एक अनुभव-1
ओह, जीवन भी कितना अद्भुत है? कभी कुछ सोचा और वह पूर्ण हो गया। अल्मोड़ा राजकीय इण्टर कालेज में पढ़ा था 1971-73 में। डेढ़ साल पहले उसके गेट को टूटी फूटी स्थिति में देखा और एक बिल्डिंग में दरार आयी थी जहाँ गणित और हिन्दी पढ़ते थे। इंटरनेट पर वहाँ पढ़े छात्रों ने इस टूट फूट को ठीक करने की इच्छा व्यक्त की थी। मैंने भी सहयोग की इच्छा व्यक्त की थी। लेकिन कैसे की जाय, यह किसी को पता नहीं था। पहले नियम था कि राजकीय विद्यालय को धन की सहायता नहीं की जा सकती थी पर इस बार सुना कि पिछली सरकार ने संशोधन कर इस नियम को बदल दिया था।अतः अल्मोड़ा मालरोड में घूमते हुये राजकीय इंटर कालेज जाने का मन हुआ और कदम उधर बढ़ाये। ज्यों ही गेट दिखा मन प्रफुल्लित हो उठा। गेट सुन्दर रूप में चमक रहा था। बीच में आदर्श शब्द भी आ चुका है अर्थात लिखा है,"राजकीय आदर्श इंटर कालेज"।कदम पीछे मुड़ गये। जो सोचा था वह हो गया था। पता नहीं छात्र कितने अब पढ़ते हैं यहाँ? क्योंकि प्राइवेट शिक्षा उद्योग बन गयी है। नौकरी हमें सरकारी चाहिए और शिक्षा प्राइवेट।गौरव हमें प्राचीन भारत पर है और कर्म हमारे उसके प्रतिकूल हैं।
मासी के राजकीय इंटर कालेज के विषय में एक भूतपूर्व अध्यापक बताते हैं कि," उनके समय में विद्यालय में छ सौ छात्र थे।अब कक्षा छ,सात और आठ में कुल बीस छात्र हैं। अधिकांश लोग बच्चे के गले में टाई लटकी देखना चाह रहे हैं। और उन्हें पढ़ाने वाले कक्षा दस या बारहवीं पढ़े होते हैं।।"बहरहाल, छानी गांव गया। वहाँ भी लोगों की पलायन की बात थी।कई घर खाली पड़े थे और रास्ते टूटे फूटे।महिलाएं जो मिलीं वे जीवंत लग रही थीं सभी कठिनाइयों के बीच। सोमनाथ का मेला चल रहा था, पहले से बहुत छोटा।मासी का बाजार पहले से बहुत बड़ा हो चुका है, सुन्दर भी।सुबह छ बजे हम गाड़ी में बैठे, रानीखेत के लिये।ड्राइवर लगभग तीस साल का होगा।बहुत खुश मिजाज था।छानी के पुल पर उसको पढ़ाने वाले अध्यापक उतर गये,तो वह बोला," ये हमारे गुरु जी थे।कक्षा में मुर्गा बना देते थे।हम पहले कक्षा की अन्तिम पंक्ति में बैठते थे। गुरु जी रोज अंग्रेजी के पांच शब्द पूछते थे।नहीं आने पर मुर्गा बनना पड़ता था। फिर हम इनके घर से इनके लिये दूध लाने लगे और कक्षा में पहली लाइन में बैठने लगे। अब हमसे वे कम पूछने लगे थे क्योंकि हम दूध लाते थे। पढ़ाते बहूत अच्छा थे।" मासी चौखुटिया के बीच एक बुजुर्ग और उनकी पत्नी बैठी। उनको हल्द्वानी जाना था। उनका सामान भी हमारे सामान के साथ रखा गया, छत के ऊपर।हम चौखुटिया, द्वाराहाट, कफड़ा होते हुये रानीखेत पहुंचे।रानीखेत में जहाँ से हल्द्वानी की कारें मिलती हैं वे वहाँ उतर गये। और अपना सामान उतार लिये। हमारे बैग फिर से ऊपर छत पर रख दिये गये। हमें रानीखेत बाजार जाना था अतः उसने हमें आगे तक चलने को कहा। जब हम अपने नियत स्थान पर उतरे तो देखा कि हमारा एक बैग नहीं है उसकी जगह दूसरा बैग पड़ा है। ड्राइवर ने तुरंत किसी को फोन किया और गाड़ी लौटाई। वह कार तब तक हल्द्वानी को रवाना नहीं हुई थी। ड्राइवर ने उनको धमकाया, कहा," तुम कैसे आदमी हो जो अपना बैग नहीं पहिचानते हो?" वह आदमी पहले तो मना करता रहा फिर ड्राइवर ने डिक्की खोल कर हमारा बैग निकाला और उसका बैग वहाँ रख दिया।
एक अनुभव - 2
रामगंगा नदी अपने अपने स्वभाव के अनुरूप बह रही है। उसमें बच्चे नहा रहे हैं। महिलाएं कपड़े भी धो रही हैं। भैंसें नदी में घुसकर मई माह के सूरज की गर्मी से राहत ले रही हैं। मछलियां तैराक बनी मन को मोह रही हैं। इस बीच मुझे अपनी कविता याद आ रही है-
"ओ, नदीहमें समझाओकि तुम्हें गन्दा न करें,ओ, वृक्ष हमें बताओ कितुम्हें मिटायें नहीं,ओ,धरती हमें कहो नाकि तुम्हें दूषित न करें,ओ, हवा हमें झकझोरो कि हम प्रदूषण न फैलाएं,ओ,संस्कृति हमें बतलाओ नाकि जीवन मिटे नहीं,ओ, स्नेह हमें थपथपाओ नाकि हम नष्ट न हों,ओ, धरती हमें बुलाओकि हम संरक्षक बने रहें ।"
छानी के पुल से गांव तक लगभग तीन सौ मीटर की चढ़ाई है।गांव के दो परिवारों के बच्चे और दो बहुएं हमारा सामान लेने आ गये हैं।उन्हें मिठाई देते हैं और वे खुश हैं।हमारा खाना जिस घर में बना है वहाँ दो जुड़ुआ बहनें हैं, बिल्कुल एक शक्ल सूरत की।दोनों ने बारहवीं की परीक्षा दे रखी है।उनकी माँ कह रही है कि," अभी दोनों सत्रह साल की हैं, अठारह साल होने पर दोनों की शादी कर देंगे।" यह सुन, मुझे लगा गांव अभी बड़ा नहीं हुआ शहर की तरह।मुझे कुछ कुछ अपना जमाना याद आ रहा है।गांव वाले बंदरों से बहुत परेशान हैं।एक कुत्ता उनको हांकता है।जिस दिन हम वहां पहुंचे, उस कुत्ते को बची रोटियां हमने दी तो उसने नहीं खायी। बाद में उसने एक रोटी मुंह में दबायी और सौ मीटर दूर एक खेत में बैठ कर खा रहा था।सभ्य था।
गांव के एक परिवार ने आते समय भट, बड़ी आदि दे कर आत्मीयता दिखाई और हमें छोड़ने के लिये सड़क तक आये।सोमनाथ का मेला(कौतिक) चल रहा है।सभी में कौतिक का शौक नजर आ रहा है।लगभग दिन में सभी तीन बजे कौतिक के लिये सजने लग रहे हैं।मेला पहले से कम होता है अब।मैंने १९६९ में देखा था, तब बहुत बड़ा हुआ करता था।कौतिक में गाने बज रहे हैं।बच्चों में कौतुहल है।मासी का बाजार पहले से अधिक सुन्दर लग रहा है। एक तरफ उत्तराखंड के गांवों में पलायन है और दूसरी ओर बाजार बड़े होते जा रहा हैं।सब देख, कुछ मन में ऐसे भाव आये-
“जब आँखों से आ रहा था प्यारतो आने क्यों नहीं दिया,जब पैरों से चल रहा था प्यारतो चलने क्यों नहीं दिया,जब मन में झूम रहा था प्यारतो नाचने क्यों नहीं दिया,जब हाथों से निकल रहा था प्यारतो बढ़ने क्यों नहीं दिया,जब गीतों में आ रहा था प्यारतो गाने क्यों नहीं दिया,जब देश के लिये उठ रहा था प्यारतो फहरने क्यों नहीं दिया,जब आँखों से आ रहा था प्यारतो कह क्यों नहीं दिया?”
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महेश रौतेला