सोने के कंगन Sudarshan Vashishth द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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सोने के कंगन

सोने के कंगन

कथा कहती कहानियां

सुदर्शन वशिष्ठ



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सुदर्शन वशिष्ठ

1ण्जन्मः 24 सितम्बर, 1949. पालमपुर हिमाचल प्रदेश (सरकारी रिकॉर्ड में 26 अगस्त 1949)। 125 से अधिक पुस्तकों का संपादन/लेखन। नौ कहानी संग्रहः (अन्तरालों में घटता समय, सेमल के फूल, पिंजरा, हरे हरे पत्तों का घर, संता पुराण, कतरनें, वसीयत, नेत्र दान तथा लघु कथा संग्रह : पहाड़ पर कटहल)।

2ण्चुनींदा कहानियों के चार संग्रह : (गेट संस्कृति, विशिष्ट कहानियां, माणस गन्ध, इकतीस कहानियां)।

3ण्दो लघु उपन्यास : (आतंक, सुबह की नींद)। दो नाटक : ( अर्द्ध रात्रि का सूर्य, नदी और रेत)।

4ण्एक व्यंग्य संग्रह : संत होने से पहले।

5ण्चार काव्य संकलन : युग परिवर्तन, अनकहा, जो देख रहा हूं, सिंदूरी सांझ और खामोश आदमी।

6ण्संस्कृति शोध तथा यात्रा पुस्तकें : ब्राह्‌मणत्वःएक उपाधिःजाति नहीं, व्यास की धरा, कैलास पर चांदनी, पर्वत से पर्वत तक, रंग बदलते पर्वत, पर्वत मन्थन, पुराण गाथा, हिमाचल, हिमालय में देव संस्कृति, स्वाधीनता संग्राम और हिमाचल, कथा और कथा, हिमाचल की लोक कथाएं, हिमाचली लोक कथा, लाहौल स्पिति के मठ मंदिर, हिमाचल प्रदेश के दर्शनीय स्थल, पहाड़ी चित्रकला एवं वास्तुकला, हिमाचल प्रदेश की सांस्कृतिक संपदा।

7ण्हिमाचल की संस्कृति पर छः खण्डों में ‘‘हिमालय गाथा‘‘ श्रृंखलाः देव परम्परा, पर्व उत्सव, जनजाति संस्कृति, समाज—संस्कृति, लोक वार्ता तथा इतिहास।

8ण्सम्पादनः दो काव्य संकलन : (विपाशा, समय के तेवर) ; पांच कहानी संग्रह : (खुलते अमलतास, घाटियों की गन्ध, दो उंगलियां और दुष्चक्र, काले हाथ और लपटें, पहाड़ गाथा)। हिमाचल अकादमी तथा भाषा संस्कृति विभाग हिमाचल प्रदेश में सेवा के दौरान लगभग सत्तर पुस्तकों का सम्पादन प्रकाशन। तीन सरकारी पत्रिकाओं का संपादन।

1ण्सम्मानः जम्मू अकादमी तथा हिमाचल अकादमी से ‘आतंक‘ उपन्यास पुरस्कृत; साहित्य कला परिषद्‌ दिल्ली से ‘नदी और रेत‘‘ नाटक पुरस्कृत। हाल ही में ‘‘जो देख रहा हूं'' काव्य संकलन हिमाल अकादमी से पुरस्कृत। कई स्वैच्छिक संस्थाओं से साहित्य सेवा के लिए सम्मानित।

1ण्देश की विगत तथा वर्तमान पत्र पत्रिकाओं : धर्मयुग, सारिका, साप्ताहिक हिन्दुस्तान से ले कर वागर्थ, हंस, साक्षात्कार, गगनांचल, संस्कृति, आउटलुक, नया ज्ञानोदय, समकालीन भारतीय साहित्य आदि से रचनाएं निरंतर प्रकाशित। राष्ट्रीय स्तर पर निकले कई कथा संकलनों में कहानियां संग्रहित। कई रचनाओं के भारतीय तथा विदेशी भाषाओं मेें अनुवाद। कहानी तथा समग्र साहित्य पर कई विश्वविद्‌यालयों से एम फिल तथा पीएचडी.।

1ण्पूर्व सचिव/उपाध्यक्ष हिमाचल कला संस्कृति भाषा अकादमी ; उपनिदेशक/निदेशक भाषा संस्कृति विभाग हिप्र।

2ण्पूर्व सदस्य : साहित्य अकादेमी दिल्ली, दुष्यंत कुमार पांडुलिपि संग्रहालय भोपाल।

3ण्वर्तमान सदस्य : सलाहकार समिति आकाशवाणी; हिमाचल राज्य संग्रहालय सोसाइटी शिमला, विद्याश्री न्यास भोपाल।

4ण्पूर्व फैलो : राष्ट्रीय इतिहास अनुसंधान परिषद्‌ भारत सरकार

5ण्सीनियर फैलो : संस्कृति मंत्रालय भारत सरकार।

1ण्संपर्क : ‘‘अभिनंदन‘‘ कृष्ण निवास लोअर पंथा घाटी शिमला—171009 हि प्र

2ण्फोन : 094180—85595 (मो) 0177—2620858 (आ)

3ण्ई—मेल : अेंीपेीजीेंनकंतेींद/लींववण्बवउ

प्रकाशक की कलम से

हिन्दी कहानी आज अपने पुराने और वास्तविक स्वरूप में लौटती प्रतीत हो रही है। वास्तविक स्वरूप यानि कहानी, कहानी बनती जा रही है। कहानी में यदि कथा तत्व नहीं है तो वह संस्मरण, रिपोर्ताज, निबन्ध कुछ भी हो सकता है, कहानी नहीं हो सकती। कथा तत्व ही कहानी का मूल है।

पिछली सदी के अंतिम दशक तक कहानी से कथा दूर होने लगी और एक एब्स्ट्रेक्ट सी चीज़ सामने आई। जादूई यथार्थ के नाम पर कुछ कहानियां ऐसी भी आईं जिनमें न जादू था न यथार्थ। सरल और सीधी भाषा या शिल्प में कही जाने वाली कथा गायब होने लगी। ऐसी भी स्थ्िति आ गई कि कई पत्रिकाओं में उलझा सा संस्मरण, भाषण का मसौदा भी कहानी कह कर परोसा जाने लगा। लगभग ऐसा ही कविता के साथ भी हुआ। एक गद्य के पैरे को कविता कह कर छापा जाने लगा।

शिल्प की अत्यधिक कसरत; कथा से दूर उलझावदार, पेचदार कथानक ने एक बार तो पाठकों को चमकृत कर दिया किंतु जल्दी ही इससे मोहभंग होने लगा। स्वयं कहानीकार भी इसका निर्वाह देर तक नहीं कर पाए। उन्हें कथा की ओर लौटना ही पड़ा। इस सदी के पहले दशक के अंत तक कहानी, फिर कहानी की ओर लौटी है। आज पत्रिकाओं में फिर से कहानी दिखलाई पड़ती है।

सारिका और धर्मयुग ने सशक्त कहानियां देने के साथ एक कहानी आन्दोलन भी खड़ा किया। सारिका ने प्रतियोगिताओं के माध्यम से प्रत्यक्ष रूप से तो धर्मयुग ने अप्रत्यक्ष तौर कहानी का एक आन्दोलन चलाया। इसी तरह की कहानी प्र्रतियोगिताएं साप्ताहिक हिन्दुस्तान ने भी कराईं।

धर्मयुग के माध्यम से कहानी का जो भीतर ही भीतर एक आन्दोलन चला उसने कई कहानीकार दिए। यहां पुराने और स्थापित कहानीकाराें के बराबर में नये कहानीकार भी आए। जैसाकि होता रहा है, शिवानी जैसे कुछ ऐसे भी कहानीकार थे जिनकी तरफ आलोचकों ने ध्यान नहीं दिया। बहुत से सम्भावनाशील कथाकार न जाने कहां लुप्त हो गए। अस्सी के उस दौर में से0रा0 यात्री, राकेश वत्स, स्वदेश दीपक, पानू खोलिया, देवेन्द्र इस्सर, चन्द्रमोहन प्रधान, सुदर्शन नारंग, डा0 सुशीलकुमार फुल्ल, संजीव, शिवमूर्ति, मनीषराय, सुदर्शन वशिष्ठ, रूपसिंह चंदेल, केशव, बलराम, चित्रा मुद्‌गल, राजकुमार गौतम, मालचंद तिवारी, प्रभुनाथ सिंह आज़मी आदि कितने ही कहानीकारों ने ध्यान आकर्षित किया। यह भी सत्य है कि इन में कुछ तो जम कर स्थापित हुए, कुछ का स्मरण कभी कभार किया जाने लगा और कुछ का किसी ने नाम नहीं लिया। किंतु उस युग में धर्मयुग में छपने का अर्थ था एकाएक लाखों पाठकों के समक्ष प्रस्तुत होना।

यूं तो सुदर्शन वशिष्ठ की पहली कहानी 1969 में छपी और पहला कहानी संग्रह 1979 में आया किंतु आठवें दशक में भौगोलिक सीमाओं को तोड़ते हुए वशिष्ठ ने राष्ट्रीय मंच में दस्तक दी और तमाम शीर्षस्थ राष्ट्रीय पत्रिकाओं मे यह नाम एकाएक उभर कर सामने आया। सारिका की ‘‘ऋण का धंधा'' हो या धर्मयुग की ‘‘सेमल के फूल‘‘, ‘‘पिंजरा'', ‘‘घर बोला'', ‘‘सेहरा नहीं देखते'' या साप्ताहिक हिन्दुस्तान की ‘‘माणस गन्ध'', योजना की ‘‘सरकारी पैसा''; एकाएक सभी पत्रिकाओं में यह नाम देखा जाने लगा।

धर्मयुग में पहली कहानी ‘‘सेमल के फूल'' 22—29 जून 1980 के अंक में प्रकाशित हुई जिसके बाद लगातार कहानियां लगभग हर वर्ष धर्मयुग के बंद होने तक आती रहीं। साप्ताहिक हिन्दुस्तान में ‘‘माणस गन्ध'' का प्रकाशन 31 मार्च—6 अप्रैल 1991 अंक में हुआ।

गत पैंतालीस बरसों से लगातार कहानी लेखन में सक्रीय वशिष्ठ ने एक लम्बा सफर तय किया है। अतिसंवेदनशील मानवीय मूल्यों की कोमल छुअन, घर और गांव का मोहपाश, शहर और गांव के बीच आकर्षण और बढ़ता हुआ विकर्षण, घर परिवार से दफतर तक का संसार, निर्मम सरकारी तन्त्र, राजनीति की विभिषिका, सब इनकी कहानियों में देखने को मिलता है। सम्बन्धों की रेशमी डोरियों से ले कर गहन और जटिल मनोवैज्ञानिक परिस्थितियों तक कथाकार ने एक यथार्थवादी किंतु अद्‌भुत और रोमांचक संसार का निर्माण किया है।

वरिष्ठ कथाकार वशिष्ठ का कथा संसार उनके लेखन की तरह बहुआयामी विविधताओं से भरा हुआ है। यह किसी सीमित दायरे में बन्ध कर नहीं रहता। वे कहानी, उपन्यास, कविता, च्यंग्य, निबन्ध, सांस्कृतिक लेख आदि कई विधाओं में एक साथ लिखते हैं। इसी तरह उनकी कहानियों की भावभूमि और ज़मीन अलग अलग रही है। वशिष्ठ की कहानियां बोलती है, कहानीकार नहीं। कहानी में कहानीकार होते हुए भी नहीं होता। परिवेश और परिस्थितियों के अनुरूप संवेदना, कोमलता, सादगी के साथ ताज़गी, धारदार व्यंग्य के साथ एक तीख़ापन इनकी कहानियों में दिखलाई पड़ता है।

अव्यक्त को व्यक्त करना और व्यक्त को अव्यक्त करना, पात्रों को चरम तक उभार कर रहस्यमयी परिस्थितियों में छोड़ देना इन की कला है। कम से कम शब्दों में अधिक से अधिक और बड़ी से बड़ी बात करना, प्रतीकात्मक ढंग से इशारे में कहना, कथ्य के अनुरूप वातावरण तैयार करना और काव्यमयी भाषा का निर्माण इन की कहानी कला में आता है। कहानियों के अंत प्रायः खुले छोड़ दिए जाते हैं जो पाठक को देर तक सोचने पर विवश करते हैं।

गुलेरी सा शिल्प का नयापन, यशपाल का लेखन का विस्तार, मोहन राकेश सी कसावट, निर्मल वर्मा सी कोमलता और दक्षता इनकी कहानियों में देखने को मिलती है।

शब्दों की मितव्ययता और कम से कम शब्दों में अधिक से अधिक बात कहने की क्षमता, निरर्थक संदर्भों के बखान से परहेज, अनावश्यक विस्तार से बचाव इनकी कहानियों की विशेषता रही है। पात्रों को परिस्थ्ििात के अनुरूप रिएक्ट करने के लिए खुला छोड़ना, कहानी में उपस्थित हो कर भी अनुपस्थित रहना, कहानियों की एक ओर विशेषता कही जा सकती है।

विषयों की विविधता के साथ बाल मनोविज्ञान, वृद्धों की मानसिकता, नारी मन की कोमल भावनाएं, मध्यम वर्ग और निम्न वर्ग की ऊहापोह; इन सब का विवेचन बदलते हुए मूल्यों और परिस्थितियों के साथ कहानियाें में नये नये आयामों के साथ परिलक्षित होता है।

सारिका, धर्मयुग और साप्ताहिक हिन्दुस्तान जैसी पत्रिकाओं का एक एक कर बंद होना साहित्य में एक दुखांत घटना थी। इस दुर्घटना के बाद साहित्य जगत में अन्धेरा सा छाया रहा। उस युग के बाद आउटलुक, कहानीकार, पश्यन्ति, पल प्रतिपल, विपाशा, साहित्य अमृत, हरिगन्धा, हिमप्रस्थ, मधुमति, साक्षात्कार, से ले कर सण्डे ऑब्जर्बर, जनसत्ता, अमर उजाला, नवभारत टाईम्ज, हिन्दुस्तान, दैनिक ट्रिब्यून, नई दुनिया जैसे पत्रों तक इनकी कहानियां छपती रहीं।

वशिष्ठ की कथायात्रा अब भी निरंतर जारी है। समकालीन भारतीय साहित्य हो या हंस, कथादेश या नवनीत, कादम्बिनी हो या वागर्थ इनकी कहानियां निरंतर देखी जा सकती हैं।

एक लम्बे समय और स्पेस में निरंतर लेखन के कारण इनकी कहानियों में पुरातन और नवीन का सामंजस्य स्थापित हुआ। समय और समाज के परिवर्तन के साथ आए भौतिक और मनावैज्ञानिक बदलाव इन कहानियों में सौ वर्ष से अधिक के कालखण्ड को अपने में समोए हुए है। इस दृष्टि से यह कथायात्रा, जो अभी भी जारी है, एक दस्तावेज के रूप में सामने आती है।

कहानी को किसी खांचे में कस कर खरीदे हुए धागों से बुनना कथाकार का अभीष्ट नहीं रहा। इन का धागा भी अपना है, रंग भी अपना है, खड्‌डी भी अपनी है और बुनावट का डिजायन भी अपना है। इन की ऊन में सिंथेटिक की मिलावट नहीं है कि ओढ़ते ही चिंगारियां निकलने लगें या किसी रंगरेज़ ने नकली और कच्चे रंग से रंगा भी नहीं कि एक बार धो पहन कर रंग फीेके पड़ जाएं । इन में असल ऊनी धागा है, असली और पक्के रंग है। कोई भी पाठक इसे सहजता से ओढ़ बिछा सकता है। इससे स्वाभाविक गर्माहट मिलेगी जो देर तक धीमे धीमे असर करती रहेगी।

यहां कहानीकार की नारी संवेदना को ले कर कुछ विशिष्ट कहानियां दी जा रही हैं जो अपने कथ्य और काव्यमयी भाषा के कारण विशेष ध्यान आकर्षित करती हैं। सभी कहानियों में समाज में नारी के प्रति संस्कार, संबंन्धों की जटिलता, का बड़ी सूक्ष्मता से वर्णन किया गया है।

सोने के कंगन

वह तेजी से होटल की ओर जा रही थी। सुरंग के पास एक टेक्सी उसके सामने से गुजरी। जितनी तेजी से टेक्सी आगे गई, उससे ज्यादा स्पीड से बैक हुई और ठक्‌ से उसके सामने आ लगी। बैक इतनी फुर्ती से हुई कि पीछे से आती कार से टकराते टकराते बची। तीख़े हॉर्न के साथ टेक्सी से एक चेहरा झांका..... बाल अस्त व्यस्त, बाज सी आंखें, सुर्ख़ लाल। कमीज़ के बटन खुले हुए जिनसे भीतर मैल से काली पड़ी बनियान झांक रही थी। टेक्सी में ऊंचे स्वर से टेप बज रहा था जिसे धीमा कर वह जोर से चिल्लायाः

‘‘कांह जा रई है तड़के ही............!‘‘

रौबदार और कर्कश आवाज से उसके पेरों तले ज़मीन खिसकती सी महसूस हुई। दिल एकदम धक्‌ धक्‌ करने लगा। वह सहमी चिड़िया सी वहीं दुबक गई। तभी दोनों ओर गाड़ियां रूक गईं और हॉर्न पर हॉर्न बजने लगे। बस, कारों के ड्राइवर मुंह बाहर निकाल उसे देखने लगे जैसे कोई अजूबा खड़ा हो। .... ओए! बिठा लै मितरां दी गड्‌ी च..., किसी ने जुमला कसा। स्थिति भांप उसके गले से निकला : ‘‘ बस... यहीं, मां की दवाई लेने।‘‘

‘‘तेरी मां हमेशाई बमार रैती है। कब्भी ठीक नहीं देखी साली!... अच्छा, जल्दी आईयो। मैं गड्‌डी छोड़ पहुंच रहा हूं अद्‌धे घण्टे में।‘‘ उसने एक्सीलेटर और आंख एक साथ दबाए और घूं.... से निकल लिया।

हालांकि मई के आरम्भ में यहां मौसम ठण्डा और सुहाना था, पसीना पसीना हो गई मंगला..... ये सुबह ही पहुंच गया जबकि शाम तक पहुंचने को कह गया था। इसका भी कोई दीन ईमान, ठौर ठिकाना नहीं..... अब तो जल्दी वापिस जाना होगा। होटल में छोकरे से बात हो गई है, यहां से लौटना भी ठीक नहीं। वह लगभग भागती हुई पिछले दरवाजे से होटल पहुंची और आधे घण्टे बाद घर लौट आई।

‘‘ अरे! तू तो जल्दी ही आ गई मुई.... तूने तो कहा था, शाम तक लौटूंगी।‘‘ मां ने हैरानी से पूछा।

‘‘ क्या करना अम्मा! वह जो मिल गया तुम्हारा जवांई... पहुंचा नहीं अभी! शुक्र है। सुरंग के पास मिला था। कहता था, अभी आया आधे घण्टे में।‘‘

‘‘ अच्छा! इस का भी कोई ऐतबार नहीं। खाना बना देती हूं.... क्या पता कहे, अभी फिर जाना है सवारी ले कर।‘‘

आधा घण्टा कहने पर वह दोपहर को पहुंचा।

उसके कपड़े निहायत गंदे थे। धूल और पसीने से भरे। जुराबें तो जैसे सड़ गइर्ं थीं। .....किसी गर्म जगह गया होगा। दाढ़ी बढ़ी हुई थी और मूंछों से जा मिली थी। नहा धोकर एकदम खाने पर टूट पड़ा जैसे कई दिन का भूखा हो। जब खाना खाने लगता तो दस बारह चपातियां एक बार ही में चट कर जाता।

बढ़िया अंग्रेजी साबुन से नहाने के बाद भी उसके जिस्म से पसीने की बास नहीं गई थी। उससे हमेशा पसीने की तीखी बास आती रहती। हाथों में डीजल और ग्रीस , मुंह से गुटके की गंध। मछली की तरह लाख धोने पर भी उसकी दुर्गन्ध नहीं जाती।

भीतर के कमरे में लेटते ही उसने एक झटके से अपनी ओर खींच लिया मंगला को। झटका इतनी जोर से लगाया कि वह हाय तौबा मचाने लगी...... अभी आराम से रहो... रात भी तो आनी है।

‘‘ रात का क्या पता...!‘‘

‘‘ क्याें! कब जाना है!‘‘

‘‘ जाना तो सुबह चार बजे है... फिर क्या पता। ग्राहक और मौत का क्या पता लगता है, कब आ जाए!‘‘ वह आशंकित सा बोला।

मंगला सिर दबाने गली लगी तो लेटते ही बच्चे की तरह गहरी नींद आ गई उसे। जब खर्राटें भरने लगा तो बहुत दया आई मंगला को।

मां ने ड्राइवर के साथ बांध दिया था उसे, जिसका अपना घर बार नहीं था। पहले टेक्सी में ही सोता था, अब उनके घर पसरा रहता।

.... किसी के खूंटे से बंध जा छोकरी, फिर जो मर्जी आए सो कर... अम्मां ने कहा था, औरत के लिए दुनिया में कोई न कोई खसम गुसाईं जरूरी है। जे ताकतवर हो तो ढाल का काम देता है; जे कमजोर हो तो परदा बना रहता है। कोई वेलीवारिस तो चाहिए। फिर खसम तो मालक भी होता है, नौकर भी।

ड्राइवर कौन था, कौन जात था, पता नहीं....। उसका शरीर बहुत सख्त और पका हुआ था। बड़ी बड़ी मूंछें। माथे पर एक तिरछा कट। आंखों में हमेशा लाल डोरे रहते जैसे पिए हुए हो। गुटके का पूरा का पूरा पैकेट एक ही बार में मुंह में उंडेल लेता। कम से कम दस साल बड़ा तो होगा ही मंगला से। अम्मां को बेटी की उम्र भी तो ठीक से याद नहीं। जब कभी वह बड़ी गाड़ी में बैठता तो लगता पांव एक्सीलेटर तक नहीं पहुंचेंगे। उसके बैठने की देर होती कि गाड़ी चल पड़ती। गाड़ी चलाता तो लगता, गाड़ी तो खुद ही चल रही है, वह तो बस आराम से बैठा है।

उसका न घर आने का कोई टाईम था, न जाने का। कभी रात भर चला रहता तो दिन भर बेहोशी की हालत में पड़ा रहता। कभी रात लगाने पर सुबह ही फिर फोन आ जाता। कभी तड़के जाता तो रात ग्यारह के बाद ही पहुंचता। रात को आए तो हमेशा पिए हुए होता। वह ज्यादा बाहर ही रहे तो अच्छा.... मंगला सोचती।

देर रात को खल्लास हो कर आता तो हिदायत भी देती मंगला कि यहां वहां मुंह न मारा कर, एड्‌ज हो जाएगी तूझे। ऐसा कहती बार वह खुद भी घबरा जाती।

ड्राइवर उसे भेड़ की तरह बांधना चाहता था। जब मन किया, टांगें रस्सी से बान्ध नीचे गिराया और ऊन उतार ली। जब मन किया, उल्टा टांगा और खाल उतार ओढ़ ली। जब मन किया काट कर खा लिया। वह थी कि बकरी की तरह छलांगें मार पेड़ पर चढ़ जाना चाहती थी।

एक दिन उसने मंगला को ‘‘संगम होटल‘‘ में देख लिया। उस शाम वह जल्दी ही घर आ धमकाः

‘‘साली! तू संगम होटल क्या करने गई थी!‘‘ वह हाथ मुंह धोते ही चिल्लाया।

मंगला का चेहरा फक्‌ हो गया..... ‘‘क्या करने जाना... फ्रैंड से मिलने गई थी, वह वहां काम करती है।‘‘

‘‘ क्या काम करती है वहां!‘‘

‘‘ रिसेप्शन में है....।‘‘

‘‘ रिसेप्शन में है या कुछ और करती है। तूझे पता है वह कित्तणा बदनाम होटल हैं।‘‘

उस रात मंगला ने बड़ी मुश्किल से मनाया उसे।

इस घटना के बाद वह कुछ उखड़ा उखड़ा सा रहने लगा। लगभग महीने बाद वह रात खूब पी कर आ गया और आते ही बरस पड़ा :

‘‘साली! तू इत्तणे फैसण कांह से कर रही है.....।‘‘ वह चुप।

‘‘ ये सैम्पू लगा के, तेल फुल्लेल लगा के , बाल खलार के कांह निकल जाती है सबेरे ही... चिमटे से लाल कर दूंगा तूझे, लूचें डाल दूंगा।‘‘ वह चुप।

‘‘ कित्तणे खसम कर लिए तूने मेरे लावा....।‘‘ उसने एक लात जड़ दी।

वह कुछ नहीं बोली। चुपचाप सिसकने लगी। मां ने सोचा अब तो बीच बचाव करना ही होगाः

‘‘मार मत भई इसे। इसलिए नहीं दी है ये तूझे कि मार मकार कर। जुआन छोकरी है, लाणे पहनने को मन तो करता ही है। यही दिन हैं इसके खाणे लाणे के।‘‘

‘‘ तो खाणे लाणे के लिए अपणे को बेच देणा... हैं....!‘‘

उसने ज्यादा पी ली थी, इसलिए जल्दी ही लुढ़क कर सो गया। मंगला ने सोचा, मामला ठण्डा पड़ गया।

सवेरे उठते ही उसने मंगला को कमरे में बंद कर बाहर से ताला जड़ दिया।

मां, दिन में खिड़की से खाना पानी देती रही। दूसरी रात उसने ताला तो खोल दिया, बबाल नहीं थमा। आई रात हंगामा होने लगा। रात मार खाने पर सुबह अम्मां मंगला को मरहम लगाती। जब अति हो गई तो मां बेटी ने ड्राइवर का सामान घर से बाहर फैंक दिया। वह कई रातों तक पी कर रात को घर के चक्कर काटता रहा। कई बार अपने ड्राइवर दोस्तों को साथ ला हंगामा किया, कभी रात में अकेले खिड़की में खड़े हो माफी भी मांगी। मां तो पसीज भी गई, मंगला टस से मस नहीं हुई।

फिर से मंगला को याद आए वे पल, जो रोहित के साथ बिताए थे। रोहित... उसका हमउम्र... बरास के फूल की तरह खिला हुआ, सुर्ख़ लाल... उसे दिलोजान से चाहने वाला। जब उसने मां से रोहित का जिक्र किया था तो मां ने हिदायत दे दी थीः ‘‘ मरद जात का कभी एतबार न करना। नंगी तलवार होते हैं ये। जो आगे आएगा, कट जाएगा।‘‘

नर्गिस के फूलों की तरह थे वे दोनों, जैसे ताज़ा ताज़ा नाज़ुक टहनियों से निकले हुए। हवा के साथ झूमते, बारिश के साथ नाचते। एक खुश्बूदार हवा बहती थी उन दोनों के बीच। जब वह पहली बार ‘‘नाज़‘‘ में बैठी थी उसके साथ.... वह समां नहीं भूलता।

सिलाई सेंटर में खुद सिया साधारण पापलीन का मगर नया नारंगी सूट पहन रखा था उसने। महंगा तो नहीं था, बस खिल गया था उसके रंग पर। केबिन में अंधेरा अंधेरा सा था। टेबल के ठीक ऊपर जो लैम्प लटक रहा था, उसके चारों ओर गोलाकार कवर था जिससे छन कर बहुत कम रोशनी बाहर आ रही थी। डार्क शेड का कवर जैसे रोशनी को अपने में जज़्ब किए हुए था। टेबल के आसपास सोफानुमा बैंच था जिसमें दो आदमी मुश्किल से बैठ सकते थे। मोटा आदमी तो एक ही काफी था। बाहर के खुले रेस्तरां के भीतर इन केबिनों को ‘‘फेमिली केबिन‘‘ नाम दिया था। अलबत्ता फेमिली वाला यहां कोई नहीं बैठता।

इस हल्के अंधेरे में भी मंगला की आंखें दिपदिपा रहीं थीं। नारंगी सूट में उसका चेहरा खिला हुआ था। एक अनोखी चमक आंखों में थी जिसने रोहित को बेचैन कर दिया। रोहित एकटक उसे देखे जा रहा था। वह लापरवाही से बैठी रही। रोहित चाहे उसकी ओर न भी देख रहा हो, उसे लगता लगातार देखे जा रहा है। उसकी नजर एक्स रे की तरह आरपार होती महसूस होती। हर समय उसे लगता, वह बस देखे जा रहा है... देखे जा रहा है। यही वह अपनी सबसे बड़ी सफलता मानती थी।

मंगला ने मीनू की जांच परख की जिसके बाहर बड़ा सा दिल बना था और साग चिकन, मलाई कोफ्‌ता जैसी चीजों का ऑर्डर दे दिया जो रेट लिस्ट में सबसे मंहगी थीं।

‘‘ जल्दी लाना भैया, बड़ी भूख लगी है।‘‘ बेयरे को हिदायत भी दे डाली।

मंगवाई गई खाने की चीजों की ओर कोई ध्यान नहीं था रोहित का। वह जैसे हर चीज़ को स्वीकारोक्ति और समर्पण भाव से लिए हुए था।

रोहित ने बिना कुछ कहे मंगला के हाथ पर अपना हाथ रख दिया। जैेसे एकदम करंट लगा हो....एक सिरहन सी दौड़ गई एड़ी से चोटी तक..... मत करो। यह क्या कर रहो हो... बेयरा आ जाएगा... कहा तो सही उसने, हाथ पीछे नहीं हटाया। बस, कहती हुई बत्ती सी जलने बुझने लगी।

नौंवीं में स्कूल छोड़ने के बाद सिलाई सीख रही थी तब मंगला। स्कूल छोड़ने के बाद दो तीन साल घर बैठी रही। मां ने सुझाया, कोई चज सीख ले, काम आएगा। सिलाई सेंटर आते जाते रोहित उसे घूरता रहता। पहले तो उसने ध्यान नहीं दिया। फिर धीरे धीरे महसूस हुआ। सुबह, कुछ दूरी बनाए वह पीछे पीछे चला रहता। कई बार सिलाई सेंटर के बाहर खड़ा रहता। शाम को छुट्‌टी होती तो सड़क के किनारे रेलिंग के सहारे खड़ा दिखता और बाहर निकलते ही पीछे पीछे चलने लगता। एक दो बार तो उसने सड़क के बीचोंबीच रास्ता रोक खड़े हो बात भी करनी चाही। सब सहेलियां खिलखिलाती हुई निकल गईं और वह झेंप गया।

शहर से बाहर, जहां गांव शुरू हो गया था, मां ने दो कमरे किराए पर ले रखे थे। गांव में ठाकुरजी की हवेली से कुछ दूरी पर टूटे फूटे मकानों में दो कमरे मिले थे अम्मा को जहां स्टेट टाईम के और नौकर चाकर भी न जाने कब से रहते थे। रियासती राज खतम होने पर ठाकुर की तरह हवेली भी खण्डहर होती जा रही थी। मुरम्मत तो दूर, रंग रोगन के लिए इंतजाम नहीं हो पाता था। गांठ का माल और जमीनें बिकती गईं और धीेर धीरे नौकर चाकरों ने और काम ढूंढ लिए। कईयों के बच्चे पढ़ लिख कर नौकरियों में लग गए। मां भी गांव छोड़ यहां आ गई और शहर के घरों में सफाई, बरतन कपड़े आदि धोने का काम करने लगी। अब जवानी के दिन तो थे नहीं। ठाकुर उस पर मेहरवान रहे। एक बार जमीन का टुकड़ा बेचा तो उसे बेटी सहित वापिस बुलाया। वह नहीं गई। नीच जात होने के कारण वह ठाकुर की रखैल भी नहीं बन पाई। बाद में वह लंबरदार से ले कर चौकीदार के पास भी रही। उसका पति शहनाई वादक था और वह ठाकुरों की शादीब्याह में नाचती थी।

मरद जात से बचने की सीख तब भी दी थी अम्मा ने। एक विश्वास सा हो गया था मंगला को। गांव में सेब के बागीचे थे रोहित के। वह कॉलेज में पढ़ता था। पढ़ता तो क्या था, बस सड़कों पर घूमता था। उस जैसे कई लड़के गांव से आ कर पढ़ने के नाम पर इस पहाड़ी शहर में रहते थे। वह वाई.एम.सी.ए. में अलग कमरा ले कर रहता था।

वाई.एम.सी.ए. का वह कमरा मंगला के लिए सुखद अनुभूतियों का संसार था। पहली बार बड़ी झिझक के साथ वह रोहित के साथ गई थी। साथ के कमरेे में दो लड़के रहते थे जो शायद रोहित के गांव की ओर से थे।

वह कमरा उसके लिए एक स्वप्नलोक सा लगता। महल से भी भव्य। वह एक अजाने संसार में डूबती उतराती। रोहित के मुंह से निकला सिगरेट का धुआं उसे अग्गरबत्ती के समान लगता। उसके पूरे शरीर से मादक गंध आती रहती जिसमें गोते लगाती मंगला किसी दूसरे लोक में पहुंच जाती।

एक दिन रोहित ने उसे सोने के कंगन दिए। आग की तरह चमचमाते इतने बड़े बड़े कंगन उसने पहली बार देखे। अपने हाथों से उसने पहनाए तो वह जैसे उड़ती हुई घर पहुंची और मां को दिखाए। मां की आंखें भी फटी रह गईं.... ये तो बहुत भारी हैं।...उसके सेबों के बागीचे हैं बहुत से.... मंगला की आवाज बदल गई थी। वह गुनगुनाने लगीः

‘‘ वे सोने देया कंगणा, वे सौदा इको जेहा;दिल देणा ते दिल मंगणा,है सौदा इको जेहा।''

तू मेरा रांझा, मैं तेरी हीर वे; तैंनूं सांभ सांभ के रखणा वे सौदा इको जेहा...दिल मंगणा...‘‘

कमरे की एक शाम उस पर बहुत भारी पड़ गई। बरसात के दिन थे और आसमान में बादल घिरे थे। रोहित बड़ी अनुनय विनय कर उसे कमरे में ले गया। थोड़ी देर में मूसलाधार बारिश होने लगी। वह जल्दी ही स्वप्नलोक में विचरने लगी। जब होश आया तो अन्धेरा घिर गया था और बारिश और तेज हो गई थी।..... अब मैं जाऊंगी कहने पर रोहित ने उसे पकड़ कर बिठा लिया। वह पिये हुए था, इस बात का पता नहीं चला मंगला को। थोड़ी देर में साथ के कमरे वाले रोहित के दो दोस्त कुछ खाने पीने का सामान ले कर उसके कमरे में आ गए। मंगला को देख वे जरा भी नहीं झिझके और न ही रोहित ने कोई हैरानी जाहिर की। वे दोनों भी पहले से पिए हुए थे।

जब तक उन्होंने मेज पर खाना रखा और खाया, तब तक सब कुछ ठीक ठाक था। खाने के साथ पीने पर वे धीरे धीरे जानवर बनते गये। गिलास भर भर कर उसके मुंह में भी लगाते रहे। कुछ घूंट तो अंदर चले ही गए। रोहित भी चुपचाप उनका साथ दे रहा था।

वह रात बहुत भारी पड़ी मंगला को। वे तीनों सुबह तक नशे में रहे। सुबह किसी तरह कुण्डी खोल छत्त से छलांग लगाने की धमकी दी मंगला ने तो वे भीतर छिप गए।

सुबह बारिश थम गई थी। जगह जगह कीचड़ भरा था। मां से उसने बताया कि बारिश के कारण सहेली के ठहर गई थी।

सिलाई सीखते सीखते, दूसरों के कपड़े सीते हुए उसके अपने कपड़े फट गए। यह सब कैसे हुआ, उसकी समझ से बाहर था। कई दिन तक समझ नहीं आया यह हुआ क्या! उसने सिलाई सेंटर जाना छोड़ दिया।

पन्द्रह दिन तक तो बहुत परेशान रही मंगला। पन्द्रहवें दिन जब ‘हो‘ गई तो एक राहत सी मिली। तीसरे दिन नहा धो कर कालीबाड़ी में प्रसाद चढ़ाते हुए उसकी आंखों से बरसात की झड़ी लग गई।

उसी दिन मां ने बताया कि वे कंगन असली नहीं हैं, उनमें सोने का पानी चढ़ा है। सौदा खरा खरा न हुआ, सौदा एक सा न हुआ।

एक समय था जब उंगली छू जाने से पूरे शरीर में रोमांच हो जाता था।

अब शरीर में कोई सेंसेशन ही नहीं रही। एक झनझनाहट, जो मात्र छू जाने से होती थी, अब बार बार मुआयना करवाने पर भी नहीं होती। बहुत बार यह ध्यान नहीं रहता कि कोई क्या छेड़खानी कर रहा है। हां, जब प्रशांत जख्मों को सहलाता तो उसे रोना आ जाता। प्रशांत जैसा तो कोई बिरला ही होता। एक बार एक लड़का सा उससे पन्द्रह मिनट तक बात करता रहा। वह पूछ रहा था, ऐसी क्या मजबूरी है, घर में और कौन है आदि आदि। उसके पास तय जबाब थे.... मां बीमार है, अस्पताल में हैं, बाप शराबी है, घर का खर्चा नहीं चलता, दवाई के लिए पैसे नहीं...।

‘‘ मैं तुम पर स्टोरी करूंगा....।‘‘

‘‘ अच्छा! क्या लिखोगे...क्या कहाणी लिखोगे मेरे पर।‘‘

‘‘नहीं, कहानी नहीं, स्टोरी होती है। अख़्ाबार में छपती है।‘‘

‘‘भाई इतणा तो मैं भी समझती हूं, स्टोरी कहाणी होती है... देखणा भाई मुझे मरवा न देना। चुत्तड़ कुटेंगे मेरे पुलिस वाले। किसी बड़े अफसर के पास भेज देंगे मुफ्‌त में।‘‘

‘‘आपको कुछ लोगों की शक्लें याद हैं!‘‘ उसने कुरेदना चाहा।

‘‘एक बार देख कर शक्ल कहां याद रहती है। और शक्ल की ओर कौन देखता है! शक्ल देख कर क्या लेणा। जो शक्लें देखते हैं, वे परले दर्जे के बेवकूफ होते हैैं।‘‘

‘‘ खास क्या कहना है आपको‘‘ उसने पूछा।

‘‘ खास ये कि मुफ्‌त में किसी को भी हाथ नहीं लगाने देना चाहिए। मेरा बस चले तो मैं मुफ्‌त देखने पर भी पाबंदी लगा दूं। जो देखणा चाहता है, पैसे निकाले और जी भर कर देखे। जैेस फिल्म देखने का भी टिकट लगता है, तभी देख पाते हैं।‘‘

एड्‌ज से डरता है और कहता है कहाणी लिखेगा... मंगला ने उसे बड़ी सी गाली दी। वह एक घण्टा बरबाद कर गया पर पैसे पूरे दे गया।

हां, कई लोग काम से हट कर उल्टे सीधे सवाल पूछते थे। प्रशांत ऐसा न था। वह उसे बहुत भला, शरीफ और अच्छे खानदान का लगता था। दूसरे का दुख दर्द समझने वाला। हां, डरपोक जरूर था। हमेशा डरा डरा सा रहता। इधर नहीं आना, उधर नहीं जाना... जगह कैसी है, कोई जानने वाला तो नहीं टकरेगा जैसे सवाल हमेशा उसके मुंह पर रहते। वैसे कोई बड़ा अफसर, नेता, एमएलए या चेयरमेन सा लगता था। पैसे की परवाह नहीं करता। सौ दो सौ तो ऐसे ही टिप की तरह दे जाता। उसने कई बार उससे कही दो कमरे दिलाने की बात की। नौकरी दिलाने की बात भी की।..... मैं नीच जात हूं, कहीं कोशिश

करो मेरे लिए नौकरी की। जल्दी मिल सकती है। पांच सात हजार ही मिल जाएं तो भी बहुत हैं। एक बार गाड़ी खरीदने के लिए सत्तर हजार भी मांगे कि पांच छः महीने में भर देगी।

वह ऐसी सब मांगों के लिए बस हूं हां ही करता। यह भी था कि मना भी नहीं करता। हां, पांच सात सौ मांगने पर तो कभी भी दे देता।

बहुत बार मिलने पर एक दूसरे को बहुत समझ लिया था उन्होंने। एक आपसी अंडरस्टेंडिंग बन गई थी और खुल कर बात करते थे। ऐसे ही एक बार अन्तरंग क्षणों के समय उसने कहा थाः ‘‘ मुझ से शादी कर लो। मुझे कहीं दो कमरे का घर ले दो। वहां जब मरजी आया जाया करो। मेरी बस एक मां है। बहुत गोरा चिट्‌टा बच्चा होगा हमारा...। सुन रहे हो न! मैं नीच नहीं हूं। मैं ठाकुर की औलाद हूं। ‘‘

‘‘ अच्छा! वह कैसे!‘‘

‘‘ मेरी मां कहती है, मैं ठाकुर की बेटी हूं। तभी तो गोरी चिट्‌टी हूं।‘‘

उसने मां से भी जिक्र किया, वह कोई बड़ा अफसर या चेयरमेन वगैरा लगता है। उम्र तो पचास पच्चपन से ऊपर है। सेहत बिल्कुल ठीक है। मुझे रख लेगा तो इधर उधर भटकने से छुटकारा मिलेगा।

‘‘ पागल हुई है क्या। आजकल ठाकुरों जैसे रईस नहीं रहे। सब अपना काम निकाल आगे हो जाते हैं। अगर तू उसके पास बैठ भी गई तो एक न एक दिन वह ऊब जाएगा तुझसे। ऐसे तो खिंचाव बना रहता है। .... तू तो मुर्गी ही मारना चाहती है। अण्डे दे रही है तो तूझे क्या बुरा लग रहा है...।''

पता नहीं कैसे उसने बड़ी बड़ी इच्छाएं पाल लीं। जैसे वह एक गाड़ी खरीदेगी जिसे टेक्सी के तौर पर चलाएगी। कम से कम अल्टो तो ले ही लेगी। उसमें अपने खसम को भी ड्राइवरी का ऑफर देगी। कम से कम दो कमरों का घर खरीदेगी या घर के लायक जमीन खरीदेगी। गाड़ी के लिए किश्तें तो कटवा देगी, बस पहली बार देने के लिए सत्तर हजार नहीं थे।

फिर सोचती, बड़े बड़े अफसरों, मिनिस्टरों तक जा पहुंचेगी। उसे पता है उसके साथ की एक लड़की दिल्ली के एक मिनिस्टर तक जा पहुंची थी। एक बार अख़बार में उसके फोटो दिल्ली के बड़े मिनिस्टर के साथ छपे थे।

इसी भागदौड़ में उसे बुखार रहने लगा। एक हफ्‌ते तक तो परवाह नहीं की। फिर आशंका हुई। डॉक्टर को दिखाया तो पहले साधारण दवाईयां दी। फिर ब्लड टेस्ट के लिए कहा। वह घबरा गईं ब्लड टेस्ट तो वह करवाएगी नहीं। जब परेशानी ज्यादा बढ़ गई तो मां ने चेले और साध इकट्‌ठे किए। आधी रात को पूजा छोडी़ गई। एक चेले ने उसके गले में ताबीज और एड़ियों में काले धागे बान्ध दिए।

गांव के मंदिर में ओपरे का ईलाज होता था। मां उसे गांव के पास देवी मंदिर में ले गई। पुजारी ने उसे बालों से पकड़ घुमाया तो वह निढाल हो गिर गई..... कम से कम तीन महीने यहां रहने पड़ेगा, तब यह ठीक होगी।

इस बीच वह एक बार प्रशांत से मिली और बता भी दिया कि वह तीन महीने के लिए ईलाज करवाने गांव के मंदिर में जा रही है। एक बार सहेली को भेज उससे कुछ पैसे भी मंगवाए।

वे ठाकुर के पुराने मकान में फिर से रहने लगीं। हालांकि मकान की हालत और खस्ता हो गई थी। देवी का मंदिर भी पास था।

उस दिन मंदिर में भण्डारा और रात को जागरण था। रात को कई औरतें एक साथ ‘‘खेलतीं‘‘ थीं। जवान लड़कियां तो सब की नजरों में चढ़ जातीं। चेले उन्हें खेलाते। देवी के चेले ने मंगला को बालों से पकड़ा को सिर घुमा दिया। वह वहीं बैठी सिर घुमाने लगी। एक लड़की तालियां बजाते हुए मंदिर के चक्कर पर चक्कर काट रही थी। उसके अभिभावक परेशान से उसके पीछे पीछे भाग रहे थे। कुछ औरतें जोर जोर से चिल्ला रहीं थीं।

शाम को मुख्य अतिथि के रूप में इलाके के मन्त्रीजी पहुंचे। वह मंदिर के प्रांगण में सबसे आगे बैठी हुई थी। उसने नज़र उठाई, सामने मन्त्रीजी विराजमान थे। दहकती आंखों से देखा मंगला ने, तेजी सिर घुमाया और जोर से चिल्लाई। मन्त्री जी ने उसे देखा तो एकाएक घबरा गए। उसने आंखें तरेरी तो वे भीतर तक दहल गए। हाथ जोड़े अरदास करने लगे। मंगला दोनों हाथ बांधे एकाएक कांपी और खुले बालों को नागिन की तरह लहराया। एकदम माथा नवाते हुए बोल उठे मन्त्रीजी :

‘‘छमा करो देबिए... छमा करो... बड़ी गलती हुई।‘‘

वह आंखें फाड़ फिर फुसफुसाई : ‘‘तू ही था, तू ही.....पछाण लिया....।‘‘

‘‘छमा देबिए.. छमा बकरा देणा... छमा..।‘‘

मन्त्रीजी उसके पैरों में बिछ गए। रात को उन्होंने सरपंच से बकरा मंगवाया जिस पर पानी छिड़क मंदिर के प्रांगण में बलि किया गया। बकरे का सिर पुजारी को मिला।

जागरण के बाद सारे इलाके में यह बात फैल गई कि मंगला को देवी आती है।

तीन तो क्या दो महीने में ही तंदरूस्त हो गई मंगला। बुखार जाता रहा। शरीर और मन दोनों को आराम मिला। मां बेटी फिर शहर में आ गईं। उसका मोबाइल बंद हो गया था अतः नया नंबर लेना ही उचित समझा।

एक शाम उसे बाजार में प्रशांत दिखा। उसके साथ एक दूसरा आदमी भी था, शायद कोई दोस्त रहा होगा। बीच बाजार में वह एकदम उसके सामने आ गई और बोली :

‘‘प्रशांत जी, पहचाना!‘‘ प्रशांत हक्का बक्का।

उसने फिर कहा : ‘‘मैं......... मंगला!‘‘

‘‘ मंगला! ...... कौन मंगला.....!‘‘

‘‘ अरे! तुम इन्हें प्रशांत कह रही हो। यह नाम इनका नहींं।‘‘ दोस्त ने कहा।

‘‘ नहीं, ये प्रशांत ही हैं, मैं अच्छी तरह जानती हूं।‘‘

‘‘ नहीं भई, ये तो कंवर साहब हैं। कंवर महेन्द्र प्रताप।‘‘

‘‘ नहीं नहीं.....ं‘‘ कहती वह चुप सी हो गई।

‘‘ पहचान तो नाम से होती है न, आप तो नाम ही गलत ले रही हैं। कोई गलती लगी है आपको।‘‘

वह उदास सी जाने लगी तो देखा, प्रशांत उसे दूर तक देखता रहा।

इतने दिनों बार शहर में काम जमाना आसान न था। सांस की तकलीफ से मां ने अब बिस्तर पकड़ लिया था। दो बार अस्पताल दाखिल करवानी पड़ी। उसकी सहेलियाें ने अपने ठिकाने बदल लिए थे। कुछ दिल्ली तो कुछ चण्डीगढ़ चली गईं थीं। एक जानकार ने उसे एक वीडियो कम्पनी में जगह दिला दी। सरदार जरनैल सिंघ पंजाबी एलबम बनाता था। उसके ग्रुप में आठ दस लड़के और दस बारह लड़कियां थीं। एक डांस डायरेक्टर उन्हें बिजली की फुर्ती से पीटी की तरह डांस सिखाता था। सरदारजी समय समय पर नाश्ता और खाना देते। बस एक सिगरेट पीने की मनाही थी। उसकी पुरानी तमन्ना पूरी होती दिखी। वह एक हीरोइन बनना चाहती थी कभी। अब कम से कम छोटे पर्दे पर तो आ ही जाएगी। जब पहला वीडियो बना तो उसे मंगला कहीं दिखाई नहीं दी। बस पांच छः के ग्रुप में एक काया हिलती सी दिखाई दे रही थी। जरनैल सिंघ की एक चहेती का चेहरा बार बार दिखाया जा रहा था, बाकि कारटून से घूमते दिखते। चेहरा आता भी तो इतनी तेजी से कि पता ही चलता किस का है। हां, कैमरा उनकी बनियान और स्कर्ट पर ज्यादा देर टिकता। खैर, कभी तो वह भी आगे आएगी।

उस दिन बिंदराखिया के गाने की रिहसल थी। गाना जोरों से बज रहा था :

‘‘ जिहदे हेठ घोड़ा मुंहडे ते दोनाली नी.....

..................... एक लाईन बार बार रिपीट होती जब तक ओके न हो जाए।

जिहदी पच्चियां पिंडां च सरदारी नी

ला लई ऐहो जेहे वेली नाल यारी नी.....

कैंहदे डीसी भी सलूट ओहनूं मारदा

पैरां च ठाणेदार रौलदा

तू नी बोलदी रकाने तू नी बोलदी, तेरे च तेरा यार बोलदा।

यार बोलदा।

बार बार गाना बजता और वे बार बार फिरकनी की तरह घूमतीं। तभी सिर घुमाते घुमाते उसने देखा, प्रशांत दर्शकों के बीच उसे हैरानी से देख रहा है। कुछ ही पल में आगे की पंक्ति में आ बैठा।

रिसहल खतम होने पर भीतर जाते ही उसने सब को चेता दिया कि कोई पूछे तो उसके बारे में न बताना।

बड़ा कड़ा था जरनैल सिंघ के ‘‘वी सीरिज वीडियो‘‘ का घेरा। कोई उसे तोड़ नहीं सकता था। वह सब से कम से कम तीन साल का बांड लिखवा लेता था। तब तक कोई दूसरे वीडियों के लिए नाच नहीं सकता था। कई कहते....... ओए जरनैल सिंघ... कई काम है इसके। ‘‘वी सीरिज वीडियो‘‘ तो दिखाने भर को है। ऊपर तक पहुंच है जरनैल की। कोई पार नहीं पा सकेया ओए जरनैल दा।

देर बाद उसने देखा, प्रशांत हॉल से हौले हौले बाहर निकल रहा है। वह कमजोर और बूढ़ा लग रहा था। उसके बचे खुचे बाल सफेद थे। टेढ़ा मेढ़ा सा धीरे धीेरे चल रहा था, कुछ कुछ लंगड़ाता हुआ। जब प्रशांत दरवाजे से बाहर जाने को हुआ तो उसे बड़ी दया आई। मन किया कि दौड़ कर जाए और उससे लिपट जाए।

तभी जरनैल सिंघ की भारी आवाज गूंजी : ‘‘पैक अप ओए... छेती करो, शाबाश!‘‘