नहीं मिल पाते, वैसे ही हिन्दी पखवाड़े के लिए साहित्यकार मिलने कठिन हैं। एक आयोजन से दूसरे में बिना जलपान किए भाग जाते हैं। कितना क खाएंगे! कईयों के हाज़मे खराब हो जाते हैं। हां, दक्षिणा तो लेनी ही पड़ती हैं।

जब नई नई हिन्दी आई तो अनुवाद का सहारा लिया गया। अनुवादकों के पद भी सर्जित हुए। अनुवाद कर्त्ताओं ने ऐसे ऐसे शब्द ढूंढ निकाले जो अंगे्रजी से भी कठिन रहे। उपसर्ग और प्रत्यय लगा कर ही काम चलाया गया। उपदान, मतदान, प्रतिदान, पता ही वलता कौन सा दान है! रेल को लोहपथगामिनी कहना, सिगरेट को धूम्र दण्डिका कहना तो एक मजाक है किंतु अनुवाद की हिन्दी में ऐसे शब्दों की भरमार है जिनका अंग्रेजी विकल्प बता पाना बहुत कठिन होता है। उस पर केन्द्र सरकार का राजभाषा आयोग, विधि आयोग, विधि तथा तकनीकी शब्दावली आयोग शब्दकोष पर शब्दकोष निकालने में जुटे रहे। उधर राज्य सरकारों ने अलग से कवायद शुरू की। फलतः एक ही शब्द के कई विकल्प सामने आए और हर जगह अपने अपने ढंग से लिखा जाने लगा। पूरे देश एक शब्द के लिए एक अर्थ नहीं बना अर्थात्‌ कोई मानकीकरण नहीं हुआ। कहीं लोक निर्माण विभाग कहा जाने लगा, कहीं सार्वजनिक निर्माण विभाग। कहीं सरकार कहा जाने लगा तो कहीं शासन। कहीं फाईल को मिसिल कह दिया कहीं नस्ति। कहीं सिविल अस्पताल को असैनिक तो कहीं नागरिक लिखा जाने लगा। सर्किट हाउस को कहीं विश्रााम गृह तो कहीं परिधि गृह लिखा जाने लगा। यानि यह शब्दावली राज्य दर राज्य भिन्न रही और कहीं एक ही प्रदेश में भी अलग अलग।

उर्दू—फारसी या अंग्रेजी के आम फ़हम शब्दों को लेने के परहेज से भी ऐसी क्लिष्टता आई। उर्दू फारसी के बहुत से शब्द ऐसे प्रचलित हो चुके हैं कि उन्हें छोड़ा नहीं जा सकता। कुरता, पायजामा, दरवाजा, खिड़की, कलम दवात, नकल, जमाबंदी ऐसे ही शब्द हैं। उधर अंग्रेजी में स्कूल, अस्पताल, इंस्पेक्टर, बोर्ड, वारंट, डिग्री आदि ऐेसे शब्द हैं जो एक ठेठ देहाती भी बोलता है। अब तो गुड मॉर्निंग, मूड, बोर, किचन, बाथरूम जैसे कई शब्द हैं जो आम बोले जाते है। गांव की अनपढ़ महिला भी बोलती हैः ‘‘मेरा मूड ठीक नहीं है, मुझे बोर मत करो।‘

ऐसे में जरूरत थी, सरल भाषा की जो अनुवाद की भाषा ने अंगे्रजी से भी कठिन बना दी। हिन्दीकरण का अर्थ था जनता के काम जनता की भाषा में हों। सरल से सरल, आम बोलचाल की हिन्दी का प्रयोग किया जाए।

यह भी एक सच्चाई है कि हिन्दी दिवस नाम की इस तिथि से सरकारी लोगों या कुछ हिन्दी प्रेमियों के अलावा किसी को कुछ नहीं लेना देना। वे लोग नहीं जानते ऐसा भी कोई दिवस होता है। तथापि कवि पत्नी, जिसे ज्ञात है आज कवि ने चार जगह पाठ करने जाना है, सुबह ही अत्यधिक प्रसन्न मुद्रा में कहती हैः‘‘बलमा! आज बतियाईयो हिन्दी में। कसम लगे जो अंगरेजी का एक भी बर्ड बोले। हिन्दी का त्योहार है... आज तो बाहर ही पारटी खाओगे।‘‘

कवि खुश हुए। सोचे, शुक्र हुआ पत्नी ने त्योहार ही कहा, श्राद्ध नहीं कह दिया। बाहर से नाराजगी जाहिर करते बोलेः ‘‘ अरी भागवान्‌! जब माता दिवस है, पिता दिवस है; धरती दिवस है, अम्बर दिवस है; बूढ़ा दिवस है, बाल दिवस है; दिल दिवस है, दिमाग दिवस है; आंख दिवस है, कान दिवस है; हाथ दिवस है, पैर दिवस है; तो ससुरा हिन्दी दिवस क्यूं नहीं। हिन्दी का विरोध अब घर में ही शुरू हो गया है तो दूसरों को क्या कहें......क्यूं मजाक कर हमारी रोटी रोजी पर लात मार रही हो.....और गुनगुनाते हुए जाने लगे.....निज भाषा को उन्नति अहे....।‘‘

(94180—85595)

सुदर्शन वशिष्ठ

जन्म : 24 सितम्बर, 1949. पालमपुर हिमाचल प्रदेश (सरकारी रिकॉर्ड में 26 अगस्त 1949)।

125 से अधिक पुस्तकों का संपादन/लेखन।

नौ कहानी संग्रह : (अन्तरालों में घटता समय, सेमल के फूल, पिंजरा, हरे हरे पत्तों का घर, संता पुराण, कतरनें, वसीयत, नेत्र दान तथा लघु कथा संग्रह : पहाड़ पर कटहल)।

चुनींदा कहानियों के चार संग्रह : (गेट संस्कृति, विशिष्ट कहानियां, माणस गन्ध, इकतीस कहानियां)।

दो लघु उपन्यास : (आतंक, सुबह की नींद)। दो नाटक : ( अर्द्ध रात्रि का सूर्य, नदी और रेत)।

एक व्यंग्य संग्रह : संत होने से पहले।

चार काव्य संकलन : युग परिवर्तन, अनकहा, जो देख रहा हूं, सिंदूरी सांझ और खामोश आदमी।

संस्कृति शोध तथा यात्रा पुस्तकें : ब्राह्‌मणत्वःएक उपाधिःजाति नहीं, व्यास की धरा, कैलास पर चांदनी, पर्वत से पर्वत तक, रंग बदलते पर्वत, पर्वत मन्थन, पुराण गाथा, हिमाचल, हिमालय में देव संस्कृति, स्वाधीनता संग्राम और हिमाचल, कथा और कथा, हिमाचल की लोक कथाएं, हिमाचली लोक कथा, लाहौल स्पिति के मठ मंदिर, हिमाचल प्रदेश के दर्शनीय स्थल, पहाड़ी चित्रकला एवं वास्तुकला, हिमाचल प्रदेश की सांस्कृतिक संपदा।

हिमाचल की संस्कृति पर छः खण्डों में ‘‘हिमालय गाथा‘‘ श्रृंखला :देव परम्परा, पर्व उत्सव, जनजाति संस्कृति, समाज—संस्कृति, लोक वार्ता तथा इतिहास।

सम्पादन : दो काव्य संकलन : (विपाशा, समय के तेवर) ; पांच कहानी संग्रह : (खुलते अमलतास, घाटियों की गन्ध, दो उंगलियां और दुष्चक्र, काले हाथ और लपटें, पहाड़ गाथा)।

हिमाचल अकादमी तथा भाषा संस्कृति विभाग हिमाचल प्रदेश में सेवा के दौरान लगभग सत्तर पुस्तकों का सम्पादन प्रकाशन। तीन सरकारी पत्रिकाओं का संपादन।

सम्मान : जम्मू अकादमी तथा हिमाचल अकादमी से ‘आतंक‘ उपन्यास पुरस्कृत;

साहित्य कला परिषद्‌ दिल्ली से ‘नदी और रेत‘‘ नाटक पुरस्कृत। हाल ही में ‘‘जो देख रहा हूं'' काव्य संकलन हिमाल अकादमी से पुरस्कृत। कई स्वैच्छिक संस्थाओं से साहित्य सेवा के लिए सम्मानित।

देश की विगत तथा वर्तमान पत्र पत्रिकाओं : धर्मयुग, सारिका, साप्ताहिक हिन्दुस्तान से ले कर वागर्थ, हंस, साक्षात्कार, गगनांचल, संस्कृति, आउटलुक, नया ज्ञानोदय, समकालीन भारतीय साहित्य आदि से रचनाएं निरंतर प्रकाशित। राष्ट्रीय स्तर पर निकले कई कथा संकलनों में कहानियां संग्रहित।

कई रचनाओं के भारतीय तथा विदेशी भाषाओं मेें अनुवाद। कहानी तथा समग्र साहित्य पर कई विश्वविद्‌यालयों से एम0फिल0 तथा पी0एचडी0.।

पूर्व सचिव/उपाध्यक्ष हिमाचल कला संस्कृति भाषा अकादमी ; उपनिदेशक/निदेशक भाषा संस्कृति विभाग हि0प्र0।

पूर्व सदस्य : साहित्य अकादेमी दिल्ली, दुष्यंत कुमार पांडुलिपि संग्रहालय भोपाल।

वर्तमान सदस्य : सलाहकार समिति आकाशवाणी; हिमाचल राज्य संग्रहालय सोसाइटी शिमला, विद्याश्री न्यास भोपाल।

पूर्व फैलो : राष्ट्रीय इतिहास अनुसंधान परिषद्‌ भारत सरकार

सीनियर फैलो : संस्कृति मंत्रालय भारत सरकार।

संपर्क : ‘‘अभिनंदन‘‘ कृष्ण निवास लोअर पंथा घाटी शिमला—171009.हि0प्र0

फोन : 094180—85595 (मो0) 0177—2620858 (आ0)

ई—मेल : vashishthasudarshan@yahoo.com