मन
जब सोचा कि प्यार से मुक्त हो चुका हूँ तो फिर प्यार की सुगबुगाहट होने लगती है। वह बचपन से आरम्भ होता है। फिर हम उम्र में आ जाता है,एक यायावर की तरह है ये। लिखने को मन होता है-
"बहुत बार किसी को जोड़ता हूँ
बहुत बार किसी को घटाता हूँ
इसी जोड़-घटाने में
कभी टूटता हूँ
कभी उभरता हूँ
अनगिनत बार अक्षुण्ण हो जाता हूँ।
तुम मुझे भेद दो
या हो सके तो अभेद्य कर दो
पर गति को निर्बाध करने का
एक वचन दे दो। "
जीवन के प्रकरण बदलने लगते हैं। अपने बचपन की जगह दूसरे के बचपन प्रभावित करने लगता है। दूसरे के बचपन के क्षण आप में कुछ इस तरह से समाहित होने लगते हैं-
"नानी हवादार फ्लैट में अपनी नातिन के साथ बैठी है। नातिन आठ माह की है। नातिन को खिलौनों के साथ खेल रही है। नातिन को वह सिया के नाम से पुकारती है। खिलौनों में छोटी गुड़िया और भालू आदि हैं। कुछ देर खिलौनों से खेलने के बाद सिया दरवाजे की ओर जाने लगती है। नानी उसे बार-बार उठा कर खिलौनों के पास रखती है। जब नानी थक जाती है तो वह सिया को पुकारती है। " सियू,इधर आओ। " सिया नानी को मुस्कुरा कर देखकर आगे बढ़ जाती है, दरवाजे की ओर या रसोई की तरफ। नानी उसे गुड़िया दिखाती है। और गुड़िया को प्यार करती है और उसका चुम्बन लेती है। यह देख कर सिया नानी की ओर तेजी से आने लगती है। गुड़िया को नानी के हाथ से छीन नीचे फेंक देती है। और नानी उसे पुचकारने लगती है। उसे चूमती है। जब भी सिया दूर जाती है नानी इसी प्रकार उसे अपने पास बुलाती है। उसे यह स्वीकार नहीं की उसके हिस्से का प्यार किसी और को दिया जाय चाहे बेजान गुड़िया ही क्यों न हो।
इसे जलन कहेंगे (जैसा नानी दूसरे को बताती है) या ईर्ष्या या प्यार का आकर्षण, आठ माह के बच्चे में। "
“ सीयू एक साल चार माह की हो गयी है और कहना सीख गयी है,” ये क्या है, व क्या है?” उसे दही बहुत पसंद है। कटोरे में दही आता है तो वह कटोरे के पास जाकर कहती है, ” ये क्या है?” और चम्मच से खाते जाती है, बार-बार पूछती है, ” ये क्या है?” और खाते जाती है, इस तरह पूरा कटोरा चट कर जाती है। “
"पीहू एक साल तीन माह की बच्ची है। अभी बोलना नहीं जानती है। उसे गोद में रखता हूँ तो जिस चीज की उसे चाह होती है वह सिर हिला कर संकेत देती है। कहता हूँ ये चाहिए तो वह सिर इधर उधर को हिलाती है मतलब नहीं। फिर पूछता हूँ ये चाहिए वह सिर हिला देती है। आगे फिर कहता हूँ ये चाहिए तो वह ऊपर नीचे सिर हिला कर हाँ करती है और खुशी का इजहार करती है। जब कहता हूँ पिहू सो जा तो सिर बिस्तर या सोफे पल लटका देती है और जब तक एक- दो बार गाल को चूम नहीं देता उसी स्थिति में इंतजार करती है। ओह, प्यार और वात्सल्य कितना आवश्यक है जीवन में! जब पेट कहाँ है पूछता हूँ तो पेट पर हाथ रख देती है। हाँ,पेट भी प्यार के बाद महत्वपूर्ण होता है। "
" अब दोनों को लुकाछिपी करना अच्छा लगता है। आप थोड़ा सा छिप जाइये और फिर सामने आ जाइये, वे विशाल खिलखिलाहट के साथ आपको देखने लगते हैं। माना नयी खोज कर दी हो, एक मनुष्य की। फिर खुद छिपकर आपको ढ़ूंढने के लिए प्रेरित करेंगे। आपने उन्हें देख लिया तो फिर विशाल खिलखिलाहट और मुस्कान। "
यायावर ही तो हम सब और हमारा स्नेह। शाम होने को है, अचानक अतीत के दो प्रसंग मेरे मन को घेरने लगते हैं। मैं अतीत को ढूंढ़ने लगता हूँ।
“मेरा गांव खजुरानी,चौखुटिया (बैराठ) से लगभग पंद्रह किलोमीटर दूर है। बैराठ राजुला-मालूशाही की प्रेम कथा के लिए जाना जाता है। मेरा गांव चारों ओर से जंगलों से घिरा है। अधिकांश चीड़ के जंगल हैं। कुछ क्षेत्रों में बांज, तुन ,बुरुश आदि होता है। पहले चीड़ के जंगलों के ठेके होते थे। और दूर-दूर से लोग चिरान के लिए आते थे। उस समय व्यवसाय का एक जरिया यह भी था। पिता जी बताते थे एक बार दान सिंह बिष्ट, मालदार ने इन क्षेत्रों का ठेका लिया था। जंगलों में चिरान लगता था। पेड़ को चीरकर दार इकट्ठा किया जाता था। दार के बड़े-बड़े चट्ठे लगाये जाते थे। फिर दार की हर बल्ली पर ठेकेदार की पहिचान वाली मुहर लगायी जाती थी। दार का परिवहन मुख्यतः नदी के पानी से किया जाता था। इस क्षेत्र में बिमोयी (रामगंगा की सहायक नदी) और रामगंगा नदियों के पानी में लकड़ियों का परिवहन होता था। कहीं-कहीं पर कोरी नाइ भी लगयी जाती थी, दार को नदी तक लाने के लिए। दार से बनी परिवहन प्रणाली दिखने में सुन्दर लगती थी। बाद के वर्षों में हमने भी देखा था। उस साल दार परिवहन के समय एक दिन सुबह गांव में जिस व्यक्ति ने सबसे पहले देखा कि बाढ़ में दार बह गया है, उसने धाल लगा कर सबको कहा," ओहो, दानसिंह, मालदार का दार बह गया है। " सुनकर सभी लोग दुखी हो गये, गांव में दान सिंह , मालदार की अच्छी छवि,उदारता के कारण। स्थानी भाषा में कहते थे,," ब्हत भल ठेकेदार, मालदार छु, ब्हत भल आदिम। " तब मोटर मार्ग चौखुटिया तक नहीं था। अत: दार का परिवहन रमगंगा नदी या उसकी सहायक नदियों के जल द्वारा किया जाता था। दानसिंह,मालदार ने नैनीताल महाविद्यालय की स्थापना के समय पाँच लाख रूपये और बीस एकड़ जमीन दी थी। तब पौंड और रूपये की कीमत समान थी। “
दूसरा प्रसंग में-
“मैंने उन्हें फेसबुक पर देखा और अपने कालेज में पढ़ा देख, मित्रता अनुरोध भेजा। उन्होंने अनुरोध स्वीकार कर लिया। वे पत्रकार और फोटोग्राफर थे। मैं उनके चित्रों को पसंद करता था कभी कभी, जब फेसबुक पर पकड़ में आते थे। गरमी में महादेवी सृजन पीठ रामगढ़ (नैनीताल) जाना हुआ। मैं सृजन पीठ के ठीक नीचे खड़ा था तभी उन्हें आते देखा, सड़क पर। ज्यों ही मेरे पास से गुजर रहे थे, मैंने पूछा," आप फलाने जी हैं क्या?" वे बोले हाँ। फिर मैं बोला," आपका फेसबुक मित्र हूँ। " वे बोले," फेसबुक तकनीक ने भी कैसी क्रांति ला दी है। कितने दोस्त बना दिये। अभी जल्दी में हूँ। " और हाथ मिला कर तेजी से आगे चल दिये। कार्यक्रम में उन्हें फोटो खींचते देखा। लगभग दो घंटे उस कार्यक्रम में रहा। कुमाऊं के अनेक स्थान घूम अपने निवास स्थान पर आ गया। एक दिन फेसबुक देखा तो खबर थी कि फलाने वरिष्ठ पत्रकार और फोटोग्राफर नहीं रहे। उन्होंने आत्महत्या कर ली है। पड़ोस से सीढ़ी मांगी और अगली सुबह छत्त की खूंटी से लटके मिले। आत्महत्या सम्बन्धी एक पत्र पीछे छोड़ गये थे। मुझे बहुत दुख हुआ और उनका चेहरा याद आने लगा। लगा जीवन किसी के प्रति बहुत उदार नहीं होता है। कल अचानक मेरे फोन के परदे पर उनका चित्र, संदेश के साथ दिखा तो आश्चर्य हुआ। सोचा ये तो दिवंगत हो चुके थे फिर यह संदेश कैसे? फेसबुक खोला तब पता चला शायद कोई और उनके खाते को चला रहा है! कहते हैं ना, व्हाइट हाउस में इब्राहिम लिंकन की आत्मा भटकती मिलती है,ऐसी एक धारणा है। “
महेश रौतेला