हाथी पर प्रसताव Sudarshan Vashishth द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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हाथी पर प्रसताव

हाथी पर प्रस्ताव

सुदर्शन वशिष्ठ



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सुदर्शन वशिष्ठ

1ण्जन्मः 24 सितम्बर, 1949. पालमपुर हिमाचल प्रदेश (सरकारी रिकॉर्ड में 26 अगस्त 1949)। 125 से अधिक पुस्तकों का संपादन/लेखन। नौ कहानी संग्रहः (अन्तरालों में घटता समय, सेमल के फूल, पिंजरा, हरे हरे पत्तों का घर, संता पुराण, कतरनें, वसीयत, नेत्र दान तथा लघु कथा संग्रह : पहाड़ पर कटहल)।

2ण्चुनींदा कहानियों के चार संग्रह : (गेट संस्कृति, विशिष्ट कहानियां, माणस गन्ध, इकतीस कहानियां)।

3ण्दो लघु उपन्यास : (आतंक, सुबह की नींद)। दो नाटक : ( अर्द्ध रात्रि का सूर्य, नदी और रेत)।

4ण्एक व्यंग्य संग्रह : संत होने से पहले।

5ण्चार काव्य संकलन : युग परिवर्तन, अनकहा, जो देख रहा हूं, सिंदूरी सांझ और खामोश आदमी।

6ण्संस्कृति शोध तथा यात्रा पुस्तकें : ब्राह्‌मणत्वःएक उपाधिःजाति नहीं, व्यास की धरा, कैलास पर चांदनी, पर्वत से पर्वत तक, रंग बदलते पर्वत, पर्वत मन्थन, पुराण गाथा, हिमाचल, हिमालय में देव संस्कृति, स्वाधीनता संग्राम और हिमाचल, कथा और कथा, हिमाचल की लोक कथाएं, हिमाचली लोक कथा, लाहौल स्पिति के मठ मंदिर, हिमाचल प्रदेश के दर्शनीय स्थल, पहाड़ी चित्रकला एवं वास्तुकला, हिमाचल प्रदेश की सांस्कृतिक संपदा।

7ण्हिमाचल की संस्कृति पर छः खण्डों में ‘‘हिमालय गाथा‘‘ श्रृंखलाः देव परम्परा, पर्व उत्सव, जनजाति संस्कृति, समाज—संस्कृति, लोक वार्ता तथा इतिहास।

8ण्सम्पादनः दो काव्य संकलन : (विपाशा, समय के तेवर) ; पांच कहानी संग्रह : (खुलते अमलतास, घाटियों की गन्ध, दो उंगलियां और दुष्चक्र, काले हाथ और लपटें, पहाड़ गाथा)। हिमाचल अकादमी तथा भाषा संस्कृति विभाग हिमाचल प्रदेश में सेवा के दौरान लगभग सत्तर पुस्तकों का सम्पादन प्रकाशन। तीन सरकारी पत्रिकाओं का संपादन।

1ण्सम्मानः जम्मू अकादमी तथा हिमाचल अकादमी से ‘आतंक‘ उपन्यास पुरस्कृत; साहित्य कला परिषद्‌ दिल्ली से ‘नदी और रेत‘‘ नाटक पुरस्कृत। हाल ही में ‘‘जो देख रहा हूं'' काव्य संकलन हिमाल अकादमी से पुरस्कृत। कई स्वैच्छिक संस्थाओं से साहित्य सेवा के लिए सम्मानित।

1ण्देश की विगत तथा वर्तमान पत्र पत्रिकाओं : धर्मयुग, सारिका, साप्ताहिक हिन्दुस्तान से ले कर वागर्थ, हंस, साक्षात्कार, गगनांचल, संस्कृति, आउटलुक, नया ज्ञानोदय, समकालीन भारतीय साहित्य आदि से रचनाएं निरंतर प्रकाशित। राष्ट्रीय स्तर पर निकले कई कथा संकलनों में कहानियां संग्रहित। कई रचनाओं के भारतीय तथा विदेशी भाषाओं मेें अनुवाद। कहानी तथा समग्र साहित्य पर कई विश्वविद्‌यालयों से एम फिल तथा पीएचडी.।

1ण्पूर्व सचिव/उपाध्यक्ष हिमाचल कला संस्कृति भाषा अकादमी ; उपनिदेशक/निदेशक भाषा संस्कृति विभाग हिप्र।

2ण्पूर्व सदस्य : साहित्य अकादेमी दिल्ली, दुष्यंत कुमार पांडुलिपि संग्रहालय भोपाल।

3ण्वर्तमान सदस्य : सलाहकार समिति आकाशवाणी; हिमाचल राज्य संग्रहालय सोसाइटी शिमला, विद्याश्री न्यास भोपाल।

4ण्पूर्व फैलो : राष्ट्रीय इतिहास अनुसंधान परिषद्‌ भारत सरकार

5ण्सीनियर फैलो : संस्कृति मंत्रालय भारत सरकार।

1ण्संपर्क : ‘‘अभिनंदन‘‘ कृष्ण निवास लोअर पंथा घाटी शिमला—171009 हि प्र

2ण्फोन : 094180—85595 (मो) 0177—2620858 (आ)

3ण्ई—मेल : अेंीपेीजीेंनकंतेींद/लींववण्बवउ

हाथी पर प्रस्ताव

पुरानी कहावत है, हाथी निकल जाता है, कुत्ते भौंकते रह जाते हैं। जब हाथी रास्ते से गुजरता है तो गलियों के कुत्ते भौंकते हैं। कोई कुत्ता हाथी के आकार प्रकार से डर कर भौंकता है। कोई अपने मालिक के लिए भौंकता हैं। कोई उस औरत के लिए जो शाम सवेरे रोटी का टुकड़ा फैंकती है। कोई उसके लिए जो कभी कभार बासी टुकड़ा फैंक देता है। कोई केवल भौंकने के लिए भौंकता है क्योंकि भौंकना उसकी फितरत है। कोई हाथी के बहुत करीब आ कर पीछे हटता हुआ भौंकता है। कोई बीच सड़क में आ कर भौंकता है। कोई गली में दुबका हुआ ही कुनमुनाता है। कोई जरा सा भौंक कर गली में दुबक जाता है।

कुत्ते की भौंक उसके पेट में गए टुकड़े पर निर्भर करती है।

यह कहावत आज और भी जीवन्त हो गई है। आज हाथी जंगल से शहर में आ गए हैं। कुत्ते तो शहर में पहले से ही रह रहे हैं। हाथी आज भी धीमी गति से, मदमस्त चला रहता है। बल्कि गुजर जाता है, कुत्ते भौंकते रह जाते हैं। कहावत पुरानी है, आज भी उतनी ही शाश्वत है।

हाथी चला रहता है मदमस्त। मदमस्त भी नहीं कहना चाहिए, बस मस्ती में चला रहता है। वह कुत्तों को भगाता नहीं। कुत्तों को भगाना उसका मकसद नहीं। उनके भौंकते रहने से ही पता चलता है कि इतना बड़ा जानवर जा रहा है और हाथी ही हो सकता है। कुत्तों के भौंकने से ही उसका बड़प्पन झलकता है। यदि वे न भौंके तो वह चुपचाप ही आया गया हो जाए। लोगों को पता भी तो लगना चाहिए कि इतने बड़े आकार की कोई हस्ती जा रही है। उसे यह भी पता है कि सभी उस पर दूर से ही भौंकेंगे, कोई पास आने की ज़ुर्रत नहीं करेगा। दूर से भौंकने में ही उनकी सुरक्षा है और हाथी का बड़प्पन। कोई मनचला मूर्खतावश हाथी के नीचे आ गया तो हड्‌डी पसली एक हो जाएगी।

कोई यह सोच भी नहीं सकता था कि हाथी भी कभी चुनाव चिह्‌न होगा और हाथी के चुनाव चिह्‌न से पूरे बहुमत में कोई सरकार बनेगी। कहा गया है, हाथी के दांत दिखाने के और और खाने के और। यह कहावत गलत सिद्ध हुई और जो खाने के थे, वही दिखाने के साबित हुए।

कई घोटाले हुए, स्केम हुए। हाथी आया और चला गया, कुत्ते भौंकते रह गये। बड़ा स्केम भी तो बड़ा प्राणी ही कर सकता है। अब भिखारी को कहो कि टू जीबी या थ्री जीबी करे तो वह क्या खाक करेगा! अब झुग्गी झोंपड़ी वाले को कहो कि तेल घोटाला करो, दाल घोटाला करो या खेल घोटाला करो तो वह क्या करेगा! करोड़ों का लेन देन करो तो क्या करेगा! उसके घर न नौ मन तेल होगा और न राधा नाचेगी। उसके हाथ कांप कांप जाएंगे। बड़ा काम बड़ा आदमी ही कर सकता है। जैसे हाथी ही ढेराें चारा, केले आदि फल खा सकता है, खरगोश नहीं। हाथी ही पूरी सड़क घेर चल सकता है, गीदड़ नहीं। हाथी ही पूरा का पूरा पेड़ उखाड़ फैंक सकता है, गिलहरी नहीं।

छोटे छोटे जानवर तो पिंजरें में बंद किए जा सकते हैं। हाथी के लिए पहले बहुत बड़े आकार का पिंजरा बनवाना पड़ेगा। जितना समय पिंजरा बनाने में लगेगा, उतने में लोग भूल जाएंगे कि यह किसके लिए बनवाया था। फिर इस पिंजरे में कितने छोटे जानवर समा जाएंगे। बनेगा किसी और के लिए और फंसेंगे कोई और।

जब हाथी गुजर जाता है तो कुछ समय बाद हर गली में शान्ति छा जाती है। कुत्ते भूल जाते हैं कि वे किस लिए भौंक रहे थे। वे थके हारे, अलसाए से इधर उधर, जहां भी जगह मिले, वहां सो जाते हैं। जागने पर उन्हें याद भी नहीं रहता कि वे कब और किस लिए भौंक रहे थे। इन की सूंघने की शक्ति तो ग़जब की है, स्मरण शक्ति नहीं के बराबर है। हां, कभी फिर हाथी निकल पड़े तो इन्हें याद आता है हां, पहले भी ऐसा जानवर देखा था और उस पर पूरा जोर लगा कर गलियों में घूम घूम कर भौंके थे।

दूसरे जानवर सोचते हैं, हाथी को भगा देंगे। क्योंकि सोचने पर पाबंदी नहीं है, कई तो इतना भी सोच लेते हैं कि हाथी को मार ही गिराएंगे। उन्हें यह नहीं मालूम कि जिंदा हाथी अगर लाख को हैं तो मरा हुआ सवा लाख का हो जाएगा। जैसे सरकारी नौकर और गैरसरकारी विधायक मन्त्री भी मर कर सवा लाख के हो जाते हैं। उनके भत्ते भुगतान करने पर भी खतम होने में नहीं आते। सरकार से लिए सारे कर्जे तक मुआफ हो जाते हैं। उत्तराधिकारियों को उनकी जगह नौकरी या चुनाव में जीत। वे मरते नहीं, शहीद होते हैं। उनकी शहादत रंग लाती है। उनका एक एक अंग, अंगवस्त्र तक बिक जाता है।

हाथी बड़ा जानवर है। इसका पेट भी सबसे बड़ा है। इसे भरने के लिए उतना ही खाजा भोजा चाहिए। हाथी की भूख भी बड़ी है। एक पौराणिक कथा है कि गरूड़ जब पैदा हुए तो एकदम भूख भूख पुकारने लगे। इस बात को अच्छा समझा गया कि बड़ी भूख वाला पैदा हुआ है। बड़ी भूख होना अच्छी बात है। जिसे भूख न लगे वह तो बीमार है। भूख लगने पर पेट भी बड़ा हो तो सोने पर सुहागा। जिसे भूख लगेगी, वही तो खा सकेगा। जब गणेश के सिर की जगह हाथी का सिर ट्रांस्प्लांट किया गया तो यह बात नहीं सोची होगी। सिर हाथी का लग गया तो खाने की मात्रा बढ़ी। यानि भूख बढ़ी। भूख बढ़ी तो सब देवताओं से पहले उन्हें भोग लगाने का प्रावधान किया गया। गजवंदन की आरतियां गाई जाने लगीं। नतीजन आभा भी बढ़ी और साथ साथ पेट भी बढ़ा।

अंधे लोग हाथी की व्याख्या अपने अपने ढंग से करते हैं। वे उसके विभिन्न अंगों को ही पूरा का पूरा हाथी मान बैठते हैं। सच्चे भी हैं, हाथी का एक छोटे से छोटा अंग भी दूसरों के सांगोपांग होने से बड़ा है। तभी कहते हैं हाथी के पांव में सब का पांव। हाथी कहीं पांव रख दे तो औरों को रखने की गुंजाइश ही नहीं रहती। या यूं कहें कोई दूसरा रखने की हिम्मत ही नहीं कर सकता।

संयोग देखिए, पुराने समय में भी हाथी बहुत प्रसिद्ध रहा है। महाभारत में द्रोणाचार्य को मारने के लिए किसी और जानवर का नहीं, हाथी का ही सहारा लिया गया। जो नाम उनके पराक्रमी पुत्र का था, वही एक हाथी का भी था। यानि उस समय हाथी का नामकरण मनुष्य की तरह ही किया जाता था। और हाथी भी इतना प्रसिद्ध कि उसे कौरव पाण्डव दोनों जानते थे। अश्वत्थामा नाम के हाथी को मारने की ख़बर पूरी सेना में फैला दी गई। सत्यवादी और धर्मराज युधिष्ठिर भी अश्वत्थामा के हाथी होने की बात चतुराई से दबा गए। फलतः आचार्य द्रोण ने हथियार फैंक दिए।

अब खाने के लिए अनेकानेक सामग्रियां उपलब्ध हुई हैं। पहले तो दो वक्त की रोटी ही होती थी। रोटी—सब्जी या दाल—चावल। अब तो पीजा है, बर्गर है। पीने के लिए कोक है, पेप्सी है। पांच रूपये का समोसा खा कर तो पेट ऐसा भर जाता है कि और कुछ खाने की इच्छा नहीं रहती। खाने के लिए दूसरी चीजों की जरूरत रहती है जिससे हाजमे पर असर न हो और आन्नददायक भी रहे। इसलिए जानवरों की फीड से ले कर रेत सीमेंट जैसी ठोस वस्तुओं के अलावा टेलिफोन, मोबाइल जैसी अमूर्त वस्तुएं भी उपलब्ध हैैं।

खाते समय कोई नहीं देखता। वैसे भी भारतीय सब के सामने नहीं खाता। वह छिप कर खाता है। वह परदे में खाता है ताकि कोई देखे न। इसी संस्कार ने उसे चोरी छिपे खाने की आदत डाली। यह पुरानी आदत रंग लाई और आज के युग में एक योग्यता बन गई। हल्ला तभी मचता है जब कोई खा पीकर, हजम कर टहलने निकलता है। उसने क्या खाया, इसका गवाह कोई नहीं होता। बस अंदाजे लगाए जाते हैं। अटकलें लगाई जाती हैं। हाथी की तो बात ही और है। उसके खाने के दांत और हैं, दिखाने के और। कोई अंदाजा नहीं लगा सकता कि कैसे खाया और कितना खाया।

भौकने वालों की भी एक जमात है जो यह सब कहीं न कहीं से सूंघ लेती है और भौंकना शुरू कर देती है। किसी ने बोटी फैंक दी तो भौंकना छोड़ उसी में मशगूल हो जाना भी इनकी फितरत है। किसी ने कहा है न कि जितनी बीमारियां हैं, उतने ही ईलाज भी हैं।

इसीलिए कुत्ते भौंकते रह जाते हैं और हाथी निकल जाता है।

094180—85595 ‘‘अभिनंदन‘‘ कृष्ण निवास

0177—2620858 लोअर पंथा घाटी शिमला—171009