देवता नहीं है Sudarshan Vashishth द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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देवता नहीं है

देवता नहीं है

कहानियां

सुदर्शन वशिष्ठ

परेशान हो गए देऊ पड़ासर।

वह सिर पर हाथ रखे पूरे जोर से चिल्लाया : ‘‘देऊआ पड़ासरा...तैं बुरी कित्ती।‘‘

उसके रूंधे गले से कुछ वैसी ही आवाज निकली जैसे चिता का उलटा फेरा ले कर बेटी को दाग देने के बाद सिर पर हाथ रखे पूरे जोर से चिल्लाया था :

‘‘हाय बो! मेरिये बेटड़िए!!‘‘

उसकी आवाज शिखरों से टकराती हुई गहरी घाटियों में विलीन हो गई। जैसे बेटी को दी अंतिम करूण हांक अम्बर में खो गई थी। चीख में गहरी संवेदना के साथ आक्रोश भी था। उसकी मुद्रा एक सजायाफ्‌ता फरियादी की तरह थी, एक सवाली की तरह थी। उसकी चीख ही नहीं, पूरी कमजोर काया एक सवालिया निशान की तरह थी, टांगों से सीधी, धड़ से घुंडीदार, मुड़ी तुड़ी। कपड़े भी वैसे ही, पुरानी काली पड़ी ऊनी सुथ्थण, पैबंदों भरा कोट।

चीख सुन सहम गये देऊ पड़ासर..... यह क्या हुआ!

देवता का रथ एकबारगी हिला। रथ के ऊपर शोभायमान चांदी के छत्र झन्न! झन्न!! बज उठे। और रथ एकाएक तेज़ी से दौड़ता हुआ, भीड़ को चीरता दूर निकल गया।

रथ के चारों ओर एकत्रित जनसमुदाय अवाक्‌! सभी ग्रामीण अपने अपने मन में कोई न कोई प्रश्न ‘पूछ‘ डालने के लिए पहाड़ की तलहटियों में बसे गांवों से इकट्‌ठा हुए थे। आज पूछ का दिन था। देवता के पुजारी, गूर, और दूसरे कारिंदे ठगे से खामोश खड़े रह गये।

देवता पराशर की फागली में प्रातः ही देवता का रथ सजा कर देवता की सौह अर्थात्‌ प्रांगण में लाया गया था। रथ में देवता के मोहरे सजाने और रंग गिरंगे कपड़े लगाने से देवता एकदम जीवंत हो गया था। अट्‌ठारह सोने के मोहरे देवता के कुर्सीनुमा रथ में एक एक कर सजाए गये।

पहाड़ की सब से ऊंची चोटी पर सौ वर्ष की उम्र से कहीं ज्यादा बूढ़े देवदारूओं से घिरा देवता का स्थान। यहां से नीचे आसपास के बीस पचीस गांवों में देऊ पड़ासर का शासन। पुजारी, गूर, कारदार, बजंतरियों समेत एकावन कारिंदे। चोटी पर ओर चारों ओर के पहाड़ों पर ताजा सफेद बर्फ गिरी थी। प्रांगण में बर्फ की हलकी परत छाई हुई थी जैसे देवता के आगमन के लिए सफेद चादर बिछाई गई हो। फागुन में, फागली के मेले में हर साल ऐसा ही होता है। उधर देवता का उच्छव आता है और इधर देवता के निकलने की रात बर्फ गिरती है। देवता बर्फ के साथ आते हैं और यह आने वाले साल के लिए अच्छी निशानी है।

फागुन में देवता स्वर्ग से लौटते हैं। इससे पहले माघ मास में वादी के सब देवता मंदिर सूना छोड़ स्वर्ग गए होते हैं। वहां इन दिनों ये कई युद्ध लड़ते हैं जिनमें देवता सेनापति होता है। इस बीच देवता का कोई उच्छव नहीं होता। जब देवता ही थान में नहीं है तो उच्छव कैसा! देवता की अनुपस्थिति में भूत—पे्रत, डायनों और शैतानी ताकताें का राज हो जाता है।

फागुन में देवता धरती पर वापिस लौटते हैं। धरती पर आने पर वे अपनी स्वर्ग की यात्रा, वहां किए पराक्रम के किस्से प्रजा को सुनाते हैं और आगामी वर्ष के लिए भविष्यवाणियां करते हैं। क्या अच्छी बर्फ गिरेगी, अच्छी बारिश होगी, अच्छी फसल होगी, सुख शान्ति रहेगी या दैवी प्रकोप होंगे, प्रजा में अनाचार, व्यभिचार बढ़ेगा, बाड़ ही खेत को खाएगा या रक्षा करेगा... आदि आदि। ग्रामीण भी अपना व्यक्तिगत भविष्य जानने के लिए आज संक्रान्ति के दिन मेले में आ जाते। देवता से अपने सुख दुख के बारे में बात करते।

.....क्या सच में ही लौट आए हैं देऊ पड़ासर......कभी कभी आशंका होती चेपाराम को।

पुजारी ने देवता के रथ में सजे अट्‌ठारह मोहरों को धूपित किया। बड़े धड़छ में अंगारों के बीच बेठल की पत्तियां डालीं और देवता के आगे, ऊपर से नीचे घूमा कर धूपित किया। देवता के रथ के सामने तीन गूर बर्फीली जमीन कर पालथी मार बैठ गए। उन्होंने पूछ देने के लिए अपनी हथेलियों में चावल के दाने लिए ही थे कि कहीं से चेपाराम बड़बड़ाता हुआ आया और देवता से दूर, किंतु ठीक सामने खड़ा हो गया। देवता को एकटक देखता हुआ बुदबुदाता रहा। देर तक बुदबुदाते हुए उसकी देवता से बहस जारी रही। जैसे वह कुछ पूछ रहा था। और देवता उसे उत्तर दे रहा था। फिर एकाएक ऊंचे स्वर में बोलता हुआ वह देवता से लड़ाई करने लगा। कभी कभी तैश में आकर देवता को फटकारा भी। अंत में बर्फ में घुटनों के बल बैठ कर जोर से चीखाः ‘‘ देऊआ पड़ासरा..... तैं बुरी कित्ती।‘‘

उसकी आंखें अंगारे सी लाल थीं। लोगों ने सोचा, रात ज्यादा लुगड़ी पी ली है, जिस का असर अभी भी नही गया। अभी भी ये बहका हुआ है। वैसे लुगड़ी की बू सब के मुंह, शरीरों से आ रही थी। रात सब के घरों में दाल वाली बेड़वां रोटियां तली गई थीं और सब को केतली में लुगड़ी परोसी गई थी। कुछ अच्छे घरों में जौ की शराब भी बनाई गई थी, बड़े घरों में अंगूरी निकाली गई थी।

वह देवता के प्रति आक्रामक हो गया। देवता के कारिंदे उसे टालना चाह रहे थे। वह टस से मस नहीं हो रहा था। दूर से ही उसका देवता से संवाद जारी था। जब वह देवता के करीब आने को बेकाबू होने लगा और जोर से चीखा, तभी देवता के ढोल नगाड़े बज उठे। शहनाई गूंजी, रणसिंगा बजा। उसकी आवाज नगाड़ों के शोर में डूब गई। देवता को उठाने वाले युवक एकदम हरकत में आ गए। उन्होंने फुर्ती से रथ को उठाया। देऊ पराशर ने वहीं रूके रहने के लिए भार डाला। पूरी शक्ति लगाई देऊ पड़ासर ने। या तो देऊ पड़ासर शक्तिहीन हो गए थे या उन्हें उठाने वाले छोकरे ज्यादा ताकतवर हो गए थे। उन्होंने विपरीत दिशा में जोर लगाया। देवता के छत्र झन्न! झन्न!! झन्न!!! से बज उठे और रथ जैसे दौड़ता हुआ दूर निकल गया और मेले का चक्कर लगाने लगा।

वह ठगा सा वहीं जम गया.... देवता दोबारा यहीं आएगा। लोगों को पूछ तो देगा ही। अंत में ही सही, वह भी सवाल करेगा। पहले तो ठाकुरों की बारी आएगी। फिर प्रधान। फिर गांव के दूसरे मोहतबर लोग। उन लोगों की बारी तो अंत में आएगी। वे एक सीमा तक ही देवता के करीब जा सकते हैं। हालांकि उनका बाजा हमेशा देवता के साथ रहता है। बाजे के बिना देवता गर्माता नहीं। वे आवाहन की धुन बजाते रहते हैं देर तक। तब कहीं जा कर देवता गर्माता है और गूर में प्रवेश करता है। नहीं तो गूर ठण्डे हो पड़े रहते हैं। कई बार उनकी सांसें फूल जाती हैं, हाथ ढोल पीटते पीटते थक जाते हैं। देवता में जीव नहीं आता। गूर आंखें बंद किए निश्चल बैठे रहते हैं। जब देवता गर्माता है, तभी गूर कांपते हैं।

वह वहां बैठा बैठा रोने लगा। उसका शरीर थर थर कांप उठा। अब उसे ठण्ड भी लगने लगी थी। पैर एकदम बर्फ हो गए। वह नगाड़े की तरह चोट पड़ते ही अंदर के खोखलेपन में गहरे तक कांप गया। नगाड़े की तरह उसका बाहरी चमड़ा पतला पड़ गया था।

उसे अपनी बेटी की कोमल देह दिखने लगी जो व्यास के बर्फीले पानी में फूल गई थी। जब तीसरे दिन किसी ने उसे व्यास के किनारे लगा देखा तो हेस्सियों के पूरे गांव में हाहाकार मच गया। पत्नी तो सुन कर बेहोश हो गई और दरिया तक जा ही नहीं पाई। हौंसला रखा चेपाराम ने और अपने साथियों सहित व्यास के किनारे जा पहुंचा।

सभी मरद व्यास के किनारे पहुंचे तो परेशान हो गए। उमा की देह दरिया के किनारे आ लगी थी। जैसे दरिया ने जोर से धक्का मार उसे बाहर निकाल फैंका था। चेपाराम ने झट से अपने फटे कोट से उमा की देह ढक दी। उसके शरीर पर नीले निशान थे, जैेसे किसी ने मारा काटा हो। फूल सा चेहरा फूल कर बिगड़ गया था।

वह सिर पर हाथ रखे वहां बैठा जैसे चेतना शून्य हो गया था। मन ही मन तुरंत ही वहीं व्यास के किनारे उसे अग्नि देने की ठान ली थी कि किसी ने पुलिस को खबर कर दी।

बस फिर क्या था। घण्टे भर में पुलिस के दो सिपाही वहां आ धमके। उल्टे मंजे पर डाल उसे पहले पुलिस स्टेशन, फिर अस्पताल ले जाया गया।

इस सारी कार्रवाई में वह ठाकुर के लड़कों को पहचानना नहीं भूला जो पुलिस, अस्पताल में आसपास मंडराते रहे। बड़ा लड़का अब की बार एमएलए हो गया था। अफसर लोग खुद आगे आ कर एमएलए को सलाम बजाते हुए गुफ्‌तगू कर रहे थे और मिनट मिनट की ख़बर दे रहे थे। एमएलए और छोटे सरकार बार बार आ कर उसे दिलाया भी देते :

‘‘ तू चिंता न कर चेपाराम! सब ठीक हो जाएगा। हम सब सम्भाल लेंगे।‘‘

मेडिकल रपट में मौत पानी में डूबने से बताई गई।...शायद पैर फिसल गया होगा। उसके शरीर और मन में लगे चोट के निशानों का कोई जिक्र नहीं हुआ।.... अरे! वह तो सदा व्यास की लहरों से खेलती थी.....वह पानी में क्या गिरेगी, वह तो कईयों को पार लगा दे, इतनी शक्ति थी उसमें, चिल्लाया चेपाराम।

''रहने दे चेपाराम! अपनी इज्जत अपने पास ही रहने दे। ऐसे समय कुछ न बोल..... दरबार और सरकार से टक्कर लेना आसान नहीं।‘‘ प्रधान ने समझाया। पुलिस स्टेशन से वापसी पर ठाकुर के छोटे सरकार ने दस हजार डाल दिए चेपाराम की जेब में.... रख ले अब निपटारा तो करना ही होगा....पुलिस, कोर्ट कचहरी से हम निपट लेंगे।

पुलिस, अस्पताल, पूछताछ,... कब गई थी, कहां गई थी, क्यों गई थी, क्या घर में झगड़ा हुआ...आदि आदि। सभी अजीब से मुसकान के साथ बार बार सवाल करते। पूरा दिन लगा गया.... उसकी मिट्‌टी खराब कर दी हरामजादों ने.... वापसी पर शाम हो गई। सूरज की किरणें पहाड़ की चोटी को छू रही थीं जब वहां शोक धुन बजी। गांव की औरतों ने वहीं पर्दा कर अंतिम स्नान कराया। व्यास के किनारे दाग देते हुए सिर पर हाथ रखे वह जोर से चिल्लाया था :‘‘ हाय बो! मेरिए बेटड़िये!!‘‘

उसकी आवाज पार की पहाड़ी से टकराती हुई दूर तक गूंजती विलीन हो गई। चिता में देवदार के हरे पत्ते तिड़ तिड़ कर जलने लगे। उसकी आंखों के सामने उमा व्यास के किनारे लहरों की तरह उछलती कूदती दिखाई देने लगी। इसी साल उसका ब्याह करने जा रहा था। झर झर आंसू बह निकले चेपाराम की आंखाें से। पल भर को लगा, व्यास का पानी उसी की आंखों से बह रहा है लगातार.....लगातार।

चेपाराम की घर वाली बड़े ठाकुर की हवेली में काम करती थी। ब्याह के पहले दिन से ही वह वहां जाने लगी। सभी वहां जातीं थीं, कामकाज के सिलसिले में, कोई नई या अनोखी बात नहीं थी। पुराने समय में तो इलाके में जिस भी आदमी का ब्याह होता, उसकी घर वाली को पहली रात ठाकुर के हवेली मे बितानी होती। यही रीत थी। पिछले पचासेक बरसों तक यह रीत कायम रही। धीरे धीरे समय बदला। ठाकुर ठाकुर नहीं रहे। लोग स्वतन्त्र होते गये। उन्होंने विद्रोह भी किया। किंतु उस जैसे निचले तबके के लोग खुलेआम विद्रोही नहीं हो पाए। चोरी छिपे यह सिलसिला चला रहा। फिर भी बड़े ठाकुर भले आदमी थे। निर्दयी नहीं थे। उन लोगों के नाम जमीनें करते रहे। कुछ जमीनें देवता से मिलीं जो मुजारा कानून के तहत उनके नाम हुइर्ं। चेपाराम की घर वाली उसकी ही घरवाली बनी रही। वह बेटी उमा को भी कामकाज के लिए हवेली ले जाने लगी। दोनों मां बेटी कामकाज के बाद वापिस लौट आतीं थीं। किंतु चार दिन दिन पहले जब मां वापिस आई तो बेटी नहीं लौटी। एमएलए साहिब और छोटे सरकार ने उसे काम के बहाने रोक लिया। चेपाराम ने पूछा तो मां ने टाल दिया। और तीसरे दिन दरिया ने उसे बाहर निकाल फैंका।

एकाएक उठ खड़ा हुआ चेपाराम और पुनः जोर चिल्लायाः ‘‘देऊआ पड़ासरा......!''

देवता वहां नहीं था। देवता का रथ अब एमएलए की अगुआई के लिए मेले के गेट पर खड़ा था।

लगभग एक घण्टे बाद देवता का रथ पूरे जुलूस के साथ आ गया और पुनः वहीं रख दिया गया। सभी लोग आसपास बैठ गए। एमएलए, उसका छोटा भाई, प्रधान और गांव के मोहतबर लोग।

पुजारी ने मन्त्रोच्चारण के साथ देवता की पूजा की। एमएलए और दूसरे खास खास लोगों से पूजा करवाई। गूरों ने अपने अपने धड़छों में ताजा धूप डाल देवता को धूपित किया। ढोल नगाड़े बज उठे।

रथ में सजे मोहरों से निकल देऊ गूर के शरीर में घुसने को आतुर हुआ। अचानक एक गूर का शरीर ऐंठने लगा। वह थर थर कांपने लगा। उसका अंग अंग थरथरा उठा। आंखें बाहर को निकल आईं। हाथों में पकड़े धड़छ से आग के अंगारे उसके नंगे पांवों पर गिरने लगे। गूर ने दांत दबा आंंखें भींच लीं। धीरे धीरे वह शांत हो गया। इसी तरह दूसरे और तीसरे गूरों में भी एक बार कंपकंपी आई और शांत हुई।

इसके बाद वरिष्ठ गूर ने अपने हाथ में चावल लिए और पूछ का सिलसिला आरम्भ हुआ। वह सबके हाथ में चावल के दाने देने लगा। सब से पहले एमएलए को चावल दिए गए। गिनती करने के बाद चावल फैंक दिए गए। ऐसा तीन बार हुआ। चौथी बार चावल की सही संख्या आने पर एमएलए को मुट्‌ठी बंद करने को कहा। गूर ने अब बोलना शुरू किया :

‘‘ शासन में सुख शान्ति रहेगी... अच्छी फसल होगी... आपका ओहदा बढ़ेगा।'' कुछ ऐसी ही बातें छोटे सरकार और प्रधान को बताई गईं।

एक एक करके सभी गांव वाले पूछ ले चुके। एक बार फिर बजा बज उठा।

अब ‘गूर खेल‘ की बारी आई। सभी गूरों ने अपने चोगे उतार कर कमर में लपेट लिए। हाथों से धड़छ लिए गूरों ने सभी दिशाओं में नमन किया और नृत्य करने लगे। इसके बाद संगल और फिर कटार ले कर नृत्य हुआ। लोहे के संगलों को अपनी पीठ पर मारते हुए वे नाच रहे थे। इस बीच देवता का बाजा एक खास धुन में बजता रहा।

चेपाराम घर से अपना इकलौटा मेमना, जो बेटी ने पाला था, देवता को चढ़ाने के लिए ले आया था। मेमने को घरवाली से छीन कर अपने कोट में छिपा रखा था। मेेमना बार बार छोटा सा मुंह बाहर निकालता और में में करता, वह उसे भीतर ठूंस देता।

उस ने प्रधान से गुहार की कि उसकी भी पूछ लगवाए। प्रधान ने तर्क दियाः ''भैया! जब तुम्हारे साथ हादसा हुआ, देवता तो यहां था ही नहीं। तूझे पता है वह स्वर्ग गया हुआ था। यदि देवता यहां होता तो उसे छूत नहीं लग जाती। फिर भी छोटे सरकार ने बरसात में होने वाले काहिका यज्ञ करवाने का सारा खर्चा उठाने का वादा किया है। उसमें प्रायश्चित भी करेंगे.... तू सब्र कर। अपने कुल की मर्यादा मत तोड़। तूझे कहीं डण्ड न देना पड़ जाए।‘‘

ज्ञात है चेपाराम को जब गांव में शराब के नशे में एक लड़के से खून हो गया था तो गवाहों के अभाव में वह कचहरी से बरी हो गया। किंतु देवता को पता था कि खून हुआ है अतः देवता को छूत लग गई थी जो प्रायश्चित के यज्ञ काहिका में छिदरा करने पर ही दूर हो पाई। उसकी बारी ऐसा क्यों नहीं हो रहा!

देवता के कृत्य पूरे होने को आए। उसकी पूछ की बारी नहीं आई।

देवता के थान के पीछे मोटे मोटे चर्बी से भरे भेडे और बकरे काटे जा रहे थे। लोग पहले देवता के नाम का पानी छिड़कते। जब भेडा पानी झाड़ने के लिए पूरी ऊन को झाड़ता, उसी क्षण उसकी गर्दन धड़ से अलग कर दी जाती। आज के भोज के लिए इन्हें पकाना तो था ही, लोग देवता को चढ़ा कर पुण्य फल लेना भी नहीं भूल रहे थे।

वह एकाएक गया और दूसरे ही क्षण लगभग दौड़ता हुआ वापिस आ गया। उसने दूर से हांक लगाई :

‘‘देऊआ! मेरी भी सुण.... एह न्यां नी हूआ!‘‘

चेपाराम ने फुर्ती से मेमने की गर्दन से निकला गरम गरम ख़ून वरिष्ठ गूर के मुंह में लगा दिया। किसी को उसे रोकने की हिम्मत नहीं हुई। अपने एकमात्र मेमने का गरम गरम कलेजा देवता के सामने पत्थर पर रख दिया। कलेजे में तड़पन थी और गरम गरम भाप निकल रही थी।

उसकी हांक में इतना दम था कि वरिष्ठ गूर सहम गया। वह दूर खड़ा जैसे ललकार रहा था। गूर उसके उग्र रूप और तड़पते कलेजे को देख सहम गया। जैसेे अपना ही कलेजा निकाल पत्थर पर धर दिया था चेपाराम ने।

वरिष्ठ गूर का वदन थरथर कांपा। उसकी आंखें जैसे बाहर को निकल आईं। अपने लम्बे केश खोल दिए और तेजी से सिर घुमाने लगा। चेपाराम की सवालिया निशान बनी देह टेढ़ी हुई जा रही थी। उसकी कमजोर काया में भी जैसे देवता आ गया था। एमएलए और छोटे सरकार के चेहरे मुरझा गए। उनकी लाल डोरे वाली और गहरी आंखों में इस समय रौब नहीं था, एक विनय और बेचारगी का भाव था। वे एकदम ख़ामोश हो गूर को देखने लगे।

गूर के मुंह से झाग निकला, फुसफुसाहट हुई। कोशिश करने पर भी वह कुछ स्पष्ट नहीं बोल पाया। उसकी आंखों से टप्‌ टप्‌ पानी झरने लगा। मुख से कुछ नहीं बोल पाया गूर और एक बार जोर से कांप कर धीरे धीरे वहीं ढेर हो गया। बाजा बंद। लोग किंकर्त्तव्यविमूढ़।

हैरान और परेशान हो गए देऊ पड़ासर। छत्र बज उठे : झन्न! झन्न!! झन्न!!

पत्थर पर नरम नरम और गरम गरम, नन्हा सा कलेजा, अभी भी रह रह कर कांप रहा था।

94180—85595 ‘‘अभिनंदन'' कृष्ण निवास लोअर पंथा घाटी शिमला—171009

सुदर्शन वशिष्ठ

जन्म : 24 सितम्बर, 1949. पालमपुर हिमाचल प्रदेश (सरकारी रिकॉर्ड में 26 अगस्त 1949)।

125 से अधिक पुस्तकों का संपादन/लेखन।

नौ कहानी संग्रह : (अन्तरालों में घटता समय, सेमल के फूल, पिंजरा, हरे हरे पत्तों का घर, संता पुराण, कतरनें, वसीयत, नेत्र दान तथा लघु कथा संग्रह : पहाड़ पर कटहल)।

चुनींदा कहानियों के चार संग्रह : (गेट संस्कृति, विशिष्ट कहानियां, माणस गन्ध, इकतीस कहानियां)।

दो लघु उपन्यास : (आतंक, सुबह की नींद)। दो नाटक : ( अर्द्ध रात्रि का सूर्य, नदी और रेत)।

एक व्यंग्य संग्रह : संत होने से पहले।

चार काव्य संकलन : युग परिवर्तन, अनकहा, जो देख रहा हूं, सिंदूरी सांझ और खामोश आदमी।

संस्कृति शोध तथा यात्रा पुस्तकें : ब्राह्‌मणत्वःएक उपाधिःजाति नहीं, व्यास की धरा, कैलास पर चांदनी, पर्वत से पर्वत तक, रंग बदलते पर्वत, पर्वत मन्थन, पुराण गाथा, हिमाचल, हिमालय में देव संस्कृति, स्वाधीनता संग्राम और हिमाचल, कथा और कथा, हिमाचल की लोक कथाएं, हिमाचली लोक कथा, लाहौल स्पिति के मठ मंदिर, हिमाचल प्रदेश के दर्शनीय स्थल, पहाड़ी चित्रकला एवं वास्तुकला, हिमाचल प्रदेश की सांस्कृतिक संपदा।

हिमाचल की संस्कृति पर छः खण्डों में ‘‘हिमालय गाथा‘‘ श्रृंखला :देव परम्परा, पर्व उत्सव, जनजाति संस्कृति, समाज—संस्कृति, लोक वार्ता तथा इतिहास।

सम्पादन : दो काव्य संकलन : (विपाशा, समय के तेवर) ; पांच कहानी संग्रह : (खुलते अमलतास, घाटियों की गन्ध, दो उंगलियां और दुष्चक्र, काले हाथ और लपटें, पहाड़ गाथा)।

हिमाचल अकादमी तथा भाषा संस्कृति विभाग हिमाचल प्रदेश में सेवा के दौरान लगभग सत्तर पुस्तकों का सम्पादन प्रकाशन। तीन सरकारी पत्रिकाओं का संपादन।

सम्मान : जम्मू अकादमी तथा हिमाचल अकादमी से ‘आतंक‘ उपन्यास पुरस्कृत;

साहित्य कला परिषद्‌ दिल्ली से ‘नदी और रेत‘‘ नाटक पुरस्कृत। 2014 में ‘‘जो देख रहा हूं'' काव्य संकलन हिमाचल अकादमी से पुरस्कृत। व्यंग्य यात्रा 2015 सम्मान। कई स्वैच्छिक संस्थाओं से साहित्य सेवा के लिए सम्मानित।

देश की विगत तथा वर्तमान पत्र पत्रिकाओं : धर्मयुग, सारिका, साप्ताहिक हिन्दुस्तान से ले कर वागर्थ, हंस, साक्षात्कार, गगनांचल, संस्कृति, आउटलुक, नया ज्ञानोदय, समकालीन भारतीय साहित्य आदि से रचनाएं निरंतर प्रकाशित। राष्ट्रीय स्तर पर निकले कई कथा संकलनों में कहानियां संग्रहित।

कई रचनाओं के भारतीय तथा विदेशी भाषाओं मेें अनुवाद। कहानी तथा समग्र साहित्य पर कई विश्वविद्‌यालयों से एम0फिल0 तथा पी0एचडी0.।

पूर्व सचिव/उपाध्यक्ष हिमाचल कला संस्कृति भाषा अकादमी ; उपनिदेशक/निदेशक भाषा संस्कृति विभाग हि0प्र0।

पूर्व सदस्य : साहित्य अकादेमी दिल्ली, दुष्यंत कुमार पांडुलिपि संग्रहालय भोपाल।

वर्तमान सदस्य : सलाहकार समिति आकाशवाणी; हिमाचल राज्य संग्रहालय सोसाइटी शिमला, विद्याश्री न्यास भोपाल।

पूर्व फैलो : राष्ट्रीय इतिहास अनुसंधान परिषद्‌ भारत सरकार

सीनियर फैलो : संस्कृति मंत्रालय भारत सरकार।

संपर्क : ‘‘अभिनंदन‘‘ कृष्ण निवास लोअर पंथा घाटी शिमला—171009.हि0प्र0

फोन : 094180—85595 (मो0) 0177—2620858 (आ0)

ई—मेल : vashishthasudarshan@yahoo.com