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चिट्ठी


चिट्ठी

4 सितंबर 16 को एक चिट्ठी घर के दराज में मिली जो सालों पहले लिखी गयी है पर अधूरी है।अब तो चिट्ठी का समय खत्म सा हो गया है। चिट्ठी लिखी गयी है पर भेजी नहीं गयी है। चिट्ठी के संदर्भ में लिखी कविता कहने को मन हो रहा है-"
अभी लिखी नहीं गई
चिट्ठी प्यार की,
कहा नहीं गया शब्द
मिठास का,
हुई नहीं बात
स्नेह की।
अभी फूटे नहीं स्रोत
सत्य के,
अभी संभावना है
प्यार की, मिठास की,
स्नेह की, सत्य की।"( हमीं यात्रा हैं -संग्रह से)
चिट्ठी आरंभ होती है-
प्रिय ---
लेकिन समाप्त नहीं होती है क्योंकि दो पंक्तियां ही लिखी गयी हैं। लेकिन पत्र के अन्तिम भाग में तुम्हारा---- लिखा है। बीच की जगह खाली है।आज के एस एम एस जैसा।तब एस एम एस तकनीक नहीं थी। मन कर रहा है चिट्ठी की खाली जगह को भर दूँ।प्रिय के बाद हो सकता प्रिय जोशी जी। तुम्हारा के बाद, तुम्हारा शिशिर।दूसरा विकल्प हो सकता है ,प्रिय ममता और अन्त में तुम्हारा शिशिर।या फिर
प्रिय ममता,
मैं तुमसे मिलने 24.10.1980 को आऊँगा।मुझे यह पता नहीं है कि यह पत्र तुम्हें मिलेगा या नहीं। लेकिन फिर भी आऊँगा।एक बार पूछ लेना चाहता हूँ।मन को संशय मुक्त करने के लिये।जैसे महाभारत के युद्ध में अर्जुन को कृष्ण भगवान ने संशय मुक्त किया था। फिर आगे बढ़ सकते हैं। उनका विराट रूप देखने को न मिले चाहे लेकिन किसी मूर्ति में उन्हें प्रतिस्थापित कर, एक प्रेरणा ली जा सकती है।सत्य रूप से, स्नेह हमारे अन्दर होता है लेकिन उसे व्यक्त करने के लिये दूसरी चेतना हमें चाहिए।
एक दिन तीन माह की बच्ची से कहा।" ये अपराजिता है। ये उसका पेट है। इसमें दूध है।" वह हँस दी। हूँ, हूँ करके।आगे यह कहानी हो जायेगी-," ये अपराजिता है। ये उसका पेट है। इसमें खाना व भूख है।" और आगे यह कहानी हो जायेगी-," ये अपराजिता है। ये उसका पेट है। इसमें गैस एवं अपच है।" कहानी ऐसे ही रूप बदलते जायेगी।
अपराजिता चार साल की हो गयी है तो उसे कहता हूँ कि," एक शेर था और एक बकरी। एक बार जंगल में दोनों की भेंट हो गयी। शेर बोला," मुझे प्यास लगी है, मेरे लिये पानी लाओ।" अपराजिता बोली कि," शेर को भूख नहीं लगती है, भूख लगती है शिकार की।" मैं सहमत हो जाता हूँ। हाँ तो शेर बकरी से कहता है कि," मुझे भूख लगी है। तुझे मरना होगा।" बकरी डर गयी और बोली," मैं घास चर कर आती हूँ जब खूब मोटी-ताजी हो जाऊँगी तो फिर मुझे खाना।" बकरी घास चरते-चरते दूर चली गयी। इधर शेर प्रतीक्षा करता रहा और उसे नींद आ गयी वह सो गया।" इतना सुनते ही अपराजिता सो गयी।

चिट्ठी आगे:
सात साल की अपराजिता को नदी पर ले जाता हूँ।पहाड़ी नदी।कलकल बहती। अच्छा खासा बहाव लिये।मन को मोहती।इतनी ठंडी की छूते ही शरीर में कपकपी छाने लगती है।पानी इतना साफ कि नदी का तल दिखाई देता है।मछलियां दौड़ती हुई नदी के पत्थरों में छिपने के लिये आतुर हैं। अपराजिता पहली बार इन अद्भुत दृश्यों को देख रही है।वह चौंक कर बोलती है," इतना साफ पानी!" और उससे खेलने लगती है। मैं उससे कहता हूँ कि," लगता है ना, जल ही जीवन है।" और सुनाता हूँ-
"पानी जिन्दा लगता है
समुद्र में चलते
उछलते-कूदते, गरजते,
उड़ते हुए, ओस में ढलते
बर्फ बनते, बादलों में सरकते
जिन्दगी को गीला करते
गले से नीचे उतरते
आँसुओं में झड़ते
नदियों में बहते,ताल में रहते
वृक्षों को सींचते
बरसात में बरसते।
पानी जिन्दा लगता है
तुम्हारी, मेरी तरह।"
वह सुनती नहीं।उसका पूरा ध्यान साफ पानी के अद्भुत बहाव पर है। वह उसे थपथपाने लगती है।उसे चलने को कहता हूँ तो वह मना करती है।थोड़ी देर बैठता हूँ जब वह बार-बार मना करती है तो कहता हूँ देखो," उन झाड़ियों से बाघ आ रहा है।" डर में सहमी वह दौड़कर आ मुझसे लिपट जाती है।
हम एक ऊँचे पत्थर पर जाकर बैठ जाते हैं।उसको बोलता हूँ बाघ अब यहाँ नहीं आ सकता है।वह आश्वस्त हो जाती है।मेरे साथ वह सुरक्षित महसूस करती ही।एक आभासी आवरण में,जिसके बारे में मैं ही जानता हूँ।वह फत्थर पर इधर-उधर दौड़ने लगती है।अतः गिरने का डर बना रहता है।उसे पकड़ कर बैठाता हूँ। मैं उससे गणित का प्रश्न पूछता हूँ कि एक गाय की कीमत 200 रुपये है तो पाँच गाय कितने में आयेंगी। वह चुप हो जाती है, जैसे मैंने उसकी उन्मुक्त स्वतंत्रता छीन ली हो।फिर अंताक्षरी खेलने के लिये कहता हूँ, तो वह खुश हो जाती है।मुझे कक्षा एक में पढ़ी कविता याद आती है-
" उठो लाल अब आँखें खोलो,
पानी लायी हूँ मुँह धो लो,
बीती रात कमल दल फूले,
उनके ऊपर भौंरे झूले..।( द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी)"
वह बोली," हठ कर बैठा चाँद एक दिन, माता से यह बोला,
सिलवा दो माँ मुझे, ऊन का मोटा एक झिगोला..।(दिनकर)"। मैंने बोला "ल" से बोलना है।
" लाल, हरे, बैगनी, बसंती..।"
पर्वतों से घिरे, हम उस प्राकृतिक सौन्दर्य का आचमन कर रहे थे।साथ ही मनुष्य होने की रचनात्मक उर्जा को उसी प्रकृति में बिखेर रहे थे।(क्रमशः)
चिट्ठी आगे-
अपराजिता बड़ी हो गयी है, इतनी बड़ी की उसे परियों की और राजा-रानी की कहानियां अच्छी लगने लगी हैं।परियां जो आसमान से उतरती हैं।खुश रहती हैं और खुश रहना सीखाती हैं।
एक लड़का था। वह जंगल में गाय चराने जाता था साथ में खाना बनाने के लिये लड़की काट कर लाता था।कभी लकड़ियां मिलती और कभी नहीं। एक दिन जंगल में उसे एक परी मिली।परी ने कहा कि," तुम कोई वरदान मांगो।" लड़का बोला," मुझे रोज एक गड्डी लकड़ी और गायों को पर्याप्त घास मिल जाय।" परी बोली ," ऐसा ही होगा।"
परी यह कह कर वहाँ से चली गयी।कुछ साल तक सब ठीक-ठाक चलता रहा।परी फिर आयी और उस लड़के को वरदान मांगने को बोली।लड़का ने कहा," अभी मुझे कुछ नहीं मांगना है।मैं खुश हूँ।"
मैंने अपराजिता से पूछा," यदि तुम उस जंगल में होती तो परी से क्या मांगती?" वह बोली," घर के पास बहती साफ नदी और उसके उसके किनारे घने वृक्ष।"
मैं सोचने लगा यदि मैं होता तो मेरी मांग कैसी होती?
शायद मैं कहता," हमारे संविधान को हिन्दी में कर दे।हमारे देश का राज-काज और शिक्षा हिन्दी और भारतीय भाषाओं में कर दे।...।" (क्रमशः)

चिट्ठी आगे-
अपराजिता मेरे कंधे तक आने लगी है।वह फेसबुक पर है। उसके किसी फेसबुक दोस्त ने लिखा है कि," प्यार क्या होता है?" वह मुझसे पूछती है इसका उत्तर। मैं उसे टालता हूँ लेकिन जिद करने लगती है। मैं सोच में पड़ जाता हूँ।आँखें आसमान में टिक जाती हैं। फिर कहता हूँ ,"छोटी सी बात है।" कुछ देर सोचते रहा।फिर कहा ," जो बीस -पच्चीस साल तक हो जाय।तीस साल में वही रहे।चालीस साल में भी न बदले।पचास साल में भी दिखे।साठ साल में भी वही बना रहे,सफेद बालों के साथ।सत्तर-अस्सी -नब्बे साल में हल्की मुस्कान दे, झुर्रियों के साथ। लिखते-मिलते समय दिल की धड़कन बढ़ा दे।मिटाने पर मिटे नहीं।मिलने के लिये मीलों चले पर थके नहीं।जिसको कहने में महिने या वर्ष लग जाएं या कह ही न सकें।" वह लिख भेजती है जिस पर बहुत सी पसंदें या टिप्पणियाँ आती हैं। लगता है ललक सबकी होती है इसके लिये। लेकिन कितनी बार जीवन में हम कह पाते हैं इसे।शायद एक बार भी नहीं। इसी लिये आदि शंकराचार्य कहते हैं ,"परम तत्व इंन्द्रियों और बुद्धि से परे है।" प्यार भी वैसा ही है। जब काशी में चांडाल के भेष में शिव उनसे कहते हैं कि," जो तुम खाते हो वही मैं भी खाता हूँ और उसी से तेरा शरीर बना है और मेरा भी।जो जीव तुझमें है वही मुझ में भी है।तो तुम मेरे से भिन्न कैसे हो?" आदि शंकराचार्य की समझ में आ जाता है सत्य।वे अपने दर्शन में जीव और ब्रह्म को एक ही बताते हैं।जैसा कहा गया है,"अहं ब्रह्मास्मि।" "
नदी सा बहता रहूँ
यही तो चाहा है मैंने,
वृक्ष सा फलता रहूँ
यही तो चाहा है मैंने,
पहाड़ सा अडिग रहूँ
यही तो चाहा है मैंने,
आकाश सा दिखता रहूँ
यही तो चाहा है मैंने,
धरती सा हरा-भरा रहूँ
यही तो चाहा है मैंने।"
चिट्ठी आगे-
अपराजिता सामने बैठी है।रात के अपने सपने के बारे में उसे बता रहा हूँ। यमराज का दरबार लगा है।चित्रगुप्त बैठा है। वह आवेदन पत्र बाँट रहा है। आवेदन पत्र लम्बा-चौड़ा है। स्वाभाविक रूप से अपना नाम पहले लिखना है।मेरे पास कलम भी नहीं है।पृथ्वी पर आता हूँ और पैन लेकर जाता हूँ लेकिन वह वहाँ नहीं चल रही है।चित्रगुप्त के पास गया और समस्या बतायी। चित्रगुप्त बोले," समस्या लेकर मेरे पास मत आओ। यदि फाँर्म नहीं भर सकते हो तो चुपचाप बैठे रहो।" मेरे समीप एक सज्जन बैठे थे वे बोले," अभी धरती पर ही रहो।आवेदन पत्र समाप्त हो गये हैं।" मैं बोला इस फाँर्म में क्या-क्या भरना है?" वे बोले कि,"अपना चिट्ठा लिखना है और विचार, साथियों की आहट,समाजिक अवधारणा, भविष्य की परिकल्पना विविध विषयों को स्थान देना है।"
बातें पराभूत होने लगीं थीं।तो अपराजिता जो मेरे माथे तक आने लगी है, बोली कि," हमारे संविधान रचयिता महान कैसे हैं? अंग्रेजों से सत्ता पायी और अंग्रेजी में ही संविधान बनाया।राजकाज और शिक्षा अंग्रेजी में? चीन, जापान, रूस, फ्रांस, जर्मनी आदि देशों में ऐसा नहीं है।सभी की अपनी अपनी भाषाएँ हैं।सम्राट अशोक , चाणक्य, शंकराचार्य आदि के समय तो ऐसा नहीं था।तक्षशिला, नालन्दा जैसे विश्वविद्यालय हमारे यहाँ थे।सभी शासक अपनी अपनी भाषा लेकर भारत आये।तो हमारे वर्तमान संविधान निर्माताओं को महानता किस अर्थ में दी जानी चाहिए।ये अवसरवादी तो नहीं थे? भारतवर्ष से परे।" मैं बोला," तुम ठीक बोल रही हो।यह सब लिखना पड़ेगा और आभासी महानता में संशोधन करना होगा।कीचड़ में फूलों का खिलना आसान तो नहीं।"
फिर अपराजिता को एक लघु कथा सुनाता हूँ-
एक बार एक बड़ा मेढ़क गन्दे कुएं में गिर गया।उस कुएं में पहले से ही बहुत मेढ़क थे।मेढ़क दो गुटों में बंटे थे।इस मेढ़क ने कहा कि," कुएं का पानी सूखने वाला है अतः वर्षा के लिये प्रार्थना करते हैं।" सभी ने मिलकर प्रार्थना की और इतनी बारिश हुई की कुआं पानी से भर गया और सभी मेढ़क बाहर आ गये।बाहर आकर वे फिर लड़ने लगे और इस लड़ाई में बड़ा मेढ़क मारा गया।
चिट्ठी आगे-
सभी मेढ़क बड़े मेढ़क की शव यात्रा पर निकले।श्मशान पर सब रो रहे थे। होता ही है, श्मशान पर विचार शोक के ही आते हैं। इतने में वहाँ का बादशाह मेढ़क अपनी सेना सहित वहाँ आ गया।उसकी टर्र टर्र बाहरी थी।उसका राज काज विशिष्ट टर्र टर्र में चलता था।उसने सबको एक आवेदन पत्र थमाया जो विशिष्ट टर्र टर्र में छपा था।अन्य मेढ़क उस विशिष्ट टर्र टर्र को नहीं समझ पा रहे थे अतः सबने अँगूठा लगया।न्याय भी उसी टर्र टर्र में होता था।उधर अँगूठा सबका लगा विशिष्ट टर्र टर्र व्यवस्था को सुदृढ़ किया जा रहा था।फिर विशिष्ट टर्र टर्र व्यवस्था की जयन्ती मनायी गयी।और अँगूठा सबका काट दिया गया।विशिष्ट टर्र टर्र अनिवार्य कर दी गयी और सभी मेढ़क उसका अभ्यास करने लगे।

चिट्ठी आगे-
सभी मेढ़क बड़े मेढ़क की शव यात्रा पर निकले।श्मशान पर सब रो रहे थे। होता ही है, श्मशान पर विचार शोक के ही आते हैं। इतने में वहाँ का बादशाह मेढ़क अपनी सेना सहित वहाँ आ गया।उसकी टर्र टर्र बाहरी थी।उसका राज काज विशिष्ट टर्र टर्र में चलता था।उसने सबको एक आवेदन पत्र थमाया जो विशिष्ट टर्र टर्र में छपा था।अन्य मेढ़क उस विशिष्ट टर्र टर्र को नहीं समझ पा रहे थे अतः सबने अँगूठा लगया।न्याय भी उसी टर्र टर्र में होता था।उधर अँगूठा सबका लगा विशिष्ट टर्र टर्र व्यवस्था को सुदृढ़ किया जा रहा था।फिर विशिष्ट टर्र टर्र व्यवस्था की जयन्ती मनायी गयी।और अँगूठा सबका काट दिया गया।विशिष्ट टर्र टर्र अनिवार्य कर दी गयी और सभी मेढ़क उसका अभ्यास करने लगे।
चिट्ठी आगे-
अपराजिता उस अधूरी चिट्ठी को देखती है।मैं उससे उसे छीनने लगता हूँ।और कहता हूँ इसमें एक पहेली है जो मुझे याद नहीं। वह मुझे शंका की दृष्टि से देखती है।मैं बीच में ही बोल उठता हूँ कि," तुम इस चिट्ठी को पूरा कर सकती हो क्या?" आगे कहता हूँ पहले अधिकांश चिट्ठियां ऐसे ही लिखी जाती थीं जैसे,"अत्र कुशलम् तत्रास्तु..।" इन सब बातों के बीच वह मेरे खण्डहर होते अतीत में झांकना चाहती है।मनुष्य का स्वभाव अन्वेषी होता है।वह कभी-कभी अघटित को भी घटित करवा देता है। जैसे महाभारत में युधिष्ठिर बोलते हैं," अश्वत्थामा हतो वा, नरो वा कुंजरो वा।" हालांकि कृष्ण भगवान शंख बीच में हतो के बाद ही बजा देते हैं।और जो स्वाभाविक रूप से घटित होता, वह नहीं होता है।तो वह बोलती है," चिट्ठी में शंख किसने बजाया जो वह आगे लिखी नहीं गयी?" उसे चुप करने बोलता हूँ,"कभी-कभी मन ऐसा करवाता है।" फिर विषयान्तर कर कहता हूँ," एक बार राजदरबार लगा था, सभी राज्यों के राजकुमार और राजकुमारियां सभा में उपस्थित थे।एक राजकुमार और एक राजकुमारी एक दूसरे को देखते हैं और राजकुमार, राजकुमारी के पास जाकर कहता है," मैं तुमसे प्यार करता हूँ।" और यह कह कर चला जाता है।मैं यह कह कर रुक जाता हूँ। अपराजिता उत्सुकता से कहती है," आगे क्या हुआ?" "पता नहीं", मैं बोला। वह बोली, "आपको पता है लेकिन बता नहीं रहे हैं।" उसने कहा।

चिट्ठी आगे-
अभी अधूरी चिट्ठी मेरी जेब में है।हम रघुनाथ मंदिर में बैठे हैं।लोग आ-जा रहे हैं।कुछ लोग रामायण पाठ के लिये बैठे हैं।चिट्ठी को जेब से निकाल कर देखता हूँ और मुस्कराता हूँ। अपराजिता पूछती है," क्यों हँस रहा हूँ।" मैं कहता हूँ," इस चिट्ठी के रिक्त स्थान को कुछ विशेष बातों से भर सकता हूँ ।" जैसे-
१.एक राज्य था जहाँ बहुत चूहे थे और बिल्लियों का उन पर शासन था।चूहों की सभा अलग होती थी और बिल्लियों की अलग। बिल्लियों की भाषा म्याऊँ थी और चूहों की च्याऊँ।धीरे-धीरे चूहे माऊँ भाषा सीखने लगे और जिनको म्याऊँ भाषा आ गयी वे अपने को बड़ा समझने लगे।अब चूहों के भी दो वर्ग हो गये,च्याऊँ और म्याऊँ। एक बार अचानक बिल्लियां पेड़ों पर चढ़ गयीं और म्याऊँ चूहों ने सत्ता संभाल ली।लेकिन राज्य में म्याऊँ - म्याऊँ की गूँज खत्म नहीं हुई। म्याऊँ - म्याऊँ सिखाने के लिये नये-नये स्कूल हर बिल में खुल गये।बिल्लियां खुश थीं कि म्याऊँ - म्याऊँ की आवाज मरी नहीं।"
२." घर में बैठा हूँ।सामने दिवाल पर एक छिपकली घूम रही है।खिड़की खुली है।अचानक खिड़की से एक सुन्दर तितली आती है और वह भी दिवाल पर बैठ जाती है। छिपकली और तितली के बीच अभी बहुत दूरी है। छिपकली धीरे-धीरे तितली की ओर जा रही है। तितली छिपकली से कहती है," तुम बहुत सुन्दर और गोरी-श्यामल हो। तुम्हारा घर की दिवाल पर रेंगना मन को मोह रहा है। मैं तुमसे प्यार और स्नेह करने लगी हूँ।" उधर छिपकली के दिमाग में कुछ और चल रहा है। वह सोच रही है," कैसे तितली का शिकार कर भूख मिटायी जाय।" वह आगे बढ़ते जाती है और फिर तेजी से झपट कर तितली को निगल जाती है।तितली का पूरा सौन्दर्य उसके पेट में चला जाता है और तुरंत ही वह अगले शिकार के लिये निकल पड़ती है।"
३." रात को नीद देर से आयी। जब आयी तो धीरे-धीरे गहरी होने लगी।सपना आने लगा।रामगंगा नदी है। मछलियां तैर रही हैं। अचानक एक मछली परी बन जाती है और मैं उसके पास जाता हूँ। वह कहती है," मैं तुम्हारी इच्छाएं पूरी कर सकती हैं, दो मिनट में सोच कर बताओ।" मैं आँखें बंद कर इच्छाओं की सूची बनाने लगता हूँ। देश के लिये "सर्वे सुखिन: सन्तु," ।संसार के लिए।अपने लिये। फिर "वसुधैव कुटम्बकम" लेकिन फिर सोच में पड़ गया कि यदि पाकिस्तान जैसा देश होगा तो "वसुधैव कुटुम्बकम्" कैसे हो पायेगा? इस उलझन में समय व्यतीत होता गया।ज्यों ही आँखें खोली, इच्छायें वाचने लगा तब तक समय बीत चुका था और परी उड़ कर आकाश में ओझल हो गयी।अब अगले सपने की प्रतीक्षा में सोने का प्रयत्न कर रहा हूँ।"
चिट्ठी को मोड़ता हूँ और फिर खाली स्थान पर लिखता हूँ-
नैनीताल मेरे मन में घूमने लगा।वह गर्मियों का नैनीताल,वह बरसात का नैनीताल, वह शरद ऋतु का नैनीताल, वह जाड़ों का नैनीताल।कभी-कभी अकेला तब भी होता था लेकिन तब लगता नहीं था कि अकेले हूँ।अब जाता हूँ तो भावुकता छा जाती है।लगता है हवा में यादें हैं। हालांकि,आने-जाने वाले लोगों के लिये सब सामान्य है।भावुकता का कोई स्थायी आवास नहीं होता है।पर उसके बिना रहा भी नहीं जाता, मनुष्य होने के नाते। कह तो सकते ही हैं कि-
"तूने तपस्या अपनी तरह की
मैंने तपस्या अपनी तरह की,
यह भी सच है कि पेड़ के नीचे नहीं की,
यह भी सच है कि हिमालय में नहीं की,
यह भी सच है कि गुफा में नहीं की,
यह भी सच है कि कन्दरा में नहीं की,
यह भी सच है कि मन्दिर में नहीं की,
यह भी सच है कि तीर्थ पर नहीं की,
यह भी सच है कि भूखे पेट नहीं की,
यह भी सच है कि प्यासे नहीं की।
मैंने तप किया
किसी को मन में रख कर
किसी के मन में रह कर।"
अपना सच मैं इस चिट्ठी पर लिख सकता हूँ लेकिन ममता का सच?

***महेश रौतेला

1201 बी, पेबल बे, जनतानगर बारटीएस के पास

चाँदखेड़ा, अहमदाबाद-382424

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