जंगल का संगीत Sudarshan Vashishth द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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जंगल का संगीत

जंगल का संगीत

कथा कहती कहानियां

सुदर्शन वशिष्ठ



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सुदर्शन वशिष्ठ

1ण्जन्मः 24 सितम्बर, 1949. पालमपुर हिमाचल प्रदेश (सरकारी रिकॉर्ड में 26 अगस्त 1949)। 125 से अधिक पुस्तकों का संपादन/लेखन। नौ कहानी संग्रहः (अन्तरालों में घटता समय, सेमल के फूल, पिंजरा, हरे हरे पत्तों का घर, संता पुराण, कतरनें, वसीयत, नेत्र दान तथा लघु कथा संग्रह : पहाड़ पर कटहल)।

2ण्चुनींदा कहानियों के चार संग्रह : (गेट संस्कृति, विशिष्ट कहानियां, माणस गन्ध, इकतीस कहानियां)।

3ण्दो लघु उपन्यास : (आतंक, सुबह की नींद)। दो नाटक : ( अर्द्ध रात्रि का सूर्य, नदी और रेत)।

4ण्एक व्यंग्य संग्रह : संत होने से पहले।

5ण्चार काव्य संकलन : युग परिवर्तन, अनकहा, जो देख रहा हूं, सिंदूरी सांझ और खामोश आदमी।

6ण्संस्कृति शोध तथा यात्रा पुस्तकें : ब्राह्‌मणत्वःएक उपाधिःजाति नहीं, व्यास की धरा, कैलास पर चांदनी, पर्वत से पर्वत तक, रंग बदलते पर्वत, पर्वत मन्थन, पुराण गाथा, हिमाचल, हिमालय में देव संस्कृति, स्वाधीनता संग्राम और हिमाचल, कथा और कथा, हिमाचल की लोक कथाएं, हिमाचली लोक कथा, लाहौल स्पिति के मठ मंदिर, हिमाचल प्रदेश के दर्शनीय स्थल, पहाड़ी चित्रकला एवं वास्तुकला, हिमाचल प्रदेश की सांस्कृतिक संपदा।

7ण्हिमाचल की संस्कृति पर छः खण्डों में ‘‘हिमालय गाथा‘‘ श्रृंखलाः देव परम्परा, पर्व उत्सव, जनजाति संस्कृति, समाज—संस्कृति, लोक वार्ता तथा इतिहास।

8ण्सम्पादनः दो काव्य संकलन : (विपाशा, समय के तेवर) ; पांच कहानी संग्रह : (खुलते अमलतास, घाटियों की गन्ध, दो उंगलियां और दुष्चक्र, काले हाथ और लपटें, पहाड़ गाथा)। हिमाचल अकादमी तथा भाषा संस्कृति विभाग हिमाचल प्रदेश में सेवा के दौरान लगभग सत्तर पुस्तकों का सम्पादन प्रकाशन। तीन सरकारी पत्रिकाओं का संपादन।

1ण्सम्मानः जम्मू अकादमी तथा हिमाचल अकादमी से ‘आतंक‘ उपन्यास पुरस्कृत; साहित्य कला परिषद्‌ दिल्ली से ‘नदी और रेत‘‘ नाटक पुरस्कृत। हाल ही में ‘‘जो देख रहा हूं'' काव्य संकलन हिमाल अकादमी से पुरस्कृत। कई स्वैच्छिक संस्थाओं से साहित्य सेवा के लिए सम्मानित।

1ण्देश की विगत तथा वर्तमान पत्र पत्रिकाओं : धर्मयुग, सारिका, साप्ताहिक हिन्दुस्तान से ले कर वागर्थ, हंस, साक्षात्कार, गगनांचल, संस्कृति, आउटलुक, नया ज्ञानोदय, समकालीन भारतीय साहित्य आदि से रचनाएं निरंतर प्रकाशित। राष्ट्रीय स्तर पर निकले कई कथा संकलनों में कहानियां संग्रहित। कई रचनाओं के भारतीय तथा विदेशी भाषाओं मेें अनुवाद। कहानी तथा समग्र साहित्य पर कई विश्वविद्‌यालयों से एम फिल तथा पीएचडी.।

1ण्पूर्व सचिव/उपाध्यक्ष हिमाचल कला संस्कृति भाषा अकादमी ; उपनिदेशक/निदेशक भाषा संस्कृति विभाग हिप्र।

2ण्पूर्व सदस्य : साहित्य अकादेमी दिल्ली, दुष्यंत कुमार पांडुलिपि संग्रहालय भोपाल।

3ण्वर्तमान सदस्य : सलाहकार समिति आकाशवाणी; हिमाचल राज्य संग्रहालय सोसाइटी शिमला, विद्याश्री न्यास भोपाल।

4ण्पूर्व फैलो : राष्ट्रीय इतिहास अनुसंधान परिषद्‌ भारत सरकार

5ण्सीनियर फैलो : संस्कृति मंत्रालय भारत सरकार।

1ण्संपर्क : ‘‘अभिनंदन‘‘ कृष्ण निवास लोअर पंथा घाटी शिमला—171009 हि प्र

2ण्फोन : 094180—85595 (मो) 0177—2620858 (आ)

3ण्ई—मेल : अेंीपेीजीेंनकंतेींद/लींववण्बवउ

प्रकाशक की कलम से

हिन्दी कहानी आज अपने पुराने और वास्तविक स्वरूप में लौटती प्रतीत हो रही है। वास्तविक स्वरूप यानि कहानी, कहानी बनती जा रही है। कहानी में यदि कथा तत्व नहीं है तो वह संस्मरण, रिपोर्ताज, निबन्ध कुछ भी हो सकता है, कहानी नहीं हो सकती। कथा तत्व ही कहानी का मूल है।

पिछली सदी के अंतिम दशक तक कहानी से कथा दूर होने लगी और एक एब्स्ट्रेक्ट सी चीज़ सामने आई। जादूई यथार्थ के नाम पर कुछ कहानियां ऐसी भी आईं जिनमें न जादू था न यथार्थ। सरल और सीधी भाषा या शिल्प में कही जाने वाली कथा गायब होने लगी। ऐसी भी स्थ्िति आ गई कि कई पत्रिकाओं में उलझा सा संस्मरण, भाषण का मसौदा भी कहानी कह कर परोसा जाने लगा। लगभग ऐसा ही कविता के साथ भी हुआ। एक गद्य के पैरे को कविता कह कर छापा जाने लगा।

शिल्प की अत्यधिक कसरत; कथा से दूर उलझावदार, पेचदार कथानक ने एक बार तो पाठकों को चमकृत कर दिया किंतु जल्दी ही इससे मोहभंग होने लगा। स्वयं कहानीकार भी इसका निर्वाह देर तक नहीं कर पाए। उन्हें कथा की ओर लौटना ही पड़ा। इस सदी के पहले दशक के अंत तक कहानी, फिर कहानी की ओर लौटी है। आज पत्रिकाओं में फिर से कहानी दिखलाई पड़ती है।

सारिका और धर्मयुग ने सशक्त कहानियां देने के साथ एक कहानी आन्दोलन भी खड़ा किया। सारिका ने प्रतियोगिताओं के माध्यम से प्रत्यक्ष रूप से तो धर्मयुग ने अप्रत्यक्ष तौर कहानी का एक आन्दोलन चलाया। इसी तरह की कहानी प्र्रतियोगिताएं साप्ताहिक हिन्दुस्तान ने भी कराईं।

धर्मयुग के माध्यम से कहानी का जो भीतर ही भीतर एक आन्दोलन चला उसने कई कहानीकार दिए। यहां पुराने और स्थापित कहानीकाराें के बराबर में नये कहानीकार भी आए। जैसाकि होता रहा है, शिवानी जैसे कुछ ऐसे भी कहानीकार थे जिनकी तरफ आलोचकों ने ध्यान नहीं दिया। बहुत से सम्भावनाशील कथाकार न जाने कहां लुप्त हो गए। अस्सी के उस दौर में से0रा0 यात्री, राकेश वत्स, स्वदेश दीपक, पानू खोलिया, देवेन्द्र इस्सर, चन्द्रमोहन प्रधान, सुदर्शन नारंग, डा0 सुशीलकुमार फुल्ल, संजीव, शिवमूर्ति, मनीषराय, सुदर्शन वशिष्ठ, रूपसिंह चंदेल, केशव, बलराम, चित्रा मुद्‌गल, राजकुमार गौतम, मालचंद तिवारी, प्रभुनाथ सिंह आज़मी आदि कितने ही कहानीकारों ने ध्यान आकर्षित किया। यह भी सत्य है कि इन में कुछ तो जम कर स्थापित हुए, कुछ का स्मरण कभी कभार किया जाने लगा और कुछ का किसी ने नाम नहीं लिया। किंतु उस युग में धर्मयुग में छपने का अर्थ था एकाएक लाखों पाठकों के समक्ष प्रस्तुत होना।

यूं तो सुदर्शन वशिष्ठ की पहली कहानी 1969 में छपी और पहला कहानी संग्रह 1979 में आया किंतु आठवें दशक में भौगोलिक सीमाओं को तोड़ते हुए वशिष्ठ ने राष्ट्रीय मंच में दस्तक दी और तमाम शीर्षस्थ राष्ट्रीय पत्रिकाओं मे यह नाम एकाएक उभर कर सामने आया। सारिका की ‘‘ऋण का धंधा'' हो या धर्मयुग की ‘‘सेमल के फूल‘‘, ‘‘पिंजरा'', ‘‘घर बोला'', ‘‘सेहरा नहीं देखते'' या साप्ताहिक हिन्दुस्तान की ‘‘माणस गन्ध'', योजना की ‘‘सरकारी पैसा''; एकाएक सभी पत्रिकाओं में यह नाम देखा जाने लगा।

धर्मयुग में पहली कहानी ‘‘सेमल के फूल'' 22—29 जून 1980 के अंक में प्रकाशित हुई जिसके बाद लगातार कहानियां लगभग हर वर्ष धर्मयुग के बंद होने तक आती रहीं। साप्ताहिक हिन्दुस्तान में ‘‘माणस गन्ध'' का प्रकाशन 31 मार्च—6 अप्रैल 1991 अंक में हुआ।

गत पैंतालीस बरसों से लगातार कहानी लेखन में सक्रीय वशिष्ठ ने एक लम्बा सफर तय किया है। अतिसंवेदनशील मानवीय मूल्यों की कोमल छुअन, घर और गांव का मोहपाश, शहर और गांव के बीच आकर्षण और बढ़ता हुआ विकर्षण, घर परिवार से दफतर तक का संसार, निर्मम सरकारी तन्त्र, राजनीति की विभिषिका, सब इनकी कहानियों में देखने को मिलता है। सम्बन्धों की रेशमी डोरियों से ले कर गहन और जटिल मनोवैज्ञानिक परिस्थितियों तक कथाकार ने एक यथार्थवादी किंतु अद्‌भुत और रोमांचक संसार का निर्माण किया है।

वरिष्ठ कथाकार वशिष्ठ का कथा संसार उनके लेखन की तरह बहुआयामी विविधताओं से भरा हुआ है। यह किसी सीमित दायरे में बन्ध कर नहीं रहता। वे कहानी, उपन्यास, कविता, च्यंग्य, निबन्ध, सांस्कृतिक लेख आदि कई विधाओं में एक साथ लिखते हैं। इसी तरह उनकी कहानियों की भावभूमि और ज़मीन अलग अलग रही है। वशिष्ठ की कहानियां बोलती है, कहानीकार नहीं। कहानी में कहानीकार होते हुए भी नहीं होता। परिवेश और परिस्थितियों के अनुरूप संवेदना, कोमलता, सादगी के साथ ताज़गी, धारदार व्यंग्य के साथ एक तीख़ापन इनकी कहानियों में दिखलाई पड़ता है।

अव्यक्त को व्यक्त करना और व्यक्त को अव्यक्त करना, पात्रों को चरम तक उभार कर रहस्यमयी परिस्थितियों में छोड़ देना इन की कला है। कम से कम शब्दों में अधिक से अधिक और बड़ी से बड़ी बात करना, प्रतीकात्मक ढंग से इशारे में कहना, कथ्य के अनुरूप वातावरण तैयार करना और काव्यमयी भाषा का निर्माण इन की कहानी कला में आता है। कहानियों के अंत प्रायः खुले छोड़ दिए जाते हैं जो पाठक को देर तक सोचने पर विवश करते हैं।

गुलेरी सा शिल्प का नयापन, यशपाल का लेखन का विस्तार, मोहन राकेश सी कसावट, निर्मल वर्मा सी कोमलता और दक्षता इनकी कहानियों में देखने को मिलती है।

शब्दों की मितव्ययता और कम से कम शब्दों में अधिक से अधिक बात कहने की क्षमता, निरर्थक संदर्भों के बखान से परहेज, अनावश्यक विस्तार से बचाव इनकी कहानियों की विशेषता रही है। पात्रों को परिस्थ्ििात के अनुरूप रिएक्ट करने के लिए खुला छोड़ना, कहानी में उपस्थित हो कर भी अनुपस्थित रहना, कहानियों की एक ओर विशेषता कही जा सकती है।

विषयों की विविधता के साथ बाल मनोविज्ञान, वृद्धों की मानसिकता, नारी मन की कोमल भावनाएं, मध्यम वर्ग और निम्न वर्ग की ऊहापोह; इन सब का विवेचन बदलते हुए मूल्यों और परिस्थितियों के साथ कहानियाें में नये नये आयामों के साथ परिलक्षित होता है।

सारिका, धर्मयुग और साप्ताहिक हिन्दुस्तान जैसी पत्रिकाओं का एक एक कर बंद होना साहित्य में एक दुखांत घटना थी। इस दुर्घटना के बाद साहित्य जगत में अन्धेरा सा छाया रहा। उस युग के बाद आउटलुक, कहानीकार, पश्यन्ति, पल प्रतिपल, विपाशा, साहित्य अमृत, हरिगन्धा, हिमप्रस्थ, मधुमति, साक्षात्कार, से ले कर सण्डे ऑब्जर्बर, जनसत्ता, अमर उजाला, नवभारत टाईम्ज, हिन्दुस्तान, दैनिक ट्रिब्यून, नई दुनिया जैसे पत्रों तक इनकी कहानियां छपती रहीं।

वशिष्ठ की कथायात्रा अब भी निरंतर जारी है। समकालीन भारतीय साहित्य हो या हंस, कथादेश या नवनीत, कादम्बिनी हो या वागर्थ इनकी कहानियां निरंतर देखी जा सकती हैं।

एक लम्बे समय और स्पेस में निरंतर लेखन के कारण इनकी कहानियों में पुरातन और नवीन का सामंजस्य स्थापित हुआ। समय और समाज के परिवर्तन के साथ आए भौतिक और मनावैज्ञानिक बदलाव इन कहानियों में सौ वर्ष से अधिक के कालखण्ड को अपने में समोए हुए है। इस दृष्टि से यह कथायात्रा, जो अभी भी जारी है, एक दस्तावेज के रूप में सामने आती है।

कहानी को किसी खांचे में कस कर खरीदे हुए धागों से बुनना कथाकार का अभीष्ट नहीं रहा। इन का धागा भी अपना है, रंग भी अपना है, खड्‌डी भी अपनी है और बुनावट का डिजायन भी अपना है। इन की ऊन में सिंथेटिक की मिलावट नहीं है कि ओढ़ते ही चिंगारियां निकलने लगें या किसी रंगरेज़ ने नकली और कच्चे रंग से रंगा भी नहीं कि एक बार धो पहन कर रंग फीेके पड़ जाएं । इन में असल ऊनी धागा है, असली और पक्के रंग है। कोई भी पाठक इसे सहजता से ओढ़ बिछा सकता है। इससे स्वाभाविक गर्माहट मिलेगी जो देर तक धीमे धीमे असर करती रहेगी।

यहां कहानीकार की नारी संवेदना को ले कर कुछ विशिष्ट कहानियां दी जा रही हैं जो अपने कथ्य और काव्यमयी भाषा के कारण विशेष ध्यान आकर्षित करती हैं। सभी कहानियों में समाज में नारी के प्रति संस्कार, संबंन्धों की जटिलता, का बड़ी सूक्ष्मता से वर्णन किया गया है।

जंगल का संगीत

जादूगर जंगल

‘‘पेड़ कुदरत का करिश्मा है। अजूबा है पहाड़ पर पेड़़। ऊंचा, सीधा, समाधि में लीन योगी सा। जो जितना ऊंचा है, उतना ही शांत है। जितना पुष्ट उतना ही अहिंसक।.....देखो, टेढ़ी पहाड़ी पर सीधा खड़ा रहता है, झण्डे सा। हरी वर्दी पहने पेड़ लगता है पहरेदार, कभी लगता है झबरीला भालू, कभी तिलस्मी एय्‌यार। कभी लगता है पेड़ रामायण की चौपायी, जो हनुमान ने गायी। कभी ऊपर चांद से बातें करता, हवा से हाथ मिलाता....सच्च बच्चो! एक अजूबा है पहाड़ पर पेड़......।'' बाबा कहा करते।

हरे भरे जंगल में शाम की धूप की लाली चमक रही होती। सभी पेड़, पहाड़ एक ओर से सुनहरी हो कर चमक रहे होते। इस समय पक्षी पूरे जोर से शोर मचाते। इस कलरव में हवा के साथ जंगल का संगीत बज उठता।

बाबा की बातें सुनते हुए बच्चों के बीच बैठी वसुंधरा की आंखें अनायास जंगल की ओर घूम जातीं। जंगल उसे जादूगर सा लगता जिसकी पोटली में न जाने क्या क्या छिपा है।

‘‘पेड़ में भी हमारी तरह जान है। पेड़ में भी नसें हैं, हडि्‌डयां हैं, लहू है। पेड़ सांस भी लेता है। अपने ऊपर वार पर वार सहता है, फिर भी कुछ नहीं कहता। जानता है पेड़ यह भी कि लोहे की कुल्हाड़ी हो या दांतों वाला आरा, उसकी टहनी के बिना लोहे का टुकड़ा भर है, ठण्डा और बेजान। उसकी टहनी लगने पर ही कुल्हाड़ी वार करती है, आरा चलता है। उसे काटती है अपनी ही टहनी। वार सहते हुए न बोलता है, न सिसकता है। बस गिर जाने पर एक बार चिंघाड़ता है।''

बच्चों के चेहरे पर इस बात से मायूसी छा जाती.....पेड़ मरता भी है बाबा..., कोई बच्चा पूछ बैठता।

‘‘हां, पेड़ भी मरता है। पेड़ के मर जाने पर भी जड़ को पता नहीं चलता। जड़ें उतनी ही तेजी से पेड़ को ताकत देती हैं। पेड़ के मरने पर भी जड़ें जिंदा रहती है धरती के गर्भ में सालों। ठूंठ में उगती हैं कोंपलें हर साल, बस तना दोबारा नहीं उगता।''

‘‘पेड़ों को कौन मारता है बाबा!‘‘ वसुंधरा पूछती।

‘‘हैं कुछ लोग, जो पैसा कमाना चाहते हैं। चोरी से पेड़ों को काटते हैं।''

‘‘आपको जंगल के राखा हैं बाबा। आप तो ऐसा नहीं होने देते।'' कोई बच्चा बोल उठता।

‘‘हां, मेरे सामने कोई पेड़ नहीं काट सकता।...पेड़ परमात्मा ने आदमी से भी पहले बनाए। आदमी बाद में बनाया गया। और पेड़ बड़े धैर्य से, आरास से, फुरसत के समय बनाए।

बिना किसी आदमी की सहायता के पेड़ जन्म लेते हैं, खुद बड़े होते हैं, खुद फूल देते हैं, फल देते हैं। कोई लेने वाला न हो तो धरती पर टपका देते हैं, जिसकी मर्जी आए, खा ले। इसलिए जंगल में तो पेड़ होते ही हैं, जहां देवता का मंदिर होगा, वहां पेड़ होंगे। जहां जानवर होंगे, वहां पेड़ होंगे। जहां आदमी होंगे, वहां पेड़ होंगे। ये सामने जंगल देख रहे हो न, यह देवता का जंगल है, इसे कोई नहीं काट सकता। एक भी पेड़ काटना हो तो देवता की इजाजत लेनी होगी। देवता मना करे तो कोई पत्ता नहीं तोड़ सकता।''

सभी बच्चे जंगल की ओर देखने लगे जहां ऊंचे ऊंचे देवदारों के बीच देवता का मंदिर था।

अंधेरा घिरने को आता तो पक्षी अपने अपने घोंसलों की ओर शोर मचाते भागते। गांव के मंदिर में घंटियों के स्वर गूंजते। बच्चे शोर मचाते हुए अपने अपने घरों की ओर भागते।

महकमा जंगलात

ऊंचे ऊंचे पेड़ों से घिरा था जंगलात का दफतर। यह जैसे जंगल की सीमा थी। ऊपर जंगल शुरू हो जाता था, नीचे कस्बा। लगता था, जंगल यहीं से उगा है। आज भी कभी कभार शाम के बाद बाघ या दूसरे जानवर यहां तक आ जाते थे। नीचे की ओर दूर दूर तक ऊंची पहाड़ियां, ऊपर बर्फ से ढके पर्वत। पहाड़ों में महकमा जंगलात सबसे पुराना है, अंग्रेजों के समय का। लकड़ी से बनी दफतर की बिल्डिंग भी उतनी ही पुरानी थी जिस के कमरों की छत्तें ऊंची जहां दोनों ओर बड़े बड़े रोशनदान जिनकी डोरियां नीचे झूलतीं।

...फारेस्ट आफिस पेड़ों से घिरा होना चाहिए, दूर से पता चल जाए कि यह फारेस्ट ऑेफिस है...सीनियर अफसर ने कहा था जिसकी जगह उसकी पोस्टिंग हुई थी।

ऑफिस के बाहर दूर से ही चकले पत्थरों का रास्ता शुरू हो गया था। दोनों ओर एक बड़ा सा लॉन था जिसमें मख़मली घास उगी हुई थी। दोनों ओर फूलों की क्यारियां थीं। ऑफिस का पूरा एरिया कहीं कंटीली तार तो कहीं दीवार से बंद किया हुआ था।

ऑफिस के साथ ही दो कमरों का छोटा सा रेस्ट हाउस था जहां उसके रहने की व्यवस्था कर दी थी।

ऑफिस के बाहर बरामदा था जिसमें एक ओर लगे लकड़ी के बैंच पर चपरासी बैठा बीड़ी पी रहा था। उसने अफसरों को आते देख अनमने से बीड़ी दीवार पर रगड़ कर बुझा दी और सलाम बजाया। नये अफसर के आने की खबर से रेंज ऑफिसर खुद ही आ गया था।

‘‘अब आप यहां बैठिए मैडम....,यह कुर्सी अब आप के हवाले, आसपास जितने जंगल नजर की सीमा तक दिख रहे हैं, ये आप के हवाले। एक पूरी की पूरी सल्तनत है अब आपके अधिकार में,'' सीनियर ऑफिसर ने फीकी हंसी के साथ कहा।

‘‘नहीं नहीं, अभी आप ही बैठें। मैं कल से....आज शाम तक सब आपका रहा।'' वह कुर्सी देख सकुचाई।

सामने एक बड़ी सी घूमने वाली कुर्सी थी, हालांकि उस पर लगाए सफेद कवर काले पड़ गए थे। आगे एक बड़ी सी टेबुल जिस में अंदर की ओर दराज थे। कमरे में जंगली जानवरों के पुराने चित्र टंगे थे। एक किनारे पुरानी पुस्तकों से भरी अलमारी।

‘‘मैंने तो अब छोड़ दी।'' कह कर वह भी सामने सोफे पर बैठ गया। रेंज आफिसर चाय के प्रबन्ध में लग गया।

‘चार्ज‘ लेने देने में कुछ नहीं होता, यह उसे यहां आ कर पता चला। बस कागज साइन कर हैड क्वार्टर भेजने होते हैं। हैड क्लर्क कागज ले आया जो उसने तुरंत साइन कर दिए। बस साइन करने से वह यहां की अफसर थी।

रेंज ऑफिसर ने सब कोे चाय के साथ मिठाई बांटी। उसने पर्स से पैसे देने चाहे, जो बहुत जोर जबरदस्ती करने पर भी नहीं लिए गए। जलपान के बाद सीनियर ऑफिसर उसी समय हैड क्वार्टर चला गया जहां उसकी पोस्टिंग हुई थी।

दो कमरों के छोटे से रेस्ट हाउस में भी सीढ़ियां चढ़ने के बाद बाहर बरामदा था जिसमें दफतर की तरह एक बैंच रखा था। बरामदे से नीचे छोटा सा बाजार, कस्बा और बीच में चौगान दिखता था। सामने एक पर्वताकार बड़ी पहाड़ी थी। नीचे दरिया बहता था जो यहां से दिखाई नहीं दे रहा था। हां, बहुत गहरी सी आवाज आ रही थी।

भीतर एक छोटे कमरे में बड़ा सा सोफा था, दूसरे में डबल बेड जिसके गद्‌दे बहुत मोटे थे। शुक्र था कि दीवारों पर जानवरों के न हो कर जंगल, पहाड़ों, झरनों के पुराने मगर आकर्षक चित्र टंगे थे। बाथरूम में नई नई टाईलें लगी थीं, शायद हाल ही में इसे रेनोवेट किया गया था।

गांव से दूर के रिश्ते की बहन साथ आई थी जिसने अब तक सामान सलीके से सजा दिया था। ट्रांस्फर हुए अधिकारी का परिवार अभी यहीं था, इसलिए सरकारी मकान मिलने में वक्त लग सकता था। सैटल होने के बाद बहन को गांव भेज देगी।

दफतर की अलमारी से लाई एक किताब पलटने पर पता लगा यह इस क्षेत्र के एक दुर्गम गांव के बारे में किसी यूरोपियन का संस्मरण था जिस में बहुत सी उपयोगी जानकारी दी गई थी। वह यूरोपियन यहां दरिया के किनारे चांदी की खोज करने आया था।

चौकीदार दौड़ दौड़ कर सेवा में जुट गया। रात को बढ़िया धुली मुंगी की दाल और गोभी बनाई थी जो बहुत स्वादिष्ट थी। किचन पीछे की ओर होते हुए भी वह गर्मागर्म चपाती पहुंचाता रहा।

पक्षियों के कलरव ने तड़के ही जगा दिया। बाहर उजाला था। वह बैंच पर बैठ गई। सामने की पहाड़ी के कारण सूरज देर से निकलता है, चौकीदार ने चाय पकड़ाते हुए बताया। उसके बच्चे उठ गए थे जो किचन से छिप छिप कर झांकते हुए उसे देख रहे थे। भीतर से बिस्कुट का पैकेट ला कर चौकीदार को दिया।

सुबह दस से पहले ही वह कुर्सी पर बैठ गई। बैठने से पहले ही उसने कुर्सी के मैले कवर चौकीदार से निकलवा दिए थे। उस समय दफतर में कोई नहीं था। बस चौकीदार ही उस के साथ नीचे आया था। उसी के पास दफतर की चाबी थी।

चौकीदार ने आते ही बाहर नेम प्लेट लटका दी : वसुंधरा चौधरी वनमण्डलाधिकारी।

घूमने वाली कुर्सी पर बैठते ही उसका मन बुरा बुरा सा हो गया। बाबा इसी महकमे में फॉरेस्ट गार्ड थे। उस वक्त उन्हें राखा कहते थे। राखा होने पर भी गांव के चौकीदार, लम्बरदार से उनकी पूरे इलाके में बड़ी इज्जत थी। हर ब्याह शादी, मरण कर्म में वही चीड़ के पेड़ पर निशान लगा कर अलॉट करते थे। उम्र भर जंगलों में भटकते रहे। कितना लगाव था उन्हें अपनी ड्‌यूटी से। जंगलों की खातिर ही उन्हें एक दिन अपनी जान देनी पड़ी। तब वह कितनी छोटी थी। उस समय ऐसा सपने में भी नहीं सोचा था कि वह उसी महकमे में बड़ी अफसर बनेगी। पूरे कुनबे में और इलाके में इस तरह की पहली अफसर होगी।

स्टॉफ के आने से पहले उसने साथ लाई अग्गरबत्ती जला कर आंखें बंद कर लीं। हाथ जोड़ कर देवी का ध्यान किया और कमरे का जायजा लिया कि यहां क्या क्या चेंजिज की जा सकती हैं।

इतने में रेज ॲाफिसर गुड मॉर्निंग करता हुआ भीतर आ गया। शायद वह रात यहीं ठहरा था।.....चाय मंगवाऊं मैडम...उसने भीतर आते ही पूछा।

‘‘हां हां, मंगवाते हैं....,'' कहते हुए उसने घण्टी बजाई। एक चपरासी भीतर आया और खड़ा हो कर बेबकूफों की तरह उसे देखने लगा।

‘‘ चाय लाओ भई.... मैडम के आते ही बिना कहे चाय आ जानी चाहिए।'' रेंज ऑफिसर ने रौब से कहा तो वह सिर हिलाता चला गया।

‘‘यह इलाका पेड़ काटूओं के लिए बदनाम है मैडम। एक पूरी गैंग, पूरा माफिया इस काम में लगा हुआ है। आप देखेंगीं, कई पहाड़ियां नंगी हो गई हैं। जंगलों में टीडी में एक पेड़ अलॉट होता है तो पांच काट लिए जाते हैं। यहां की लकड़ी मैदानों में पहुंच गई, कोई पकड़ नहीं पाया। कोई डी0एफ0ओ0 यहां साल से ज्यादा नहीं टिक पाता।'' रेंज ऑफिसर ने बताना शुरू किया।

.... अब कोई नहीं बचेगा, सोचा वसुंधरा ने, कहा कुछ नहीं।....पेड़ पौधों को, हरे भरे जंगलों को, जंगली पशु पक्षियों को बचाना है उसने। यही तो उसके जीवन का लक्ष्य है अब।

‘‘मैडम! कुछ जरूरी फायलें हैं....नाक पर ऐनक रखे अधेड़ हैड क्लर्क ने प्रवेश किया और ऐनक के बीच से उसे घूरा। वह चुप रही।

‘‘ ये हैड क्लर्क हैं मैडम! बहुत मेहनती और ईमानदार...।‘‘ रेंज ऑफिसर ने परिचय दिया। वे महाश्य एक बार और झुके और मुसकाते हुए फायलें रखते हुए बोले :‘‘धीरे धीरे सब जान जाएंगी मैडम, अभी नई नई हैं न।'' वह चुप रही, बस सिर हिलाया।

हैड क्लर्क के जाने पर रेंज ऑफिसर ने फिर बात छेड़ी :‘‘यहां गांव से दूर बहुत ही घने जंगल हैं जहां तक हम लोग भी नहीं पहुंच पाते। फारेस्ट गार्ड लोकल हैं जो लोगों से मिले रहते हैं। ये सामने की पहाड़ी तो खाली है, पीछे की ओर जंगल ही जंगल हैं जहां दिन में भी जाने से डर लगता है। बाघ, रीछ, भालू सर्दियों में नीचे उतर आते हैं। वैसे जंगली जानवर तो यहां कम है, आदमी ही जानवर बने हुए हैं।‘‘

‘‘चैक पोस्ट तो सब जगह होगी....।'' उसने कहा।

‘‘सो तो हैं.... वहां भी तो लोकल आदमी लगे हैं। फिर बहुत सी लकड़ी दरिया के रास्ते जाती है। कटान के बाद स्लीपरों को दरिया में लुढ़का दिया जाता है जहां से वे दूसरे जिले में पहुंच जाते हैं।''

चाय के बाद रेंज ऑफिसर ने विदा ले ली तो वह पुनः सयंत हो बैठ गई।

ऑफिस में अराजकता का माहौल था, इस बात का पता उसे एक दिन में ही लग गया। बाहर पूरी सल्तनत थी, इसमें कोई संदेह नहीं। पिछले डी.एफ.ओ. ज्यादातर दौरे पर रहते थे। शिकार और पार्टियों के शौकीन। वैसे भी वे सीधे आई.एफ.एस. थे, बिहार के रहने वाले। वह तो बी.एस.सी. फारेस्टरी कर के प्रदेश कॉडर से चयनित हुई थी।

....ये लेडीज क्या करेंगीं। यहां तो फील्ड वर्क है। जंगलों में रहना पड़ेगा, जंगली जानवरों के बीच। पता नहीं कैसे इस सर्विस में आ गई।... अरे! इसे तो हैड क्वार्टर में ही रहना चाहिए था, वहां टेबल वर्क करती। यहां जंगल माफिया के बीच.... अकेली लड़की.... राम! राम! ये तो स्टॉफ को भी कंट्रोल नहीं कर पाएगी। कई तरह की बातें उसके कानों तक पहुंचने लगीं। रात को छोटे से रेस्ट हाउस के ऊपर जंगल में जब कई गीदड़ एक साथ बोलते तो उसे भय भी लगता।

वह सुबह पौने दस आ बैठती थी और दूसरे दिन ही सारे स्टॉफ को समय पर आने का मीमो जारी कर दिया। बिना चिट दिए किसी भी बाहरी व्यक्ति के कमरे में प्रवेश पर प्रतिबन्ध लगा दिया। अब किसी भी आदमी की उसकी ओर आंख उठा कर देखने की हिम्मत नहीं होती।

जंगल की पुकार

बरसात में जंगल बहुत दारूण आवाज में बोलता है।

चारों ओर टिडि्‌डयों, झींगूरों की आवाजें वातावरण को बोझिल बना देती हैं। सभी पेड़ भीग कर जैसे सिसकते हैं। उनके चारों ओर लिपटी बेलें उन्हें एकदम कस देती हैं जिससे सांस लेना भी कठिन हो जाए। जमीन पर हर जगह गीला गीला एहसास। घने पौधों और झाड़ियों के बीच न जाने क्या छिपा बैठा होगा, कौन जाने!

बरसात में जंगल की आवाजों से उसका मन कभी कभी घबरा जाता है। ऐसे ही भयावह वातावरण में एक दिन उसके बाबा को मार डाला था।

बड़ी उदास शाम थी वह। ऐस ही कीट पतंगों की सायंसायं, झायंझांय से जंगल गूंज रहा था। लोक कथा की तरह लोग सुनाते हैं, टक्‌टक्‌ की आवाजें सुनते हुए बाबा जंगल के बीच में पहुंच गए। अचानक फॉरेस्ट रोड़ पर एक ट्रक चिंघाड़ता हुआ आ रूका। ट्रक ड्राईवर से उन्होंने जंगल के बीच ट्रक लाने का कारण पूछा तो वह हंसा। उन्होंने ट्रक का दरवाजा पकड़ लिया। ड्राईवर नीचे उतरा। पीछे से तीन आदमी और उतर आए। देर तक उन में कहा सुनी होती रही। एक तगड़े आदमी ने बाबा को धक्का दिया। बाबा ने उसका कालर पकड़ लिया। उस सांड से आदमी ने बाबा को धक्का मार नीचे गिरा दिया। काफी देर छीना झपटी के बाद हैण्डल जैसी लोहे की छड़ से बाबा के सिर पर किसी ने वार किया जिससे वे जमीन पर गिर गए। ट्रक ड्राईवर और सभी आदमी ट्रक भगा कर ले गए। बेहोशी की हालत में बाबा को किसी ने दूसरे दिन वहां गिरे देखा। उठा कर घर लाने के बाद वे सात दिन बेहोशी की हालत में पड़े रहे और धीरे धीरे शांत हो गए। उनके जंगल में गिरने और मिलने की कहानी कई तरह से गांव में कई दिन तक बखानी जाती रही। कोई कहता, पांव फिसल कर गिरे, कोई कहता किसी जानवर ने हमला कर गिरा दिया।

आज भी उसे बाबा की सुनाई एक कहानी नहीं भूलती। जंगल में एक पेड़ था। बहुत ऊंचा, लम्बा, तगड़ा, हरा भरा। एक बच्चा उसका दोस्त था। वह कभी उसके तने पर आ बैठता, कभी शाख पर। कभी फल तोड़ता, कभी फल खाता। पेड़ को उसका नन्हा नन्हा स्पर्श बड़ा सुखद लगता। बच्चा बडा़ हुआ तो एक दिन मायूसी से पेड़ से बोला कि वह अब पढ़ना चाहता है, उसके साथी स्कूल जाते हैं किंतु उसके पास फीस और किताबें नहीं हैं। पेड़ ने कहा, कमाल हो गया। देखो, मेरी शाखाओं में कितने फल लगे हैं, इन्हें तोड़ कर बाजार में बेचो और किताबें ले लो। बच्चे ने वैसा ही किया और किताबें खरीद रोज स्कूल जाने लगा। कुछ दिनों बाद वह युवक बन गया और स्कूल के बाद आगे पढ़ने की इच्छा ले कर पेड़ के पास आया। पेड़ ने कहा, वाह! दोस्त! ये क्या बात हुई, मेरी टहनियां काट कर बेचो और पैसे इकट्‌ठे कर लो। उसने पेड़ की मोटी मोटी टहनियां काट कर बेचीं और बाहर पढ़ने चला गया। जब अगली पढ़ाई पूरी हुई तो उसकी इच्छा सात समुद्र पार जाने की हुई। पेड़ ने उसे अपना मोटा तना भी दे दिया और वह नौका बना समुद्र पार चला गया। पेड़ का ठूंठ कई दिन तक आंखें गड़ाए इंतजार करता रहा कि मेरा दोस्त वापिस लौटेगा। दोस्त नहीं लौटा। ठूंठ में हर साल कोपलें आतीं तो वह सिर उठा कर समुद्र की ओर देखता। साथी पेड़ उसे समझाते, वह नहीं आएगा। पेड़ कहता, वह अवश्य लौटेगा। आखिर एक दिन वह लौटा तो उसके साथ और भी बहुत से लोग थे। उन सब के हाथों पेड़ काटने की मशीनें थीं।

ऑफिस में नये अफसर के आने पर कुछ कर्मचारी वफादार बनते हुए उसके करीब आने की कोशिश करते हैं। ऐसे ही एक रेंजर उसका विश्वासपात्र सा बन गया था। रातोंरात लकड़ी के स्लीपरों के कई ट्रक नाके से पार हो जाते हैं, उसने बताया था। एक शाम उसने उसकी सीमा में एक चैक पोस्ट से लकड़ी के ट्रक जाने की सूचना दी। पहले तो विश्वास नहीं हुआ कि क्या पता सूचना सही है भी या नहीं। क्या पता उसे बेबकूफ ही बनाया जा रहा हो। फिर भी उसने चुपके से नाकाबंदी कर दी और अपने भरोसे के आदमियों को साथ रख कर पास के रेस्ट हाउस में ठिकाना बना लिया।

उस इलाके में तो शाम छः के बाद बंदा नजर नहीं आता था। वैसे भी यह चैक पोस्ट जंगल के निकास पर एक सुनसान जगह में थी।

रात दस बजे के करीब एक ट्रक आया। चैक पोस्ट में लम्बा डण्डा लगा हुआ था। ड्राईवर ने इंजन बंद किए बगैर खिड़की से मुंह निकाला और चिल्लाया :‘‘खोल दे ओए पुत्तरा! ट्रक खाली है।'' चैक पोस्ट से दो आदमी टाचर्ें ले कर आगे बढ़े। ड्राईवर को कुछ खटका हुआ। दूसरी ओर से एक मोटा आदमी उतराः ‘‘लालाजी का ट्रक है भाई। पता नहीं आपको। ऊपर से संदेश नहीं आया क्या!''

चैक पोस्ट वालों ने हल्ला कर उन्हें नीचे उतारा। उतने में रेस्ट हाउस से पूरी फोर्स आ पहुंची। स्थिति बिगड़ती देख ड्राईवर और मोटा आदमी अन्धेरे में गुम हो गए। एस.एच.ओ. भी साथ था अतः उसी समय ट्रक को ला कर पास के थाने में लगा दिया गया।

रात ग्यारह बजे वसुन्धरा घर पहुंची तो फोन की घण्टी घनघना उठी। डिप्टी कमिशनर का फोन थाः‘‘मैडम! आप को रात में डिस्टर्ब किया। अभी अभी मुझे किसी ने बताया है कि आपके महकमे ने लकड़ी का एक ट्रक पकड़ लिया है।''

‘‘अच्छा! कहां!'' एकदम अनजान बन गई वसुन्धरा।

‘‘यहीं, किसी पास के नाके पर। उसे रिलीज कर दीजिए। आपको पता नहीं वह किसका है।''

‘‘अच्छा!..... यदि पकड़ा गया है तो किसी का भी हो, छूटना मुश्किल है।‘‘ उसने दृढ़ता से कहा।

‘‘देखिए, आप नई नई हैं सर्विस में। अभी आप को पता नहीं है। ये लालाजी का माल है। लालाजी यहां के मन्त्रीजी के करीब हैं। वे फॉरेस्ट सेक्रेटरी के भी करीबी हैं। उनका फोन भी आपको आने वाला होगा।''

‘‘चलो, फोन आएगा तो देख लेंगे।‘‘ कह कर वसुन्धरा ने फोन काट दिया।

फोन का चोंगा उठा कर नीचे रख दिया। रात करवटें बदलते काटी। बार बार लग रहा था लगातार घण्टी बजती जा रही है।

उसे खटका हुआ, कहीं दबाब में आ कर ट्रक छोड़ना न पड़े। ऑफिस पहुंचते ही उसने एक खबर बनाई और अखबारों को दे दी। शाम तक कई पत्रकारों के फोन आ गए। अगले दिन अखबारों में मोटे हैडिंग लगा कर यह खबर छापीः

‘‘वसंतपुर चैकपोस्ट पर लकड़ी के स्लीपरों से भरा ट्रक पकड़ा गया। मौके से ड्राईवर तथा मालिक फरार। ट्रक पुलिस के कब्जे में रखा गया है। यह ट्रक इलाके के किसी महत्वपूर्ण व्यक्ति का माना जा रहा है किंतु अभी तक किसी ने भी इस पर अपना क्लेम नहीं जताया है। इस घटना से इतना तो सिद्ध होता है कि इस इलाके में जंगल माफिया सक्रीय है। वनमण्डलाधिकारी वसुन्धरा चौधरी ने बताया इस तरह लकड़ी की तस्करी को बरदाश्त नहीं किया जाएगा और सभी नाकों पर दिन रात चैंकिंग को और कड़ा कर दिया जाएगा।‘‘

अगले दिन जिलाधीश की अध्यक्षता में होने वाली मासिक शिकायत समिति की बैठक के लिए चौगान से गुजरी तो सभी उसे देख रहे थे। मीटिंग में उसके आने पर जिले के अफसर खुसर फुसर करने लगे। उस बैठक में स्थानीय विधायक भी आए हुए थे। किसी ने भी एक दुःस्वप्न की तरह उस घटना का जिक्र नहीं किया। विधायक ने उसकी उपस्थिति का नोटिस ही नहीं लिया।

जब्त किया ट्रक कई दिन तक पुलिस थाने खड़ा रहा। अंत में लकड़ी नीलाम कर दी गई। एक रात ट्रक वहां से गायब हो गया।

बहुत जल्दी यथास्थिति कायम हो गई। जैसे कुछ हुआ ही नहीं।